निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ २०९ से – २२० तक

 
 

अठारहवाँ परिच्छेद

जब हमारे ऊपर कोई बड़ी विपत्ति आ पड़ती है, तो उससे हमें केवल दुख ही नहीं होता—हमें दूसरों के ताने भी सहने पड़ते हैं। जनता को हमारे ऊपर टिप्पणियाँ करने का वह सुअवसर मिल जाता है, जिसके लिए वह हमेशा बेचैन रहती है। मन्साराम क्या मरा, मानो समाज को उन पर आवाज़ें कसने का बहाना मिल गया। भीतर की बातें कौन जाने? प्रत्यक्ष बात यह थी कि यह सब सौतेली माँ की करतूत है। चारों तरफ यही चर्चा थी—ईश्वर न करे, लड़कों को सौतेली माँ से पाला पड़े। जिसे अपना बना-बनाया घर उजाड़ना हो—अपने प्यारे बच्चों की गर्दन पर छुरी फेरनी हो, वह बच्चों के रहते हुए अपना दूसरा ब्याह करे। ऐसा कभी नहीं देखा कि सौत के आने पर घर तबाह न हो गया हो। वही बाप, जो बच्चों पर जान देता था, सौत के आते ही उन्हीं बच्चों का दुश्मन हो जाता है—उसकी मति ही बदल जाती है। ऐसी देवी ने जन्म ही नहीं लिया, जिसने सौत के बच्चों को अपना समझा हो! मुश्किल यह थी कि लोग इन टिप्पणियों पर ही सान्तुष्ट न होते थे। कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें अब जियाराम और सियाराम से विशेष स्नेह हो गया था। वे दोनों बालकों से बड़ी सहानुभूति प्रकट करते; यहाँ तक कि दो-एक महिलाएँ तो उनकी माता के शील और स्वभाव को याद करके आँसू बहाने लगती थीं। हाय-हाय! बेचारी क्या जानती थी कि उसके मरते ही उसके लाड़लों की यह दुर्दशा होगी! अब दूध-मक्खन काहे को मिलता होगा?

जियाराम कहता-मिलता क्यों नहीं?

महिला कहती-मिलता है, अरे बेटा! मिलना भी कई तरह का होता है। पानी वाला दूध टके सेर का मँगा कर रख दिया, पियो चाहे न पियो-कौन पूछता है? नहीं तो बेचारी नौकर से दूध दुहवा कर मँगवाती थी, वह तो चेहरा ही कह देता है। दूध की सूरत छिपी नहीं रहती-वह सूरत ही नहीं रही!

जियाराम को अपनी माँ के समय के दूध का स्वाद तो याद था नहीं, जो इस आक्षेप का उत्तर देता; और न उस समय की अपनी सूरत ही याद थी, चुपका रह जाता। इन शुभाकांक्षाओं का असर भी पड़ना स्वाभाविक था। जियाराम को अपने घर वालों से चिढ़ होती जाती थी। मुन्शी जी मकान नीलाम हो जाने के बाद दूसरे घर में उठ आए, तो किराए की फिक्र हुई। निर्मला ने मक्खन बन्द कर दिया। जब वह आमदनी ही नहीं रही, तो वह खर्च कैसे रहता? दोनों कहार अलग कर दिए गए, जियाराम को पढ़ाने वाले मास्टर को भी जवाब दे दिया गया। जियाराम को यह कतर-ज्योंत धुरी लगती थी। जव निर्मला मैके चली गई, तो मुन्शी जी ने दूध भी बन्द कर दिया। नवजात कन्या की चिन्ता अभी से उनके सिर सवार हो गई थी!

जियाराम ने बिगड़ कर कहा-दूध बन्द करने से तो आपका महल वन रहा होगा, भोजन भी बन्द कर दीजिए!

मुन्शी जी-दूध पीने का शौक है, तो जाकर दुहा क्यों नहीं लाते। पानी के पैसे तो मुझसे न दिए जायँगे!

जियाराम-मैं दूध दुहाने जाऊँ, कोई स्कूल का लड़का देख ले तव ?

