निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ ९९ से – ११२ तक

 
 

आठवां परिच्छेद

जब कोई बात हमारी आशा के विरुद्ध होती है, तभी दुख होता है। मन्साराम को निर्मला से कभी इस बात की आशा न थी कि वह उसकी शिकायत करेगी। इसीलिए उसे घोर वेदना हो रही थी। यह क्यों मेरी शिकायत करती हैं? क्या चाहती हैं? यही न कि यह मेरे पति की कमाई खाता है, इसके पढ़ाने-लिखाने में रुपये ख़र्च होते हैं, कपड़े पहनता है। उनकी यही इच्छा होगी कि यह घर में न रहे। मेरे न रहने से उनके रुपये बच जाएँगे। वह मुझसे बहुत प्रसन्नचित्त रहती हैं। कभी मैंने उनके मुँह से कटु शब्द नहीं सुने। क्या यह सब कौशल है? हो सकता है! चिड़िया को जाल में फँसाने के पहले शिकारी दाने बिखेरता है। आह! मैं नहीं जानता था कि दाने के नीचे जाल है, यह मातृ-स्नेह केवल मेरे निर्वासन की भूमिका है।

अच्छा, मेरा यहाँ रहना इन्हें क्यों बुरा लगता है? जो उनका पति है, क्या वह मेरा पिता नहीं है? क्या पिता-पुत्र का सम्बन्ध स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध से कुछ कम घनिष्ट है? अगर मुझे उनके सम्पूर्ण आधिपत्य से ईर्ष्या नहीं होती-वह जो चाहें करें, मैं मुंह नहीं खोल सकता-तो वह मुझे पितृ-स्नेह से क्यों वञ्चित करना चाहती हैं। वह अपने साम्राज्य में क्यों मुझे एक अङ्गुल भर भूमि भी देना नहीं चाहतीं? आप पक्के महल में रह कर क्यों मुझे वृक्ष की छाया में बैठे नहीं देख सकती?

हाँ,वह समझती होंगी कि यह बड़ा होकर मेरे पति की सम्पत्ति का स्वामी हो जायगा, इसलिए इसे अभी से निकाल देना अच्छा है। उनको कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मेरी ओर से यह शङ्का न करें? उन्हें क्योंकर बताऊँ कि मन्साराम विष खाकर प्राण दे देगा, इसके पहले कि वह उनका क्यां हित करे? उसे चाहे कितनी ही कठिनाइयाँ सहनी पड़ें, वह उनके हृदय का शूल न बनेगा। यों तो पिता जी ने मुझे जन्म दिया है और अब भी मुझ पर उनका स्नेह कम नहीं है, लेकिन क्या मैं इतना भी नहीं जानता कि जिस दिन पिता जी ने उनसे विवाह किया, उसी दिन उन्होंने हमें अपने हृदय से बाहर निकाल दिया? अब हम अनाथों की भाँति यहाँ पड़े रह सकते हैं, इस घर पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। कदाचित् पूर्व संस्कारों के कारण यहाँ अन्य अनाथों से हमारी दशा कुछ अच्छी है;, पर हैं अनाथ ही। हम उसी दिन अनाथ हुए, जिस दिन अम्माँ जीपरलोक सिधारी। जो कुछ कसर रह गई थी, वह इस विवाह ने पूरी कर दी। मैं तो खुद पहले इनसे विशेष सम्बन्ध न रखता था। अगर उन्हीं दिनों पिता जी से मेरी शिकायत की होती, तो शायद मुझे इतना दुःख न होता । मैं तो उस आघात के लिए तैयार बैठा था । संसार में क्या कहीं मेरा ठिकाना नहीं है ? क्या मैं मजदूरी भी नहीं कर सकता? लेकिन बुरे वक्त में इन्होंने चोट की । हिंसक पशु भी आदमी को गाफिल पाकर ही चोट करते हैं; इसीलिए मेरी इतनी आवभगत होती थी, खाना खाने के लिए उठने में जरा भी देर हो जाती थी, तो वुलावे पर बुलावे आते थे, जल-पान के लिए प्रातःकाल ताजा हलुवा बनाया जाता था, बारवार पूछा जाता था-रुपयों की जरूरत तो नहीं है ; इसीलिए यह १६०) की घड़ी मँगवाई गई

