[ २४६ ]कि "बाहर गए" लाचार मदनमोहन को वहां सै भी खाली हाथ फिरना पड़ा. और अब और मित्रोंके यहां जानें का समय नहीं रहा इस लिये निराश होकर सीधे अपनें मकान को चले गए.


प्रकरण ३४.


हीनप्रभा (बदरोबी).

नीचन के मन नीति न आवै। प्रीति प्रयोजन हेतु लखावै॥
कारज सिद्ध भयो जब जानें। रंचकहू उर प्रीति न माने॥
प्रीति गए फलहू बिनसावै। प्रीति विषै सुख नैक न पावै॥
जादिन हाथ कछू नहीं आवै। भाखि कुबात कलंक लगावै॥
सोइ उपाय हिये अवधारै। जासु बुरो कछु होत निहारै॥
रंचक भूल कहूं लख पावै। भांति अनेक बिरोध बढावै॥ +[१]

बिदुरप्रजागरे.

लाला मदनमोहन मकान पर पहुंचे उस्समय ब्रजकिशोर वहां मौजूद थे.

लाला ब्रजकिशोर नें अदालत का सब बृत्तान्त कहा उस्मैं मदनमोहन मोदी के मुकद्दमें का हाल सुन्कर बहुत प्रसन्न हुए उस्समय चुन्नीलाल ने संकेत मैं ब्रजकिशोर के महन्तानें की याद [ २४७ ] दिवाई जिस्पर लाला मदनमोहन नें अपनी अंगुली सै हीरे की एक बहुमुख्य अंगूठी उतार कर ब्रजकिशोर को दी और कहा “आप की महनत के आगे तो यह महन्ताना कुछ नहीं है परन्तु अपना पुराना घर और मेरी इस दशा का विचार करके क्षमा करिये"

यह बात सुन्ते ही एक बार लाला ब्रजकिशोर का जी भर आया परन्तु फिर तत्काल सम्हल कर बोले "क्या आपनें मुझको ऐसा नीच समझ रक्खा है कि मैं आप का काम महन्ताने के लालच सै करता हूं? सच तो यह है कि आप के वास्ते मेरी जान जाय तो भी कुछ चिन्ता नहीं परन्तु मेरी इतनी ही प्रार्थना है कि आपने अंगूठी दे कर मुझसै अपना मित्र भाव प्रगट किया सो मैं आपकी बराबर का नहीं बना चाहता मैं आपको अपना मालिक समझता हूं इसलिये आप मुझे अपना ‘हल्कःबगोश (सेवक) बनायं”

"यह क्या कहते हो! तुम मेरे भाई हो क्यों कि तुमको पिता सदा मुझसै अधिक समझते थे हां तुम्हैं बाली पहन्हें की इच्छा हो तो यह लो मेरी अपेक्षा तुम्हारे कानमैं यह बहुमूल्य मोती देखकर मुझको अधिक सुख होगा परन्तु ऐसे अनुचित बचन मुखसें न कहो" यह कह कर लाला मदनमोहननें अपनें कानकी बाली ब्रजकिशोरको दे दी।

“कल हरकिशोर आदि के मुकद्दमें होंगे उनकी जवाबदिही का विचार करना है कागज तैयार करा कर उन्सै रहत (बदर) छांटनी है इसलिये अब आज्ञा हो" यह कह कर ब्रजकिशोर रुखसत हुए और लाला मदनमोहन भोजन करनें गए। [ २४८ ]लाला मदनमोहन भोजन करके आए उस्तमय मुन्शी चुन्नीलालनें अपनें मतलब की बात छेड़ी।

"मुझको हर बार अर्ज करनेंमै बड़ी लज्जा आती है परन्तु अर्ज किये बिना भी काम नहीं चलता" मुन्शी चुन्नीलाल कहनें लगा "ब्याहका काम छिड़ गया परन्तु अबतक रुपेका कुछ बन्दोबस्त नहीं हुआ आपनें दो सौके नोट दिये थे वह जाते ही चटनी हो गए। इस्समय एक हजार रुपयेका भी बन्दोबस्त हो जाय तो खैर कुछ दिन काम चल सक्ता है नहीं तो काम नहीं चल्ता"

"तुम जानते हो कि मेरे पास इस्समय नगद कुछ नहीं है और गहना भी बहुतसा काममें आचुका है” लाला मदनमोहन बोले “हां मुझको अपनें मित्रों की तरफ सै सहायता मिल्नें का पूरा भरोसा है और जो उन्की तरफ सै कुछ भी सहायता मिला तो मैं प्रथम तुह्मारी लड़की के ब्याहका बन्दोबस्त कर दूंंगा।

