बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ६५ से – ७६ तक

 

जुगुनू की चमक

पंजाब के सिंह राजा रणजीतसिंह संसार से चल चुके थे और राज्य के वे प्रतिष्ठित पुरुष जिनके द्वारा उसका उत्तम प्रबन्ध चल रहा था, परस्पर के द्वोष और अनबन के कारण मर मिटे थे। राजा रणजीतसिंह का बनाया हश्रा सुन्दर किन्तु खोखला भवन अब नष्ट हो चुका था। कुँवर दिलीपसिंह अब इंग्लैंड में थे और रानी चन्द्रकुँवरि चुनार के दुर्ग में। रानीचन्द्रकुँवरि ने विनष्ट होते हुए राज्य को बहुत सँभालना चाहा, किन्तु शासन-प्रणाली न जानती थी और कूट-नीति ईर्ष्या की आग भड़काने के सिवा और क्या करती ?

रात के बारह बज चुके थे। रानी चन्द्रकुँवरि अपने निवास भवन के ऊपर छत पर खड़ी गंगा की ओर देख रही थी और सोचती थी-लहरें क्यों इस प्रकार स्वतन्त्र हैं। उन्होंने कितने गाँव और नगर डुबाये हैं, कितने जीव-जन्तु तथा द्रव्य निगल गई हैं; किन्तु फिर भी वे स्वतन्त्र हैं। कोई उन्हें बन्द नहीं करता। इसीलिए न कि वे बन्द नहीं रह सकती ! वे गरजेंगी, बल खायेगी-और बाँध के ऊपर चढ़कर उसे नष्ट कर देंगी, अपने ज़ोर से उसे बहा ले जायेंगी।

यह सोचते-विचारते रानी गादो पर लेट गई । उसकी आँखों के सामने पूर्वावस्था की स्मृतियाँ मनोहर स्वप्न की भाँति आने लगीं। कभी उसकी भौंह की मरोड़ तलवार से भी अधिक तीव्र थी और उसकी मुसकराहट वसन्त की सुगन्धित समीर से भी अधिक प्राण-पोषक; किन्तु हाय, अब इनकी शक्ति हीनावस्था को पहुँच गई। रोवे तो अपने को सुनाने के लिए, हँसे तो अपने को बहलाने के लिए। यदि बिगड़े तो किसी का क्या बिगाड़ सकती है और प्रसन्न हो तो किसी का क्या बना सकती है ? रानी और बाँदी में कितना अन्तर है ? रानी की आँखों से आँसू की बूंदे झरने लगी, बो कभी विष से अधिक प्राण-नाशक और अमृत से अधिक अनमोल थीं। वह इसी भाँति अकेली, निराश, कितनी बार रोई, जब कि आकाश के तारों के सिवा और कोई देखनेवाला न था। इसी प्रकार रोते-रोते रानी की आँखें लग गई। उसका प्यारा, कलेजे का टुकड़ा कुँवर दिलीपसिंह, जिसमें उसके प्राण बसते थे, उदास मुख आकर खड़ा हो गया। जैसे गाय दिन-भर जंगलों में रहने के पश्चात् सन्ध्या को घर आती है और अपने बछड़े को देखते ही प्रेम और उमंग से मतवाली होकर स्तनों में दूध भरे, पूँछ उठाये, दौड़ती है, उसी भाँति चन्द्रकुँवरि अपने दोनों हाथ फैलाये अपने प्यारे कुँवर को छाती से लपटाने के लिए दौड़ी। परन्तु ऑखें खुल गई और जीवन की आशाओं की भाँति वह स्वप्न विनष्ट हो गया। रानी ने गंगा की ओर देखा, और कहा -- मुझे भी अपने साथ लेती चलो। इसके बाद गनी तुरन्त छत से उतरी। कमरे में एक लालटेन जल रही थी। उसके उजेले में उसने एक मैली साड़ी पहनी, गहने उतार दिये, रत्नों के एक छोटे-से बक्स को और एक तीव्र कटार को कमर में रखा। जिस समय वह बाहर निकली, नैराश्य-पूर्ण साहस की मूर्ति थी।

सन्तरी ने पुकाग । रानी ने उत्तर दिया -- मैं हूँ झंगी।

'कहाँ जाती है?'