मगर क्या इन्हें कोई दूसरी शिकायत न सूझी, जो मुझे आवारा कहा ? आखिर उन्होंने मेरी क्या आवारगी देखी ? वह कह सकती थीं कि इसका मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता, एक न एक चीज़ के लिए नित्य रुपये माँगता रहता है । यही एक बात उन्हें क्यों सूझी ? शायद इसीलिए कि यही सब से कठोर आघात है, जो वह मुझ पर कर सकती हैं। पहली ही बार इन्होंने मुझ पर अभिबाण चला दिया, जिससे कहीं शरण नहीं। इसीलिए न कि यह पिता की नजरों से गिर जाय । मुझे बोर्डिङ्ग हाउस में रखने का तो एक बहाना था । उद्देश्य यही था कि इसे दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया जाय । दो-चार महीने के बाद खर्च-चर्च देना वन्द कर दिया जाय, फिर चाहे मरे या जिए। अगर मैं जानता कि यह प्रेरणा इनकी ओर से हुई है, तो कहीं जगह न रहने पर भी जगह निकाल लेता। नौकरों की कोठरियों में तो जगह मिल जाती, बरामदे में पड़ रहने के लिए बहुत जगह मिल जाती ! खैर, अब भी सबेरा है । जब स्नेह नहीं रहा, तो केवल पेट भरने के लिए यहाँ रहना बेहयाई है। यह अब मेरा घर नहीं है । इसी घर में पैदा हुआ हूँ, यहीं खेला हूँ, पर यह अब मेरा नहीं ! पिता जी भी मेरे पिता नहीं हैं । मैं उनका पुत्र हूँ पर वह मेरे पिता नहीं हैं ! संसार के सारे नाते स्नेह के नाते हैं। जहाँ स्नेह नहीं, वहाँ कुछ नहीं । हाय अम्माँ जी ! तुम कहाँ हो ?'

सोच कर मन्साराम रोने लगा । ज्यों-ज्यों मातृ-स्नेह की पूर्व-स्मृतियाँ जाग्रत होती थीं, उसके आँसू उमड़ते आते थे। वह कई बार अम्माँ-अम्माँ पुकार उठा, मानो वह खड़ी सुन रही है। मातहीनता के दुख का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ। वह 'आत्माभिमानी था, साहसी था; पर अब तक सुख की गोद में लालन-पालन होने के कारण वह इस समय अपने को निराधार समझ रहा था।

रात के दस बजे गए थे। मुन्शी जी आज कहीं दावत खाने गए हुए थे। दो बार महरी मन्साराम को भोजन करने के लिए बुलानेआ चुकी थी। मन्साराम ने पिछली बार उससे मुँझला कर कह दिया था मुझे भूख नहीं है, कुछ न खाऊँगा । बार-बार आकर सिर पर सवार हो जाती है । इसलिए जब निर्मला ने उसे फिर उसी काम के लिए भेजना चाहा, तो वह न गई। बोली-बहू जी, वह मेरे बुलाने से न आवेंगे। निर्मला-आवेंगे क्यों नहीं? जाकर कह दे, खाना ठण्डा हुआ जाता है। दो ही चार कौर खा लें।

महरी--मैं यह सव कह के हार गई, नहीं आते।

निर्मला-- तूने यह कहा था कि वह बैठी हुई हैं?

महरी-नहीं बहू जी, यह तो मैने नहीं कहा; झूठ क्यों बोलूँ।

निर्मला-अच्छा तो जाकर यही कह। कह देना वह बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। तुम न खाओगे, तोवह रसोई उठा कर सो रहेंगी। मेरी भुङ्गी! न, अबकी और चली जा। (हंस कर) न आवें, तो गोद में उठा लाना।

भुङ्गी नाक-भौं सिकोड़ते गई; पर एक ही क्षण में आकर बोली-अरे बहू जी, वह तो रो रहे हैं। किसी ने कुछ कहा है क्या? निर्मला इस तरह चौंक कर उठी; और दो-तीन पग आगे चली, मानो किसी माता ने अपने बेटे के कुएँ में गिर पड़ने की खबर पाई। फिर वह ठिठक गई; और भुङ्गी से बोली-रो रहे हैं? तूने पूछा नहीं, क्यों रो रहे हैं?

