निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ २२ से – ४६ तक

 
 

तीसरा परिच्छेद

विधवा का विलाप और अनाथों का रोना सुना कर हम पाठकों का दिल न दुखाएँगे। जिसके ऊपर पड़ती है, वह रोता है, विलाप करता है, पछाड़ें खाता है। यह कोई नई बात नहीं। हाँ, अगर आप चाहें तो कल्याणी के उस घोर मानसिक यातना का अनुमान कर सकते हैं, जो उसे इस विचार से हो रहा था कि मैं ही अपने प्राणधार की घातिका हूँ। वे वाक्य, जो क्रोध के आवेश में उसके असंयत मुख से निकले थे, अब उसके हृदय को बाणों की भाँति छेद रहे थे। अगर पति ने उसकी गोद में कराह-कराह कर प्राणत्याग किए होते, तो उसे सन्तोष होता कि मैंने उनके प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन किया। शोकाकुल हृदयों के लिए इससे ज़्यादा सान्त्वना और किसी बात से नहीं होती। उसे इस विचार से कितना सन्तोष होता कि मेरे स्वामी मुझ से प्रसन्न गए, अन्तिम समय तक उनके हृदय में मेरा प्रेम बना रहा। कल्याणी को यह सन्तोष न था। वह सोचती—हा! मेरी पचीस बरस की तपस्या
निष्फल हो गई। मैं अन्त समय अपने प्राणपति के प्रेम से वञ्चित हो गई। अगर मैं ने उन्हें ऐसे कठोर शब्द न कहे होते, तो वह कदापि रात को घर से बाहर न जाते। न जाने उनके मन में क्या-क्या विचार आए हों? उनके मनोभावों की कल्पना करके; और अपने अपराध को बढ़ा-बढ़ा कर वह आठों पहर कुढ़ती रहती थी। जिन बच्चों पर वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरत से चिढ़ती। इन्हीं के कारण मुझे अपने स्वामी से रार मोल लेनी पड़ी। यही मेरे शत्रु हैं। जहाँ आठों पहर कचहरी सी लगी रहती थी, वहाँ अब खाक उड़ती थी। वह मेला ही उठ गया। जब खिलाने वाला ही न रहा, तो खाने वाले कैसे पड़े रहते। धीरे-धीरे एक महीने के अन्दर सभी भाजे-भतीजे विदा हो गए। जिनको दावा था कि हम पानी की जगह खून वहाने वालों में हैं, वह ऐसा सरपट भागे कि पीछे फिर कर भी न देखा। दुनिया ही दूसरी हो गई! जिन बच्चों को देख कर प्यार करने को जी चाहता था, उनके चेहरे पर अब मक्खियाँ भिनभिनाती थीं! न जाने वह कान्ति कहाँ चली गई?

शोक का आवेग कम हुआ, तो निर्मला के विवाह की समस्या उपस्थित हुई। कुछ लोगों की सलाह हुई कि; विवाह इस साल रोक दिया जाय, लेकिन कल्याणी ने कही--तैयारियों के वाद विवाह को रोक देने से सब किया-धरा मिट्टी में मिल जायगा; और दूसरे साल फिर यही तैयारियाँ करनी पड़ेंगी, जिसकी कोई आशा न थी; विवाह कर ही देना अच्छा है। कुछ लेना-देना तो

है ही नहीं। बारातियों के सेवा-सत्कार का काफी सामान हो ही चुका है, विलम्ब करने में हानि ही हानि है। अतएव महाशय भालचन्द्र को शोक-सूचना के साथ यह सन्देशा भी भेज दिया गया! कल्याणी ने अपने पत्र में लिखा--इस अनाथिनी पर दया कीजिए;और डूबती हुई नाव को पार लगाइए! स्वामी जी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएँ थीं; किन्तु ईश्वर को कुछ और ही मञ्जूर था। अब मेरी लाज आपके हाथ है। कन्या आप की हो चुकी। मैं आप लोगों की सेवा-सत्कार करने को अपना सौभाग्य समझती हूँ; लेकिन यदि इसमें कुछ कमी हो, कुछ त्रुटि पड़े, तो मेरी दशा का विचार करके क्षमा कीजिएगा। मुझे विश्वास है कि आप स्वयं इस अनाथिनी की निन्दा न होने देंगे; आदि।

कल्याणी ने यह पत्र डाक से न भेजा; बल्कि पुरोहित जी से कहा--आपको कष्ट तो होगा; पर आप स्वयं जाकर यह पत्र दीजिए और मेरी ओर से बहुत विनय के साथ कहिएगा कि जितने कम आदमी आएँ, उतना ही अच्छा। यहाँ कोई प्रबन्ध करने वाला नहीं है। पुरोहित मोटेराम यह सन्देशा लेकर तीसरे दिन लखनऊ जा पहुँचे।

सन्ध्या का समय था। बाबू भालचन्द्र दीवानखाने के सामने आराम कुर्सी पर नङ्ग-धिडङ्ग लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। बहुत ही स्थूल, ऊँचे क़द के आदमी थे। ऐसा मालूम होता था कि काला देव है, या कोई हबशी अफ्रीका से पकड़ कर आया है। सिर से पैर तक एक ही रङ्ग था--काला! चेहरा इतना स्याह था कि

