पाँच फूल  (१९२९) 
द्वारा प्रेमचंद






रकारी अनाथालय से निकालकर मैं सीधा फ़ौज में भरती किया गया। मेरा शरीर हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ था। साधारण मनुष्यों की अपेक्षा मेरे हाथ-पैर कहीं लम्बे और स्नायु-युक्त थे। मेरी लम्बाई पूरी छः फीट नौ इंच थी। पलटन में मैं 'देव' के नाम से विख्यात था। जब से मैं फ़ौज में भरती हुआ, तब से मेरी किस्मत ने भी पलटा खाना शुरू किया। और मेरे हाथ से कई ऐसे काम हुए, जिनसे प्रतिष्ठा के साथ-साथ मेरी आय भी बढ़ती गई। पलटन का हर-एक जवान मुझे जानता था। मेजर सरदार हिम्मतसिंह की कृपा मेरे ऊपर बहुत थी ; क्योंकि मैंने एक बार उनकी प्राण-रक्षा की थी। इसके अतिरिक्त न-जाने क्यों उनको देखकर

मेरे हृदय में भक्ति और श्रद्धा का सञ्चार होता। मैं यही समझता कि यह मेरे पूज्य हैं, और सरदार साहब का भी व्यवहार मेरे साथ स्नेह-युक्त और मित्रता-पूर्ण था।

मुझे अपने माता-पिता का पता नहीं है, और न उनकी कोई स्मृति ही है। कभी-कभी जब मैं इस प्रश्न पर विचार करने बैठता हूँ, तो कुछ धुँधले-से दृश्य दिखाई देते हैं--बड़े-बड़े पहाड़ों के बीच में रहता हुआ एक परिवार, और एक स्त्री का मुख, जो शायद मेरी माँ का होगा। पहाड़ों के‌ बीच में तो मेरा पालन-पोषण ही हुआ है। पेशावर से ८० मील पूर्व एक ग्राम है, जिसका नाम 'कुलाहा' है, वहीं पर‌ एक सरकारी अनाथालय है। इसी में मैं पाला गया। यहाँ से निकलकर सीधा फ़ौज में चला गया। हिमालय के जलवायु से मेरा शरीर बना है, और मैं वैसा ही दीर्घाकृति और बर्बर हूँ, जैसे कि सीमाप्रान्त के रहनेवाले अफीदी, ग़िलज़ई, महसूदी आदि पहाड़ी कबीलों के लोग होते हैं। यदि उनके और मेरे जीवन में कुछ अन्तर है, तो वह सभ्यता का। मैं थोड़ा-बहुत पढ़-लिख लेता हूँ, बात-चीत कर लेता हूँ, अदब-क़ायदा जानता हूँ। छोटे-बड़े का लिहाज़ कर सकता हूँ ; किन्तु मेरी आकृति वैसी ही है, जैसी कि किसी भी सरहदी पुरुष की हो सकती है। कभी-कभी मेरे मन में यह इच्छा बलवती होती कि स्वच्छन्द होकर पहाड़ों की सैर करूँ, लेकिन जीविका का प्रश्न मेरी इच्छा को दबा देता। उस सूखे देश में खाने का कुछ भी ठिकाना नहीं था। वहीं के लोग एक रोटी के लिये मनुष्य की हत्या कर डालते, एक कपड़े के लिये मुरदे की लाश चीर-फाड़कर फेंक देते, और एक बन्दूक के लिये सरकारी फ़ौज पर छापा मारते हैं। इसके अतिरिक्त उन जंगली जातियों का एक-एक मनुष्य मुझे जानता था और मेरे खून का प्यासा था। यदि मैं उन्हें मिल जाता, तो जरूर मेरा नाम-निशान दुनिया से मिट जाता। न-जाने कितने अफ्रीदियों और ग़िलज़इयों को मैंने मारा था, कितनों को पकड़-पकड़कर सरकारी जेलखाने में भर दिया था, और न-मालूम उनके कितने गाँवों को जलाकर खाक कर दिया था। मैं भी बहुत सतर्क रहता, और जहाँ तक होता, एक स्थान पर एक हफ्ते से अधिक कभी न रहता।

एक दिन मैं मेजर सरदार हिम्मतसिंह के घर की ओर जा रहा था। उस समय दिन के दो बजे थे। आजकल छुट्टी-सी थी ; क्योंकि अभी हाल ही में कई गाँव भस्मीभूत

कर दिये गये थे और जल्दी उनकी तरफ से कोई आशंका नहीं थी। हम लोग निश्चिन्ति होकर गप्प और हँसी-खेल में दिन गुजारते। बैठे-बैठे दिल घबरा गया था, सिर्फ मन बहलाने के लिये सरदार साहब के घर की ओर चला; किन्तु रास्ते में एक दुर्घटना हो गई। एक बूढ़ा अफ्रीदी, जो अब भी एक हिन्दुस्थानी जवान का सिर मरोड़ देने के लिये काफ़ी था, एक फौजी जवान से भिड़ा हुआ था। मेरे देखते-देखते उसने अपनी कमर से एक तेज़ छुरा निकाला और उसकी छाती में घुसेड़ दिया। उस जवान के पास एक कारतूसी बन्दूक थी, बस उसी के लिये यह सब लड़ाई थी। पलक मारते-मारते फ़ौजी जवान का काम-तमाम हो गया और बूढ़ा बन्दूक लेकर भागा। मैं उसके पीछे दौड़ा; लेकिन दौड़ने में वह इतना तेज़ था कि बात-की-बात में आँखों से ओझल हो गया। मैं भी बेतहाश उसका पीछा कर रहा था। आख़िर सरहद पर पहुँचते-पहुँचते मैं उससे बीस हाथ की दूरी पर रह गया। उसने पीछे फिरकर देखा, मैं अकेला उसका पीछा कर रहा था। उसने बन्दूक का निशाना मेरी ओर साधा। मैं फ़ौरन ही जमीन पर लेट गया और बन्दूक की गोली मेरे सामने के पत्थर पर लगी। उसने समझा कि मैं गोली का शिकार हो गया। वह धीरे-धीरे सतर्क पदों से

मेरी ओर बढ़ा। मैं साँस खींचकर लेट गया। जब वह बिल्कुल मेरे पास आ गया, शेर की तरह उछलकर मैंने उसकी गरदन पकड़कर जमीन पर पटक दिया और छुरा निकालकर उसकी छाती में घुसेड़ दिया। अफ्रीदी की जीवन-लीला समाप्त हो गई। इसी समय मेरी पलटन के कई लोग भी आ पहुँचे। चारों तरफ़ से लोग मेरी प्रशंसा करने लगे। अभी तक मैं अपने-आपे में न था; लेकिन अब मेरी सुध-बुध वापस आई। न-मालूम क्यों उस बुड्ढे को देखकर मेरा जी घबराने लगा। अभी तक न-मालूम कितने ही अफ्रीदियों को मारा था; लेकिन कभी भी मेरा हृदय इतना घबराया न था। मैं ज़मीन पर बैठ गया, और उस बुड्ढे की ओर देखने लगा। पलटन के जवान भी पहुँच गये और मुझे घायल जानकर अनेक प्रकार के प्रश्न करने लगे। धीरे-धीरे मैं उठा और चुपचाप शहर की ओर चला। सिपाही मेरे पीछे-पीछे उसी बुड्ढे की लाश घसीटते हुए चले। शहर के निवासियों ने मेरी जय-जयकार का ताँता बाँध दिया। मैं चुपचाप मेजर सरदार हिम्मतसिंह के घर में घुस गया।