मुन्शी जी-तब कुछ नहीं, कह देना अपने लिए दूध लिए जाता हूँ। दूध लाना कोई चोरी नहीं है।

जियाराम-चोरी नहीं है! आप ही को कोई दूध लाते देख ले, तो आपको शर्म न आएगी?

मुन्शी जी-बिलकुल नहीं! मैं ने तो इन्हीं हाथों से पानी खींचा है, अनाज की गठरियाँ लाया हूँ। मेरे बाप लखपती नहीं थे।

जियाराम-मेरे बाप तो गरीब नहीं हैं, मैं क्यों दूध दुहाने जाऊँ? आखिर आपने कहारों को क्यों जवाब दे दिया?

मुन्शी जी- क्या तुम्हें इतना भी नहीं सूझता कि मेरी आमदनी अव पहली सी नहीं रही, इतने नादान तो नहीं हो।

जियाराम-आखिर आपकी आमदनी क्यों कम हो गई?

मुन्शी जी-जब तुम्हें अक्ल ही नहीं है,तो क्या समझाऊँ? यहाँ जिन्दगी से तङ्ग आ गया हूँ, मुकदमे कौन ले; और ले भी तो तैयार कौन करे? वह दिल ही नहीं रहा। अब तो जिन्दगी के दिन पूरे कर रहा हूँ। सारे अर्मान लल्लू के साथ चले गए!

जियाराम-अपने ही हाथों न?

मुन्शी जी ने चीख कर कहा-अरे अहमक! यह ईश्वर की मर्जी थी! अपने हाथों कोई अपना गला काटता है।

जियाराम-ईश्वर तो आपका विवाह करने न आया था।

मुन्शी जी अब जब्त न कर सके; लाल-लाल आँखें निकाल कर बोले-क्या तुम आज लड़ने के लिए कमर बाँध कर आए हो? आखिर किस बिरते पर? मेरी रोटियाँ तो नहीं चलाते। जब इस क़ाबिल हो जाना, तो मुझे उपदेश देना। तब मैं सुन लूँगा। अभी तुमको मुझे उपदेश देने का अधिकार नहीं है। कुछ दिनों अदव और तमीज सीखो। तुम मेरे सलाहकार नहीं हो कि मैं जो काम करूँ, उसमें तुमसे सलाह लूँ। मेरी पैदा की हुई दौलत है, उसे जैसे चाहूँ खर्च कर सकता हूँ। तुमको जबान खोलने का भी हक नहीं है। अगर फिर तुमने मुझसे ऐसी बेअदबी की, तो नतीजा बुरा होगा। जब मन्साराम जैसा रत्न खोकर मेरे प्राण न निकले, तो तुम्हारे बगैर मैं मर न जाऊँगा; समझ गए!

यह कड़ी फटकार पाकर भी जियाराम वहाँ से न टला। निःशत भाव से बोला- तो क्या आप चाहते हैं कि हमें चाहे कितनी ही तकलीफ हो, मुँह न खोलें! मुझसे तो यह न होगा। भाई साहब को अदब और तमीज़ का जो इनाम मिला, उसकी मुझे भूख नहीं ! मुझ में जहर खाकर प्राण देने की हिम्मत नहीं! ऐसे अदव को दूर ही से दण्डवत् करता हूँ!

मुन्शी जी-तुम्हें ऐसी बातें करते हुए शर्म नहीं आती ?

जियाराम-लड़के अपने बुजुर्गों ही की नकल करते हैं ।

मुन्शी जी का क्रोध शान्त हो गया ! जियाराम पर उसका कुछ भी असर न होगा, इसका उन्हें यकीन हो गया । उठ कर टहलने चले गए । आज उन्हें सूचना मिल गई कि इस घर का शीघ्र ही सर्वनाश होने वाला है !!

