( २२० ) वाला साम्राज्य-चिह्न अपने सिक्कों पर अंकित कराया था और केवल राजा की उपाधि ग्रहण की थी। उस समय उसने किसी प्रकार के राजकीय चिह्न नहीं धारण किए थे जैसा कि व्याघ्र वर्गवाले सिक्कों पर दी हुई उसकी मूर्ति से प्रकट होता है। परंतु अंत में उसने गर्वपूर्वक अपने साम्राज्य के सोने के सिक्कों पर गरुड़- ध्वज भी अंकित कराया था; और इतिहास में बहुत ही थोड़े से राजाओं को इस प्रकार अपने सिक्कों पर गरुड़-ध्वज अंकित कराने का सौभाग्य और संतोष प्राप्त हुआ है। अपना साम्राज्य स्थापित करने के उपरांत उसने अपने जो सिक्के चलाए थे, उनपर उसने हिंदू-वीर और हिंदू-आदर्श की इस प्रकार अभिव्यक्ति की थी कि उसने उनपर अंकित करा दिया था कि मैंने सारे देश पर विजय प्राप्त करके उसका शासन इतनी उतमता से किया है कि अपने लिये स्वर्गपद प्राप्त कर लिया है ( देखो ऊपर पृ० २४३ ) । वाकाटक-सम्राट के अनुकरण पर उसने संस्कृत को राजकीय भाषा बनाकर उसे अपने दरबार में स्थान दिया था और पाटलिपुत्र के साम्राज्य-सिंहासन पर आसीन होकर अश्वमेध यज्ञ किए थे। ६ ११७. क. पाटलिपुत्र से निकाल दिए जाने पर जिस समय चंद्रगप्त प्रथम या तो बहुत अधिक दुःखी होने के कारण और या युद्ध में घायल होने के कारण मरने अयोध्या और उसका लगाथा, उस समय उसने समुद्रगुप्त को, जो उसके छोटे लड़कों में से एक था, अपने पास बुलाकर नेत्रों में आँसू भरकर और अपने मंत्रिमंडल की स्वीकृति तथा सहमति से कहा था- "अब तुम राजा बनो" ( राज्य की रक्षा करो)। और इसके बाद प्रभाव
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