(१५१) काल द्वितीय के समय में लिच्छवि-राजधानी में गुप्तों की ओर से एक प्रांतीय शासक रहने लगा था और उसकी लिच्छवियों का पतन उपाधि "महाराज" थी । इस प्रकार लिच्छवीप्रजातंत्र दबा दिया गया था और जिस समय लिच्छवियों का दौहित्र भारत का सम्राट हुआ था उससे पहले ही उनके प्रजातंत्र का अंत हो चुका था। इसके बाद हमें पता चलता है कि लिच्छवी-शासक नेपाल चले गए थे जहाँ उन्होंने सन् ३३०-३५० ई० के लगभग एक राज्य स्थापित किया था। इससे यही प्रबल परिणाम निकलता है कि जिन लिच्छवियों के संरक्षण में चंद्रगुप्त प्रथम के, सिक्के बने थे, उन्हें वाकाटक सम्राट ने सन् ३४० ई० के लगभग परास्त करके क्षेत्र से हटा दिया था। इसलिये समुद्रगुप्त के हिस्से वाकाटक राजवंश से राजनीतिक बदला चुकाने का बहुत बड़ा काम आ पड़ा था और यह बदला चुकाने में उसने कोई बात उठा नहीं रखी थी। इस प्रकार जो यह सिद्ध होता है कि सन् ३४४ ई० में या उसके लगभग प्रवरसेन की मृत्यु और समुद्रगुप्त का उदय हुआ था, उसका पूरा पूरा मिलान सभी ज्ञात तत्त्वों से हो जाता है। है. वाकाटक साम्राज्य ६७. ऊपर वाकाटकों का जो काल-क्रम हमने निश्चित किया है, है, वह चंद्रगुप्त द्वितीय के ज्ञात समयों से चंद्रगुप्त द्वितीय और मिलता है। चंद्रगुप्त द्वितीय ने एक नई परवी वाकाटक नोति यह ग्रहण की थी कि जो राज्य किसी समय उसके वंश के शत्रु थे, उनके १. फ्लीट कृत G. I. की प्रस्तावना, पृ० १३५ ।
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