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पत्रव्यवहार.
 

“जी नहीं हुजूर! ऐसी क्या जल्दी थी” मुन्शी चुन्नीलाल नोट जेब में रखकर बोले.

"यह भी अच्छी विद्या है” पंडितजी ने भरमा भरमी सुनाई.

“मैं जानता हूंँ कि प्रथम तो हरकिशोर नालिश ही नहीं करेंगे और की भी तो दमभर में खारिज करा दी जायगी” मुन्शी चुन्नीलाल ने कहा.

निदान लाला मदनमोहन बहुत देर तक इस प्रकार की बातों में अपनी छाती का बोझ हल्का करके भोजन करने गए और गुपचुप बैजनाथ को बुलाने के लिये एक आदमी भेज दिया.


प्रकरण-१४.

पत्रव्यवहार

अपने अपने लाभकों बोलतबैन बनाय
वेस्या बरस घटवहीं, जोगी बरस बढ़ाय.

वृंद.

लाला मदनमोहन भोजन करके आए उस समय डाक के चपरासी ने लाकर चिट्ठियां दीं.

उनमें एक पोस्टकार्ड महरौली से मिस्टर बेली ने भेजा था।

उस्में लिखा था कि "मेरा विचार कल शाम को दिल्ली आने का है. आप मेहरबानी कर के मेरे वास्ते डाक का बंदोबस्त कर दें और लौटती डाक में मुझको लिख भेजें” लाला मदनमोहन ने तत्काल उसका प्रबंध कर दिया.
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दूसरी चिट्ठी कलकत्ते से हमल्टीन कंपनी जुएलर(जोहरी) की आई थी. उसमें लिखा था "आपके आर्डर के बमूजिब हीरों की पाकिट चेन बनकर तैयार हो गई है, एक दो दिन में पालिश करके आपके पास भेजी जायेगी और इसपर लागत चार हज़ार अंदाज रहेगी, आपने पन्ने की अंगूठी और मोतियों की नेकलेस के रुपये अबतक नहीं भेजे सो मेहरबानी करके इन तीनों चीज़ों के दाम बहुत जल्द भेज दीजिये”

तीसरा फ़ारसी ख़त अलीपुर से अब्दुर्रहमान मेट का आया था उसमें लिखा था कि “रुपये जल्दी भेजिये नहीं तो मेंरी आबरू में फ़र्क़ आ जायेगा और आपका बड़ा हर्ज होगा. कंकरवाले का रुपया बहुत चढ़ गया इसलिये उसने खेप भेजनी बंद कर दी. मजदूरों का चिट्ठा एक महीने से नहीं बँटा इस लिये वह मेरी इज्जत लिया चाहते हैं. इस ठेके बाबत पांच हज़ार रुपये सरकार से आपको मिलने वाले थे वह मिले होंगे, मेहरबानी करके वह कुल रुपये यहां भेज दीजिये जिससे मेरा पीछा छूटे. मुझको बड़ा अफसोस है कि इस ठेके में आपको नुक्सान रहेगा परन्तु मैं क्या करूँ? मेरे बस की बात न थी, ज़मीन बहुत ऊँची-नीची निकली, मज़दूर दूर-दूर से दूनी मज़दूरी देकर बुलाने पड़े, पानी का कोसों पता न था मुझसे हो सका जहाँ तक मैंने अपनी जान लड़ाई. खैर इसका इनाम तो हुजूर के हाथ है परन्तु रुपये जल्दी भेजिये, रुपयों के बिना यहाँ का काम घड़ी भर नहीं चल सकता."