भुङ्गी-नहीं वहू जी, यह तो मैंने नहीं पूछा, झूठ क्यों बोलूँ।

वह रो रहे हैं! इस निस्तब्ध रात्रि में अकेले बैठे हुए वह रो रहे हैं। माता की याद आई होगी। कैसे जाकर उन्हें समझाऊँ, हाय! कैसे समझाऊँ, यहाँ तो छींकते नाक कटती है! ईश्वर तुम साक्षी हो, अगर मैंने उन्हें भूले से भी कभी कुछ कहा हो, तो मेरे आगे आए। मैं क्या करूँ? वह दिल में समझते होंगे कि इसी ने पिता जी से मेरी शिकायत की होगी। कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं ने कभी तुम्हारे विरुद्ध एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाला। अगर मैं ऐसे देवकुमार का सा चरित्र रखने वाले युवक का बुरा चेतूँ, तो मुझसे बढ़ कर राक्षसी संसार में न होगी!

निर्मला देखती थी, मन्साराम का स्वास्थ्य दिन-दिन बिगड़ता जाता है, वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है, उसके मुख की निर्मल कान्ति दिन-दिन मलिन होती जाती है, उसका सहास-बदन सङ्कुचित होता जाता है, इसका कारण भी उससे छिपा न था; पर वह इस विषय में अपने स्वामी से कुछ कह न सकती थी। यह सब देख-देख कर उसका हृदय विदीर्ण होता रहता था; पर उसकी जबान न खुल सकती थी। वह कभी-कभी मन में अँझलाती कि मन्साराम क्यों जरा सी बात पर इतना क्षोभ करता है। क्या इनके आवारा कहने से वह आवारा हो गया। मेरी बात है-एक जरा सा शक मेरा सर्वनाश कर सकता है; पर उसे ऐसी बातों की इतनी क्या परवाह?

उसके जी में प्रबल इच्छा हुई कि चल कर उन्हें चुप करूँ और लाकर खाना खिला हूँ। बेचारे रातभर भूखे पड़े रहेंगे। हाय! मैं ही इस उपद्रव की जड़ हूँ। मेरे आने के पहले इस घर में शान्ति का राज्य था। पिता बालकों पर जान देता था, बालक पिता को प्यार करते थे। मेरे आते ही सारी बाधाएँ आ खड़ी हुई। इनका अन्त क्या होगा? भगवान ही जानें! भगवान मुझे मौत भी नहीं देते। वेचारा अकेले भूखा पड़ा है! उस वक्त भी मुँह जूठा करके उठ गया था;और उसका आहार ही क्या है-जितना वह खाता है,उतना तो साल दो साल के बच्चे खा जाते हैं!

निर्मला चली! पति की इच्छा के विरुद्ध चली!! जो नाते में उसका पुत्र हाता था,उसी को मनाने जाते उसका हृदय काँप रहा था!

उसने पहले रुक्मिणी के कमरे की ओर देखा। वह भोजन • करके बेखवर सो रही थीं। फिर बाहर के कमरे की ओर गई।

वहाँ भी सन्नाटा था। मुन्शी जी अभी न आए थे। यह सब देखमाल कर वह मन्साराम के कमरे के सामने जा पहुँची। कमरा खुला हुआ था,मन्साराम एक पुस्तक सामने रक्खे मेज़ पर सिर मुकाए बैठा हुआ था,मानो शोक और चिन्ता की सजीव मूर्ति हो। निर्मला ने पुकारना चाहा; पर उसके कण्ठ से आवाज न निकली।

सहसा मन्साराम ने सिर उठा कर द्वार की ओर देखा। निर्मला को देख कर वह अँधेरे में पहचान न सका| चौंक कर वोला-कौन?