उस दिन से पिता और पुत्र में किसी न किसी बात पर रोज ही एक झपट हो जाती । मुन्शी जी ज्यों-ज्यों तरह देते थे,जियाराम और भी शेर होता जाता था । एक दिन जियाराम ने रुक्मिणी से यहाँ तक कह डाला-बाप है, यह समझ कर छोड़ देता हूँ, नहीं तो मेरे ऐसे-ऐसे साथी हैं कि चाहूँ तो भरे बाजार में पिटवा दूं। रुक्मिणी ने मुन्शी जी से कह दिया। मुन्शी जी ने प्रकट रूप से तो चेपरवाई ही दिखाई;, पर उनके मन में शङ्का समा गई। शाम को सैर करना छोड़ दिया । यह नई चिन्ता सवार हो गई। इसी भय से निर्मला को भी न बुलाते थे कि यह शैतान उसके साथ भी यही बर्ताव करेगा। जियाराम एक बार दबी जवान कह भी चुका था-देखू, अब की कैसे इस घर में आती हैं । दूर ही से न दुत्कार दूं, तो जियाराम नाम नहीं । बुड्डू मियाँ कर ही क्या लेंगे। मुन्शी जी भी खूब समझ गए थे कि मैं इसका कुछ भी नहीं कर सकता। कोई बाहर का आदमी होता, तो उसे पुलिस और कानून के शिकजे में कसते। अपने लड़के को क्या करें? सच कहा है-आदमी हारता है, तो अपने लड़कों ही से!

एक दिन डॉक्टर सिन्हा ने जियाराम को बुला कर समझाना शुरू किया। जियाराम उनका अदब करता था। चुपचाप बैठा सुनता रहा। जब डॉक्टर साहब ने अन्त में पूछा, आखिर तुम चाहते क्या हो? तो वह बोला-साफ-साफ कह दूं न? बुरा तो न मानिएगा?

सिन्हा-नहीं, जो कुछ तुम्हारे दिल में हो, साफ-साफ कह दो।

जियाराम-तो सुनिए, जब से भैया मरे हैं, मुझे पिता जी की सूरत देख कर क्रोध आता है।मुझे ऐसा मालूम होता है कि इन्हीं ने भैया की हत्या की है; और एक दिन मौका पाकर हम दोनों भाइयों की भी हत्या करेंगे। अगर इनकी यह इच्छा न होती, तो ब्याह ही क्यों करते?

डॉक्टर साहब ने बड़ी मुश्किल से हँसी रोक कर कहा-तुम्हारी हत्या करने के लिए उन्हें व्याह करने की क्या जरूरत थी? यह बात मेरी समझ में नहीं आई। बिना विवाह किए भी तो वह हत्या कर सकते थे!

जियाराम-कभी नहीं! उस वक्त तो उनका दिल ही कुछ और था- हम लोगों पर जान देते थे। अब मुँह तक नहीं देखना चाहते। इनकी यही इच्छा है कि उन दोनों प्राणियों के सिवा घर में और कोई न रहे। अव जो लड़के होंगे उनके रास्ते से हम लोगों को हटा. देना चाहते हैं, यही उन दोनों आदमियों की दिली मन्शा है। हमें तरह-तरह की तकलीफें देकर भगा देना चाहते हैं! इसीलिए आजकल मुक़दमे नहीं लेते। हम दोनों भाई आज मर जाय, तो फिर देखिए कैसी वहार होती है।

डॉक्टर-अगर तुम्हें भगाना ही होता, तो कोई इल्जाम लगा कर घर से निकाल न देते?

जिया०-इसके लिए पहले ही से तैयार बैठा हुआ हूँ।

डॉक्टर-सुनें, क्या तैयारी की है?

जिया०-जब मौका आएगा, देख लीजिएगा।

यह कह कर जियाराम चलता हुआ। डॉक्टर सिन्हा ने बहुत पुकारा; पर उसने फिर कर देखा भी नहीं।

कई दिन के बाद डॉक्टर साहब की जियाराम से फिर मुलाकात हो गई। डॉक्टर साहब सिनेमा के प्रेमी थे, और जियाराम की तो जान ही सिनेमा में वसती थी। डॉक्टर साहब ने सिनेमा पर आलोचना करके जियाराम को वातों में लगा लिया, और अपने घर लाए। भोजन का समय आ गया था, दोनों आदमी साथ ही भोजन करने बैठे। जियाराम को यहाँ भोजन बहुत स्वादिष्ट लगा; बोला-मेरे यहाँ तो जब से महाराज अलग हुआ, खाने का मजा ही जाता रहा। बुआ जी पका वैष्णवी भोजन बनाती हैं। जबरदस्ती खा लेता हूँ पर खाने की तरफ़ ताकने का जी नहीं चाहता। डॉक्टर -- मेर यहाँ तो जबघर में खाना पकता है, तो इससे कहीं स्वादिष्ट होता है। तुम्हारी बुआ जी प्याज़-लहसुन न छूती होंगी।