सरदार साहब उस समय अपने ख़ास कमरे में बैठे हुए कुछ लिख रहे थे। उन्होंने मुझे देखकर पूछा--क्यों, उस अफ्रीदी को मार आए ? मैंने बैठते हुए कहा--जी हाँ, लेकिन सरदार साहब, न जाने क्यों मैं कुछ थोड़ा बुज़दिल हो गया हूँ।

सरदार साहब ने आश्चर्य से कहा--असदखाँ और बुजदिल ! यह दोनों एक जगह होना नामुमकिन है।

मैंने उठते हुए कहा--सरदार साहब, यहाँ तबीयत नहीं लगती, उठकर बाहर बरामदे में बैठिये। न मालूम क्यों मेरा दिल घबराता है।

सरदार साहब उठकर मेरे पास आए और स्नेह से मेरी पीठपर हाथ फेरते हुए कहा--असद, तुम दौड़ते-दौड़ते थक गये हो, और कोई बात नहीं है। अच्छा चलो, बरामदे में बैठें। शाम की ठंडी हवा तुम्हें ताजा कर देगी।

सरदार साहब और मैं, दोनों बरामदे में जाकर कुरसियों पर बैठ गये। शहर के चौमुहाने पर उसी वृद्ध की लाश रक्खी थी, और उसके चारों ओर भीड़ लगी हुई थी। बरामदे में जब मुझे बैठे हुए देखा, तो लोग मेरी ओर इशारा करने लगे। सरदार साहब ने यह दृश्य देखकर कहा--असद खाँ, देखो, लोगों की निगाह में तुम कितने ऊँचे हो। तुम्हारी वीरता को यहाँ का बच्चा-बच्चा सराहता है। अब भी तुम कहते हो कि मैं बुज़दिल हूँ। मैंने मुस्कराकर कहा--जब से इस बुड्ढे को मारा है, तब से मेरा दिल मुझे धिक्कार रहा है।

सरदार साहब ने हँसकर कहा--क्योंकि तुमने अपने से निर्बल को मारा है।

मैंने अपनी दिलजमई करते हुए कहा--मुमकिन है ऐसा ही हो।

इसी समय एक अफ्रीदी रमणी धीरे-धीरे आकर सरदार साहब के मकान के सामने खड़ी हो गई। ज्यों ही सरदार साहब ने देखा, उनका मुँह सफ़ेद पड़ गया। उनकी भयभीत‌ दृष्टि उसकी ओर से फिरकर मेरी ओर हो गई। मैं भी आश्चर्य से उनके मुँह की ओर निहारने लगा। उस रमणी का-सा सुगठित शरीर मरदों का भी कम होता है। ख़ाकी रंग के मोटे कपड़े का पायजामा और नीले रंग का मोटा कुरता पहने हुए थी। बलूची औरतों की तरह सिर पर रूमाल बाँध रक्खा था। रंग चम्पई था और यौवन की आभा‌ फूट-फूटकर बाहर निकली पड़ती थी। इस समय उसकी आँखों में ऐसी भीषणता थी, जो किसी के दिल में भय का सञ्चार करती। रमणी की आँखें सरदार साहब की ओर‌ से फिरकर मेरी ओर आई और उसने यों घूरना शुरू किया‌ कि मैं भी भयभीत हो गया। रमणी ने सरदार साहब की

ओर देखा और फिर जमीन पर थूक दिया, और फिर मेरी ओर देखती हुई धीरे-धीरे दूसरी ओर चली गई।

रमणी को जाते देखकर सरदार साहब की जान में जान आई। मेरे सिर पर से भी एक बोझ हट गया।

मैंने सरदार साहब से पूछा--क्यों, क्या आप इसे जानते हैं ?

सरदार साहब ने एक गहरी ठंडी साँस लेकर कहा--हाँ, बखूबी। एक समय था, जब यह मुझपर जान देती थी और वास्तव में अपनी जान पर खेलकर मेरी रक्षा भी की थी, लेकिन अब इसको मेरी सूरत से नफ़रत है। इसी ने मेरी स्त्री की हत्या की है। इसे जब कभी देखता हूँ, मेरे होश-हवास काफ़ूर हो जाते हैं, और वही भयानक दृश्य मेरी आँखों के सामने नाचने लगता है।

मैंने भय-विह्वल स्वर में पूछा--सरदार साहब, उसने मेरी ओर भी तो बड़ी भयानक दृष्टि से देखा था। न-मालूम क्यों मेरे भी रोएँ खड़े हो गये थे।

सरदार साहब ने सिर हिलाते हुए बड़ी गम्भीरता से कहा--असदखाँ, तुम भी होशियार रहो। शायद इस बूढ़े अफ्रीदी से इसका भी सम्पर्क है। मुमकिन हो यह उसका भाई या बाप हो। तुम्हारी ओर उसका देखना कोई मानी रखता है। बड़ी ही भयानक स्त्री है। सरदार साहब की बात सुनकर मेरी नस-नस काँप उठी। मैंने बातों का सिलसिला दूसरी ओर फेरते हुए कहा--सरदार साहब, आप इसको पुलिस के हवाले क्यों नहीं कर‌ देते। इसको फाँसी हो जायगी।

सरदार साहब ने कहा--भाई असद खाँ, इसने मेरे प्राण बचाए थे और शायद अब भी मुझे चाहती है। इसकी कथा बहुत लम्बी है। कभी अवकाश मिला तो कहूँगा।

सरदार की बातों से मुझे भी कुतूहल हो रहा था। मैंने उनसे वह वृत्तान्त सुनाने के लिये आग्रह करना शुरू किया। पहले तो उन्होंने टालना चाहा; पर जब मैंने बहुत जोर दिया तो विवश होकर बोले--असद, मैं तुम्हें अपना भाई समझता हूँ, इसलिये तुमसे कोई परदा न रक्खूँगा। लो सुनो--

असदखाँ, पाँच साल पहले मैं इतना वृद्ध न था, जैसा कि अब दिखाई पड़ता हूँ। इस समय मेरी आयु ४० वर्ष से अधिक नहीं है। एक भी बाल सफेद न हुआ था और उस समय मुझमें इतना बल था कि दो जवानों को मैं लड़ा देता। जर्मनों से मैंने मुठभेड़ ली है और न-मालूम कितनों को यमलोक का रास्ता बता दिया। जर्मन-युद्ध के बाद मुझे यहाँ सीमाप्रान्त पर काली पलटन का मेजर बनाकर भेजा गया। जब पहले-पहल मैं यहाँ आया, तो यहाँ पर कठिना-

इयाँ सामने आई ; लेकिन मैंने उनकी ज़रा भी परवाह न की और धीरे-धीरे उन सब पर विजय पाई। सबसे पहले यहाँ आकर मैंने पश्तो सीखना शुरू किया। पश्तो के बाद और भी ज़बानें सीखीं, यहाँ तक कि मैं उनको बड़ी आसानी और मुहाविरों के साथ बोलने लगा ; फिर इसके बाद कई‌ आदमियों की टोलियाँ बनाकर देश का अन्तर्भाग भी छान डाला। इस पड़ताल में कई बार मैं मरते-मरते बचा ; किन्तु सब कठिनाइयाँ झेलते हुए मैं यहाँ पर सकुशल रहने लगा। उस ज़माने में मेरे हाथ से ऐसे-ऐसे काम हो गये, जिनसे सरकार में मेरी बड़ी नामवरी और प्रतीष्ठा भी हो गई। एक बार कर्नल हैमिलटन की मेम-साहब को मैं अकेले छुड़ा लाया था, और कितने ही देशी आदमियों और औरतों के प्राण मैंने बचाये हैं। यहाँ पर आने के तीन साल बाद से मेरी कहानी आरम्भ होती है।

