[ १२४ ]इन्साफ़ का साथ देना और हर तरह का स्वार्थ छोडकर सर्व साधारण के हित मैं तत्पर रहना मेरे जान सच्चा परोपकार हैं" लाला ब्रजकिशोर ने जवाब दिया.


प्रकरण १८.

क्षमा.

नरको भूषण रूप है रूपहुको गुणजान।
गुणको भूषण ज्ञान है क्षमा ज्ञान को मान ॥१॥
*[१]

सुभाषित रत्नाकरे.

"आप चाहे स्वार्थ समझैं चाहे पक्षपात समझैं हरकिशोर ने तो मुझे ऐसा चिड़ाया है कि मैं उस्सै बदला लिये बिना कभी नहीं रहूंगा" लाला मदनमोहन ने गुस्से सै कहा.

"उस्का कसूर क्या है? हरेक मनुष्य सै तीन तरह की हानि हो सक्ती है एक अपवाद करके दूसरे के यश मैं धब्बा लगाना, दूसरे शरीर की चोट, तीसरे माल का नुक्सान करना इन्में हरकिशोर ने आप की कौनसी हानि की?" लाला ब्रजकिशोर ने कहा.

लाला मदनमोहन के मन में यह बात निश्चय समा रही थी कि हरकिशोर ने कोई बड़ा भारी अपराध किया है परंतु ब्रजकिशोर ने तीन तरह के अपराध बताकर हरकिशोर का अपराध पूछा तब वह कुछ न बता सके क्योंकि मदनमोहन की वाक़फियत मैं ऐसा कोई अपराध हरकिशोर का न था. मदनमोहन [ १२५ ]को लोगों ने आस्मान पर चढ़ा रक्खा था इसलिये केवल हरकिशोर के जवाब देनें सै उस्के मन मैं इतना गुस्सा भर रहा था.

"उस्नें बड़ी ढिटाई की वह अपनें रुपे तत्काल मांगनें लगा और रुपया लिये बिना जानें सै साफ़ इन्कार किया" लाला मदनमोहन नें बड़ी देर सोच विचार कर कहा.

"बस उस्का यही अपराध है? इस्मैं तो उस्नें आप की कुछ हानि नहीं की मनुष्य को अपना सा जी सबका समझना चाहिये. आप का किसी पर रुपया लेना हो और आप को रुपे की ज़रूरत हो अथवा उस्की तरफ़ सै आप के जीमैं किसी तरहका शक आजाय अथवा आप के और उस्के दिल मैं किसी तरह का अन्तर आजाय तो क्या आप उस्सै व्यवहार बंद करने के लिये अपने रुपेका तकाज़ा न करेंगे? जब ऐसी हालतों मैं आप को अपने रुपे के लिये औरों पर तक़ाज़ा करने का अधिकार है तो औरों को आप पर तक़ाज़ा करने का अधिकार क्यों न होगा? आप तो बेसबब ज़रा, ज़रासी बातों पर मुंह बनाएं, वाजबी राह सै ज़रासी बात दुलख देनें पर उस्को अपना शत्रु समझनें लगें और दूसरे को वाजबी बात कहने का भी अधिकार न हो!" लाला ब्रजकिशोर ने ज़ोर देकर कहा.

"साहब! उस्नें लाला साहब को तंग करने की नीयत से ऐसा तक़ाज़ा किया था" मुन्शी चुन्नीलाल बोले. [ १२६ ]

