(१४८ ) कि उस समय से उसने भार-शिवों और उनके उत्तराधिकारी प्रवरसेन प्रथम का प्रभुत्व मानना छोड़ दिया था और उसका खुलकर विरोध किया था। उसके सिक्के लगभग नौ तरह के ( उसके कोशल और मगध दो प्रांतों में ) हैं और इनके लिये उसका शासनकाल लगभग बीस वर्प रहा होगा। इससे भी कौमुदी-महोत्सव के इस कथन का समर्थन होता है कि सुंदरवर्मन् का छोटा बच्चा किसी प्रकार अपनी दाई साथ बचकर निकल गया था और विध्य पर्वत में जा पहुँचा था और पाटलिपुत्र नगर की सभा या काउंसिल ने उसे वहाँ से बुलवाकर उसका राज्याभिषेक किया था। और हिंदुओं के धर्मशास्त्रों के अनुसार राज्याभिषेक २४ वर्ष की अवस्था पूरी कर लेने पर होता है। कौमुदी-महोत्सव और समुद्रगुप्त के शिलालेख दोनों से ही यह बात प्रमाणित होती है कि समुद्रगुप्त से पहले एक बार पाटलिपुत्र पर से गुप्त राजवंश का अधिकार हटा दिया गया था। समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त प्रथम के सिक्कों के बीच की श्रृंखला टूटी हुई है और इसका पता ने अपने C. A. I. प्लेट ७ में, संख्या १ और २ पर दिए हैं। ये सिक्के वस्तुतः कोशलवाले सिक्कों के वर्ग के हैं; क्योंकि उस वर्ग के एक राजा धनदेवके संबंध में मैंने अयोध्या के एक शिलालेख (J. B. O. R. S. १०, पृ. २०२, २०४) के श्राधार पर यह प्रमाणित किया है कि वह कोशल का राजा था । जारवाले सिक्कों (सं० १ ) पर चंद्र गुप्तस्य लिखा है, रुद्रगुप्त स नहीं लिखा है, जैसा कि कनिंघम ने उसे पढ़ा है। इसकी शैलो बिलकुल हिंदू है और उसके लिच्छवी सिक्कों से बिलकुल भिन्न है।
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