निर्मला ने काँपते हुए स्वर में कहा-मैं तो हूँ। भोजन करने क्यों नहीं चल रहे हो? कितनी रात गई?

मन्साराम ने मुँह फेर कर कहा-मुझे भूक नहीं है।

निर्मला-यह तो मैं तीन बार मुङ्गी से सुन चुकी हूँ।

मन्साराम तो चौथी बार मेरे मुँह से सुन लीजिए। निर्मला-शाम को भी तो कुछ नहीं खाया था. भूक क्यों नहीं लगी ?

मन्साराम ने व्यङ्ग की हँसी हँस कर कहा-बहुत भूक लगेगी तो आएगा कहाँ से?

यह कहते-कहते सन्साराम ने कमरे का द्वार वन्द करना चाहा; लेकिन निर्मला किवाड़ों को हटा कर कमरे में चली आईऔर मन्साराम का हाथ पकड़ कर सजल नेत्रों से विनय-मधुर स्वर में बोली-मेरे कहने ले चल कर थोड़ा सा खा लो। तुम न खानोगे,तो मैं भी जाकर सो रहूँगी। दो ही कौर खा लेना। क्या मुझे रात भर भूखों मारना चाहते हो?

मन्साराम सोच में पड़ गया। अभी तक इसने भी भोजन नहीं किया, मेरे ही इन्तजार में बैठी रही। यह स्नेह, वात्सल्य और विनय की देवी है या ईर्षा और अमङ्गल की मायाविनी मूर्ति! उसे अपनी माता का स्मरण हो आया। जब वह रूठ जाता था, तो वे भी इसी तरह मनाने आया करती थीं और जब तक वह न जाता था,वहाँ से न उठती थीं। वह इस विनय को अस्वीकार न कर सका। बोला-मेरे लिए आप को इतना कष्ट हुआ,इसका मुझे खेद है। मैं जानता हूँ कि आप मेरे इन्तजार में भूखी बैठी हैं, तो कभी खा आया होता।

निर्मला ने तिरस्कार-भाव से कहा-यह तुम कैसे समझ सकते थे कि तुम भूखे रहोगे;और मैं खाकर सो रहूँगी? क्या विमाता का नाता होने ही से मैं ऐसा स्वार्थिन हो जाऊँगी? सहसा मर्दाने कमरे में मुन्शी जी के खाँसने की आवाज़ आई। ऐसा मालूम हुआ कि वह मन्साराम के कमरे की ओर आ रहे हैं। निर्मला के चेहरे का रङ्ग उड़ गया। वह तुरन्त कमरे से निकलगई;और भीतर जाने का मौका न पाकर कठोर स्वर में बोली-मैं लौंडी नहीं हूँ कि इतनी रात तक किसी के लिए रसोई के द्वार पर बैठी रहूँ। जिसे न खाना हो, वह पहले ही कह दिया करे। .

मुन्शी जी ने निर्मला को वहाँ खड़े देखा। यह अनर्थ!! यह यहाँ क्या करने आ गई? बोले-यहाँ क्या कर रही हो?

निर्मला ने कर्कश स्वर में कहा कर क्या रही हूँ, अपने भाग्य को रो रही हूँ। बस,सारी बुराइयों की जड़ मैं ही हूँ। कोई इधर रूठा बैठा है,कोई उधर मुंह फुलाए पड़ा है। किस-किस को मनाऊँ और कहाँ तक मनाऊँ?

मुन्शी जी कुछ चकित होकर बोले-बात क्या है?

निर्मला-भोजन करने नहीं जाते;और क्या बात है? दस दने महरी को भेजा। आखिर आप दौड़ी आई। इन्हें तो इतना कह देना आसान है,मुझे भूख नहीं है;यहाँ तो घर भर की लौंडी हूँ, सारी दुनिया मुँह में कालिख लगाने को तैयार। किसी को भूख न हो; पर कहने वालों को यह कहने से कौन रोकेगा कि यह पिशाचिनी किसी को खाना नहीं देती। मुन्शी जी ने मन्साराम से कहा-खाना क्यों नहीं खा लेते जी? जानते हो क्या वक्त है?