एक रात को मैं अपने 'कैम्प' में लेटा हुआ था। अफ्रीदियों से लड़ाई हो रही थी। दिन के थके-माँदे सैनिक गा़फिल पड़े हुए थे। कैम्प में सन्नाटा था। लेटे-लेटे मुझे भी नींद आ गई। जब मेरी नींद खुली तो देखा, कि छाती पर एक अफ्रीदी--जिसकी आयु मेरी आयु से लगभग दूनी होगी--सवार है और मेरी छाती में छुरा घुसेड़ने ही वाला

है। मैं पूरी तरह से उसके अधीन था, कोई भी बचने का उपाय न था ; किन्तु उस समय मैंने बड़े ही धैर्य से काम लिया और पश्तो भाषा में कहा--मुझे मारो नहीं, मैं सरकारी फ़ौज में अफ़सर हूँ, मुझे पकड़ ले चलो, सरकार तुमको रुपया देकर मुझे छुड़ायेगी।

ईश्वर की कृपा से मेरी बात उसके मन में बैठ गई। कमर से रस्सी निकालकर मेरे हाथ-पैर बाँधे और फिर कंधे पर बोझ की तरह लादकर खेमे से बाहर आया। बाहर मार-काट का बाजार गर्म था। उसने एक विचित्र प्रकार से चिल्लाकर कुछ कहा और मुझे कंधे पर लादे वह जंगल की ओर भागा। यह मैं कह सकता हूँ कि उसको मेरा बोझ कुछ भी मालूम न होता था, और बड़ी तेज़ी से भागा जा रहा था। उसके पीछे-पीछे कई आदमी, जो उसी के गिरोह के थे, लूट का माल लिये हुए भागे चले आ रहे थे।

प्रातःकाल हम लोग एक तालाब के पास पहुँचे। तालाब बड़े-बड़े पहाड़ों से घिरा हुआ था। उसका पानी बड़ा निर्मल था, और जंगली पेड़ इधर-उधर उग रहे थे। तालाब के पास पहुँचकर हम सब लोग ठहरे। बुड्ढे ने, जो वास्तव में उस गिरोह का सरदार था, मुझे पत्थर पर डाल दिया। मेरी कमर में बड़ी जोर से चोट लगी, ऐसा मालूम हुआ

कि कोई हड्डी टूट गई है; लेकिन ईश्वर की कृपा से हड्डी टूटी न थी। सरदार ने मुझे पृथ्वी पर डालने के बाद कहा--क्यों, कितना रुपया दिलायेगा ?

मैंने अपनी वेदना दबाते हुए कहा--पाँच सौ रुपये।

सरदार ने मुँह बिगाड़कर कहा--नहीं, इतना कम नहीं लेगा। दो हज़ार से एक पैसा भी कम मिला, तो तुम्हारी जान की खैर नहीं।

मैंने कुछ सोचते हुए कहा--सरकार इतना रुपया काले आदमी के लिये नहीं खर्च करेगी।

सरदार ने छुरा बाहर निकालते हुए कहा--तब फिर क्यों कहा था कि सरकार इनाम देगी! ले, तो फिर यहीं मर।

सरदार छुरा लिये मेरी तरफ़ बढ़ा।

मैं घबड़ाकर बोला--अच्छा, सरदार, मैं तुमको दो हज़ार दिलवा दूँगा।

सरदार रुक गया और बड़ी जोर से हँसा। उसकी हँसी की प्रतिध्वनि ने निर्जीव पहाड़ों को भी कँपा दिया। मैंने मन-ही-मन कहा--बड़ा भयानक आदमी है।

गिरोह के दूसरे आदमी अपनी-अपनी लूट का माल सरदार के सामने रखने लगे। उसमें कई बंदूकें, कारतूस,

रोटियाँ और कपड़े थे। मेरी भी तलाशी ली गई। मेरे पास एक छः फायर का तमंचा था। तमंचा पाकर सरदार उछल पड़ा, और उसे फिरा-फिराकर देखने लगा। वहीं पर उसी समय हिस्सा-बाँट शुरू हो गया। बराबर-बराबर का हिस्सा लगा; लेकिन मेरा रिवालवर उसमें नहीं शामिल किया गया। वह सरदार साहब की ख़ास चीज़ थी।

थोड़ी देर विश्राम करने के बाद, फिर यात्रा शुरू हुई। इस बार मेरे पैर खोल दिये गये और साथ-साथ चलने को कहा--मेरी आँखों पर पट्टी भी बाँध दी गई, ताकि मैं रास्ता न देख सकूँ। मेरे हाथ रस्सी से बँधे हुए थे, और उसका एक सिरा एक अफ्रीदी के हाथ में था।

चलते-चलते मेरे पैर दुखने लगे; लेकिन उनकी मंजिल पूरी न हुई। सिर पर जेठ का सूरज चमक रहा था, पैर जले जा रहे थे, प्यास से गला सूखा जा रहा था; लेकिन वे बराबर चले जा रहे थे। वे आपस में बातें करते जाते थे; लेकिन अब मैं उनकी एक बात भी न समझ पाता। कभी-कभी एकआध शब्द तो समझ जाता; लेकिन बहुत अंशों में मैं कुछ भी न समझ पाता था। वे लोग इस समय अपनी विजय पर प्रसन्न थे, और एक अफ्रीदी ने अपनी भाषा में एक गीत गाना शुरू किया। गीत बड़ा ही अच्छा था। असदखाँ ने पूछा--सरदार साहब, वह गीत क्या था ?

सरदार साहब ने कहा--उस गीत का भाव याद है। भाव यह है कि एक अफ्रीदी जा रहा है, तो उसकी स्त्री कहती है--कहाँ जाते हो ?

युवक उत्तर देता है--जाते हैं तुम्हारे लिये रोटी और कपड़ा लाने।

स्त्री पूछती है--और कुछ अपने बच्चों के लिये नहीं लाओगे ?

युवक उत्तर देता है--बच्चे के लिये बंदूक लाऊँगा, ताकि जब वह बड़ा हो, तो वह भी लड़े और अपनी प्रेमिका के लिये रोटी और कपड़ा ला सके।

स्त्री कहती है--यह तो कहो, कब आओगे ?