जिया ०-- हाँ साहब, उबाल कर रख देती हैं, लाला जी को इसकी पर्वाह ही नहीं कि कोई खाता है या नहीं। इसीलिए तो महाराज को अलग किया है। अगर रुपए नहीं हैं, तो रोज़ गहने कहाॅ से बनते हैं?

डॉक्टर -- यह बात नहीं है जियाराम, उनकी आमदनी सचमुच बहुत कम हो गई है। तुम उन्हें बहुत दिक़ करते हो।

जिया ०-- (हँस कर) मैं उन्हें दिक़ करता हूँ! मुझसे क़सम ले लीजिए, जो कभी उनसे बोलता भी हूँ। मुझे बदनाम करने का उन्होंने बीड़ा उठा लिया है। बेसबब, बेवजह पीछे पड़े रहते हैं। यहाँ तक कि मेरे दोस्तों से भी उन्हें चिढ़ है। आप ही सोचिए, दोस्तों के बग़ैर कोई ज़िन्दा रह सकता है। मैं कोई लुच्चा नहीं हूँ कि लुच्चों की सुहबत रक्खँ; मगर आप दोस्तों ही के पीछे मुझे रोज़ सताया करते हैं। कल तो मैंने साफ़ कह दिया -- मेरे दोस्त मेरे घर आएँगे, किसी को अच्छा लगे या बुरा! जनाब, कोई हो; हर वक्त़ की धौंस नहीं सह सकता!!

डॉक्टर -- मुझे तो भई उन पर बड़ी दया आती है। यह ज़माना उनके आराम करने का था। एक तो बुढ़ापा उस पर जवान बेटे का शोक; स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं। ऐसा आदमी क्या कर सकता है? वह जो कुछ थोड़ा-बहुत करता है, वही बहुत है। तुम अभी और कुछ नहीं कर सकते, तो कम से कम अपने

आचरण से तो उन्हें प्रसन्न रख सकते हो। बुड्ढों को प्रसन्न करना बहुत कठिन काम नहीं। यकीन मानो -- तुम्हारा हँस कर वोलना ही उन्हें ख़ुश करने को काफ़ी है। इतना पूछने में तुम्हारा क्या खच होता है -- बाबू जी, आपकी तबीयत कैसी है? वह तुम्हारी यह उद्दण्डता देख कर मन ही मन कुढ़ते रहते हैं। मैं तुमसे सच कहता हूँ, कई बार रो चुके हैं! उन्होंने मान लो शादी करने में ग़लती की। इसे वह भी स्वीकार करते हैं; लेकिन तुम अपने कर्त्तव्य से क्यों मुँह मोड़ते हो। वह तुम्हारे पिता हैं, तुम्हें उनकी सेवा करनी चाहिए। एक बात भी ऐसी मुँह से न निकालनी चाहिए, जिससे उनका दिल दुखे। उन्हें यह ख्याल करने का मौका ही क्यों दो कि सब मेरी कमाई खाने वाले हैं, बात पूछने वाला कोई नहीं। मेरी उम्र तुमसे कहीं ज्य़ादा है जियाराम; पर आज तक मैंने अपने पिता जी की किसी बात का जवाब नहीं दिया! वह आज भी मुझे डाटते हैं, सिर झुका कर सुन लेता हूँ। जानता हूँ, यह जो कुछ कहते हैं, मेरे भले ही को कहते हैं। माता-पिता से बढ़ कर हमारा हितैषी और कौन हो सकता है? उनके ऋण से कौन मुक्त हो सकता है?