'गंगाजल लाऊँगी। सुराही टूट गई है, रानीजी पानी माँग रही हैं ।'

सन्तरी कुछ समीप आकर बोला -- चल, मैं भी तेरे साथ चलता हूँ, जरा रुक जा।

झंगी बोली -- मेरे साथ मत आयो। रानी कोठे पर हैं। देख लेंगी।

मन्तरी को धोखा देकर चन्द्रकुँवरि गुप्त द्वार से होती हुई अन्धेरे में काँटों से उलझती, चट्टानों से टकराती, गंगा के किनारे जा पहुँची।

रात आधी से अधिक जा चुकी थी। गंगाजी में संतोषप्रदायिनीं शान्ति विराज रही थी। तरेंगे तारों को गोद में लिये सो रही थीं। चारों ओर सन्नाटा था।

रानी नदी के किनारे-किनारे चली जाती थी और मुड़-मुड़कर पीछे देखती थी। एकाएक एक डोंगी खूँटे से बँधी हुई देख पड़ी। रानी ने उसे ध्यान से देखा तो मल्लाह सोया हुआ था। उसे जगाना काल को जगाना था। वह तुरन्त रस्सी खोलकर नाव पर सवार हो गई। नाव धीरे-धीरे धार के सहारे चलने

लगी, शोक और अन्धकार-मय स्वप्न की भाँति जो ध्यान की तरंगों के साथ बहा चला जाता हो। नाव के हिलने से मल्लाह चौंककर उठ बैठा। आँखें मलते-मलते उसने सामने देखा तो पररे पर एक स्त्री हाथ में डॉड लिये बैठी है। घबराकर पूछा-तें कौन है रे ? नाव कहाँ लिये जात है? रानी हँस पड़ी। भय के अन्त को स.हस कहते हैं। बोली-सच बताऊँ या झूठ ?

मल्लाह कुछ भयभीत-सा होकर बोला-सच बताया जाय।

रानी बोली-अच्छा तो सुनो। मैं लाहौर की रानी चन्द्रकुंवरि हूँ। इसी किले में कैदी थी। भान भागी जाती हूँ। मुझे जल्दी बनारस पहुँचा दे। तुझे निहाल कर दूँगी और यदि शरारत करेगा तो देख,इस कटार से सिर काट दूंगी। सबेरा होने से पहले मुझे बनारस पहुँचना चाहिए।

यह धमकी काम कर गई। मल्लाह ने विनीति भाव से अपना कम्बल बिल्ला दिया और तेजी से डाँड़ चलाने लगा। किनारे के वृक्ष और उपर जगमगाते हुए तारे साथ-साथ दौड़ने लगे।

प्रातःकाल चुनार के दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य अचम्भित और व्याकुल था। सन्तरी, चौकीदार और लौंड़ियाँ सब सिर नीचे किये दुग के स्वामी के सामने उपस्थित थे। अन्वेषण हो रहा था;परन्तु कुछ पता न चलता था।

उधर रानी बनारस पहुँची। परन्तु वहाँ पहले से ही पुलिस और सेना का जाल बिछा हआ था। नगर के नाके बन्द थे। रानी का पता लगानेवाले के लिए एक बहुमूल्य पारितोषिक की सूचना दी गई थी।

बन्दीगृह से निकलकर रानी को जात हो गया कि वह और दृढ़ कारागार में है। दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य उसका श्राज्ञाकारी था। दुर्ग का स्वामी भी उसे सम्मान को दृष्टि से देखता था। किन्तु आज स्वतन्त्र होकर भी उसके प्रोठ बन्द थे। उसे सभी स्थानों में शत्रु देख पड़ते थे। पंखरहित पक्षी को पिंजरे के कोने में ही सुख है।