युवक उत्तर देता है--आऊँगा तभी, जब कुछ जीत लाऊँगा, नहीं तो वहीं मर जाऊँगा।

स्त्री कहती है--शाबास, जाओ, तुम वीर हो, तुम ज़रूर सफ़ल होगे।

गीत सुनकर मैं मुग्ध हो गया। गीत समाप्त होते-होते हम लोग भी रुक गए। मेरी आँखें खोली गई। सामने बड़ा सा मैदान था और चारों ओर गुफ़ाएँ बनी हुई थीं, जो उन्हीं लोगों के रहने की जगह थी। फिर मेरी तलाशी ली गई, और इस दफे सब कपड़े उतरवा लिये गए, केवल पायजामा रह गया। सामने एक बड़ा-सा शिलाखण्ड रक्खा हुआ था। सब लोगों ने मिलकर उसे हटाया और मुझे उसी ओर ले चले। मेरी आत्मा काँप उठी। यह तो ज़िन्दा कब्र में डाल देंगे। मैंने बड़ी ही वेदना-पूर्ण दृष्टि से सरदार की ओर देखकर कहा--सरदार, सरकार तुम्हें रुपया देगी। मुझे मारो नहीं।

सरदार ने हँसकर कहा--तुम्हें मारता कौन है, कैद किया जाता है। इस घर में बन्द रहोगे, जब रुपया आ जायगा, छोड़ दिये जाओगे।

सरदार की बात सुनकर मेरे प्राण-में-प्राण आये। सरदार ने मेरी पाकेटबुक और पेंसिल सामने रखते हुए कहा--लो, इसमें लिख दो। अगर एक पैसा भी कम आया, तो तुम्हारी जान की खैर नहीं।

मैंने कमिश्नर साहब के नाम एक पत्र लिखकर दे दिया। उन लोगों ने मुझे उसी अन्ध-कूप में लटका दिया और रस्सी खींच ली।

सरदार साहब ने एक लम्बी साँस ली और कहना शुरू किया--असदखाँ, जिस समय मैं उस कूए में लटकाया

जा रहा था, मेरी अन्तरात्मा काँप रही थी। नीचे घटाटोप अन्धकार की जगह हल्की चाँदनी छाई हुई थी। भीतर से गुफा न बहुत छोटी और न बहुत बड़ी थी। फ़र्श खुदुरा था, ऐसा मालूम होता था कि बरसों यहाँ पर पानी की धार गिरी है और यह गढ़ा तब जाकर तैयार हुआ है। पत्थर की मोटी दीवार से वह कूप घिरा हुआ था और उसमें जहाँ-तहाँ छेद थे, जिनसे प्रकाश और वायु आती थी। नीचे पहुँचकर मैं अपनी दशा का हेर-फेर सोचने लगा। दिल बहुत घबराता था। वह काल-कोठरी की यन्त्रणा भोगना भी भाग्य में विधाता ने लिख दिया था।

धीरे-धीरे सन्ध्या का आगमन हुआ। उन लोगों ने अभी तक मेरी कुछ खोज-खबर न ली थी। भूख से आत्मा व्याकुल हो रही थी। बार-बार विधाता और अपने को कोसता। जब मनुष्य निरुपाय हो जाता है, तो विधाता को कोसता है।

अन्त में एक छेद से चार बड़ी-बड़ी रोटियाँ किसी ने बाहर से फेंकी। जिस तरह कुत्ता एक रोटी के टुकड़े पर दौड़ता है, वैसे ही मैं भी दौड़ा और उन्हें उठाकर उस छेद की ओर देखने लगा ; लेकिन फिर किसी ने कुछ न फेंका, और न कुछ आदेश ही मिला। मैं बैठकर रोटियाँ खाने

लगा। थोड़ी देर बाद उसी छेद पर एक लोहे का प्याला रख दिया गया, जिसमें पानी भरा हुआ था। मैंने परमात्मा को धन्यवाद देकर पानी उठाकर पिया। जब आत्मा कुछ तृप्त हुई, तो कहा--थोड़ा पानी और चाहिए।

इस पर दीवार की उस ओर एक भीषण हँसी की प्रतिध्वनि सुनाई दी, और किसी ने खनखनाते हुए स्वर में कहा--पानी अब कल मिलेगा। प्याला दे दो, नहीं तो कल भी पानी नहीं मिलेगा।

क्या करता, हार कर प्याला वहीं पर रख दिया।

इसी प्रकार कई दिन बीत गए। नित्य दोनों समय चार रोटियाँ और एक प्याला पानी मिल जाता था। धीरे-धीरे मैं भी इस शुष्क जीवन का आदी हो गया। निर्जनता अब उतनी न खलती। कभी-कभी मैं अपनी भाषा में और कभी-कभी पश्तों में गाता। इससे मेरी तबीयत बहुत कुछ बहल जाती और हृदय भी शान्त हो जाता।

एक दिन रात्रि के समय मैं एक पश्तो गीत गा रहा था। मजनू मुलसानेवाले बगूलों से कह रहा था--तुममें क्या वह हरारत नहीं है, जो काफ़लों को जलाकर ख़ाक कर देती है। आखिर वह गरमी मुझे क्यों नहीं जलाती ? क्या इसलिये कि मेरे अन्दर खुद एक ज्वाला भरी हुई है ? देखो, जब लैला ढूँढ़ती हुई यहाँ आवे, तो मेरा शरीर बालू से ढक देना, नहीं तो शीशे की तरह लैला का दिल टूट जायगा।

मैंने गाना बन्द कर दिया। उसी समय छेद से किसी ने कहा--क़ैदी, फिर तो गाओ।

मैं चौंक पड़ा। कुछ खुशी भी हुई, कुछ आश्चर्य भी ; पूछा--तुम कौन हो ?

उसी छेद से उत्तर मिला--मैं हूँ तूरया, सरदार की लड़की।

मैंने पूछा--क्या तुमको यह गाना पसन्द है ?

तूरया ने उत्तर दिया--हाँ, क़ैदी गाओ, मैं फिर सुनना चाहती हूँ।

मैं हर्ष से गाने लगा। गीत समाप्त होने पर तूरया ने कहा--तुम रोज़ यही गीत मुझे सुनाया करो। इसके बदले में मैं तुमको और रोटियाँ और पानी दूँगी।

तूरया चली गई। इसके बाद मैं सदा रात के समय वही गीत गाता, और तूरया सदा दीवार के पास आकर सुनती।

मेरे मनोरञ्जन का एक मार्ग और निकल आया।

धीरे-धीरे एक मास बीत गया; पर किसी ने अभी तक

मेरे छुड़ाने के लिये रुपया न भेजा। ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते, मैं अपने जीवन से निराश होता जाता।

ठीक एक महीने बाद सरदार ने आकर कहा--क़ैदी, अगर कल तक रुपया न आवेगा, तो तुम मार डाले जाओगे। मैं अब रोटियाँ नहीं खिला सकता।

मुझे जीवन की कुछ आशा न रही। उस दिन न मुझसे खाया गया और न कुछ पिया ही गया। रात हुई, फिर रोटियाँ फेंक दी गई ; लेकिन खाने की इच्छा नहीं हुई।

निश्चित समय पर तूरया ने आकर कहा--क़ैदी, गाना गाओ।

उस दिन मुझे कुछ अच्छा न लगता था। मैं चुप रहा।

तूरया ने फिर कहा--क़ैदी, क्या सो गया ?

मैंने बड़े ही मलिन स्वर में कहा--नहीं, आज से सोकर क्या करूँ, कल ऐसा सोऊँगा कि फिर जागना न पड़ेगा।

तूरया ने प्रश्न किया--क्यों, क्या सरकार रुपया न भेजेगी?

मैंने उत्तर दिया--भेजेगी तो, लेकिन कल तो मैं मार डाला जाऊँगा, मेरे मरने के बाद रुपया भी आया, तो मेरे किस काम का! तूरया ने सान्त्वना-पूर्ण स्वर में कहा--अच्छा तुम गाओ, मैं कल तुम्हें मरने न दूंँगी।

मैंने गाना शुरू किया। जाते समय तूरया ने पूछा--क़ैदी, तुम कटहरे में रहना पसन्द करते हो ?