"लाला साहब को उस्का स्वभाव पहचानकर उस्सै व्यवहार डालना चाहिये था अथवा उस्का रुपया बाकी न रखना चाहिये था. जब उसका रुपया बाक़ी है तो उस्को तक़ाज़ा करने का निस्संदेह अधिकार है और उस्ने कड़ा तक़ाज़ा करने में कुछ अपराध भी किया हो तो उस्के पहले कामोंका संबंध मिलाना चाहिये" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे. "प्रल्हादजीने राजा बलिसै कहा है "पहलो उपकारी करै जो कहुं अतिशय हान॥ तोहू ताको छोड़िये पहले गुण अनुमान॥१॥ बिन समझे आश्रित करै सोऊ क्षमिये तात॥ सब पुरुषनमैं सहज नहिं चतुराई की बात॥२॥" +[२] यह सच है कि छोटे आदमी पहले उपकार करकै पीछे उसका बदला बहुधा अनुचित रीतिसे लिया चाहते हैं परंतु यहां तो कुछ ऐसा भी नहीं हुआ."

"उपकार हो या न हो ऐसे आदमियोंको उन्की करनी का दंड तो अवश्य मिलना चाहिये." मास्टर शिंभूदयाल कहनें लगे. जो उन्को उन्की करनीका दंड न मिलेगा तो उन्की देखा देखी और लोग बिगड़ते चले जायँगे और भय बिना किसी बातका प्रबंध न रह सकेगा सुधरे हुए लोगों का यह नियम है कि किसीको कोई नाहक न सतावै और सतावै तो दंड पावै. दंडका प्रयोजन किसी अपराधी सै बदला लेनेका नहीं. [ १२७ ]है बल्कि आगैके लिये और अपराधों से लोगों को बचाने का है"

"इसी वास्तै मैं चाहता हूं कि मेरा चाहै जितना नुक्सान हो जाय परंतु हरकिशोर के पल्ले फूटी कौड़ी न पड़ने पावे" लाला मदनमोहन दांत पीसकर कहनें लगे.

"अच्छा! लाला साहबनें कहा इस रीति सै क्या मास्टर साहब के कहने का मतलब निकल आवैगा?" लाला ब्रजकिशोर पूछने लगे. "आप जान्ते हैं कि दंड दो तरह का है एक तो उचित रीति सै अपराधी को दंड दिवाकर औरोंके मनमैं अपराधकी अरुचि अथवा भय पैदा करना, दूसरे अपराधी से अपना वैर लेना और अपने जी का गुस्सा निकालना. जिस्ने झूंटी निंदा करके मेरी इज्जत ली उस्को उचित रीति सै दंड कराने में मैं अपने देशकी सेवा करता हूं परंतु मैं यह मार्ग छोड़कर केवल उस्की बरबादी का विचार करूं अथवा उस्का बैर उसके निर्दोष संबंधियों से लिया चाहूं, आधीरात के समय चुपके सैं उस्के घर मैं आग लगा दूं और लोगों को दिखाने के लिये हाथ मैं पानी लेकर आग बुझाने जाऊं तो मेरी बराबर नीच कौन होगा? विदुरजी ने कहा है "सिद्ध होत बिनहू जतन मिथ्या मिश्रित काज। अकर्तब्यते स्वप्नहू मन न धरो महाराज॥"[३] ऐसी काररवाई करनेंवाला अपनेx मन मैं प्रसन्न होता है कि मैंनें अपनें बैरीको दुखी किया परंतु वह आप महापापी बन्ता है और देश का पूरा नुक्सान करता है मनु महाराज नें कहा है "दुखित होय [ १२८ ]भाखै न तौ मर्म बिभेदक बैन॥ द्रोह भाव राखै न चित करै न परहि अचैन॥[४]"

जो अपराध केवल मन को सतानेंवाले हों और प्रगट मैं साबित न हो सकैं तो उन्का बदला दूसरे सै कैसे लिया जाय?" लाला मदनमोहन नें पूछा.

"प्रथम तो ऐसा अपराध होही नहीं सक्ता और थोड़ा बहुत हो भी तो वह ख़याल करने लायक़ नहीं है क्योंकि संदेह का लाभ सदा अपराधी को मिल्ता है इस्के सिवाय जब कोई अपराधी सच्चे मन सै अपनें अपराध का पछताव कर ले तो वह भी क्षमा करने योग्य हो जाता है और उस्सै भी दंड देने के बराबर ही नतीजा निकल आता है"

"पर एक अपराधी पर इतनी दया करनी क्या ज़रूर है?" लाला मदनमोहन ने ताज्जुब सै पूछा.