"और जो मित्रों सै सहायता न मिली तो मेरा क्या हाल होगा?” मुन्शी चुन्नीलालनें कहा “ब्याह का काम किसी तरह नहीं रुक सक्ता और बड़े आदमियों की नौकरी इसी वास्ते तन तोड़ कर की जाता है कि ब्याह शादी मैं सहायता मिले, बराबरवालोंमैं प्रतिष्ठा हो परन्तु मेरे मन्द भाग्य सै यहां इस्समय ऐसा मौका नहीं रहा इसलिये मैं आपको अधिक परिश्रम नहीं दिया चाहता। अब मेरी इतनी ही अर्ज है कि आप मुझको कुछ दिनकी रुख्सत देदैं जिससै मैं इधर उधर जाकर अपना कुछ सूझता करू” [ २४९ ]"तुमको इस्समय रुखसत का सवाल नहीं करना चाहिये मेरे सब कामों का आधार तुम पर है फिर तुम इस्समय धोका दे कर चले जाओगे तो काम कैसे चलेगा?" लाला मदनमोहनने कहा

"वाह! महाराज वाह! आपनें हमारी अच्छी कदर की!" मुन्शी चुन्नीलाल तेज होकर कहनें लगा "धोका आप देते हैं या हम देते हैं? हम लोग दिन रात आपकी सेवा मैं रहैं तो ब्याह शादी का खर्च लेनें कहां जाय? आपने अपनें मुख सै इस ब्याह मैं भली भांति सहायता करनें के लिये कितनी ही बार आज्ञा की थी, परन्तु आज वह सब आस टूट गई तो भी हमनें आपको कुछ ओलंभा नहीं दिया आप पर। कुछ बोझ नहीं डाला केवल अपनें कार्य निर्वाह के लिये कुछ दिन की रुख्सत चाही तो आपके निकट बड़ा अधर्म हुआ। खैर! जब आपके निकट हम धोकेबाज ही ठरे तो अब हमारे यहां रहने सै क्या फायदा है? यह आप अपनी तालियां लें और अपना अस्बाब सह्माल लें पीछे घटे बढ़ेगा तो मेरा जिम्मा नहीं है। मैं जाता हूं।" यह कह कर तालियोंका झुमका लाला मदनमोहनके आगे फेंक दिया और मदनमोहन के ठंडा करते करते क्रोध की सूरत बना कर तत्काल वहां सै चल खड़ा हुआ।

सच है नीच मनुष्य के जन्म भर पालन पोषण करने पर भी एक बार थोड़ी कमी रहजानें सै जन्म भर का किया कराया मट्टी में मिल जाता है. लोग कहते हैं कि अपनें प्रयोजन मैं किसी तरह का अन्तर आनें सै क्रोध उत्पन्न होता है अपनें काम मैं सहा[ २५० ] यता करनें सै बिरानें अपनें होजाते हैं और अपनें काम में बिघ्न करनें से अपनें बिराने समझे जाते हैं परन्तु नहीं, क्रोध निर्बल पर विशेष आता है और नाउस्मेदी की हालत मैं उस्की कुछ हद नहीं रहती. मुन्शी चुन्नीलाल पर लाला मदनमोहन कितनी ही बार इस्सै बढ, बढ़ कर क्रोधित हुए थे परन्तु चुन्नोलाल को आज तक कभी गुस्सा नहीं आया? और आज लाला मदनमोहन उस्को ठंडा करते रहे तो भी वह क्रोध करके चल दिया वृन्दनें सच कहा है "बिन स्वारथ कैसे सह कोऊ करुए बैन। लात खाय पुचकारिए होय दुधारू धेन॥"

मुन्शी चुन्नीलाल के जानें सै लाला मदनमोहन का जी टूट गया परन्तु आज उन्को धैर्य देनें के लिये भी कोई उन्के पास न था उन्के यहां सैंकडों आदमियों का जमघट हर घडी बना रहता था सो आज चिडिया तक न फटकी. लाला मदनमोहन इसी सोच विचार मैं रात के नौ बजे तक बैठे रहे परन्तु कोई न आया तब निराश होकर पलंग पर जा लेटे.