मालूम न होता था कि माथे का अन्त कहाँ है; और सिर का आरम्भ कहाँ। बस, कोयले की एक सजीव मूर्ति थी। आप को गर्मी बहुत सताती थी। दो आदमी खड़े पङ्खा झल रहे थे; उस पर भी पसीने का तार बंधा हुआ था। आप आवकारी के विभाग में एक ऊँचे ओहदे पर थे; ५०० वेतन मिलता था, ठेकेदारों से खूब रिशक्त लेते थे। ठेकेदार शराब के नाम पानी वेचें, चौवीसों घण्टे दूकान खुली रक्खें; आप को केवल खुश रखना काफी था। सारा कानून आप की खुशी थी। इतनी भयङ्कर मूर्ति थी कि चाँदनी रात में उन्हें देख कर सहसा लोग चौंक पड़ते थे--बालक और स्त्रियाँ ही नहीं; पुरुष तक सहम जाते थे। चाँदनी रात इसलिए कहा कि अँधेरी रात में तो उन्हें कोई देख ही न सकता था--श्यामता अन्धकार में विलीन हो जाती थी। केवल आँखों का रङ्ग लाल था। जैसे पक्का मुसलमान पाँच वार नमाज पढ़ता है, वैसे आप पाँच बार शराब पीते थे। मुफ्त की शराब तो काजी को हलाल है; फिर आप तो शराव के अफसर ही थे, जितनी चाहें पिएँ; कोई हाथ पकड़ने वाला न था। जब प्यास लगती शराब पी लेते। जैसे कुछ रङ्गों में परस्पर सहानुभूति है, उसी तरह कुछ रङ्गों में परस्पर विरोध है। लालिमा के संयोग से कालिमा और भी भयङ्कर हो जाती है।

बाबू साहब ने पण्डित जी को देखते ही कुर्सी से उठ कर कहा--अख्वाह! आप हैं। आइए, आइए। धन्य भाग; और कोई है? कहाँ चले गए सब के सव, झगडू, गुरदीन, छकौड़ी, भवानी, रामगुलाम; कोई है? क्या सब के सब मर गए? चलो

रामगुलाम, भवानी, छकौड़ी, गुरदीन, झगड़? कोई नहीं बोलता; सब मर गए। दर्जन भर आदमी हैं; पर मौके पर एक की भी सूरत नहीं नज़र आती, न जाने सब कहाँ गायब हो जाते हैं। आप के वास्ते कुर्सी लाओ।

बाबू साहब ने ये पाँचों नाम कई बार दुहराए; लेकिन यहान हुआ कि पङ्खा मलने वाले दोनों आदमियों में से किसी को कुर्सी लाने को भेज देते। तीन-चार मिनिट के बाद एक काना आदमी खाँसता हुआ आकर बोला--सरकार, इतना की नौकरी हमार कीन न होई। कहाँ तलक उधार-बाढ़ी ले-ले खाई। माँगत-माँगत थेथर होय गएन।

भाल०--मत बको, जाकर कुर्सी लाओ। जब कोई काम करने को कहा गया, तो रोने लगता है। कहिए पण्डित जी, वहाँ सब कुशल तो है?

मोटेराम--क्या कुशल कहूँ बाबू जी, अब कुशल कहाँ? सारा घर मिट्टी में मिल गया!

इतने में कहार ने एक टूटा हुआ चीड़ का सन्दूक लाकर रख दिया और बोला--कुर्सी मेच हमार उठाए नाहीं उठत है।

पण्डित जी शरमाते हुए डरते-डरते उस पर बैठे कि कहीं टूट न जाय; और कल्याणी का पत्र बाबू साहब के हाथ में रख दिया।

भाल०--अब और कैसे मिट्टी में मिलेगा। इससे बड़ी और कौन विपत्ति पड़ेगी। बाबू उदयभानुलाल से मेरी पुरानी दोस्ती थी। आदमी नहीं, हीरा था। क्या दिल था, क्या हिम्मत थी,

( आँखें पोंछकर ) मेरा तो जैसा दाहिना हाथ ही कट गया। विश्वास मानिए, जब से यह खवर सुनी है, ऑखों में अँधेरा सा छा गया है। खाने बैठता हूँ, तो कौर मुँह में नहीं जाता। उनकी सूरत आँखों के सामने खड़ी रहती है। मुँह जूठा करके उठ आता हूँ। किसी काम में दिल ही नहीं लगता। भाई के मरने का रञ्ज भी इससे कम ही होता। आदमी नहीं, हीरा था!

मोटे०--सरकार, नगर में अव ऐसा कोई रईस ही नहीं रहा।

भाल०--मैं खूब जानता हूँ पण्डित जी, आप मुझसे क्या कहते हैं। ऐसा आदमी लाख-दो लाख में एक होता है। जितना मैं उनको जानता था, उतना दूसरा नहीं जान सकता। दो ही तीन वार की मुलाकात में उनका भक्त हो गया; और मरते दम तक रहूँगा। आप समधिन साहब से कह दीजिएगा, मुझे दिली रूज है।

मोटे०--आप से ऐसी ही आशा थी। आप जैसे सज्जनो के दर्शन दुर्लभ हैं। नहीं तो आज कौन विना दहेज के पुत्र का विवाह करता है।

भाल०--महाराज, दहेज की बातचीत ऐसे सत्यवादी पुरुषों स नहीं की जाती। उनसे तो सम्बन्ध हो जाना ही लाख रुपये के बरावर है। मैं इसी को अपना अहोभाग्य समझता हूँ। हा! कितनी उदार आत्मा थी? रुपये को तो उन्होंने कुछ समझा ही नहीं, तिनके के बरावर भी परवाह नहीं की। बुरा रिवाज है, बेहद

बुरा! मेरा बस चले, तो दहेज लेने वालों और दहेज देने वालों दोनों ही को गोली मार दूँ। हाँ साहब, साक गोली मार दूँ; फिर चाहें फाँसी ही क्यों न हो जाय । पूछो, आप लड़के का विवाह करते हैं कि उसे बेचते हैं? अगर आप को लड़के की शादी में दिल खोल कर खर्च करने का अरमान है, तो शौक से खर्च कीजिए; लेकिन जो कुछ कीजिए अपने बल पर। यह क्या कि कन्या के पिता का गला रेतिए। नीचता है, घोर नीचता। मेरा बस चले तो इन पाजियों को गोली मार दूँ!