लाला मदनमोहन नौकरों को काम बताने और उनकी तनख्वाह का ख़र्च निकालने के लिये बहुधा ऐसे ठेके वग़ैरह ले लिया
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पत्रव्यवहार
 


करते थे. नौकरों के विषय में उनका बरताव बड़ा विलक्षण था, जो मनुष्य एक बार नौकर हो गया वह हो गया, फिर उसे कुछ काम लिया जाये या न लिया जाये. उसके लायक कोई काम हो या न हो. वह अपना काम अच्छी तरह करे या बुरी तरह करे, उसके प्रतिपालन करने का कोई हक अपने ऊपर हो या न हो. वह अलग नहीं हो सकता और उसपर क्या है? कोई खर्च एक बार मुकर्रर हुए पीछे कम नहीं हो सकता, संसार के अपयश का ऐसा भय समा रहा है कि अपनी अवस्था के अनुसार उचित प्रबंध सर्वथा नहीं हो पाता. सब नौकर सब कामों में दखल देते हैं परंतु कोई किसी काम का जिम्मेवार नहीं है, और न कोई सम्भाल रखता, मामूली तनख्वाह तो उन लोगों ने बादशाही पेन्शन समझ रखी है. दस-पंद्रह रुपये महीने की तनख्वाह हजार पांच सौ रुपये पेशगी ले रखना, दो-चार हज़ार पैदा कर

लेना कौन बड़ी बात है? पांच रुपए महीने के नौकर हों या तीन रुपये महीने के नौकर हों, विवाह आदि का खर्च लाला साहब के जिम्में समझते हैं, और क्यों न समझें? लाला साहब की नौकरी करें तब विवाह आदि का ख़र्च लेने कहां जायें? मदद का दारोगा मदद में, चीज़बस्त लानेवाले चीज़बस्त में, दुकान के गुमाश्ते दुकान में, मनमाना काम बना रहे हैं जिसने जिस काम के वास्ते जितना रुपया पहले ले लिया वह उसके बाप दादे का हो चुका, फिर हिसाब कोई नहीं पूछता. घाटे नफ़े और लेन देन की जांच पड़ताल करने के लिये कागज कोई नहीं देखता. हाल में लाला मदनमोहन ने अपने नौकरों के प्रतिपालन के लिये अलीपुर रोड का ठेका ले रखा था जिसमें सरकार से ठेका लिया उससे दूने
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रुपये अब तक खर्च हो चुके थे पर काम आधा भी नहीं बना था और ख़र्च के वास्ते वहां से ताकीद पर ताकीद चली आती थी परमेश्वर जाने अबदुर्रहमान को अपने घर ख़र्च के वास्ते रुपये की जरूरत थी या मदद के वास्ते रुपये की ज़रूरत थी.

चौथा ख़त एक अख़बार के एडीटर का था उसमें लिखा था कि “आपने इस महीने की तेरहवीं तारीख का पत्र देखा होगा, उसमें कुछ वृत्तान्त आपका भी लिखा गया है. इस समय के लोगों को खुशामद बहुत प्यारी है और खुशामदी चैन करते हैं परन्तु मेरा यह काम नहीं. मैंने जो कुछ लिखा वह सच-सच लिखा है, आप से बुद्धिमान, योग्य, सच्चे,अभिज्ञ, उदार और देशहितैषी हिन्दुस्तान में बहुत कम हैं. इसी से हिन्दुस्तान की उन्नति नहीं होती, विद्याभ्यास के गुण कोई नहीं जानता, अख़बारों की कद्र कोई नहीं करता, अखबार जारी करने वालों को नफ़े के बदले नुक्सान उठाना पड़ता है. हम लोग अपना दिमाग़ खपा कर देश की उन्नति के लिये आर्टिकल लिखते हैं, परन्तु अपने देश के लोग उसकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते इससे जी टूटा जाता है. देखिये अख़बार के कारण मुझ पर एक हज़ार रुपये का कर्जा हो गया और आगे को छापे खाने का खर्च निकलना भी बहुत

कठिन मालूम होता है. प्रथम तो अख़बार के पढ़नेवाले बहुत कम और जो हैं उनमें भी बहुधा कोरस्पोन्डेन्ट बनकर बिना दाम दिये पत्र लिया चाहते हैं और जो गाहक बनते हैं उनमें भी बहुधा दिवालिये निकल जाते हैं. छापेखाने का दो हज़ार रुपया इस समय लोगों में बाकी है परन्तु फूटी कौड़ी पटने का भरोसा नहीं. कोई आप-सा साहसी पुरुष देश का हित विचार कर इस डूबती
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पत्रव्यवहार
 


नाव को सहारा लगावे तो बेड़ा पार हो सकता है नहीं तो खैर जो इच्छा परमेश्वर की."