पुलिस के अफसर प्रत्येक आने-बानेवालों को ध्यान से देखते थे, किन्तु उस भिखारिनी की भोर किसी का ध्यान नही जाता था, जो एक फटी हुई साड़ी पहने यात्रियों के पीछे-पीछे धीरे-धीरे सिर झुकाये गङ्गा की ओर चली आ रही

है। न वह चौंकती है, न हिचकती है, न घबराती है। इस भिखारिनी की नसों में रानी का रक्त है।

यहाँ से भिखारिनी ने अयोध्या की रह ली। वह दिन-भर विकट मागों में चलती, और रात को किसी सुनसान स्थान पर लेट रहती थी। मुख पीला पड़ गया था। पैरों में छाले थे। फूल-सा बदन कुम्हला गया था।

वह प्रायः गाँव में लाहौर की रानी के चरचे सुनती। कभी-कभी पुलिस के आदमी भी उसे गनी की टोह में दत्तचित्त देख पड़ते। उन्हें देखते ही भिखारिनी के हृदय में सोई हुई रानी जाग उठती। वह आँखें उठाकर उन्हें घृणा की दृष्टि से देखती और शोक तथा क्रोध से उसकी आँखें जलने लगीं। एक दिन अयोध्या के समीप पहुँचकर रानी एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई थी। उसने कमर से कटार निकालकर सामने रख दी थी। वह सोच रही थी कि कहाँ जाऊँ?मेरी यात्रा का अन्त कहाँ है ? क्या इस संसार में अब मेरे लिए कहीं ठिकाना नहीं है ? वहाँ से थोड़ी दूर पर श्रामों का एक बहुत बड़ा बाग था। उसमें बड़े-बड़े डेरे और तम्बू गड़े हुए थे। कई एक सन्तरी चमकीली वर्दियाँ पहने टहल रहे थे, कई घोड़े बँधे हुए थे। रानी ने इस राजसी ठाट-बाट को शोक की दृष्टि से देखा। एक बार वह भी काश्मीर गई थी। उसका पड़ाव इससे कहीं बढ-कर था।

बैठे-बैठे सन्ध्या हो गई। रानी ने वहीं रात काटना निश्चय किया। इतने में एक बूढ़ा मनुष्य टहलता हुआ आया और उसके समीप खड़ा हो गया ।ऐंटी हुई दाढ़ी थी, शरीर में सटा हुआ चपकन था, कमर में तलवार लटक रही थी। इस मनुष्य को देखते ही रानी ने तुरन्त कटार उठाकर कमर में खोंस ली। सिपाही ने उसे तीव्र दृष्टि से देखकर पूछा-बेटी, कहां से आती हो ?

रानी ने कहा-बहुत दूर से।

'कहाँ जाओगी

'यह नहीं कह सकती, बहुत दूर।'

सिपाही ने रानी की ओर फिर ध्यान से देखा और कहा-ज़रा अपनी कटार मुझे दिखाओ। रानी कटार सँभालकर खड़ी हो गई और तीव्र स्वर से बोली-मित्र हो या शत्रु ? ठाकुर ने कहा-मित्र । सिपाही के बातचीत करने

के ढंग और चेहरे में कुछ ऐसी विलक्षणता थी जिससे रानी को विवश होकर विश्वास करना पड़ा।

वह बोली--विश्वासघात न करना। यह देखो।

ठाकुर ने कटार हाथ में ली। उसको उलट-पलटकर देखा और बड़े नम्र भाव से उसे आँखों से लगाया। तब रानी के आगे विनीत भाव से सिर झुकाकर वह बोला--महारानी चन्द्रकुँवरि ?

