(१८४) शासन किया" था। यही बात बालाघाटवाले दानपत्रों में इस प्रकार लिखी है-"उसने पहले की शिक्षा के द्वारा जो विशिष्ट गुण प्राप्त किए थे, उनके कारण उसने अपने वंश की कीर्ति की रक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया था ( पूर्वाधिगतगुणविशे- पाद् अपहृतवंशश्रियः)। वह आठ वर्ष की अवस्था में सिंहासन पर बैठा था और अपने यौवराज्य काल में उसने आवश्यक गुण प्राप्त ( अधिगत ) किए थे और तब शासन का भार अपने ऊपर ( अपनी अभिभाविका से लेकर ) ग्रहण किया था ।" गुप्त साहित्य में अपहृत शब्द का इस अर्थ में बहुत प्रयोग यथा-पश्चात्पुत्रैरपहृतभारः (विक्रमोर्वशी, तीसरा अंक ) और हुआ है। १. बालाघाववाले प्लेट वस्तुतः दानपत्र नहीं है, बल्कि दानपत्र का मंसौदा है। जब कभी किसी को कोई भूमि दान में दी जाती थी, तब उसी मसौदे के अनुसार सादे ताम्रपटों पर वह मसौदा अंकित कर दिया जाता था। इसीलिये उसमें न तो किसी दान का, न दाता का, न समय का, न रजिस्टरी का [ दृष्टम् की तरह ] उल्लेख है और न मोहर का कोई चिह्न है । वाकाटक दानपत्रों में जिस देवगुप्त का उल्लेख है, उसका काल समझने में कीलहान ने भूल की थी और फ्लीट का कथन मानकर उसने देवगुप्त को परवर्ती गुप्त काल का समझ लिया था, और इसीलिये उसने उन दानपत्रों को और प्रवरसेन द्वितीय के दूदियावाले दानपत्रों को भून से पाठवीं शताब्दी का मान लिया था । [E. I. ६, २६६, E. I. ३, २६० ] । बुह्नर ने उसका जो समय निश्चित किया था, वही अंत में ठीक सिद्ध हुआ २. कीलहान ने इसे विश्वासात् पढ़ा था, पर इस पाठ की शुद्धता में उसे संदेह था। मैं समझता हूँ कि लेखक का अभिप्राय विशेषात्
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