मैंने सहर्ष उत्तर दिया--हाँ, किसी तरह इस नरक से तो छुटकारा मिले।

तूरया ने कहा--अच्छा, कल मैं अब्बा से कहूँगी।

दूसरे ही दिन मुझे उस अन्धकूप से बाहर निकाला गया। मेरे दोनों पैर दो मोटी शहतीरों के छेदों में बन्द कर दिए गये और वह काठ की ही कीलों से प्राकृतिक गड्ढों में कस दिये गए।

सरदार ने मेरे पास आकर कहा--क़ैदी, पन्द्रह दिन की अवधि और दी जाती है, इसके बाद तुम्हारी गर्दन तन से अलग कर दी जायगी। आज दूसरा खत अपने घर को लिखो। अगर ईद तक रुपया न आया, तो तुम्हीं को हलाल किया जायगा।

मैंने दूसरा पत्र लिखकर दे दिया।

सरदार के जाने के बाद तूरया आई। यह वही रमणी थी जो अभी गई है। यही उस सरदार की लड़की थी। यही मेरा गाना सुनती थी और इसी ने सिफारिश करके मेरी जान बचाई थी। तूरया आकर मुझे देखने लगी। मैं भी उसकी ओर देखने लगा।

तूरया ने पूछा--क़ैदी, घर में तुम्हारे कौन-कौन हैं ?

मैंने बड़े ही कातर स्वर में कहा--दो छोटे-छोटे बालक, और कोई नहीं ?

मुझे मालूम था कि अफ्रीदी बच्चों को बहुत प्यार करते हैं।

तूरया ने पूछा--उनकी माँ नहीं है ?

मैंने केवल दया उपजाने के लिये कहा--नहीं,उनकी माँ मर गई है। वे अकेले हैं। मालूम नहीं जीते हैं या मर गए; क्योंकि मेरे सिवाय उनकी देख-रेख करनेवाला और कोई न था।

कहते-कहते मेरी आँखों में आँसू भर आए। तूरया की भी आँखें सूखी न रहीं। तूरया ने अपना आवेग सँभालते हुए कहा--तो तुम्हारे कोई नहीं है, बच्चे अकेले हैं। वे बहुत रोते होंगे।

मैंने मन-ही-मन प्रसन्न होते हुए कहा--हाँ, रोते ज़रूर होंगे। कौन जानता है, शायद मर भी गये हों ?

तूरया ने बात काटकर कहा--नहीं, अभी मरे न होंगे। अच्छा तुम रहते कहाँ हो ? मैं जाकर पता लगा आऊँगी।
मैंने अपने घर का पता बता दिया। उसने कहा--उस जगह मैं तो कई बार हो आई हूँ। बाज़ार से सौदा लेने मैं अक्सर जाती हूँ, अब जब जाऊँगी, तो तुम्हारे बच्चों की भी खबर ले आऊँगी।

मैंने सशंकित हृदय से पूछा--कब जाओगी ?

उसने कुछ सोचकर कहा--उस जुमेरात को जाऊँगी। अच्छा, तुम वही गीत गाओ।

मैंने आज बड़ी उमंग और उत्साह से गाना शुरू किया। मैंने आज देखा कि उसका असर तूरया पर कैसा पड़ता है। उसका शरीर काँपने लगा, आँखें डबडबा आई, गाल पीले पड़ गये और वह काँपती हुई बैठ गई। उसकी दशा देखकर मैंने दूने उत्साह से गाना शुरू किया और अन्त में कहा--तूरया, अगर मैं मारा जाऊँ, तो मेरे बच्चों को मेरे मरने की खबर दे देना।

मेरी बात का पूरा असर पड़ा। तूरया ने भर्राए हुए स्वर में कहा--क़ैदी, तुम मरोगे नहीं। मैं तुम्हारे बच्चों के लिये तुम्हें छोड़ दूँगी।

मैंने निराश होकर कहा--तूरया तुम्हारे छोड़ देने से भी मैं बच नहीं सकता। इस जंगल में मैं भटक-भटक कर मर जाऊँगा, और फिर तो तुम पर भी मुसीबत

आसकती है। अपनी जान के लिये तुमको मुसीबत में न डालूँगा।

तूरया ने कहा--मेरे लिए तुम चिन्ता न करो। मेरे ऊपर कोई शक न करेगा। मैं सरदार की लड़की हूँ, जो कहूँगी वही सब मान लेंगे; लेकिन क्या तुम जाकर रुपया भेज दोगे ?

मैंने प्रसन्न होकर कहा--हाँ तूरया, मैं रुपया भेज दूंँगा ?

तूरया ने जाते हुए कहा--तो मैं भी तुम्हें छुटकारा दिला दूंँगी।

इस घटना के बाद तूरया सदैव मेरे बच्चों के सम्बन्ध में बातें करती। असदखाँ, सचमुच इन अफ्रीदियों को बच्चे बहुत प्यारे होते हैं। विधाता ने यदि उन्हें बर्बर हिंसक पशु बनाया है, तो मनुष्योचित्त प्रकृति से वंचित भी नहीं रक्खा है। आखिर जुमेरात आई और अभी तक सरदार वापस न आया। न कोई उस गिरोह का आदमी ही वापस आया। उस दिन संध्या-समय तूरया ने आकर कहा--क़ैदी,अब मैं नहीं जा सकती; क्योंकि मेरा पिता अभी तक नहीं आया। यदि कल भी न आया, तो मैं तुम्हें रात को छोड़ दूंँगी। तुम अपने बच्चों के पास जाना; लेकिन देखो, रुपया भेजना न भूलना। मैं तुम पर विश्वास करती हूँ। मैंने उस दिन बड़े उत्साह से गाना गाया। आधी रात तक तूरया सुनती रही, फिर सोने चली गई। मैं भी ईश्वर से मनाता रहा कि कल और सरदार न आये। काठ में बँधे-बँधे मेरा पैर बिलकुल निकम्मा हो गया था। तमाम शरीर दुख रहा था। इससे तो मैं काल-कोठरी में ही अच्छा था; क्योंकि वहाँ तो हाथ-पैर हिला-डुला सकता था।

दूसरे दिन भी गिरोह वापस न आया। उस दिन तूरया बहुत चिन्तित थी। शाम को आकर तूरया ने मेरे पैर खोलकर कहा--क़ैदी, अब तुम जाओ, चलो, मैं तुम्हें थोड़ी दूर पहुँचा दूँ।

थोड़ी देर तक मैं अवश लेटा रहा। धीरे-धीरे मेरे पैर ठीक हुए और ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ मैं तूरया के साथ चल दिया।

तूरया को प्रसन्न करने के लिए मैं रास्ते-भर गीत गाता आया। तूरया बार-बार सुनती और बार-बार रोती। आधी रात के क़रीब मैं तालाब के पास पहुँचा। वहाँ पहुँचकर तूरया ने कहा--सीधे चले जाओ, तुम पेशावर पहुँच जाओगे। देखो, होशियारी से जाना, नहीं तो कोई तुम्हें अपनी गोली का शिकार बना डालेगा। यह लो, तुम्हारे कपड़े हैं; लेकिन रुपया ज़रूर भेज देना। तुम्हारी जमानत मैं

लूंँगी। अगर रुपया न आया, तो मेरे भी प्राण जायँगे, और तुम्हारे भी। अगर रुपया आ जायगा, तो कोई भी अफ्रीदी तुम पर हाथ न उठाएगा, चाहे एक बार तुम किसी को मार भी डालो। जाओ ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें और तुमको अपने बच्चों से मिलावें।