रानी ने करुण स्वर से कहा--नहीं, अनाथ भिखारिनी। तुम कौन हो ?

सिपाही ने उत्तर दिया--आपका एक सेवक!

रानी ने उसकी ओर निराश दृष्टि से देखा और कहा--दुर्भाग्य के सिवा इस संसार में मेरा कोई नहीं।

सिपाही ने कहा--महारानीजी, ऐसा न कहिए। पंजाब के सिंह की महारानी के वचन पर अब भी सैकड़ों सिर झुक सकते हैं। देश में ऐसे लोग वर्तमान हैं जिन्होंने आपका नमक खाया है और उसे भूले नहीं हैं।

रानी--अब इसकी इच्छा नहीं। केवल एक शान्त स्थान चाहती हूँ, जहाँ पर एक कुटी के सिवा और कुछ न हो।

सिपाही--ऐसा स्थान पहाड़ों में ही मिल सकता है। हिमालय की गोद में चलिए, वहीं आप उपद्रव से बच सकती हैं।

रानी (आश्चर्य से)--शत्रुओं में जाऊँ ? नैपाल कब हमारा मित्र रहा है ?

सिपाही--राणा जंगबहादुर दृढ़प्रतिज्ञ राजपूत हैं।

रानी--किन्तु वही जंगबहादुर तो हैं जो अभी-अभी हमारे विरुद्ध लार्ड डलहौज़ी को सहायता देने पर उद्यत था।

सिपाही (कुछ लज्जित सा होकर)--तब आप महारानी चन्द्रकुँवरि थीं, आज आप भिखारिनी हैं। ऐश्वर्य के द्वेषी और शत्रु चारों ओर होते हैं। लोग जलती हुई आग को पानी से बुझाते हैं, पर राख माथे पर चढ़ाई जाती है। आप ज़रा भी सोच-विचार न करें नैपाल में अभी धर्म का लोप नहीं हुआ है। आप भयत्याग करें और चलें, देखिए वह आपको किस भाँति सिर और आँखों पर बिठाता है।

रानी ने रात इसी वृक्ष की छाया में काटी। सिपाही भी वहीं सोया। प्रातः काल वहाँ दो तीब्रगामी घोड़े देख पड़े। एक पर सिपाही सवार था और दूसरे

पर एक अत्यन्त रूपवान् युवक। यह रानी चन्द्रकुँवरि थी, वो अपने रक्षा-स्थान की खोज में नैपाल पाती थी। कुछ देर पीछे रानी ने पूछा -- यह पड़ाव किसका है ? सिपाही ने कहा -- राणा जंगबहादुर का। वे तीर्थयात्रा करने आये हैं; किन्तु हमसे पहले पहुँच जायँगे।

रानी -- तुमने उनसे मुझे यहीं क्यों न मिला दिया। उनका हार्दिक भाव प्रकट हो जाता।

सिपाही -- यहाँ उनसे मिलना असम्भव था। आप जासूसों की दृष्टि से न बच सकतीं।

उस समय यात्रा करना प्राण को अर्पण कर देना था। दोनों यात्रियों को अनेकों बार डाकुओं का सामना करना पड़ा। उस समय रानी की वीरता, उसका युद्ध-कौशल तथा फुर्ती देखकर बूढ़ा सिपाही दाँतों तले अँगुली दबाता था। कभी उनकी तलवार काम कर जाती और कभी घोड़े की तेज़ चाल।

यात्रा बड़ी लम्बी थी। जेठ का महीना मार्ग में ही समाप्त हो गया। वर्षा ऋतु आई। आकाश में मेघ-माला छाने लगी। सूखी नदियाँ उतरा चलीं। पहाड़ी नाले गरजने लगे। न नदियाँ में नाव, न नालों पर घाट, किन्तु घोड़े सधे हुए थे। स्वयं पानी में उतर जाते और डूबते-उतराते, बहते, भँवर खाते पार ना पहुँचते। एक बार बिच्छू ने कछुए की पीठ पर नदी की यात्रा की थी। यह यात्रा उससे कम भयानक न थी।

