दिया गया है और अपने स्वतंत्र राजाओं के वंश का प्रवर- सेन से आरंभ किया गया है. और इसी से यह बात प्रमा- णित होती है कि राष्ट्रीय संघटन की दृष्टि से विंध्यशक्ति एक अधीनस्थ राजा था। केवल अजंता की गुफ़ा वाले शिलालेख में (गुफा नं० १६) वंश का जो इतिहास ( क्षिति- पानु-पूर्वी ) दिया गया है, उसी में कहा गया है कि बाकाटक वंश का संस्थापक विंध्यशक्ति था-वाकाटकवंशकेतुः । इस वर्णन से यह प्रकट होता है कि विंध्यशक्ति, जिसकी शक्ति बड़े बड़े युद्धों में विजय प्राप्त करने से बढ़ी थी और जिसने अपने बाहुबल से एक नये राज्य की स्थापना की थी, जो वाकाटक वंश का केतु था और जो जन्म भर कट्टर ब्राह्मण बना रहा ( चकार पुण्येषु परं प्रयत्नम् ), वस्तुतः किल- किला के वृपों का एक सेनापति था । उसने अपने वंश की उपाधि के लिये अपने मूल निवास स्थान का जो नाम चुना था, उससे सूचित होता है कि वह एक सामान्य नागरिक था और किसी राजवंश उसका जन्म नहीं हुआ था । विंध्य तथा अपने निवास स्थान वाकाट के साथ अपना संबंध स्थापित करने में उसे देशभक्ति-जन्य आनंद होता था। स्वयं विंध्यशक्ति भी एक गढ़कर बनाया हुआ नाम मालूम होता है । जान पड़ता है कि आंध्र तथा नैषध विदुर देशों में उसने बहुत से स्थानों पर विजय प्राप्त करके उन्हें अपने अधिकार में किया था (७५, ७६ क)। ६०. जिस राजधानी में प्रवरसेन प्रथम राज्य करता था, वह चनका थी ($ २४ ); और पुराणों के वर्णन से यह प्रकट होता है कि वह नगरी पहले से ही वर्तमान थी, प्रवरसेन की बसाई हुई नहीं थी। जान पड़ता है कि यदि नागों ने उस नगरी ६
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