तूरया फिर ठहरी नहीं। गुनगुनाती हुई लौट पड़ी। रात दोपहर बीत चुकी थी। चारों ओर भयानक निस्तब्धता छाई हुई थी, केवल वायु साँय-साँय करती हुई बह रही थी। आकाश के बीचोबीच चन्द्रमा अपनी सोलहों कला से चमक रहा था। तालाब के तट रुकना सुरक्षित न था। मैं धीरे-धीरे दक्षिण की ओर बढ़ा। बार-बार चारों ओर देखता जाता था। ईश्वर की कृपा से प्रातःकाल होते-होते मैं पेशावर की सरहद पर पहुँच गया।

सरहद पर सिपाहियों का पहरा था। मुझे देखते ही तमाम फ़ौज-भर में हलचल मच गई। सभी लोग मुझे मरा समझे हुए थे। जीता-जागता लौटा हुआ देखकर सभी प्रसन्न हो गये।

कर्नल हैमिलटन साहब भी समाचार पाकर उसी समय मिलने आए और सब हाल पूछकर कहा--मेजर साहब, मैं आपको मरा हुआ समझता था। मेरे पास तुम्हारे दो पत्र

आये थे ; लेकिन मुझे स्वप्न में भी विश्वास न हुआ था कि वे तुम्हारे लिखे हुए हैं। मैं तो उन्हें जाली समझता था। ईश्वर को धन्यवाद है कि तुम जीते बचकर आ गए।

मैंने कर्नल साहब को धन्यवाद दिया और मन-ही-मन कहा--काले आदमी का लिखा हुआ जाली था, और कहीं अगर गोरा आदमी लिखता, तो दो की कौन कहे, चार हज़ार रुपया पहुँच जाता। कितने ही गाँव जला दिये जाते और न जाने क्या-क्या न होता।

मैं चुपचाप अपने घर आया। बाल-बच्चों को पाकर आत्मा सन्तुष्ट हुई। उसी दिन एक विश्वासी अनुचर के द्वारा दो हज़ार रुपये तूरया के पास भेज दिये।

सरदार ने एक ठंढी साँस लेकर कहा--असदखाँ अभी मेरी कहानी समाप्त नहीं हुई। अभी तो दुःखान्त भाग अवशेष ही है। यहाँ आकर मैं धीरे-धीरे अपनी सब मुसीबतें भूल गया; लेकिन तूरया को न भूल सका। तूरया की कृपा से ही मैं अपनी स्त्री और बच्चों से मिल पाया था, यही नहीं, जीवन भी पाया था, फिर भला मैं उसे कैसे भूल जाता। महीनों और सालों बीत गए। मैंने तूरया को और न उसके बाप को ही देखा। तूरया ने आने के लिये कहा भी; लेकिन वह आई नहीं। वहाँ से आकर मैंने अपनी स्त्री को उसके मायके भेज दिया था, क्योंकि ख्याल था कि शायद तूरया आवे, तो फिर मैं झूठा बनूँगा; लेकिन जब तीन साल बीत गए और तूरया न आई, तो मैं निश्चिन्त हो गया और स्त्री को मायके से बुला लिया। हम लोग सुख-पूर्वक दिन काट रहे थे कि अचानक फिर दुर्दशा की घड़ी आई।

एक दिन सन्ध्या के समय इसी बरामदे में बैठा हुआ अपनी स्त्री से बातें कर रहा था, कि किसी ने बाहर का दरवाजा खटखटाया। नौकर ने दरवाज़ा खोल दिया और बेधड़क ज़ीना चढ़ती हुई एक काबुली औरत ऊपर चली आई। उसने बरामदे में आकर विशुद्ध पश्तो भाषा में पूछा--सरदार साहब कहाँ हैं ?

मैंने कमरे के भीतर आकर पूछा--तुम कौन हो, क्या चाहती हो ?

उस स्त्री ने कुछ मूँगे निकालते हुए कहा--यह मूँगे मैं बेचने के लिये आई हूँ, खरीदियेगा ?

यह कहकर उसने बड़े-बड़े मूँगे निकालकर मेज पर रख दिये। मेरी स्त्री भी मेरे साथ ही कमरे के भीतर आई थी। वह मूँगे उठाकर देखने लगी। उस काबुली स्त्री ने पूछा--सरदार साहब, यह कौन है आपकी !

मैंने उत्तर दिया--मेरी स्त्री है, और कौन है।

काबुली स्त्री ने कहा--आपकी स्त्री तो मर चुकी थी, क्या आपने दूसरा विवाह किया है ?

मैंने रोषपूर्ण स्वर में कहा--चुप बेवकूफ़ कहीं की, तू मर गई होगी।

मेरी स्त्री पश्तो नहीं जानती थी, वह तन्मय होकर मूँगे देख रही थी।

किन्तु मेरी बात सुनकर न-मालूम क्यों काबुली औरत की आँखें चमकने लगीं। उसने बड़े ही तीव्र स्वर में कहा--हाँ, बेवकूफ़ न होती, तो तुम्हें छोड़ कैसे देती ? दोज़ख़ी पिल्ले, मुझसे झूठ बोला था। ले, अगर तेरी स्त्री तब न मरी थी, तो अब मर गई !

कहते-कहते शेरनी की तरह लपककर उसने एक तेज़ छुरा मेरी स्त्री की छाती में घुसेड़ दिया। मैं उसे रोकने के लिये आगे बढ़ा ; लेकिन वह कूदकर आँगन में चली गई और बोली--अब पहचान ले, मैं तूरया हूँ। मैं आज तेरे घर में रहने के लिये आई थी। मैं तुझसे विवाह करती

और तेरी होकर रहती। तेरे लिये मैंने बाप, घर, सब कुछ छोड़ दिया था ; लेकिन तू झूठा है, मक्कार है। तू अब अपनी बीबी के नाम को रो, मैं आज से तेरे नाम को रोऊँगी। यह कहकर वह तेज़ी से नीचे चली गई।

अब मैं अपनी स्त्री के पास पहुँचा। छुरा ठीक हृदय में लगा था। एक ही वार ने उसका काम तमाम कर दिया था। डाक्टर बुलवाया ; लेकिन वह मर चुकी थी।

कहते-कहते सरदार साहब की आँखों में आँसू भर आये। उन्होंने अपनी भीगी हुई आँखों को पोंछकर कहा--असदखाँ, मुझे स्वप्न में भी अनुमान न था कि तूरया इतनी पिशाच- हृदय हो सकेगी। अगर मैं पहले उसे पहचान लेता, तो यह आफ़त न आने पाती ; लेकिन कमरे में अन्धकार था, और इसके अतिरिक्त मैं उसकी ओर से निराश हो चुका था।

तब से फिर कभी तूरया नहीं आई। अब जब कभी मुझे देखती है, तो मेरी ओर देखकर नागिन की भाँति फुफकारती हुई चली जाती है। इसे देखकर मेरा हृदय काँपने लगता है और मैं अवश हो जाता हूँ। कई बार कोशिश की, मैं इसे पकड़वा दूँ; लेकिन उसे देखकर मैं बिल्कुल निकम्मा हो जाता हूँ। हाथ-पैर बेक़ाबू हो जाते हैं, मेरी सारी वीरता हवा हो जाती है। यही नहीं, तूरया का मोह अब भी मेरे ऊपर है। मेरे बच्चों को हमेशा वह कोई-न-कोई बहुमूल्य चीज दे जाती है। जिस दिन बच्चे उसे नहीं मिलते, दरवाज़े के भीतर फेंक जाती है। उनमें एक काग़ज़ का टुकड़ा बँधा होता है, जिसमें लिखा रहता है--सरदार साहब के बच्चों के लिए।

मैं अभी तक इस स्त्री को नहीं समझ पाया। जितना ही समझने का यत्न करता हूँ, उतनी ही यह कठिन होती जाती है। नहीं समझ में आता है कि यह मानवी है या राक्षसी !