कहीं ऊँचे-ऊँचे साखू और महुए के जंगल थे और कहीं हरे-भरे जामुन के बन। उनकी गोद में हाथियों और हिरनों के झुंड कलोलें कर रहे थे। धान की क्यारियाँ पानी से भरी हुई थीं। किसानों की स्त्रियाँ धान रोपती थीं और सुहावने गीत गाती थीं। कहीं उन मनोहारी ध्वनियों के बीच में, खेत की मेड़ों पर छाते की छाया में बैठे हुए ज़मीदारों के कठोर शब्द सुनाई देते थे।

इसी प्रकार यात्रा के कष्ट सहते, अनेकानेक विचित्र दृश्य देखते दोनों यात्री तराई पार करके नैपाल की भूमि में प्रविष्ट हुए।

प्रातःकाल का सुहावना समय था। नैपाल के महाराजा सुरेन्द विक्रमसिंह का दरबार सजा हुआ था। राज्य के प्रतिष्ठित मंत्री अपने-अपने स्थान पर बैठे

हुए थे। नैपाल ने एक बड़ी लड़ाई के पश्चात् तिब्बत पर विजय पाई थी। इस समय सन्धि की शर्तों पर विवाद छिड़ा था। कोई युद्ध व्यय का इच्छुक था, कोई राज्य-विस्तार का। कोई कोई महाशय वार्षिक कर पर जोर दे रहे थे। केवल राणा जंगबहादुर के आने की देर थी। वे कई महीनों के देशाटन के पश्चात् आज ही रात को लौटे थे और यह प्रसंग, जो उन्हीं के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था, अब मंत्रि-सभा में उपस्थित किया गया था। तिब्बत के यात्री, आशा और भय की दशा में, प्रधान मंत्री के मुख से अन्तिम निर्णय सुनने को उत्सुक हो रहे थे। नियत समय पर चोरदार ने गणा के आगमन की सूचना दी। दरबार के लोग उन्हें सम्मान देने के लिए खड़े हो गये। महाराज को प्रणाम करने के पश्चात् वे अपने सुसज्जित आसन पर बैठ गये। महाराज ने कहा- राणा जी, श्राप सन्धि के लिए कौन प्रस्ताव करना चाहते थे।

राणा ने नम्र भाव से कहा-मेरी अल्प बुद्धि में तो इस समय कठोरता का व्यवहार करना अनुचित है। शोकाकुल शत्रु के साथ दयालुता का आचरण करना सर्वदा हमारा उद्देश्य रहा है। क्या इस अवसर पर त्वार्थ के मोह में हम अपने बहुमूल्य उद्देश्य को भूल जायँगे ? हम ऐसी सन्धि चाहते है जो हमारे हृदय को एक कर दे। यदि तिब्बत का दरबार में व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान करने को कटिबद्ध हो, तो हम सन्धि करने के लिए सर्वथा उद्यत है।

मंत्रि-मंडल में विवाद आरम्भ हुआ। सबकी सम्मति इस दयालुता के अनुसार न थी, किन्तु महाराज ने राणा का समर्थन किया।यद्यपि अधिकांश सदस्यों को शत्रु के साथ ऐसी नरमी पसन्द न थी, तथापि महाराज के विपक्ष में बोलने का किसी को साहस न हुआ

यात्रियों के चले जाने के पश्चात् राणा जंगबहादुर ने खड़े होकर कहा-सभा के उपस्थित सज्जनों, आज नेपाल के इतिहास में एक नई घटना होनेवाली है, जिसे मैं आप की जातीय नीतिमत्ता की परीक्षा समझता हूँ। इसमें सफल होना आपके ही कर्तव्य पर निर्भर है। आज राज-सभा में आते समय मुझे यह आवेदनपत्र मिला है, जिसे मैं आप सज्जनों की सेवा में उपस्थित करता हूँ। निवेदक ने तुलसीदास की केवल यह चौपाई लिख दी है।

"आपत-काल परखिए चारी।

धीरज धर्म मित्र अरु नारी॥"

महाराज ने पूछा--यह पत्र किसने भेजा है ?

