परीक्षा गुरु ६
धर्म,अर्थ शुभ कहत कोउ काम, अर्थ कहिं आन
कहत धर्म कोउ अर्थ कोउ तीनहुँ मिल शुभ जान
मनुस्मृति.
“आप के कहनें मूजब किसी आदमी की बातों से उसका स्वभाव नहीं जाना जाता फिर उसका स्वभाव पहचानने के लिये क्या उपाय करें?" लाला मदनमोहन ने तर्क की.
"उपाय करने की कुछ जरूरत नहीं है, समय पाकर सब अपने आप खुल जाता है” लाला ब्रजकिशोर कहने लगे. “मनुष्य के मन में ईश्वर ने अनेक प्रकार की वृत्ति उत्पन्न की है जिसमें परोकार की इच्छा, भक्ति और न्यायपरता धर्मप्रवृत्ति में गिनी जाती हैं. दृष्टांत और अनुमानादि के द्वारा उचित अनुचित कामों की विवेचना, पदार्थज्ञान और विचारशक्ति का नाम बुद्धिवृत्ति है. बिना विचारे अनेक बार के देखने सुनने आदि से जिस काम में मन की प्रवृत्ति हो, उसे आनुसंगिक प्रवृत्ति कहते हैं. काम, सन्तान स्नेह संग्रह करने की लालसा, जिज्ञासा और
धर्मार्थाकुच्येते श्रेय: कामर्थो धर्म एव च॥
अर्थ एवेह वा श्रेय स्विवर्ग इति तु स्थिति:॥
आत्मसुख की अभिरुचि इत्यादि निकृष्ट प्रवृत्ति में शामिल हैं
और इन सब के अविरोध में जो काम किया जाय वह ईश्वर के नियमानुसार समझा जाता है परन्तु किसी काम में दो वृत्तियों का विरोध किसी तरह न मिट सके तो वहां जरूरत के लायक आसंगिक प्रवृत्ति और निकृष्ट प्रवृत्ति को धर्मप्रवृत्ति और बुद्धि वृत्ति से दबा देना चाहिये जैसे श्रीरामचन्द्र जी ने राज पाट छोड कर बन में जाने से धर्म प्रवृत्ति को उत्तेजित किया था.”
“यह तो सवाल और जवाब हुआ मैंने आप से मनुष्य
का स्वभाव पहचानने की राय पूछी थी आप बीच में मन की
बृत्तियों का हाल कहनें लगे” लाला मदनमोहन ने कहा.
nh “इसी से आगे चल कर मनुष्य के स्वभाव पहचानने की रीति मालूम होगी।” “पर आप तो काम, सन्तानस्नेह आदि के अविरोध में भक्ति और परोपकारादि करने के लिये कहते हैं और शास्त्रों में काम, क्रोध,लोभ, मोह आदि की बारम्बार निन्दा की है फिर आप का कहना ईश्वर के नियमानुसार कैसे हो सकता है?” पंडित पुरुषोत्तमदास बीच में बोल उठे.
“मैं पहले कह चुका हूं कि जहाँ धर्मप्रवृत्ति और निकृष्ट प्रवृत्ति
में विरोध हो वहां जरूरत के लायक धर्मप्रवृत्ति को प्रबल मानना चाहिये परंतु धर्मप्रवृत्ति और बुद्धिप्रवृत्ति का बचाव किये
पीछे भी निकृष्टप्रवृत्ति का त्याग किया जायगा तो ईश्वर की
यह रचना सर्वथा निरर्थक ठहरेगी पर ईश्वर का कोई काम निरर्थक नहीं है. मनुष्य निकृष्ट प्रवृत्ति होकर धर्म प्रवृत्ति
म्बार उसका निषेध किया है परंतु धर्मप्रवृत्ति और बुद्धि को
मुख्य माने पीछे उचित रीति से निकृष्प्रवृत्ति का आचरण किया
जाय तो गृहस्थ के लिये दूषित नहीं हो सकता .हाँ उसका नियम उल्लंघन कर किसी एक वृत्ति की प्रबलता से और वृत्तियों के विपरीत आचरण कर कोई दु:ख पावे तो इसमें किसी का बस नहीं. सब से मुख्य धर्म प्रवृत्ति है परंतु उसमें भी जबतक और वृत्तियों के हक की रक्षा न की जायेगी अनेक तरह के बिगाड़ होने की संभावना बनी रहेगी”
“मुझको आप की यह बात बिल्कुल अनोखी मालूम होती
है भला परोपकारादि शुभ कामों का परिणाम कैसे बुरा हो
सकता है?” पंडित पुरुषोत्तमदास ने कहा.