मन्साराम स्तम्भित सा खड़ा था। उसके सामने एक ऐसा रहस्य हो रहा था,जिसका मर्म वह कुछ भी न समझ सकता था। जिनके नेत्रों में एक क्षण पहले विनय के आँसू भरे हुए थे, उनमें से अकस्मात् ईर्ष्या की ज्याला कहाँ से आ गई! जिन अघरों से एक क्षण पहले सुधा-वृष्टि हो रही थी,उनमें विष का प्रवाह क्यों होने लगा। उसी अर्द्ध-चेतना की दशा में बोला-मुझे भूख नहीं है।

मुन्शी जी ने घुड़क कर कहा-क्यों भूख नहीं है? भूख नहीं थी, तो शाम को क्यों न कहला दिया। तुम्हारी भूख के इन्तजार में कौन सारी रात वैठा रहे? तुम से पहले तो यह आदत न थी। रूठना कब से सीख लिया? जाकर खा लो।

मन्सारामजी नहीं,मुझे जरा भी भूख नहीं है।

तोताराम ने दाँत पोस कर कहा-अच्छी बात है,जब भूख लगे, तब खाना! यह कहते हुए वह अन्दर चले गए। निर्मला भी उनके पीछे ही पीछे चली गई। मुन्शी जी तो लेटने चले गए, उसने जाकर रसोई उठा दी;और कुल्ला कर पान खा मुस्कराती हुई आ पहुँची। मुन्शी जी ने पूछा-खाना खा लिया न?

निर्मला-क्या करती। किसी के लिए अन्न-जल छोड़ दूंगी?

मुन्शी जी-इसे न जाने क्या हो गया है,कुछ समझ ही में नहीं पाता। दिन-दिन घुलता चला जाता है। दिन भर उसी कमरे में पड़ा रहता है।

निर्मला कुछ न बोली। वह चिन्ता के अपार सागर में डुबकियाँ खा रही थी। मन्साराम ने मेरे भाव-परिवर्तन को देख कर दिल में क्या समझा होगा? क्या उसके मन में यह प्रश्न न उठा होगा कि पिता जी को देखते ही इसकी स्योरियाँ क्यों बदल गई? इसका कारण भी क्या उसकी समझ में आ गया होगा? बेचारा खाने आ रहा था,तब तक यह महाशय न जाने कहाँ से फट पड़े। इस रहस्य को उसे कैसे समझाऊँ? समझाना सम्भव भी है? हाय भगवान्! मैं किस विपत्ति में फंस गई?

सवेरे वह उठ कर घर के काम-धन्धे में लगी। सहसा नौ बजे भुङ्गी ने आकर कहा-मन्सा बाबू तो अपने कागद-पचर सव एक्के पर लाद रहे हैं।

निर्मला ने हकवका कर कहा-एके पर लाद रहे हैं? कहाँ जाते हैं ? भुङ्गी-मैंने पूछा तो बोले, अब स्कूल ही में रहूँगा।

मन्साराम प्रातःकाल उठ कर अपने स्कूल के हेडमास्टर साहव के पास गया था;और अपने रहने का प्रबन्ध कर आया था। हेडमास्टर साहब ने पहले तो कहा-यहाँ जगह नहीं है,तुमसे पहले के कितने ही लड़कों के प्रार्थना-पत्र पड़े हुए हैं। लेकिन जब मन्माराम ने कहा-मुझे जगह न मिलेगी,तो कदाचित् मेरा पढ़ना न हो सके और मैं इम्तहान में शरीक न हो सकूँ। हेडमास्टर साहब को हार माननी पड़ी। मन्साराम के प्रथम श्रेणी में पास होने की आशा थी। अध्यापकों को विश्वास था कि वह उस शाला की कोत्ति को उज्ज्वल करेगा। हेडमास्टर साहब ऐसे लड़के को कैसे छोड़ सकते थे। उन्होंने अपने दफ्तर का कमरा उसके लिए खाली कर दिया;और मन्साराम वहाँ से आते ही अपना सामना इक्के पर लादने लगा। मुन्शी जी ने कहा-अभी ऐसी क्या जल्दी है? दो-चार दिन में चले जाना। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे लिए कोई अच्छासा रसोइया ठीक कर दूं।

मन्सा०-वहाँ का रसोइया बहुत अच्छा भोजन पकाता है।

मुन्शी जी-अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना। ऐसा न हो कि पढ़ने के पीछे स्वास्थ्य खो बैठो।

मन्सा०-वहाँ नौ बजे के बाद कोई पढ़ने ही नहीं पाता,और सब को नियम के साथ खेलना पड़ता है।

मुन्शी जी-बिस्तर क्यों छोड़ देते हो,सोओगे किस पर?