मोटे०--धन्य हो सरकार, भगवान् ने आपको बड़ी बुद्धि दी है। यह धर्म का प्रताप है। मालकिन की इच्छा है कि विवाह का मुहूर्त वही रहे; और तो उन्होंने सारी बातें पत्र में लिख ही दी हैं। बस, अब आप ही उबारें, तो हम उबर सकते हैं। इस तरह तो बारात में जितने सज्जन जायँगे उनकी सेवा-सत्कार हम करेंगे ही; लेकिन परिस्थिति अब बहुत बदल गई है सरकार, कोई करने-धरने वाला नहीं है। बस, ऐसी बात कीजिए कि वकील साहब के नाम पर बट्टा न लगे।


भालचन्द्र एक मिनिट तक आँखें बन्द किए बैठे रहेः फिर एक लम्बी साँस खींच कर बोले--ईश्वर को मञ्जूर ही न था कि वह लक्ष्मी मेरे घर आती; नहीं तो क्या यह वज्र गिरता? सारे मन्सूबे खाक में मिल गए। फूला न समाता था कि वह शुभ अवसर निकट आ रहा है; पर क्या जानता था कि ईश्वर के दरबार में कुछ और षड्यन्त्र रचा जा रहा है। मरने वाले की याद ही
रुलाने के लिए काफी है। उसे देख कर तो जख्म और भी हरा हो जायगा । उस दशा में न जाने क्या कर । इसे गुण समझिए चाहे दोष कि जिससे एक बार मेरी घनिष्टता हो गई, फिर उसकी याद चित्त से नहीं उतरती । अभी तो खैर इतना ही है कि उनकी सूरत आँखों के सामने नाचती रहती है। लेकिन वह कन्या घर में आ गई, तब तो मेरा जिन्दा रहना कठिन हो जायगा । सच मानिए, रोते-रोते मेरी आँखें फूट जायँगी । जानता हूँ, रोना-धोना व्यर्थ है । जो मर गया, वह लौट कर नहीं आ सकता । सन्न करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है, लेकिन दिल से मजबूर हूँ। उस अनाथ बालिका को देख कर मेरा कलेजा फट जायेगा

मोटे-ऐसा न कहिए सरकार ! वकील साहब नहीं हैं तो क्या, आप तो हैं । अव आप ही उसके पिता तुल्य हैं। वह अब वकील साहब की कन्या नहीं, आपकी कन्या है । आपके हृदय के भाव तो कोई जानता नहीं; लोग समझेगे वकील - साहब के देहान्त हो जाने के कारण आप अपने वचन से फिर गए । इसमें आपकी बदनामी है । चित्त को समझाइए, और हँसी-खुशी कन्या का पाणिग्रहण करा लीजिए। हाथी मरे भी तो नौ लाख का। लाख विपत्ति पड़ी है। लेकिन मालकिन आप लोगों की सेवा-सत्कार करने में कोई बात उठा न रक्खेंगी।

बावू साहब समझ गए कि पण्डित मोटेराम कोरे पोथी के ही पण्डित नहीं वरन् व्यवहार-नीति में भी चतुर हैं। बोले-पण्डितजी, हलक से कहता हूँ, मुझे उस लड़की से जितना प्रेम है, उतना अपनी लड़की से भी नहीं है; लेकिन जब ईश्वर को मञ्जूर ही नहीं है तो मेरा क्या बस है ? यह मृत्यु एक प्रकार की अमङ्गलसूचना है, जो विधाता की ओर से हमें मिली है। यह किसी आने वाली मुसीबत की आकाशवाणी है । विधाता स्पष्ट रीति से कह रहा है, यह विवाह मङ्गलमय न होगा। ऐसी दशा में आप ही सोचिए, यह संयोग कहाँ तक उचित है । आप तो विद्वान् आदमी हैं। सोचिए, जिस काम का आरम्भ ही अमङ्गल से हो, उसका अन्त मङ्गलमय हो सकता है ? नहीं, जान-बूझ कर मक्खी नहीं निगली जाती । समधिन साहिबा से समझा कर कह दीजिएगा, मैं उनकी आज्ञा-पालन करने को तैयार हूँ; लेकिन इसका परिणाम अच्छा न होगा। स्वार्थ के वश होकर मैं अपने परम मित्र की सन्तान के साथ यह अन्याय नहीं कर सकता। •

इस तर्क ने पण्डित जी को निरन्तर कर दिया। वादी ने वह तीर छोड़ा था, जिसकी उनके पास कोई काट न थी। शत्रु ने उन्हीं के हथियार से उन पर वार किया था; और वह उसका प्रतिकार न कर सकते थे। वह अभी कोई जवाव सोच ही रहे थे कि बाबू साहब ने फिर नौकरों को पुकारना शुरू किया। अरे ! तुम सब फिर गायब हो गए; मगडू, छकौड़ी, भवानी, गुरदीन, रामगुलाम ! एक भी नहीं बोलता । सबके सब मर गए । पण्डित जी के वास्ते पानी-वानी की भी फिक्र है ? न जाने इन सबों को कोई कहाँ तक समझाए । अक्ल छू तक नहीं गई।
देख रहे हैं कि एक महाशय दूर से थके-माँदे चले आ रहे हैं; पर किसी को जरा भी परवाह नहीं। लाओ पानी-वानी रक्खो। पण्डित जी, आपके लिए शर्वत बनवाऊँ या फलहारी मिठाई मँगवा दूँ।

मोटेराम जी मिठाइयों के विषय में किसी प्रकार का बन्धन न स्वीकार करते थे। उनका सिद्धान्त था कि घृत से सभी वस्तुएँ पवित्र हो जाती हैं। रसगुल्ले और बेसन के लड्डू उन्हें बहुत प्रिय थे; पर शर्वत से उन्हें रुचि न थी। पानी से पेट भरना उनके नियम के विरुद्ध था। सकुचाते हुए बोले--शर्वत पीने की तो मुझे आदत नहीं, मिठाई खा लूँगा।

भाल०--फलाहारी न?