“जैसे अन्न प्राणधार है परंतु अति भोजन से रोग उत्पन्न होता है" लाला ब्रजकिशोर कहने लगे "देखिये परोपकार की इच्छा ही अत्यंत उपकारी है परंतु हद से आगे बढ़ने पर वह भी फिजूलखर्ची समझी जायगी और अपने कुटुंब परिवार आदि का सुख नष्ट हो जायगा जो आलसी अथवा अधर्मियों की सहायता की तो उससे संसार में आलस्य और पाप की वृद्धि होगी इसी तरह कुपात्र में भक्ति होने से लोक, परलोक दोनों नष्ट हो जाएँगे,न्यायपरता यद्यपि सब वृत्तियों को समान रखने वाली है परंतु इसकी अधिकता से भी मनुष्य के स्वभाव में मिलनसारी नहीं रहती. क्षमा नहीं रहती. जब बुद्धि वृत्ति के कारण किसी वस्तु के विचार में मन अत्यंत लग जायेगा तो और जानने लायक पदाथों की अज्ञानता बनी रहेगी मन
को अत्यंत परिश्रम होने से वह निर्बल हो जायेगा, और शरीर
का परिश्रम बिल्कुल न होने के कारण शरीर भी बलहीन हो
जायेगा. आनुसंगिक प्रवृत्ति के प्रबल होने से जैसा संग होगा
"आप तो फिर वही मन की वृत्तियों का झगड़ा ले बैठे मेरे सवाल का जवाब दीजिये या हार मानिये" लाला मदन मोहन उखता कर कहने लगे.
“जब आप पूरी बात ही न सुनें तो मैं क्या जवाब दूँ? मेरा
मतलब इतने विस्तार से यह था कि सब वृत्तियों का संबंध
मिला कर अपना कर्तव्य कर्म निश्चय करना चाहिये. किसी एक वृत्ति की प्रबलता से और वृत्तियों का विचार किया जायगा तो उसमें बहुत नुक्सान होगा” लालाब्रजकिशोर कहने लगेः
"वाल्मीकि रामायण में भरत से रामचन्द्र ने और महाभारत में नारद मुनि ने राजा युधिष्टिर से ये प्रश्न किया है ‘धर्महि धन, अर्थहि धरम बाधक तो कहुँ नाहि?॥ काम न करत बिगार कछु पुन इन दोउन मांहि॥"१
बिदुरप्रजागर में बिदुर जी राजा धृतराष्ट्र से कहते हैं "धर्म अर्थ अरु काम, यथा समय सेवत जु नर॥ मिल तीनहुँ अभिराम ताहि देत दुहुँलोक सुख॥"२
विष्णुपुराण में कहा है "धर्म बिचारै प्रथम पुनि अर्थ, धर्म अविरोधि॥ धर्म, अर्थ बाधा रहित सेवै काम सुसोधि॥"३
रघुवंश में अतिथि की प्रशंसा करते बार महाकवि कालि-
१.कच्चिदर्थेन वा धर्म धर्मेणार्थे मथा पिवा!!
उभी वा प्रीतिसारेण न कामेन प्रबाधसे॥
२. योधर्मं मर्थ कामं च यथा कालं निषेवते।
धर्मार्थ काम संयोगं सोमुत्नेहच विन्दति॥
२. विबुुद्धश्चिन्तयेविबुद्धश्चिन्तयेद्धर्म मर्थ चास्या विरोधिनम्॥
अपीडया तयो: काम मुभयोरपि चिन्तयेत्।
दास ने कहा है "निरीनीति कायरपनो केवल बल पशुधर्म्म॥ तासों उभय मिलाय इन सिद्ध किये सब कर्म्म॥[१]॥
हीन निकम्मे होत हैं बली उपद्रववान॥ तासों कीन्हें मित्र तिन मध्यम बल अनुमान॥[२]"
"चाणक्य ने लिखा है "बहुत दान ते बलि बँध्यो मान मरो कुरुराज॥ लंपट पन रावण हत्यो अति वर्जित सब काज॥[३]"
"फीजिया के मशहूर हकीम एपिक्टेट्स की सब नीति इन दो वचनों में समाई हुई है कि "धैर्य सै सहना" और "मध्यम भाव सै रहना" चाहिये.
