देवांगना/सुखानन्द का आगमन
सुखानन्द का आगमन
प्रातःकाल का समय था। विहार का सिद्धिद्वार अभी खुला ही था। इस द्वार से नागरिक श्रद्धालु जन, श्रावक और बाहरी भिक्षु विहार के बहिरन्तरायण में आ-जा सकते थे, किन्तु विहार के भीतर नहीं प्रविष्ट हो सकते थे। इस समय बहुत-से गृहस्थ नागरिक देवी वज्रतारा के दर्शनों को आ-जा रहे थे। भिक्षु गण इधर-उधर घूम रहे थे। कोई सूत्र घोख रहा था। कोई चीवर धो रहा था। कोई स्नान-शुद्धि में लगा था। सुखदास भिक्षु वेश में धम्मपद गुनगुनाता दिवोदास की खोज में इधर-उधर घूम रहा था। दिवोदास का कहीं पता नहीं लग रहा था।
एक भिक्षु ने उसे टोककर कहा—"मूर्ख, विहार में गाता है? नहीं जानता, गाना विलास है, भिक्षु को मन्त्र-पाठ करना चाहिए।"
सुखदास ने आँखें कपार पर चढ़ाकर कहा—"मुझे मूर्ख कहने वाला ही मूर्ख है। अरे, मैं त्रिगुण सूत्र का पाठ कर रहा हूँ, जानता है?"
"त्रिगुण सूत्र?"
"हाँ-हाँ, पर वह कण्ठ से उतरता नहीं है। जानते हो त्रिगुण सूत्र?"
"नहीं जानता भदन्त, तुम कौन यान में हो?"
"बात मत करो, सूत्र भूला जा रहा है।" सुखदास गुनगुनाता फिर एक ओर को चल दिया। कुछ दूर जाकर उसने आप ही आप भुनभुनाते हुए कहा—"वाह, क्या-क्या सफाचट खोपड़ियाँ यहाँ जमा हैं, जी चाहता है दिन-भर इन्हें चपतियाता रहूँ। पर अपने राम को कुमार को टटोलना है। पता नहीं इस समुद्र से कैसे वह मोती ढूँढ़ा जाएगा। वह एक बूढ़ा भिक्षु जा रहा है, पुराना पापी दीख पड़ता है। इसी से पूछूँ।" सुखदास ने आगे बढ़कर कहा—"भदन्त, नमो बुद्धाय।"
"भदन्त, कह सकते हो, भिक्षु धर्मानुज कहाँ है?"
"तुम मूर्ख प्रतीत होते हो। नहीं जानते वह महातामस में आचार्य की आज्ञा से प्रायश्चित्त कर रहा है!"
"यह महातामस कहाँ है भदन्त?"
"शान्तं पापं, अरे, महातामस में तुम जाओगे? जानते हो वहाँ जो जाता है उसका सिर कटकर गिर पड़ता है। वहाँ चौंसठ सहस्र डाकिनियों का पहरा है।"
"ओहो हो, तो भदन्त, किस अपराध में भिक्षु धर्मानुज को महातामस दिया गया है?"
"नमो बुद्धाय।" इतने में दो-तीन भिक्षु वहाँ और आ गए। उन्होंने सुखदास की अन्तिम बात सुन ली। सुनकर वे बोल उठे—"मत कहो, मत कहो, कहने से पाप लगेगा।"
उसी समय आचार्य भी उधर आ निकले। आचार्य ने कहा :
"तुम लोग यहाँ क्या गोष्ठी कर रहे हो?"
"आचार्य, यह भिक्खु कहता है...।"
"क्या?"
"समझ गया, तुम लोगों ने महानिर्वाण सुत्त घोखा नहीं।"
"आचार्य, यह भिक्खु पूछता है...।"
"क्या?"
"पाप, पाप, भारी पाप।"
"अरे कुछ कहोगे भी या यों ही पाप-पाप?"
"कैसे कहें, पाप लगेगा आचार्य।"
"कहो, मैंने पवित्र वचनों से तुम्हें पापमुक्त किया।"
"तब सुनिये, वह जो नया भिक्षु दिवोदास...।"
"धर्मानुज कहो। वह तो महातामस में है?"
"जी हाँ।"
"महातामस में, वह चार मास में दोषमुक्त होगा।"
"किन्तु यह भिक्खु कहता है कि मैं वहाँ जाऊँगा।"
"क्यों रे?" आचार्य ने आँखें निकालकर सुखदास की ओर देखा।
सुखदास ने बद्धांजलि होकर कहा—"किन्तु आचार्य, भिक्षु धर्मानुज ने क्या अपराध किया?"
"अपराध? अरे तू उसे केवल अपराध ही कहता है।"
"आचार्य, मेरा अभिप्राय पाप से है।"
"महापाप किया है उसने, उसका मन भोग-वासना में लिप्त है, वह कहता है, उस पर बलात्कार हुआ है। मन की शुद्धि के लिए संघ स्थविर ने उसे चार मास के महातामस का आदेश दिया है।"
"कैसी मन की शुद्धि आचार्य?"
"अरे! तू कैसा भिक्षु है विहार के साधारण धर्म को भी नहीं जानता?"
"किन्तु इसी बात में इतना दोष?"
"बुद्धं शरणं। तू निरा मूर्ख है। तुझे भी प्रायश्चित्त करना होगा?"
"क्या गरम सीसा पीना होगा?"
"ठीक नहीं कह सकता, विधान पिटक में तेरे लिए दस हजार प्रायश्चित्त हैं।"
"बाप रे, दस हजार?"
"जाता हूँ, अभी मुझे सूत्रपाठ करना है। देखता हूँ विहार अनाचार का केन्द्र बनता जा रहा है।"
आचार्य बड़बड़ाते एक ओर चल दिए। सुखदास मुँह बाए खड़ा रह गया।