मोटे--इसका मुझे कोई विचार नहीं।

भाल०--है तो यही बात। छूतछात सब ढकोसला है। मैं स्वयं नहीं मानता। अरे, अभी तक कोई नहीं आया। छकौड़ी, भवानी, गुरदीन, रामगुलाम कोई तो बोले।

अब की भी वही बूढ़ा कहार खाँसता हुआ आकर खड़ा हो गया, और बोला--सरकार, मोर तलव दे दीन जाय। ऐसी नौकरी मोसे न होई। कहाँ लो दौरी, दौरत-दौरत गोड़ पिराय लगत हैं।

भाल०--काम कुछ करो या न करो; पर तलव पहले चाहिए। दिन भर पड़े-पड़े खाँसा करो, तलब तो तुम्हारी चढ़ ही रही है। जाकर बाजार से एक आने की कोई ताजी मिठाई ला। दौड़ता हुआ जा! कहार को यह हुक्म देकर बाबू साहब घर में गए; और स्त्री से बोले--वहाँ से एक पण्डित जी आए हैं। यह खत लाए हैं, जरा पढ़ो तो।

पत्नी जी का नाम रँगीलीबाई था। गोरे रङ्ग की प्रसन्नमुख महिला थीं। रूप और यौवन उनसे बिदा हो रहे थे; पर किसी प्रेमी मित्र की भाँति मचल मचल कर तीस साल तक जिसके गले से लगे रहे, उसे छोड़ते न बनता था।

रँगीलीबाई बैठी पान लगा रही थीं। बोलीं--कह दिया न कि हमें वहाँ ब्याह करना मञ्जूर नहीं?

भाल०--हाँ, कह तो दिया; पर मारे सङ्कोच के मुँह से शब्द न निकलता था। भूठ-मूठ का हीला करना पड़ा।

रँगीली--साफ बात कहने में सङ्कोच क्या। हमारी इच्छा है, नहीं करते। किसी का कुछ लिया तो नहीं है? जब दूसरी जगह दस हजार नक़द मिल रहे हैं, तो वहाँ क्यों न करूँ? उनकी लड़की कोई सोने की थोड़ी ही है। वकील साहब जीते होते, तो शरमाते-शरमाते भी पन्द्रह-बीस हजार दे मरते। अब वहाँ क्या रक्खा है?

भाल०--एक दफा ज़बान देकर निकल जाना अच्छी बात नहीं। कोई मुँह पर कुछ न कहे; पर बदनामी हुए बिना नहीं रहती। मगर तुम्हारे ज़िद से मजबूर हूँ।

रँगीलीबाई ने पान खाकर खत खोला और पढ़ने लगी। हिन्दी का अभ्यास बाबू साहब को तो बिलकुल नथा, और यद्यपि रँगीलीबाई भी शायद ही कभी किताब पढ़ती हों; पर खत-वत

पढ़ लेती थीं। पहली ही पाँती पढ़ कर उनकी ऑखें सजल हो गई; और पत्र समाप्त हुआ तो उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। एक-एक शब्द करुणा के रस में डूबा हुआ था। एक-एक अक्षर से दीनता टपक रही थी। रंगीलीवाई की कठोरता पत्थर की नहीं, लाख की थी--जो एक ही आँच से पिघल जाता है। कल्याणी के करुणोत्पादक शब्दों ने उसके स्वार्थ-मण्डित हृदय को पिघला दिया। रुँधे हुए कण्ठ से बोली--अभी ब्राह्मण बैठा है न?

भालचन्द्र पत्नी जी के आँसुओं को देख-देख कर सूखे जाते थे। अपने ऊपर झल्ला रहे थे कि मैंने नाहक़ यह खत इसे दिखाया। इसकी ज़रूरत ही क्या थी? इतनी बड़ी भूल उनसे कभी न हुई थी। सन्दिग्ध भाव से बोले--शायद वैठा हो, मैं ने तो जाने को कह दिया था। रॅगीली ने खिड़की से झाँक कर देखा। पण्डित मोटेराम जी वगुले की तरह ध्यान लगाए बाज़ार के रास्ते की ओर ताक रहे थे। लालसा से व्यग्र होकर कभी यह पहलू बदलते कभी वह पहलू। "एक पाने की मिठाई" ने आशा की कमर तो पहले ही तोड़ दी थी। उसमें भी यह विलम्ब दारुण दशा थी। उन्हें बैठे देख कर रँगीलीवाई हे ली--है; है, अभी है, जाकर कह दो; हम विवाह करेंगे, जरूर करेंगे। बेचारी बड़ी मुसीवत में है।

भाल०--तुम कभी-कभी बच्चों की सी बातें करने लगती हो। अभी उसे कह आया हूँ कि मुझे विवाह करना मञ्जूर नहीं। एक लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधनी पड़ी। अब जाकर यह सन्देशा कहूँगा,

तो वह अपने दिल में क्या कहेगा, जरा सोचो तो। यह शादी-विवाह का मामला है। लड़कों का खेल नहीं है कि अभी एक बात तय की; और अभी पलट गए। भले आदमी की बात न हुई, दिल्लगी हुई!