"जब हम लोग सर्व शक्तिमान परमेश्वर के अत्यंत अपराधी होकर उस्सै क्षमा करानें की आशा रखते हैं तो क्या हम को अपने निजके कामों के लिये, अपने अधिकार के कामों के लिये, आगे की राह दुरुस्त हुए पीछें, अपराधी के मन मैं शिक्षा की बराबर पछतावा हुए पीछै, क्षमा करना अनुचित है? यदि मनुष्यके मन मैं क्षमा ओर दया का लेश भी न हो तो उस्मैं और एक हिंसक जंतु मैं क्या अन्तर है? पोप कहता है "भूल करना मनुष्य का स्वभाव है परंतु उस्को क्षमा करना ईश्वर का गुण है" x[५] [ १२९ ]एक अपराधी अपना कर्तव्य भूल जाय तो क्या उस्की देखा देखी हम को भी अपना कर्तव्य भूल जाना चाहिये सादीने कहा है “होत हुमा याही लिये सब पक्षिन को राय ॥ अस्थिभक्ष रक्षे तनहि काहू को न सताय ॥"*[६] दूसरे का उपकार याद रखना वाजवी बात है परंतु अपकार याद रखने मैं या यों कहो कि अपने कलेजे का घाव हरा रखनें मैं कौन्सी तारीफ़ है? जो दैव योग से किसी अपराधी को औरों के फ़ायदे के लिये दंड दिवानें की ज़रूरत हो तो भी अपनें मन मैं उस्की तरफ़ दया और करुणा ही रखनी चाहिये"

"ये सब बातें हँसी ख़ुशी मैं याद आती हैं क्रोध मैं बदला लिये बिना किसी तरह चित्त को सन्तोष नहीं होता" लाला मदनमोहन ने कहा.

"बदला लेनें का तो इस्सै अच्छा दूसरा रस्ता ही नहीं है कि वह अपकार करे और उस्के बदले आप उपकार करो" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "जब वह अपनें अपराधों के बदले आप की महेरबानी देखेगा तो आप लज्जित होगा और उस्का मन ही उस्को धिःकारनें लगेगा. बैरी के लिये इस्सै कठोर दंड दूसरा नहीं है परंतु यह बात हर किसी से नहीं हो सक्ती. तरह, तरह का दुःख, नुक्सान और निन्दा सहनें के लिये जितनें साहस, धैर्य और गंभीरता की ज़रूरत है बैरी सै बैर लेनें के लिये उन्की कुछ भी ज़रूरत नहीं होती. यह काम बहुत थोड़े आदमियों सैं बन पड़ता है पर जिनसै बन पड़ता है वही सच्चे धर्मात्मा हैं:— [ १३० ]