"कुरान मैं कहा है कि "अय(लोगों)! खाओ, पीओ परन्तु फ़िजूलख़र्ची न करो॥[४]"
"बृन्द कहता है "कारज सोई सुधर है जो करिये समभाय॥ अति बरसे बरसे बिना जों खेती कुह्मलाए।"
"अच्छा संसार मैं किसी मनुष्य का इसरीति पर पूरा बरताव भी आज तक हुआ है?" बाबू बैजनाथ ने पूछा.
"क्यों नहीं देखिये पाईसिस्ट्रेट्रस नामी एथीनियन का नाम इसी कारण इतिहास मैं चमक रहा है. वह उदार होनें पर
फ़िजूलखर्च न था और किसी के साथ उपकार कर के प्रत्यु-
पकार नहीं चाहता था बल्कि अपनी मानवरी की भी चाह न
रखता था, वह किसी दरिद के मरने की खबर पाता तो उसकी क्रिया-कर्म के लिये तत्काल अपने पास से खर्च भेज देता, किसी दरिद्र को विपदग्रस्त देखता तो अपने पास से सहायता करके उसके दुख दूर करने का उपाय करता, पर कभी किसी मनुष्य को उसकी आवश्यकता से अधिक देकर आलसी और निरुद्यमी नहीं होने देता था. हां सब मनुष्यों की प्रकृति ऐसी नहीं हो सकती. बहुधा जिस मनुष्य के मन में जो वृत्ति प्रबल होती है वह उसको खींच-खांच कर अपनी ही राह पर ले जाती है जैसे एक मनुष्य जंगल में रुपयों की थैली पड़ी पावे और उस समय उसके आस-पास कोई न हो तब संग्रह करने की लालसा कहती है कि “इसे उठा लो" सन्तान स्नेह और आत्म सुख की अभिरुचि सम्मति देती है कि "इस काम से हमको भी सहायता मिलेगी” न्यायपरता कहती है कि "न अपनी प्रसन्नता से यह किसी ने हमको दी, न हमने परिश्रम कर के यह किसी से पाई फिर इसपर हमारा क्या हक है? और इस्का लेना चोरी से क्या कम है? इसे पर धन समझ कर छोड़ चलो".
परोपकार की इच्छा कहती है कि “केवल इसका छोड़ जाना उचित नहीं, जहां तक हो सके उचित रीति से इसको इसके मालिक के पास पहुंचाने का उपाय करो" अब इन वृत्तियों से जिस वृत्ति के अनुसार मनुष्य काम करे वह उसी मेल में गिना
जाता है यदि धर्मप्रवृत्ति प्रबल रही तो वह मनुष्य अच्छा समझा जायगा और रीति से भले-बुरे मनुष्यों की परीक्षा समय पाकर अपने आप हो जाएगी बल्कि अपनी वृत्तियों को
पहचान कर मनुष्य अपनी परीक्षा भी आप कर सकेगा, राजपाट, धन-दौलत, विद्या, स्वरूप, वंश, मर्यादा में भले बुरे मनुष्य की परीक्षा नहीं हो सकती. बिदुरजी ने कहा है “उत्तमकुल आचार बिन करे प्रमाण न कोई॥ कुलहीनों आचारयुक्त लहे बड़ाई सोइ॥"
सब भूतनको तत्व लख कर्म योग पहिचान॥
मनुजनके यत्नहिं लखहिं सो पंडित गुणवान॥
विदुर प्रजागरे
“यहां तो आप अपने कहने पर खुद ही पक्के न रहें, आप ने केलीप्स और डिओन का दृष्टांत देकर यह बात साबित की थी कि किसी की जहिरी बातों से उसकी परीक्षा नहीं हो सकती परन्तु अंत में आप ने उसी के कामों से उसको पहचानने की राय बतलाई” बाबू बैजनाथ ने कहा.
न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाण मिति में मति:॥
अन्तेष्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते॥
तत्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञ: सर्वकर्मणाम्॥
उपायज्ञों मनुष्याणां नर: पंडित उच्यते॥
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