रँगीली--अच्छा तुम अपने मुँह से न कहो, उस ब्राह्मण को मेरे पास भेज दो। मैं इस तरह समझा दूँगी कि तुम्हारी बात भी रह जाय, और मेरी भी। इसमें तो तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है!

भाल०--तुम अपने सिवा सारी दुनिया को नादान समझती हो। तुम कहो या मैं कहूँ, बात एक ही है। जो बात तय हो गई, वह हो गई; अब मैं उसे फिर नहीं उठाना चाहता। तुम्हीं तो बार-बार कहती थीं कि मैं वहाँ न करूँगी। तुम्हारे ही कारण मुझे अपनी बात खोनी पड़ी। अब तुम फिर रङ्ग बदलती हो। यह तो मेरी छाती पर मूंग दलना है । आखिर तुम्हें कुछ तो मेरे मान-अपमान का विचार करना चाहिए।

रँगीली--तो मुझे क्या मालूम था कि विधवा की दशा इतनी हीन हो गई है। तुम्हीं ने तो कहा था कि उसने पति की सारी सम्पत्ति छिपा रक्खी है और अपनी गरीबी का ढोंग रच कर काम निकालना चाहती है। एक ही छटी हुई औरत है। तुमने जो कहा, वह मैंने मान लिया। भलाई करके बुराई करने में तो लज्जा और सङ्कोच है। बुरा करके भलाई करने में कोई सङ्कोच नहीं। अगर तुम हाँ कर आए होते; और मैं नहीं करने को

कहती, तो तुम्हारा सङ्कोच उचित होता। नहीं करने के बाद हाँ करने में तो और अपना वड़प्पन है।

भाल०--तुम्हें बड़प्पन मालूम होता हो, मुझे तो लुच्चापन ही मालूम होता है। फिर तुमने यह कैसे मान लिया कि मैने वकीलाइन के विषय में जो बात कही थी, वह झूठी थी। क्या यह पत्र देख कर? तुम जैसे खुद सरल हो, वैसे ही दूसरों को भी सरल समझती हो।

रँगीली--इस पत्र में बनावट नहीं मालूम होती। बनावट की बात दिल में चुभती नहीं। उसमें बनावट की गन्ध अवश्य रहती है।

भाल०--बनावट की बात तो ऐसी चुभती है कि सच्ची बात उसके सामने बिलकुल फीकी मालूम होती है। यह किस्से-कहानियाँ लिखने वाले, जिनका किताबें पढ़-पढ़कर तुम घण्टों रोती हो, क्या सच्ची बातें लिखते हैं? सरासर झूठ का तूमार बॉधते हैं, यह भी एक कला है।

रँगीली--क्यों जी, तुम मुझसे भी उड़ते हो, दाई से पेट छिपाते हो? मैं तुम्हारी बातें मान जाती हूँ, तो तुम समझते हो इसे चकमा दिया; पर मै तुम्हारी एक-एक नस पहचानती हूँ। तुम अपना ऐब मेरे सिर मँढ़कर खुद वेदाग बनना चाहते हो। बोलो, कुछ झूठ कहती हूँ। जब वकील साहब जीते थे, तो तुमने सोचा था कि ठहराव की जरूरत ही क्या है, वह खुद ही जितना उचित समझेगे दे देंगे, बल्कि बिना ठहराव के और

ज्यादा मिलने की आशा होगी। अब जो वकील साहब का देहान्त हो गया, तो तरह-तरह के हीले हवाले करने लगे, यह भलमन्सी नहीं, छोटापन है। इसका इलज़ाम भी तुम्हारे ही सिर है। मैं अब शादी-ब्याह के नगीच न जाऊँगी। तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो। ढोंगी आदमियों से मुझे चिढ़ है। जो बात करो, सफाई से करो; बुरा हो या अच्छा। 'हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और' वाली नीति पर चलना तुम्हें शोभा नहीं देता। बोलो, अब भी वहाँ शादी करते हो या नहीं ?

भाल०--जब मैं बेईमान, दगाबाज़ और झूठा ठहरा, तो मुझ से पूछना ही क्या। मगर खूब पहचानती हो आदमियों को! क्या कहना है, तुम्हारी इस सूझ-बूझ की बलैयाँ ले ले।

रंगीली--हो बड़े हयादार, अब भी नहीं शर्माते। ईमान से कहो, मैं ने बात ताड़ ली कि नहीं?

भाल०--अजी जाओ, वह दूसरी औरतें होती हैं, जो मर्दों को पहचानती हैं। अब तक मैं भी यही समझता था कि औरतों की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म होती है। पर आज वह विश्वास उठ गया, और महात्माओं ने औरतों के विषय में जो तत्त्व की बातें कही हैं, उनको मानना पड़ा।

रंगीली--जरा आईने में सूरत तो देख आओ, तुम्हें मेरी कसम है! जरा देख लो, कितना झपे हुए हो।

भाल०--सच कहना, किवना झेंपा हुआ हूँ। रॅगीली--उतना ही, जितना कोई भलामानस चोर चोरी खुल जाने पर झेंपता है।

भाल०--खैर, मैं झेंपा सहीः पर शादी वहाँ न होगी।

रँगीली--मेरी वला से, जहाँ चाहो करो। क्यों, भुवन से एक वार क्यों नहीं पूछ लेते?

भाल०--अच्छी बात है, उसी पर फैसला रहा।

रँगीली--जरा भी इशारा न करना!