इसी समय सरदार साहब के लड़के ने आकर कहा--देखिये, वही औरत यह सोने का ताबीज़ दे गई है।

सरदार साहब ने मेरी ओर देखकर कहा--देखा, असदखाँ, मैं तुमसे कहता न था। देखो, आज भी यह ताबीज़ दे गई। न मालूम, कितने ही ताबीज़ और कितनी ही दूसरी चीज़ें, अर्जुन और निहाल को दे गई होगी। कहता हूँ कि तूरया बड़ी ही विचित्र स्त्री है।

सरदार साहब से विदा होकर मैं घर चला। चौरस्ते से बुड्ढे की लाश हटा दी गई थी ; पर वहाँ पहुँचकर मेरे रोएँ

खड़े हो गए। मैं आप-ही-आप एक मिनट वहाँ खड़ा हो गया। सहसा पीछे देखा। छाया की भाँति एक स्त्री मेरे पीछे-पीछे चली आ रही थी। मुझे खड़ा देखकर वह स्त्री भी रुक गई और एक दूकान में कुछ खरीदने लगी।

मैंने अपने हृदय से प्रश्न किया--क्या वह तूरया है ?

हृदय ने उत्तर दिया--हाँ, शायद वही है।

तूरया मेरा पीछा क्यों कर रही है ? यही सोचता हुआ मैं घर पहुँचा और खाना खाकर लेटा; पर आज की घटनाओं का मुझ पर ऐसा असर पड़ा था कि किसी तरह भी नींद न आती थी। जितना ही मैं सोने का यत्न करता, उतना ही नींद मुझसे दूर भागती।

फ़ौजी घड़ियाल ने बारह बजाए, एक बजाए, दो बजाए ; लेकिन मुझे नींद न थी। मैं करवटें बदलता हुआ सोने का उपक्रम कर रहा था। इसी उधेड़-बुन में कब नींद ने मुझे धर दबाया, मुझे ज़रा भी याद नहीं।

यद्यपि मैं सो रहा था; लेकिन मेरा ज्ञान जाग रहा था। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कोई स्त्री, जिसकी आकृति तूरया से बहुत कुछ मिलती थी; लेकिन उससे कहीं अधिक भयावनी थी, दीवार फोड़कर भीतर घुस आई है। उसके हाथ में एक तेज़ छुरा है, जो लालटेन के प्रकाश में चमक

रहा है। वह दबे पाँव, सतर्क नेत्रों से ताकती हुई धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ रही है। मैं उसे देखकर उठना चाहता हूँ ; लेकिन हाथ-पैर मेरे क़ाबू में नहीं हैं। मानो उनमें जान है ही नहीं। वह स्त्री मेरे पास पहुँच गई। थोड़ी देर तक मेरी ओर देखा, और फिर अपने छुरेवाले हाथ को ऊपर उठाया। मैं चिल्लाने का उपक्रम करने लगा ; लेकिन मेरी घिग्घी बँध गई। शब्द कण्ठ से फूटा ही नहीं। उसने मेरे दोनों हाथों को अपने घुटने के नीचे दबाया और मेरी छाती पर सवार हो गई। मैं छटपटाने लगा और मेरी आँखें खुल गई। सचमुच एक काबुली औरत मेरी छाती पर सवार थी। उसके हाथ में छुरा था और वह छुरा मारना ही चाहती थी।

मैंने कहा--कौन तूरया ?

यह वास्तव में तूरया ही थी। उसने मुझे बलपूर्वक दबाते हुए कहा--हाँ, मैं तूरया ही हूँ। आज तूने मेरे बाप का खून किया है, उसके बदले में तेरी जान जायगी।

यह कहकर उसने अपना छुरा ऊपर उठाया। इस समय मेरे सामने जीवन और मरण का प्रश्न था। जीवन की लालसा ने मुझमें साहस का सञ्चार किया। मैं मरने के लिये तैयार न था, मेरे अरमान और उमंगें अब भी

बाक़ी थीं। मैंने बलपूर्वक अपना दाहिना हाथ छुड़ाने का प्रयत्न किया और एक ही झटके में मेरा हाथ छूट गया। मैंने अपनी पूरी ताक़त से तूरया का छुरावाला हाथ पकड़ लिया। न-मालूम क्यों तूरया ने कुछ भी विरोध न किया। वह मेरे हाथ को देखती हुई मेरी छाती से उतर आई। उसकी आँखें पथराई हुई थीं, और वह एकटक मेरे हाथ की ओर देख रही थी।

मैंने हँसकर कहा--तूरया, अब तो पासा पलट गया। अब तेरे मरने की पारी है। तेरे बाप को मारा और अब तुझे भी मारता हूँ।

तूरया अब भी एकटक मेरे हाथ की ओर देख रही थी। उसने कुछ भी उत्तर न दिया।

मैंने उसे झँझोड़ते हुए कहा--बोलती क्यों नहीं ? अब तो तेरी जान मेरी मुट्ठी में है।

तूरया का मोह टूटा। उसने बड़े गम्भीर और दृढ़ कण्ठ से कहा--तू मेरा भाई है। तूने अपने बाप को मारा है आज !

तूरया की बात सुनकर मुझे उस अवसर भी हँसी आ गई।

मैंने हँसते हुए कहा--अफ्रीदी मक्कार भी होते हैं, यह आज ही मुझे मालूम हुआ। तूरया ने शान्त स्वर में कहा--तू मेरा खोया हुआ बड़ा भाई नाज़िर है। यह जो तेरे हाथ में निशान है, वही बतला रहा है कि तू मेरा खोया हुआ भाई है।

बचपन से ही मेरे हाथ में एक साँप गुदा हुआ था। और यही मेरी पहिचान फ़ौजी रजिस्टर में भी लिखी हुई थी।

मैंने हँसकर कहा--तूरया तू मुझे भुलावा नहीं दे सकती। मैं अब तुझे किसी तरह न छोड़ूँगा।

तूरया ने अपने हाथ से छुरा फेंककर कहा--सचमुच तू मेरा भाई है। अगर तुझे विश्वास नहीं होता, तो देख,मेरे दाहिने हाथ में भी ऐसा ही साँप गुदा हुआ है।

मैंने तूरया के हाथ पर दृष्टि डाली, तो वहाँ भी बिल्कुल मेरा ही जैसा साँप गुदा हुआ था।

मैंने कुछ सोचते हुए कहा--तूरया, मैं तेरा विश्वास नहीं कर सकता, यह इत्तफाक़ की बात है।

तूरया ने कहा--मेरा हाथ छोड़ दे। मैं तुझपर वार न करूँगी। अफ्रीदी झूठ नहीं बोलते।

मैंने उसका हाथ छोड़ दिया, वह पृथ्वी पर बैठ गई,और मेरी ओर देखने लगी। थोड़ी देर बाद उसने कहा--अच्छा तुझे अपने माँ-बाप का पता है ? मैंने सिर हिलाकर उत्तर दिया--नहीं, मैं सरकारी अनाथालय में पाला गया हूँ।

