( २ ) के रेलिंगवाले द्वार पर, मथुरा के जैन स्तूपों पर और नागार्जुनी कोंडा स्तूपों तथा इसी प्रकार के और अनेक भवनों आदि पर ऐसी मूर्तियाँ मिलती हैं जिनमें अप्सरा अपने प्रेमी गंधर्व के साथ अनेक प्रकार की प्रेमपूर्ण क्रीड़ा करती हुई दिखाई पड़ती है। अप्सराओं की भावना का बौद्ध और जैन धर्मों में कहीं पता नहीं है; पर हाँ हिंदुओं की धर्मपुस्तकों में-उदाहरणार्थ मत्स्यपुराण में अवश्य है जिनका समय कम से कम ईसवी तीसरी शताब्दी तक पहुंचता है। मत्स्य पुराण में इस विषय का जो विवेचन है, उसमें पहले के अठारह आचार्यों के मत उद्धृत किए गए हैं जिससे सिद्ध होता है कि शताब्दियों पहले से इस देश में इन विषयों की चर्चा होती आई थी'। हिंदू ग्रंथों में इस संबंध में कहा गया है कि मंदिरों के द्वारों अथवा तोरणों पर गंधर्व- मिथुन या गंधर्व और उसकी पत्नी की मूर्तियाँ होनी चाहिएँ और मंदिरों पर अप्सराओं, सिद्धों और यक्षों आदि की मूर्तियाँ नकाशी हुई होनी चाहिएँ । मथुरा में स्नान आदि करती हुई स्त्रियों १. मत्स्यपुराण के अध्याय २५१-२६९ में इस विषय का विवेचन है और वह विवेचन ऐसे १८ श्राचार्यों के मतों के अाधार पर है जिनके नाम उसमें दिए गए हैं (अ० २५१, २.४ ) अ० २७० से वास्तु कला के इतिहास का प्रकरण चलता है ( अ० २७०-२७४ ) और इस इतिहास का अंत सन् २४० ई० के लगभग हुअा है। इन अठारह श्राचार्यों के कारण यह कहा जा सकता है कि इस विषय के विवेचन का प्रारंभ कम से कम ई० पू० ६०० में हुअा होगा । २. मत्स्यपुराण २५७, १३-१४ ( विष्णु के संबंध में )- तोरणान् चोपरिष्टात् तु विद्याधरसमन्वितम् । देवदुन्दुभिसंयुक्तं गन्धर्वमिथुनान्वितम् ।।
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