"जिस्समय साइराक्यूज़वालों ने एथेन्स को जीत लिया साइराक्यूज़ की कौन्सिल मैं एथीनियन्स को सजा देनें की बाबत बिबाद होनें लगा इतनें मैं निकोलास नामी एक प्रसिद्ध गृहस्थ बुढ़ापे के कारण नौकरों के कंधेपर बैठकर वहां आया और कौन्सिल को समझाकर कहनें लगा "भाइयो! मेरी ओर दृष्टि करो मैं वह अभागा बाप हूं जिस्की निस्बत ज्यादः नुक्सान इस लड़ाई मैं शायद ही किसी को हुआ होगा मेरे दो जवान बेटे इस लड़ाई मैं देशोपकार के लिये मारे गए उन्सै मानो मेरे सहारे की लकड़ी छिन गई, मेरे हाथ पांव टूट गए, जिन एथेन्सवालों ने यह लड़ाई की उन्को मैं अपने पुत्रों के प्राणघातक समझ कर थोड़ा नहीं धिक्कारता तथापि मुझको अपने निज के हानि लाभ के बदले अपनें देश की प्रतिष्ठा अधिक प्यारी है. बैरियों सै बदला लेने के लिये जो कठार सलाह इस्समय हुई है वह अपनें देश के यश को सदा सर्वदा के लिए कलंकित कर देगी. क्या अपनें बैरियों को परमेश्वर की ओर सै कठिन दण्ड नहीं मिला? क्या उन्को युद्ध मैं इस तरह हारनें सै अपना बदला नहीं भुगता? क्या शत्रुओं नें अपनें प्राणरक्षा के भरोसे पर तुमको हथियार नहीं सोंपे? और अब तुम उन्सै अपना बचन तोड़ोगे तो क्या तुम विश्वासघाती न होगे? जीतनें सै अबिनाशी यश नहीं मिल सक्ता परंतु जीते हुए शत्रुओं पर दया करनें सै सदा सर्वदा के लिये यश मिलता है" साइराक्यूज़ की कौन्सिल के चित्त पर निकोलास के कहनें का ऐसा असर हुआ कि सब एथीनियन्स तत्काल छोड़ दिये गए"

"आप जान्ते हैं कि शरीर के घाव औषधि सै रुज जाते हैं [ १३१ ]परंतु दुखती बातों का घाव कलेजे पर सै किसी तरह नहीं मिटता" मुन्शी चुन्नीलाल ने कहा.

"क्षमाशील के कलेजे पर ऐसा घाव क्यों होनें लगा है? वह अपनें मन मैं समझता है कि जो किसी नें मेरा सच्चा दोष कहा तो बुरे मान्नें की कौन्सी बात हुई? और मेरे मतलब को बिना पहुंचे कहा तो नादान के कहने से बुरा मानने की कौन्सी बात रही? और जान बूझ कर मेरा जी दुखानें के वास्तै मेरी झूंटी निन्दा की तो मैं उचित रीति सै उस्को झूंटा डाल सक्ता हूं सज़ा दिवा सक्ता हूं फिर मन मैं द्वेष और प्रगट मैं गाली गलौज लड़नें की क्या ज़रूरत है? आप बुरा हो और लोग अच्छा कहैं इस्की निस्बत आप अच्छा हो और लोग बुरा कहैं यह बहुत अच्छा है" लाला ब्रजकिशोर ने जवाब दिया.


This work is in the public domain in the United States because it was first published outside the United States (and not published in the U.S. within 30 days), and it was first published before 1989 without complying with U.S. copyright formalities (renewal and/or copyright notice) and it was in the public domain in its home country on the URAA date (January 1, 1996 for most countries).

 
  1. *नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभरणं गुणः॥
    गुणस्याभरणं ज्ञान ज्ञानस्थाभरणं क्षमा
  2. + पूर्वोपकारी यस्ते स्‌यादपराधगरीयसि॥
    उपकारण तत्तस्‌य क्षंतव्य मपराधिनः
    अबुद्धिमाश्रितानांतु क्षंतव्यमपराधिनां॥
    नहि सर्वत्र पांडित्य सुलभं पुरुषेणवै

  3. मिथ्योपेतानि कर्माणि सिद्ध्ययुर्यानि भारत॥
    अनुपायप्रयुक्तानि मास्म तेषु, मनः कथाः॥

  4. नारुन्तुदः स्वादार्तोपि न परद्रोहकर्म्मधीः॥
    ययास्योहिजते वाचा नालोक्यान्तमुदीरयेत्॥

  5. + To err is human, to forgive divine.

    • हुमाय बरसरे मुर्गां अज़ां शरफ़ दारद॥

    किउम्तुख्वां खुरदो तायरे नयाज़ारद॥