एक अख़बार के एडीटर की इस लिखावट से क्या-क्या बातें मालूम होती हैं? प्रथम तो यह कि हिन्दुस्तान में विद्या का, सर्व साधारण की अनुमति जानने का, देशान्तर के वृत्तान्त जानने का और देशोन्नति के लिये देश हितकारी बातों पर चर्चा करने का व्यसन अभी बहुत कम है. विलायत की बस्ती हिन्दुस्तान की बस्ती से बहुत ही थोड़ी है तथापि वहां अख़बारों की इतनी वृद्धि है कि बहुत से अख़बारों की डेढ़- डेढ़, दो-दो लाख कापियांँ निकलती हैं. वहां के स्त्री,पुरुष, बूढ़े, बालक, गरीब, अमीर, सब अपने देश का वृत्तान्त जानते हैं और उस पर वाद-विवाद करते हैं. किसी अख़बार में कोई बात नई छपती है तो तत्काल उसकी चर्चा सब देश में फैल जाती है और देशान्तर को तार दौड़ जाते हैं परन्तु हिन्दुस्तान में ये बात कहां? यहां बहुत से अख़बारों की पूरी दो-दो सौ कापियां भी नहीं निकलतीं! और जो निक

लती हैं उनमें भी जानने के लायक बातें बहुत ही कम रहती हैं, क्योंकि बहुत से एडीटर तो अपना कठिन काम सम्पादन करने की योग्यता नहीं रखते और विलायत की तरह उनको और विद्वानों को सहायता नहीं मिलती, बहुत से जान बूझ कर अपना काम चलाने के लिये अनजान बन जाते हैं इस लिये उचित रीति से अपना कर्तव्य सम्पादन करने वाले अख़बारों की संख्या बहुत थोड़ी है पर जो है उसको भी उत्तेजना देने वाला और मन लगा कर पढ़ने वाला कोई नहीं मिलता. बड़े-बड़े अमीर, सौदागर, साहूकार, ज़मींदार, दस्तकार जिन्की हानि लाभ का और देशों से बड़ा
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संबन्ध है वह भी मन लगा कर अखबार नहीं देखते बल्कि कोई-कोई तो अखबार के एडीटरों को प्रसन्न रखने के लिये अथवा ग्राहकों के सूचीपत्र में अपना नाम छपाने के लिये अथवा अपनी मेंज़ को नए-नए अख़बारों से सुशोभित करने के लिये अथवा किसी समय अपना काम निकाल लेने के लिये अख़बार ख़रीदते हैं! जिसपर अखबार निकालने वालों की यह दशा है! लाला मदनमोहन इस ख़त को पढ़ कर सहायता करने के लिये बहुत ललचाये परन्तु रुपये की तंगी के कारण तत्काल कुछ न कर सकें.

“हुजूर! मिस्टर रसल के पास रुपये आज भेजने चाहिये” मुन्शी चुन्नीलाल ने डाक देख पीछे याद दिवाई.

"हां! मुझको बहुत ख़याल है परन्तु क्या करू? अबतक कोई बानक नहीं बना" लाला मदनमोहन बोले.

"थोडी बहुत रक़म तो मिस्टर ब्राइट के यहां भी ज़रूर भेजनी पडे़गी" मास्टर शिंभूदयाल ने अवसर पाकर कहा.

"हां, और हरकिशोर ने नालिश कर दी तो उससे जवाबदेही करने के लिये भी रुपये चाहेंगे" लाला मदनमोहन चिंता करने लगे.