अब लाला मदनमोहन का भय नोकरोंपर बिल्कुल नहीं रहा था सब लोग उन्के माल को मुफ्तका माल समझनें लगे थे किसी नें घडी हथियाई, किसी नें दुशालेपर हाथ फैंका चारों तरफ लूटीसी होने लगी. मोजे, गुलूबंद, रूमाल आदिकी तो पहलेही कुछ पूछ न थी. मदनमोहन को हर तरह की चीज खरीदनें की धत थी परन्तु खरीदे पोछे उस्को कुछ याद नहीं रहती थी और जहां सैकडों चीजें नित्य खरीदी जाँँय वहां याद क्या धूल रहै? चुन्नीलाल, शिंभूदयाल आदि कीमत मैं दुगुनें चौगनें कराते ही थे परन्तु यहां असल चीजोंही का पता न था. बहुधा चीजें उधार [ २५१ ] आती थीं इस्सै उन्का जमा खर्च उससमय नहीं होता था और छोटी, छोटी चीजों के दाम तत्काल खर्च मैं लिख दिये जाते थे इस्सै उन्की किसी को याद नहीं रहती थी, सूची पत्र बनानें की वहां चाल न थी और चीज बस्त की झडती कभी नहीं मिलाई जाती थी नित्य प्रति की तुच्छ, तुच्छ बातोंपर कभी, कभी वहां बडा हल्ला होताथा परन्तु सब बातोंके समूह पर दृष्टि करके उचित रीतिसै प्रबन्ध करनें की युक्ति कभी नहीं सोची जाती थी और दैवयोगेन किसी नालायक सै कोई काम निकल आता था तो वह अच्छा समझ लिया जाता था परन्तु काम करनें की प्रणाली पर किसी की दृष्टि न थी. लाला साहब दो तीन वर्ष पहलै आगरे लखनऊ की सैरको गए थे वहां के रस्ते खर्च के हिसाब का जमा खर्च अबतक नहीं हुआ था और जब इस तरह कोई जमा खर्च हुए बिना बहुत दिन पडा रहता था तो अन्त मैं उस्का कुछ हिसाब किताब देखे बिना यों ही खर्च मैं रकम लिख कर खाता उठा दिया जाता था. कैसेही आवश्यक काम क्यों नही लाला साहब की रुचिके विपरीत होनें सै वह सब बेफायदे समझे जाते थे और इस ढब की वाजबी बात कहना गुस्ताखी मैं गिना जाता था. निकम्मे आदमियों के हरवक्त घेरे बैठे रहनें सै काम आदमियों को कामकी बात करनें का समय नहीं मिलता था, “जिस्की लाठी उस्की भैंस” हो रही थी जो चीज जिस्के हाथ लगती थी वह उस्को खुर्दबुर्द कर जाताथा भाडे और उघाई आदिकी भूली भुलाई रकमों को लोग ऊपर का ऊपर चट करजाते थे आधे परदे पर कज दारोंको उनकी दस्तावेज़ फेर दी जाती थी देशकाल के अनुसार उचित प्रबन्ध करनें मैं लोक निंदाका भय था! जो मनुष्य कृपा[ २५२ ]पात्रथे उनका तन्‌तना तो बहुतही बढ रहा था. उन्के सब अपराधोंसै जान बूझकर दृष्टि बचाई जाती थी. वह लोग सब कामों मैं अपना पांव अडाते थे और उन्के हुक्म की तामील सबको करनी पडती थी यदि कोई अनुचित समझकर किसी काम मैं उज्र करता तो उस्पर लाला साहब का कोप होताथा और इस दुफसली काररवाई के कारण सब प्रबन्ध बिगड रहा था (बिहारी)" दुसह दुराज प्रजान को क्यों न बढै दुंख दुद॥ अधिक अंधेरो जग करै मिल मावस रवि चंद॥" ऐसी दशा मैं मदनमोहन की स्त्रीके पीछे चुन्नीलाल और शिंभूदयाल के छोड जाने पर सब माल मतेकी लूट होनें लगे जो पदार्थ जिस्के पास हो वह उस्का मालिक बन बैठे इस्मैं कौन आश्चर्य है?

 

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  1. + निवर्तनाने सौहार्दे प्रोति र्नीचे प्रणश्यति।
    याचैव फलनिर्तत्तिः सौहृदे चैव यन्सुखम्॥
    यतते अपवादाय यत्न मारभते क्षये।
    अल्पे प्यपकृते मोहन् न शान्ति मधिगच्छति॥