भाल०--अजी मैं उसकी तरफ़ ताड़्गा भी नहीं।

संयोग से ठीक इसी वक्त भुवनमोहन भी आ पहुँचा। ऐसे सुन्दर, सुडौल, वलिष्ट युवक कॉलेजो में बहुत कम देखने में आते हैं। विलकुल माँ को पड़ा था, वही गोरा-चिट्टा रङ्ग था, वही पतले-पतले गुलाव की पत्ती के से ओंठ, वहीं चौड़ा माथा, वही-बड़ी-बड़ी आँखें, डील-डौल बाप का था। ऊँचा कोट, ब्रीचेज़, टाई, बूट, हैट उस पर खूब खिल रहे थे। हाथ में एक हॉकी-स्टिक थी। चाल में जवानी का गुरूर था, आँखों में आत्म-गौरव! रँगीली ने कहा--आज बड़ी देर लगाई तुमने! यह देखो, तुम्हारी ससुराल से यह खत आया है। तुम्हारी सास ने लिखा है। साफ-साफ बतला दो, अभी सवेरा है। तुम्हें वहाँ शादी करनी मञ्जूर है या नहीं?

भुवन--करनी तो चाहिए अम्माँ, पर मैं करूँगा नहीं!

रँगीली--क्यों?

भुवन--कहीं ऐसी शादी करवाइए कि खूब रुपये मिलें। और सही, एक लाख का तो डौल हो। वहाँ अब क्या रक्खा

है। वकील साहब रहे ही नहीं, बुढ़िया के पास अब क्या होगा!!

रँगीली--तुम्हें ऐसी बातें मुँह से निकालते शर्म नहीं आती?

भुवन-'इसमें शर्म की कौन सी बात है। रुपये किसे काटते हैं। लाख रुपये तो लाख जन्म में भीन जमा कर पाऊँगा। इस साल पास भी हो गया, तो कम से कम पाँच साल तक रुपये की सूरत नज़र न आएगी। फिर सौ दो सौ रुपये महीने कमाने लगूँगा। पाँच-छः तक पहुँचते-पहुँचते उन के तीन भाग बीत जाँएगे। रुपये जमा करने की नौबत ही न आएगी। दुनिया का कुछ मजा न उठा सकूँगा। किसी धनी की लड़की से शादी हो जाती, तो चैन से कटती। मैं ज्यादा नहीं चाहता, बस एक लाख नकद हो। या फिर कोई ऐसी जायदाद वाली बेवा मिले, जिसकी एक ही लड़की हो।

रँगीली--चाहे औरत कैसी ही मिले?

भुवन--धन सारे ऐबों को छिपा देगा। मुझे तो वह गालियाँ भी, सुनाए तो चूँ न करूँ। दुधारू गाय की लात किसे बुरी मालूम होती है?

बाबू साहब ने प्रशंसा-सूचक भाव से कहा--हमें उन लोगों के साथ सहानुभूति है; और दुख है कि ईश्वर ने उन्हें विपत्ति में डाला, लेकिन बुद्धि से काम लेकर ही कोई निश्चय करना चाहिए। हम कितने ही फटे हालों जायँ, फिर भी अच्छी खासी बारात हो जायगी। वहाँ भोजन का ठिकाना भी नहीं। सिवा इसके कि लोग हँसें; और कोई नतीजा न निकलेगा। रँगीली--तुम बाप-पूत दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो। दोनों उस गरीब लड़की के गले पर छुरी फेरना चाहते हो!

भुवन--जो ग़रीब है, उसे गरीबों ही के यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए। अपनी हैसियत से बढ़ कर ......।

रँगीली--चुप भी रह, आया है वहाँ से हैसियत! लेकर तुम कहाँ के ऐसे धन्ना-सेठ हो। कोई आदमी द्वार पर आ जाय, तो एक लोटे पानी को तरस जाय। बड़ी हैसियत वाले बने हैं।

यह कह कर रँगीली वहाँ से उठ कर रसोई का प्रबन्ध करने चली गई। भुवनमोहन मुस्कुराता हुआ अपने कमरे में चला गया; और बावू साहब मूछों पर तान देते हुए बाहर आए कि मोटेराम को अन्तिम निश्चय सुना दें; पर उनका कहीं पता न था।

मोटेराम जी कुछ देर तक तो कहार की राह देखते रहे, जब उसके आने में बहुत देर हुई, तो उनसे न बैठा गया। सोचा, यहाँ वैठे-बैठे काम न चलेगा; कुछ उद्योग करना चाहिए। भाग्य के भरोसे यहाँ आड़ी दिए बैठे रहे, तो भूखों मर जायँगे; यहाँ तुम्हारी दाल नहीं गलने की। चुपके से लकड़ी उठाई; और जिधर वह कहार गया था, उसी तरफ़ चले। बाजार थोड़ी ही दूर पर था, एक क्षण में जा पहुँचे। देखा तो बुड्ढा एक हलवाई की दुकान पर बैठा चिलम पी रहा है! उसे देखते ही आपने बड़ी चेतकल्लुफी से कहा--अभी कुछ तैयार नहीं है क्या महरा, सरकार वहाँ बैठे विगड़ रहे हैं कि जाकर सो गया या कहीं ताड़ी पीने लगा। मैं ने कहा--सरकार, यह वात नहीं, वुड्ढा आदमी है; आते ही

आने तो आएगा। बड़े विचित्र जीव हैं। न जाने इनके यहाँ कैसे नौकर टिकते हैं।

कहार--मुझे जोड़ के आज तक तो दूसरा टिका नहीं; और न टिकेगा। साल भर से तलब नहीं मिली। किसी की तलब नहीं देते। जहाँ किसी ने तलब माँगी; और लगे उसे डाटने। बेचारा नौकरी छोड़ कर भाग जाता है। वह दोनों आदमी जो पङ्खा झल रहे थे, सरकारी नौकर हैं। सरकार से दो अर्दली मिले हैं न। इसी से पड़े हुए हैं। मैं भी सोचता हूँ जैसा तेरा ताना-बाना वैसी मेरी भरनी; दस साल कट नए हैं, साल-दो साल और इसी तरह कट जायँगे।

मोटेराम--तो तुम्हीं अकेले हो! नाम तो कई कहारों का लेते हैं।

कहार--वह सब इन दो-तीन महीनो के अन्दर आए और छोड़-छोड़ चले गए। यह अपना रोब जमाने को अभी तक उनका नाम जपा करते हैं। कहीं नौकरी दिलाइएगा, चलूँ?

