( ११६ ) राजा प्रवरसेन था और उसके उपरांत जितने राजा हुए, उन सबके नामों के अंत में सेन शब्द रहता था। विंध्यशक्ति का पुत्र प्रवरसेन था और आगे इसका उल्लेख प्रवरसेन प्रथम के नाम से होगा। इसने केवल चार अश्वमेध यज्ञ ही नहीं किए थे, बल्कि भारत के सम्राट की उपाधि भी धारण की थी। इसने इतने अधिक दिनों तक राज्य किया था कि इसका सबसे बड़ा लड़का गौतमी- पुत्र सिंहासन पर बैठ ही नहीं सका और इसका पोता रुद्रसेन प्रथम इसका उत्तराधिकारी हुआ। इसका पुत्र गौतमीपुत्र एक ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था; जैसा कि स्वयं उसके नाम से ही स्पष्ट है। परंतु स्वयं गौतमीपुत्र का विवाह भव नाग नामक एक भार-शिव क्षत्रिय राजा की कन्या के साथ हुआ था। उसकी इसी क्षत्राणी पत्नी के गर्भ से रुद्रसेन का जन्म हुआ था जो प्रवर- सेन प्रथम का पोता और भव नाग का नाती था। हमें इसको रुद्रसेन प्रथम कहना पड़ेगा, क्योंकि प्राचीन हिंदू धर्मशास्त्र के अनु- सार उसी वंश में यह नाम और भी कई राजाओं का रखा गया था और यह एक ऐसी प्रथा थी जिसका अनुकरण गुप्तों ने भी किया था। रुद्रसेन का पुत्र पृथिवीपेण प्रथम था और उसके समय तक इस राजवंश को अस्तित्व में आए १०० वर्ष हो चुके थे। यथा वर्प-शतम् अभिवर्द्धमान-कोप-दंड-साधन' । अर्थात्-जिसके कोप और दंड-साधन-शासन के साधन- एक सौ वर्ष तक बराबर बढ़ते गए थे; इस पृथिवीपेण ने-जिसकी राजनीतिक बुद्धिमत्ता. वीरता और उत्तम शासन की बहुत प्रशंसा की गई है-कुंतल के राजा १. चमक, दूदिया और बालाघाट के प्लेट ( देखो ६६१ क । )
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