जियाराम बैठा रोता रहा! अभी उसके सद्भावों का सम्पूर्णतः लोप न हुआ था। अपनी दुर्जनता उसे साफ़ नज़र आ रही थी। इतनी ग्लानि उसे बहुत दिनों से न आई थी। रोकर डॉक्टर साहब से कहा -- मैं बहुत ही लज्जित हूँ। दूसरों के बहकाने में आ गया था। अब आप मेरी ज़रा भी

शिकायत न सुनेंगे। आप पिता जी से मेरे अपराध क्षमा करा दीजिए। मैं सचमुच बड़ा अभागा हूँ। उन्हें मैंने बहुत सताया। उनसे कहिए -- मेरे अपराध क्षमा कर दें, नहीं मैं मुँह में कालिख लगा कर कहीं निकल जाऊँगा -- डूब मरूँगा!

डॉक्टर साहब अपनी उपदेश-कुशलता पर फूले न समाए। जियाराम को गले लगा कर बिदा किया!

जियाराम घर पहुँचा, तो ग्यारह बज गये थे। मुन्शी जी भोजन करके अभी बाहर आए थे। उसे देखते ही बोले -- जानते हो कै बजे हैं? बारह का वक्त़ है!

जियाराम ने बड़ी नम्रता से कहा -- डॉक्टर सिन्हा मिल गए। उनके साथ उनके घर तक चला गया। उन्होंने खाने के लिए ज़िद की; मजबूरन् खाना पड़ा। इसी से देर हो गई।

मुन्शी जी -- डॉक्टर सिन्हा से दुखड़े रोने गए होगे या और कोई काम था?

जियाराम की नम्रता का चौथा भाग उड़ गया; बोला -- दुखड़े रोने की मेरी आदत नहीं है।

मुन्शी जी -- ज़रा भी नहीं, तुम्हारे मुँह में तो ज़बान ही नहीं। मुझसे जो लोग तुम्हारी बातें कहा करते हैं, वह गढ़ा करते होंगे?

जियाराम -- और दिनों की मैं नहीं कहता; लेकिन आज डॉक्टर सिन्हा के यहाँ मैंने कोई बात ऐसी नहीं की, जो इस वक्त़ आपके सामने न कर सकूँ। मुन्शी जी -- बड़ी ख़ुशी की बात है। बेहद ख़ुशी हुई! आज से गुरु-दीक्षा ले ली है क्या?

जियाराम की नम्रता का एक चतुर्थांश और गायब हो गया। सिर उठा कर बोला -- आदमी बिना गुरु-दीक्षा लिए हुए भी अपनी बुराइयों पर लज्जित हो सकता है। अपना सुधार करने के लिए गुरु-मन्त्र कोई ज़रूरी चीज़ नहीं।

मुन्शी जी -- अब तो लुच्चे न जमा होंगे?

जियाराम -- आप किसी को लुच्चा क्यों कहते हैं, जब तक ऐसा कहने के लिए आपके पास कोई प्रमाण नहीं?

मुन्शी जी -- तुम्हारे दोस्त सब लुच्चे-लफङ्गे हैं। एक भी भला आदमी नहीं। मैं तुमसे कई बार कह चुका कि उन्हें यहाँ मत जमा किया करो; पर तुमने सुना नहीं। आज मैं आखिरी बार कहे देता हूँ कि अगर तुमने उन शोहदों को जमा किया, तो मुझे पुलिस की सहायता लेनी पड़ेगी।

जियाराम की नम्रता का एक चतुर्थांश और ग़ायब हो गया। फड़क कर बोला -- अच्छी बात है; पुलिस की सहायता लीजिए! देखें पुलिस क्या करती है? मेरे दोस्तों में आधे से ज्य़ादा पुलिस के अफ़सरों ही के बेटे हैं। जब आप ही मेरा सुधार करने पर तुले हुए हैं, तो मैं व्यर्थ क्यों कष्ट उठाऊँ!

यह कहता हुआ जियाराम अपने कमरे में चला गया, और एक क्षण के बाद हारमोनियम के मीठे स्वरों की आवाज़ बाहर आने लगी! सहृदयता का जलाया हुआ दीपक निर्दथ व्यङ्ग के एक झोंके से बुझ गया! अड़ा हुआ घोड़ा चुमकारने से जोर मारने लगा था; पर हण्टर पड़ते ही फिर अड़ गया और गाड़ी को पीछे ढकेलने लगा!!