मोटेराम--अजी बहुत नौकरी हैं। कहार तो आजकल टूँढे़ नहीं मिलते। तुम तो पुराने आदमी हो, तुम्हारे लिए नौकरी की क्या कमी। है वहाँ कोई ताजी चीज़? मुझसे कहने लगे खिचड़ी बनाइएगा या बाटी लगाइएगा? मैं ने कह दिया--सरकार, बुड्ढा आदमी है, रात को उसे मेरा भोजन बनवाने में कष्ट होगा, मैं कुछ बाजार ही में खा लूँगा। इसकी आप चिन्ता न करें। बोले, अच्छी बात है, कहार आपको दुकान पर मिलेगा। बोलो साह जी, कुछ

तर माल तैयार है? लड्डू तो ताजे मालूम होते हैं। तोल दो एक सेर भर; आ जाऊँ वहीं ऊपर न?

यह कह कर मोटेराम जी हलवाई की दुकान पर जा बैठे; और तर माल चखने लगे। खूब छक कर खाया। ढाई-तीन सेर चट कर गए। खाते जाते थे और हलवाई की तारीफ करते जाते थे। साह जी, तुम्हारी दूकान का जैसा नाम सुना था, वैसा ही माल भी पाया। बनारस वाले ऐसे रसगुल्ले नहीं बना पाते। कलाकन्द अच्छी बनाते हैं। पर तुम्हारी उनसे बुरी नहीं। माल डालने से अच्छी चीज नहीं बन जाती, विद्या चाहिए।

हलवाई--कुछ और लीजिए महाराज! थोड़ी सी रवड़ी मेरी तरफ से लीजिए।

मोटेराम--इच्छा तो नहीं है, लेकिन दे दो पाव भर!

हलवाई--पाव भर क्या लीजिएगा। चीज़ अच्छी है,आध सेर तो लीजिए।

खूब इच्छापूर्ण भोजन करके पण्डित जी ने थोड़ी देर बाजार की सैर की, और नौ बजते-बजते मकान पर आए। यहाँ सन्नाटा-सा छाया हुआ था। एक लालटेन जल रही थी। आपने चबूतरे पर विस्तर जमाया और सो गए।

सबेरे अपने नियमानुसार कोई आठ बजे उठे तो देखा कि बाबू साहब टहल रहे हैं। इन्हें जगा देख कर वह पालागन कर बोले--महाराज,आप रात कहाँ चले गए? मैं बड़ी रात तक आपकी राह देखता रहा। भोजन का सब सामान बड़ी देर तक रक्खा रहा। जब

आप न आए, तो रखवा दिया गया। आपने कुछ भोजन किया था या नहीं?

मोटे०--हलवाई की दुकान से कुछ खा आया था।

भाल--अजी पूरी-मिठाई में वह आनन्द कहाँ, जो बाटी और दाल में है। दस-बारह आने खर्च हुए होंगे; और फिर भी पेट न भरा होगा। आप मेरे मेहमान हैं, जितने पैसे लगे हों ले लीजिएगा।

मोटे०--आप ही के हलवाई की दूकान पर खा पाया था, वह जो नुक्कड़ पर बैठता है।

भाल०--कितने पैसे देने पड़े?

मोटे०--आपके हिसाब में लिखा दिए।

भाल०--जितनी मिठाइयाँ ली हो, मुझे वता'दीजिए; नहीं पीछे से वईमानी करने लगेगा। एक ही ठग है।

मोटे०--कोई ढाई सेर मिठाई थी; और आध सेर रबड़ी!

बाबू साहब ने विस्फरित नेत्रों से पण्डित जी को देखा; मानो कोई अचम्भे की बात सुनी हो। तीन सेर तो कभी यहाँ महीने भर का टोटल भी न होता था; और यह महाशय एक ही बार कोई चार रुपये का माल उड़ा गए। अगर एक आध दिन और रह गए, तो बधिया ही बैठ जायगी। पेट है या शैतान की कब्र। तीन सेर! कुछ ठिकाना है। एक उद्विग्न दशा में दौड़े हुए अन्दर गए; और रंगीली से बोले--कुछ सुनती हो,यह महाशय कल तीन सेर मिठाई उड़ागए। तीन सेर पक्की तोल। रँगीलीबाई ने विस्मित होकर कहा--अजी नहीं, तीन सेर भला क्या खा जायगा। आदमी है या बैल? भाल०--तीन सेर तो वह अपने मुँह से कह रहा है। चार सेर से कम न खाया होगा, पही तोल!

रँगीली--पेट में शनीचर है क्या?

भाल०--आज और रह गया, तो छ: सेर पर हाथ फेरेगा।

रँगीली--तो आज रहे ही क्यों, खत का जवाब जो देना हो, देकर विदा करो। अगर रहे, तो साफ कह देना कि हमारे यहाँ मिठाई मुफ्त नहीं आती। खिचड़ी बनाना हो बनाएँ, नहीं अपनी राह लें। जिन्हे ऐसे पेटुओं को खिलाने से मुक्ति मिलती हो, वे खिलाएँ; हमें ऐसी मुक्ति न चाहिए।

मगर पण्डित जी विदा होने को तैयार बैठे थे। इसलिए बाबू साहब को कौशल से काम लेने की जरूरत न पड़ी।

पूछा--क्या तैयारी कर दी महाराज?

