( १७५) एक नाटक लिखा गया था जिसमें समस्त साहित्यिक आंदोलन का चित्र अंकित किया गया है। यह नाटक वाकाटक सम्राट के एक करद और अधीनस्थ राजा के दरबार में लिखा गया था और इसकी लिखनेवाली एक स्त्री थी, जिसने एक आसन से बैठकर एक बार में ही आदि से अंत तक सारा नाटक लिख डाला था और जिसके लिये संस्कृत में काव्य करना उतना ही सुगम था, जितना सुगम भास और कालिदास के लिये था। प्राचीन काव्यों की संस्कृत भाषा मानों उसकी बोल-चाल की भाषा हो रही थी। साथ ही उस समय वह राज-भाषा भी हो गई थी। भाव-व्यंजन के प्रकार और रूप आदि निश्चित हो गए थे और सभी राजकीय कर्मचारी संस्कृत में ही बातचीत करते और पत्र आदि लिखते थे। राजधानी में अथवा उसके आस-पास जितने प्रारंभिक शिलालेख आदि पाए गए हैं, वे सब संस्कृत में ही हैं। उसी समय शिवस्कंद वर्मन् के एक पीढ़ी वाद दक्षिण के राजकीय पत्रों और लेखों आदि में भी संस्कृत का व्यवहार होने लग गया था। वाकाटक लेखों आदि में वंशावली का जो रूप बराबर पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराया गया है, उससे सूचित होता है कि प्रवरसेन प्रथम के समय में ही संस्कृत में लेख आदि लिखने की प्रथा चल गई थी। समुद्रगुप्त और उसके उत्तरा- धिकारियों ने भी वाकाटक लेखन-शैली का ही ठीक ठीक अनुकरण किया है। गणपति नाग नामक एक दूसरे करद और अधीनस्थ राजा के दरबार में बहुत दिनों से चली आई हुई देश भाषा को छोड़कर फिर से प्राचीन संस्कृत में काव्य करने की प्रथा चल पड़ी थी; और भावशतक में उस नाग राज के संबंध में जो श्लोक दिए गए हैं, उन्हें देखकर प्राकृत की गाथासप्तशती का स्मरण हो आता है। (३) कौमुदी-महोत्सव से हमें इस बात का भी पता
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