"आप चिन्ता न करें, ज्योतिष से सब होनहार मालूम हो सकता है." चाणक्य ने कहा है “का ऐश्वर्य बिशाल मै का मोटे दु:ख पाहिं। रस्सी बांध्यो होय जों पुरुष दैव बस माहिं।"* इसलिये आपको कुछ आगे का वृत्तान्त जानना हो तो आप प्रश्न करिये,


ऐश्वर्ये वासुविरतीर्ण व्यसनें वापि दारुणे॥
रज्जेव पुरषो बद्धः क्वतांतेनोपनीयते॥

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पत्रव्यवहार
 


"ज्योतिष से बढ़ कर होनहार जानने का कोई सुगम मार्ग नहीं है” पंडित पुरुषोत्तमदास ने लाला मदनमोहन को कुछ उदास देख कर अपना मतलब गांठने के लिये कहा. वह जानता था कि निर्बल चित के मनुष्य सुख में किसी बात की ग़र्ज़ नहीं रखते परन्तु घबराट के समय हर तरफ़ को सहारा ताकते फिरते हैं.

"विद्या का प्रकाश प्रतिदिन फैलता जाता है इस लिये अब आपकी बात में कोई नहीं आवेगा” मास्टर शिंभूदयाल ने कहा.

"यह तो आजकल के सुधरे हुओं की बात है परंतु वे लोग जिस विद्या का नाम नहीं जानते उसमें उनकी बात कैसे प्रमाण हो?” पंडितजी ने जवाब दिया.

“अच्छा! आप करेले के सिवाय और क्या जानते हैं? आपको मालूम है कि नई तहकीकात करने वालों ने कैसी-कैसी दूरबीनें बनाकर ग्रहों का हाल निश्चय किया है?” मास्टर शिंभूदयाल बोले.

"किया होगा, परंतु हमारे पुरुखों नें भी इस विषय में कुछ कसर नहीं रखी" पंडित पुरुषोत्तमदास कहनें लगे. “इस समय के विद्वानों ने बड़ा खर्च करके जो कहें ग्रहों का वृतान्त निश्चय करने के लिये बनाई हैं हमारे बड़ोंने छोटी-छोटी नालियों और बांस की छड़ियों के द्वारा उनसे बढकर काम

निकाला था. संस्कृत की बहुत-सी पुस्तकें नष्ट हो गई, योगाभ्यास आदि विद्याओं का खोज नहीं रहा परंतु फिर भी जो पुस्तकें अब मौजूद हैं उन्हें ढूंँढने वालों के लिये कुछ थोड़ा खज़ाना नहीं है. हां आप की तरह कोई कुछ ढूँढभाल करे बिना दूर ही से 'कुछ नहीं' 'कुछ नहीं’ कहकर बात उड़ा दे तो यह जुदी बात है."
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"संस्कृत विद्या की तो आजकल के सब विद्वान एक खर होकर प्रशंसा करते हैं परंतु इस समय ज्योतिष की चर्चा थी सो निस्सन्देह ज्योतिष में फलादेश की पूरी बिध नहीं मिलती शायद बताने वालों की भूल हो, तथापि मैं इस विषय में किसी समय तुम से प्रश्न करूँगा और तुम्हारी विध मिल जायेगी तो तुम्हारा अच्छा सत्कार किया जायेगा” लाला मदनमोहन ने कहा और यह बात सुनकर पंडितजी के हर्ष की कुछ हद न रही.


प्रकरण-१५.

प्रिय अथवा पिय्?

दमयन्ति बिलपतहुती बनमें अहि भय पाइ
अहिबध बधिक अधिक भयो ताहूते दुखदाइ.

नलोपाख्याने.

ज्योतिष की विध पूरी नही मिलती इसलिये उसपर विश्वास नहीं होता परंतु प्रश्न का बुरा उत्तर आये तो प्रथम ही से चित्त ऐसा व्याकुल हो जाता है कि उस काम के अचानक होंने पर भी वैसा नहीं होता, और चित्त का असर ऐसा प्रबल होता है कि जिस वस्तु की संसार में सुष्टि ही न हो वह भी वहम समाज में तत्काल दिखाई देने लगती है. जिसपर ज्योतिषी ग्रहों का उलट-पुलट नहीं कर सकते, अच्छे-बुरे फल को बदल नहीं सकते, फिर प्रश्न करने से लाभ क्या? कोइ ऐसी बात

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