मन्सा०-कम्मल लिए जाता हूँ। बिस्तर की ज़रूरत नहीं।

मुन्शी जी कहार जव तक तुम्हारा सामान रख रहा है जाकर कुछ खा लो। रात भी तो कुछ नहीं खाया था।

मन्सा०-वहीं खालूँगा। रसोइए से भोजन बनाने को कह आया हूँ। यहाँ खाने लगूंगा,तो देर होगी।

घर में जियाराम और सियाराम भी भाई के साथ जाने को जिद कर रहे थे। निर्मला उन दोनों को बहला रही थी-बेटा! वहाँ छोटे लड़के नहीं रहते, सब काम अपने ही हाथ से करना पड़ता......।

एकाएक रुक्मिणी ने आकर कहा-तुम्हारा वन का हृदय है;महारानी! लड़के ने रात भी कुछ नहीं खाया। इस वक्त भी बिन खाए-पिए चला जा रहा है और तुम लड़कों को लिए बातें कर रही हो। उसको तुम जानती नहीं हो। यह समझ लो कि वह स्कूल नहीं जा रहा है,बनवास ले रहा है,लौट कर फिर न आवेगा। वह उन लड़कों में नहीं है,जो खेल में मार भूल जाते हैं। बात उसके दिल पर पत्थर की लकीर हो जाती है।

निर्मला ने कातर स्वर में कहा-क्या करूँ;दीदी जी? वह किसी की सुनते ही नहीं। आप जरा जाकर बुला लें। आप के बुलाने से आ जायेंगे।

रुक्मिणी-आखिर हुआ क्या,जिस पर वह भागा जाता है? घर से तो उसका जी कभी उचाट न होता था। उसे तो अपने घर के सिवा और कहीं अच्छा ही न लगता था। तुम्ही ने उसे कुछ कहा होगा या उसकी कुछ शिकायत की होगी। क्यों अपने लिए काँटे बो रही हो? रानी, घर को मिट्टी में मिला कर तुम चैन से न वैठने पाओगी!

निर्मला ने रोकर कहा-मैं ने उन्हें कुछ कहा हो,तो मेरी ज़बान कट जाय। हाँ,सौतेली होने के कारण बदनाम तो हूँ ही । आप . के हाथ जोड़ती हूँ, जरा जाकर उन्हें बुला लाइए।

रुक्मिणी ने तीव्र स्वर में कहा- तुम क्यों नहीं बुला लाती? क्या छोटी हो जाओगी? अपना होता तो क्या इसी तरह बैठी रहती?

निर्मला की दशा उस पङ्खहीन पक्षी की सी हो रही थी, जो सर्प को अपनी ओर देख कर उड़ना चाहता है; पर उड़ नहीं सकता,उछलता है और गिर पड़ता है। पङ्ख फड़फड़ा कर रह जाता है। उसका हृदय अन्दर ही अन्दर तड़प रहा था;पर बाहर न जा सकती थी!

इतने में दोनों लड़के रोते हुए अन्दर आकर बोले-भैया जी चले गए! निर्मला मूर्तिवत् खड़ी रही,मानो संज्ञा-हीन हो गई हो। चले गए, घर में आए तक नहीं मुझसे मिले तक नहीं चले गए! मुझसे इतनी घृणा! मैं उनकी कोई न सही, उनकी बुआ तो थीं। उनसे मिलने तो आना चाहिए था! मैं यहाँ थी न! अन्दर कैसे कदम रखते? मैं देख लेती न! इसीलिए चले गए!