'एक भिखारिनी ने।'

'भिखारिनी कौन है ?

'महारानी चन्द्रकुँवरि।'

कड़बड़ खत्री ने आश्चर्य से पूछा--जो हमारी मित्र अंगरेज़ सरकार के विरुद्ध होकर भाग आई हैं ?

राणा जंगबहादुर ने लज्जित होकर कहा--जी हाँ। यद्यपि हम इसी विचार को दूसरे शब्दों में प्रकट कर सकते हैं।

कड़बड़ खत्री--अँगरेजों से हमारी मित्रता है और मित्र के शत्रु की सहायता करना मित्रता की नीति के विरुद्ध है।

जनरल शमशेरवहादुर--ऐसी दशा में इस बात का भय है कि अँगरेज़ी सरकार से हमारे सम्बन्ध टूट न जायँ।

राजकुमार रणवीरसिंह--हम वह मानते हैं कि अतिथि सत्कार हमारा धर्म है; किन्तु उसी समय तक जब तक कि हमारे मित्रों को हमारी ओर से शंका करने का अवसर न मिले।

इस प्रसंग पर यहाँ तक मत-भेद तथा वाद-विवाद हुआ कि एक शोर-सा मच गया और कई प्रधान यह कहते हुए सुनाई दिये कि महारानी का इस समय आना देश के लिए कदापि मगलकारी नहीं हो सकता।

तब राणा जंगबहादुर उठे। उनका मुख लाल हो गया था। उनका सद्विचार क्रोध पर अधिकार जमाने के लिए व्यर्थ प्रयत्न कर रहा था। वे बोले--भाइयों, यदि इस समय मेरी बातें आप लोगों को अत्यन्त कड़ी जान पड़ें तो मुझे क्षमा कीजिएगा, क्योंकि अब मुझमें अधिक श्रवण करने की शक्ति नहीं है। अपनी जातीय साहस हीनसा का यह लज्जाजनक दृश्य अब मुझसे नहीं देखा जाता। यदि नैपाल के दरबार में इतना भी साहस नहीं कि वह अतिथि-सत्कार और सहायता की नीति को निभा सके तो मैं इस घटना के सम्बन्ध में सब प्रकार का भार अपने

ऊपर लेता हूँ। दरबार अपने को इस विषय में निर्दोष समझे और इसकी सर्व-साधारण में घोषणा कर दे।

कड़बड़ खत्री गर्म होकर बोले-केवल यह घोषणा देश को भय से रक्षित नहीं कर सकती।

राणा जंगबहादुर ने क्रोध से ओठ चबा लिया, किन्तु सँभलकर कहा- देश का शामन भार अपने ऊपर लेनेवालों की ऐसी अवस्थाएँ अनिवार्य हैं। हम उन नियमों से, जिन्हें पालन करना हमारा कर्तव्य है, मुह नहीं मोड़ सकते। अपनी शरण में आये हुओं का हाथ पकड़ना-उनकी रक्षा करना राजपूतों का धर्म है। हमारे पूर्व पुरुष सदा इस नियम पर-धर्म पर प्राण देने को उद्यत रहते थे। अपने माने हुए धर्म को तोड़ना एक स्वतंत्र जाति के लिए लज्जास्पद है। अंगरेज हमारे भित्र हैं और अत्यन्त हर्ष का विषय है कि बुद्धिशाली मित्र हैं। महारानी चंद्रकुँवरि को अपनी दृष्टि में रखने से उनका उद्देश्य केवल यह था कि उपद्रवी लोगों के गिरोह का कोई केन्द्र शेष न रहे। यदि उनका यह उद्देश्य भंग न होतो, हमारी ओर से शंका होने का न उन्हें कोई अवसर है और न हमें उनसे लज्जित होने की कोई आवश्यकता‌।

कड़बड़-महारानी चन्द्रकुँवरि यहाँ किस प्रयोजन से आई हैं ?