मेरी बात सुनकर तूरया उठ खड़ी हुई, और बोली--तब तू मेरा खोया हुआ बड़ा भाई नाज़िर ही है। मेरे पैदा होने के एक साल पहले तू खोया था। मेरे माँ-बाप सब सरकारी फ़ौज पर छापा डालने के लिये आए थे, और तू भी साथ था। मेरी माँ लड़ने में बड़ी होशियार थीं। तू उनकी पीठ से बँधा हुआ था और वे लड़ रही थीं। इसी समय एक गोली उनके पैर में लगी और वे गिरकर बेहोश हो गई। बस, कोई तुझे खोल ले गया। मेरी माँ को मेरा बाप अपने कंधे पर उठा लाया; लेकिन तुझे न खोज सका। बहुत तलाश किया ; लेकिन कहीं भी तेरा पता न लगा। अम्माँ अकसर तेरी चर्चा किया करती थीं। उनके हाथ में भी यही निशान था।

यह कहकर उसने फिर वही हाथ मुझे दिखलाया। मैं उसका और अपना साँप मिलाने लगा। वास्तव में दोनों साँप हूबहू एक-से-एक थे, बाल-भर भी अन्तर न था। मैं हताश-सा होकर चारपाई पर गिर पड़ा।

तूरया मेरे पास बैठकर सस्नेह मेरे माथे का पसीना‌ पोंछने लगी। उसने कहा--नाज़िर, माँ कहती थीं कि तू

मरा नहीं, जिन्दा है। एक दिन ज़रूर तू हम लोगों से मिलेगा।

तूरया की बात पर अब मुझे विश्वास हो चला था। न-जाने कौन मेरे हृदय में बैठा हुआ कह रहा था, कि तूरया जो कहती है, ठीक है। मैंने एक लम्बी साँस लेकर कहा--क्यों तूरया, मैंने जिसे आज मारा है, वह हम लोगों का बाप था ?

तूरया के मुँह पर शोक का एक छोटा-सा बादल घिर आया। उसने बड़े ही दुःखपूर्ण स्वर में कहा--हाँ नाज़िर, वह अभागा हमारा बाप ही था। कौन जानता था कि वह अपने प्यारे लड़के के हाथों हलाल होगा।

फिर सान्त्वना-पूर्ण स्वर में बोली--लेकिन नाज़िर, तूने तो अनजान में यह काम किया है। बाप के मरने से मैं बिल्कुल अकेली हो गई थी ; लेकिन अब तुझे पाकर मैं बाप के रंज को भूल जाऊँगी। नाज़िर, तू रंज न कर। तुझे क्या मालूम था कि कौन तेरा बाप है और कौन तेरी माँ है ! देख, मैं ही तुझे मारने के लिये आई थी, तुझे मार डालती ; लेकिन खुदा की मेहरबानी से मैंने अपना खानदानी निशान देख लिया। खुदा की ऐसी ही मरजी थी।

तूरया से मालूम हुआ कि मेरे बाप का नाम हैदरखाँ

था, जो अफ्रीदियों के एक गिरोह का सरदार था। मैंने सरदार हिम्मतसिंह के सम्बन्ध में भी तूरया से बातें की, तो मालूम हुआ कि तूरया सरदार साहब को प्यार करने लगी थी। वह हमारे बाप से लड़-भिड़कर सरदार साहब से निकाह करने आई थी ; लेकिन वहाँ इनकी स्त्री को पाकर वह ईर्षा और क्रोध से पागल हो गई, और उसने उनकी स्त्री की हत्या कर डाली। काबुली औरत के भेष में जाकर वह कुछ मज़ाक करना चाहती थी; लेकिन घटना-चक्र उसे दूसरे ही ओर ले गया।

मैंने सरदार साहब की दशा का वर्णन किया। सुनकर वह कुछ सोचती रही और फिर कहा--नहीं, वह आदमी झूठा और दग़ाबाज़ है। मैं उससे निकाह नहीं करूँगी ; लेकिन तेरी खातिर अब सब भूल जाऊँगी। कल उनके बच्चों को ले आना, मैं प्यार करूँगी।

प्रातःकाल तूरया को देखकर मेरा नौकर आश्चर्य करने लगा। मैंने उससे कहा--यह मेरी सगी बहन है।

नौकर को मेरी बात पर विश्वास न हुआ। तब मैंने विस्तारपूर्वक सब हाल कहा और उसे उसी समय अपने बाप की लाश की खबर लेने के लिये भेजा। नौकर ने आकर कहा--लाश अभी तक थाने पर रक्खी हुई है। मैंने बड़े साहब के नाम एक पत्र लिखकर सब हाल बता दिया, और लाश पाने के लिये दरख्वास्त की। उसी समय साहब के यहाँ से स्वीकृति आ गई।

एक पत्र लिखकर मेजर साहब को भी बुलवाया।

मेजर साहब ने आकर कहा--क्या बात है असद ? इतनी जल्दी आने के लिये क्यों लिखा ?

मैंने हँसते हुए कहा--मेजर साहब, मेरा नाम असद नहीं रहा, मेरा असली नाम है नाज़िर।

मेजर साहब ने साश्चर्य मेरी ओर देखते हुए कहा--रात-भर में तुम पागल तो नहीं हो गये ?

मैंने हँसते हुए कहा--नहीं, सरदार साहब, अभी और सुनिये। तूरया मेरी सगी बहन है, और जिसे कल मैंने मारा, वह मेरा बाप था।

सरदार साहब मेरी वात सुनकर मानो आकाश से गिर पड़े। उनकी आँखें कपाल पर चढ़ गई। उन्होंने कहा--क्यों असद, तुम मुझे भी पागल कर डालोगे ?

मैंने सरदार साहब का हाथ पकड़कर कहा--आइये,तूरया के मुँह से ही सब हाल सुन लीजिये। तूरया मेरे यहाँ बैठी हुई आपकी प्रतीक्षा कर रही है।

सरदार साहब सकते की हालत में मेरे पीछे-पीछे चले।
तूरया उन्हें आते देखकर उठ खड़ी हुई और हँसती हुई बोली--कै़दी, तुम वही गीत फिर गाओ। तूरया की बात सुनकर मैं और सरदार साहब भी हँसने लगे।

सरदार साहब को बिठाकर मैंने विस्तार-पूर्वक सब हाल कहा। कहानी सुनकर सरदार साहब ने मुझसे कहा--नाजिर, अब तुम्हें नाज़िर ही कहूँगा, तूरया को मैं तुमसे माँगता हूँ। मैं इसके साथ विवाह करूँगा।

मैंने हँसकर कहा--लेकिन आप हिन्दू हैं, और हम लोग मुसलमान।

सरदार साहब ने हँसकर कहा--पलटनियों की कोई जाति-पाँति नहीं है।

तूरया ने उसी समय कहा--लेकिन सरदार साहब, मैं तुमसे विवाह नहीं करूँगी, हाँ अगर तुम अपने दोनों बच्चों को मेरे पास भेज दो, तो मैं उनकी माँ बन जाऊँगी।

सरदार साहब हँसते हुए विदा हुए।

उसी दिन शाम को हमने सरदार साहब, तूरया और दूसरे पलटनियों के साथ जाकर अपने बाप की लाश दफ़नाई।

सूरज डूब रहा था। धीरे-धीरे अँधेरा हो रहा था‌,और हम दोनों, तूरया और मैं, अपने बाप की कब्र पर फ़ातिहा पढ़ रहे थे।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।