मोटे०--हाँ सरकार,अब चलेगा? नौ वजे की गाड़ी मिलेगीन?

भाल०--भला आज तो और रहिए!

यह कहते-कहते वाबू जी को भय हुआ कि कही यह महाराज सचमुच न रह जाएँ, इसलिए उस वाक्य को यों पूरा किया--हाँ, वहाँ लोग आप का इन्तज़ार कर रहे होंगे।

मोटे०--एक-दो दिन की तो बात न थी; और विचार भी यही था कि त्रिवेणी का स्नान करूँगा; पर बुरा न मानिए तो कहूँ--आप लोगों में ब्राह्मणों के प्रति लेशमात्र भी श्रद्धा नहीं है। हमारे यजमान हैं, जो हमारा मुँह जोहते रहते हैं कि पण्डित जी कोई आज्ञा दें, तो उसका पालन करें। हम उनके द्वार पर पहुँच जाते

हैं, तो वह अपना धन्य भाग मानते हैं, और सारा घर--छोटे से बड़े तक हमारी सेवा-सत्कार में मग्न हो जाता है। जहाँ अपना आदर नहीं, वहाँ एक क्षण भी ठहरना हमें असह्य है। जहाँ ब्राह्मण का आदर नहीं, वहाँ कल्याण नहीं हो सकता।

भाल०--महाराज, हमसे तो ऐसा अपराध नहीं हुआ।

मोटे०--अपराध नहीं हुआ! और अपराध किसे कहते हैं? अभी आप ही ने घर में जाकर कहा कि यह महाशय तीन सेर मिठाई चट कर गए। पक्की तोल! आपने अभी खाने वाले देखे कहाँ! एक बार खिलाइए तो आँखें खुल जाय। ऐसे-ऐसे महान् पुरुप पड़े हुए हैं, जो पँसेरी भर मिठाई खा जाएँ और डकार तक न लें। एक मिठाई खाने के लिए हमारी चिरौरी की जाती है, रुपये दिए जाते हैं। हम भिक्षुक नहीं हैं, जो आपके द्वार पर पड़े रहें। आपका नाम सुन कर आए थे; यह न जानते थे कि यहाँ मेरे भोजन के भी लाले पड़ेंगे। जाइए, भगवान् आपका कल्याण करें!

बाबू साहब ऐसा झपे कि मुँह से बात न निकली। जिन्दगी मर में उन पर कभी ऐसी फटकार न पड़ी थी। बहुत बातें बनाई आपकी चर्चा न थी, एक दूसरे ही महाशय की बात थी, लेकिन पण्डित का क्रोध शान्त न हुआ। वह सब कुछ सह सकते थे; पर अपने पेट की निन्दा न सह सकते थे। औरतों को रूप की निन्दा जितनी अप्रिय लगती है, उससे कहीं अप्रिय पुरुषों को अपने पेट की निन्दा लगती है। बाबू साहव मनाते तो थे; पर यह धड़का भी समाया हुआ था कि यह टिक न जाय। उनकी कृपणता का परदा

खुल गया था,अब इसमें सन्देह न था। उस परदे को ढाँकना जरूरी था। अपनी कृपणता को छिपाने के लिए उन्होंने कोई बात उठा न रक्खी थी; पर होने वाली बात होकर रही। पछता रहे थे कि कहाँ से घर में इसकी बात कहने गया, और कहा भी तो उच्च स्वर में। यह दुष्ट भी कान लगाए सुनता रहा; किन्तु अब पछत्ताने से क्या हो सकता था? न जाने किस मनहूस की सूरत देखी थी कि यह विपत्ति गले पड़ी। अगर इस वक्त यहाँ से रुष्ट होकर चला गया, तो वहाँ जाकर बदनाम करेगा; और मेरा सारा कौशल खुल जायगा । अब तो इसका मुँह बन्द कर देना ही पड़ेगा।

यह सोच-विचार करते हुए वह घर में जाकर रँगीलीवाई से बोले-इस दुष्ट ने हमारी तुम्हारी बातें सुन ली। रूठ कर चला जा रहा है।

रँगीली--जब तुम जानते थे कि द्वार पर खड़ा है, तो धीरे से क्यों न बोले?

भाल०--विपत्ति आती है तो अकेले नहीं आती। यह क्या जानता था कि वह द्वार पर कान लगाए खड़ा है?

रँगीली--न जाने किस का मुँह देखा था?

भाल०--वहाँ दुष्ट सामने लेटा हुआ था। जानता तो उधर ताकता ही नहीं। अब तो इस कुछ दे दिला कर राजी करना पड़ेगा।

रँगीली--उँह,जाने भी दो। जब तुम्हें वहाँ विवाह ही नहीं करना है, तो क्या परवाह है? जो चाहे समझे, जो चाहे कहे।

भाल०--या जान न बचेगी। लायो दस रुपये विदाई के
बहाने दे दूँ। ईश्वर फिर इस मनहूस की सूरत न दिखाए। रँगीली ने बहुत अछताते-पछताते दस रुपये निकाले, और बाबू साहब ने उन्हें ले जाकर पण्डित जी के चरणों पर रख दिया। पण्डित जी ने दिल में कहा—धत्तेरे मक्खी चूस की! ऐसा रगड़ा कि याद ही करोगे। तुम समझते होगे कि दस रुपये देकर इसे उल्लू बना लूँगा। इस फेर में न रहना। यहाँ तुम्हारी नस-नस पहचानते हैं। रुपये जेब में रख लिए, और आशीर्वाद देकर अपनी राह ली।

बाबू साहब बड़ी देर तक खड़े सोच रहे थे—मालूम नहीं अब भी मुझे कृपण ही समझ रहा है, या परदा ढक गया। कहीं ये रुपये भी तो पानी में नहीं गिर पड़े!!