राणा जंगबहादुर-केवल एक शान्ति-प्रिय सुख स्थान की खोज में, जहाँ उन्हें अपनी दुरवस्था की चिन्ता से मुक्त होने का अवसर मिले। वह ऐश्वर्यशाली गनी जो रंगमहलों में सुख विलास करती थी, जिसे फूलों की सेज पर भी चैन न मिलता था-आज सैकड़ों कोस से अनेक प्रकार के कष्ट सहन करती, नदी-नाले,पहाड़ जंगल छानती यहाँ केवल एक रक्षित स्थान की खोन में आई है। उमड़ी हुई नदियाँ और उबलते हुए नाले, बरसात के दिन। इन दुःखों को आप लोग जानते हैं। और यह सब उसी एक रक्षित स्थान के लिए-उसी एक भूमि के टुकड़े की आशा में। किन्तु हम ऐसे स्थान-हीन हैं कि उनकी यह अभिलाषा भी पूरी नहीं कर सकते। उचित तो यह था कि उतनी सी भूमि के बदले हम अपना हृदय फैला देते। सोचिए, कितने अभिमान की बात है कि एक आपदा में फंसी हुई रानी अपने दुःख के दिनों में जिस देश को याद करती है यह वही पवित्र देश है। महारानी चॅद्रकुँवरि को हमारे इस अभयप्रद स्थान पर-हमारी शरणा-

गतों की रक्षा पर पूरा भरोसा था और वही विश्वास उन्हें यहाँ तक लाया है। इसी आशा पर कि पशुपतिनाथ की शरण में मुझको शान्ति मिलेगी, वह यहाँ तक आई हैं। आपको अधिकार है चाहे उनकी आशा पूर्ण करें या उसे धूल में मिला दें। चाहे रक्षणता के--शरणागतों के साथ सदाचरण के--नियमों को निभाकर इतिहास के पृष्ठों पर अपना नाम छोड़ जायँ, या जातीयता तथा सदाचार-सम्बन्धी नियमों को मिटाकर स्वयं अपने को पतित समझें। मुझे विश्वास नहीं है कि यहाँ एक भी मनुष्य ऐसा निरभिमान है कि जो इस अवसर पर शरणागत-पालन धर्म को विस्मृत करके अपना सिर ऊँचा कर सके। अब मैं आपके अन्तिम निपटारे की प्रतीक्षा करता हूँ। कहिए, आप अपनी जाति और देश का नाम उज्ज्वल करेंगे या सर्वदा के लिए अपने माथे पर अपयश का टीका लगायँगे ?

राजकुमार ने उमंग से कहा--हम महारानी के चरणों तले आँखें बिछायेंगे।

कप्तान विकमसिंह बोले--हम राजपूत है और अपने धर्म का निर्वाह करेंगे।

जनरल वनवीरसिंह--हम उनको ऐसी धूमधाम से लायँगे कि संसार चकित हो जायगा।

राणा जंगबहादुर ने कहा--मैं अपने मित्र कड़बड़ खत्री के मुख से उनका फैसला सुनना चाहता हूँ।

कड़बड़ खत्री एक प्रभावशाली पुरुष थे, और मंत्रिमण्डल में वे राणा जंगबहादुर की विरुद्ध मण्डली के प्रधान थे। वे लज्जा भरे शब्दों में बोले--यद्यपि मैं महारानी के आगमन को भयरहित नहीं समझता, किन्तु इस अवसर पर हमारा धर्म यही है कि हम महारानी को आश्रय दें। धर्म से मुँह मोड़ना किसी जाति के लिए मान का कारण नहीं हो सकता।

कई ध्वनियों ने उमंग भरे शब्दों में इस प्रसंग का समर्थन किया।

महाराज सुरेन्द्रविक्रमसिंह के इस निपटारे पर बधाई देता हूँ। तुमने जाति का नाम रख लिया। पशुपति इस उत्तम कार्य में तुम्हारी सहायता करें।

सभा विसर्जित हुई। दुर्ग से तोपें छूटने लगीं। नगर भर में खबर गूँज उठी कि पंजाब की महारानी चन्द्रकुँवरि का शुभागमन हुआ है। जनरल रणवीरसिंह और जनरल समरधीरसिंह बहादुर ५०००० सेना के साथ महारानी की अगवानी के लिए चले।

अतिथि-भवन की सजावट होने लगी। बाज़ार अनेक भाँति की उत्तम सामाग्रियों से सज गये।

ऐश्वर्या की प्रतिष्ठा व सम्मान सब कहीं होता है, किन्तु किसी ने भिखारिनी का ऐसा सम्मान देखा है ? सेनाएँ बैंड बजाती और पताका फहराती हुई एक उमड़ी नदी की भाँति चली जाती थीं। सारे नगर में आनन्द ही आनन्द था। दोनों ओर सुन्दर वस्त्राभूषणों से सजे दर्शकों का समूह खड़ा था। सेना के कमांडर आगे-आगे घोड़ों पर सवार थे। सबके आगे राणा जंगबहादुर जातीय अभिमान के मद में लीन, अपने सुवर्णखचित हौदे में बैठे हुए थे। यह उदारता का एक पवित्र दृश्य था। धर्मशाला के द्वार पर यह जुलूस रुका। राणा हाथी से उतरे। महारानी चंद्रकुँवरि कोठरी से बाहर निकल आई। राणा ने झुककर वन्दना की। रानी उनकी ओर आश्चर्य से देखने लगीं। यह वही उनका मित्र बूढ़ा सिपाही था।

आंखें भर आई। मुसकराई। खिले हुए फूल पर से ओस की बूँदें टपकी। रानी बोलीं -- मेरे बूढ़े ठाकुर, मेरी नाव पार लगानेवाले, किस भाँति तुम्हारा गुण गाऊँ ?

राणा ने सिर झुकाकर कहा -- आपके चरणारविन्द से हमारे भाग्य उदय हो गये।

नेपाल की राजसभा ने पच्चीस हजार रुपये से महारानी के लिए उत्तम भवन बनवा दिया और उनके लिए दस हजार रुपया मासिक नियत कर दिया।

वह भवन आज तक वर्तमान है और नेपाल की शरणागतप्रियता तथा प्रणपालन-तत्परता का स्मारक है। पंञ्जाब की रानी को लोग आज तक याद करते हैं।

यह वह सीढ़ी है जिससे जातियाँ यश के सुनहले शिखर पर पहुँचती हैं। ये ही घटनाएँ हैं जिनसे जातीय इतिहास प्रकाश और महत्त्व को प्राप्त होता है।

पोलिटिकल रेज़ीडेंट ने गवर्नमेंट को रिपोर्ट की। इस बात की शंका थी कि गवर्नमेंट आफ् इण्डिया और नैपाल के बीच कुछ खिंचाव हो जाय। किन्तु गवर्नमेंट को राणा जंगबहादुर पर पूर्ण विश्वास था और जब नैपाल की राजसभा ने विश्वास और सन्तोष दिलाया कि महारानी चन्द्रकुँवरि को किसी शत्रुभाव का अवसर न दिया जायगा, तो भारत सरकार को भी सन्तोष हो गया। इस घटना को भारतीय इतिहास की अँधेरी रात में 'जुगुनू की चमक' कहना चाहिए।