देवांगना/वाराणसी
वाराणसी
वाराणसी शैवधर्म का पुरातन मूलस्थान है। यहाँ धूत पापेश्वर का मन्दिर बड़ा विशाल था।
उसका स्वर्ण कलश गगनचुम्बी था। सम्पूर्ण मन्दिर श्वेत मर्मर का बना था। मन्दिर में बहुत
पार्षद, पुजारी, देवदासी और वेदपाठी ब्राह्मण रहते थे। सौ फुट ऊँची शिवमूर्ति ताण्डव
मुद्रा में थी। वह ठोस ताम्बे की थी। विशाल नन्दी की मूर्ति काले कसौटी के पत्थर की थी।
पाशुपति आम्राय में मन्दिर का माहात्म्य अधिक था, वहाँ देश-देश के यात्रियों का ताँता-सा
लगा रहता था।
एक बार काशिराज ने यज्ञ की घोषणा की थी, इससे देश-देश के भावुक जन बुलाए और बिना बुलाए काशी में आ जुटे थे। अनेक नरपतियों को आमन्त्रित किया गया था। और अनेक सेठ-साहूकार अपनी बहुमूल्य वस्तुओं को बेचने के लिए आ जुटे थे। मन्दिर में भव्य समारोह था। सहस्रों घृतदीप जल रहे थे। महाघण्ट के घोष से कानों के पर्दे फटे जाते थे। जनरव भी उसी में मिल गया था। वीणा, मृदंग आदि वाद्य बज रहे थे।
मन्दिर के प्रधान पुजारी का नमा सिद्धेश्वर था। वह कद में ठिगना, कृष्णकाय, अधेड़ वय का पुरुष था। उसका मुँह खिचड़ी दाढ़ी से ढका था। शरीर बलिष्ठ था, वह सदैव भगवा कौशेय धारण किए रहता था। वह आचार्य वज्रसिद्धि और काशिराज के साथ स्वर्ण सिंहासन पर बैठा था। बड़े-बड़े पात्रों में धूप जल रहा था, जिससे सारा ही वातावरण सुरभित हो रहा था। जड़ाऊ मशालों के प्रकाश में मन्दिर के खम्भों पर जड़े हुए रत्नमणि चमक रहे थे।
पूजा-विधि प्रारम्भ हुई। सोलह पुजारियों ने पूजा-आरती लिए मन्त्र-पाठ करते हुए आवेश किया। सब नंगे पैर, नंगे सिर, नंगे शरीर, कमर में पीताम्बर कन्धे पर श्वेत जनेऊ, सिर पर बड़ी चोटी। चार के हाथ में जगमगाते आरती के थाल थे। चार के हाथ में गंगाजल के स्वर्णपात्र थे। चार के हाथ में धूप, दीप और चार के हाथ में नाना विध फूलों से भरे थाल थे। आक-धतूरा और बिल्वपत्र भी उनमें थे।
उच्च स्वर में मन्त्रपाठ होने लगा।
कुछ काल तक रुद्र मन्त्रपाठ उच्च नाद के साथ हुआ। सैकड़ों कण्ठस्वरों ने मिलकर
पाठ को गौरव दिया। मन्त्रपाठ समाप्त होते ही देवदासियों ने नृत्य प्रारम्भ किया। सब रंग-
बिरंगी पोशाक पहने थीं। सिर पर मोतियों की माँग, कान में जड़ाऊ त्राटक, छाती पर
जड़ाऊ हार, कटि प्रदेश पर रक्त पट्ट, पीठ पर लहराता हुआ उत्तरीय। हाथ में ढमरू और
झाँझ।
सैकड़ों देवदासियों के नृत्य से, दर्शक विमुग्ध हो गए। आचार्य वज्रसिद्धि भी यह निषिद्ध दृश्य देखकर प्रसन्न हो रहे थे। एकाएक नृत्य रुक गया। सब नर्तकियाँ दो भागों में विभक्त हो गईं। मंजुघोषा धीरे-धीरे मंच पर आई। उसके सिर पर उत्कृष्ट जड़ाऊ मुकुट था। शरीर पर मोतियों का श्रृंगार था। अब केवल डमरू वादन होने लगा और मंजुघोषा ने ताण्डव नृत्य बिल्कुल शैव पद्धति पर करना प्रारम्भ किया। वातावरण एक विभिन्न कम्पन्न से भर गया। मंजुघोषा की नृत्य गति बढ़ती ही गई—वह तीव्र से तीव्रतर होती गई। उपस्थित समुदाय स्तब्ध रह गया। उस षोडशी बाला का भव्य रूप, अप्रतिम कला, दिव्य नृत्य, और उसका भावावेश इन सबने उपस्थित जनों की भावविमोहित कर दिया। नृत्य के अन्त में मंजुघोषा शिवमूर्ति के समक्ष पृथ्वी में प्रणिपात करने को लेट गई। सिद्धेश्वर ने कहा—"उठो मंजु, प्रसाद ग्रहण करो।"
मंजु धीरे-धीरे उठी। उसने पुजारी से प्रसाद ग्रहण किया।
वज्रसिद्धि अब तक जड़ बैठे थे। अब वे बोल उठे—"यह लड़की साक्षात् वज्रतारा प्रतीत होती है। अरे धर्मानुज, यह देवी वज्रतारा का गन्धमाल्य इस दासी को देकर कृतार्थ कर।"
उन्होंने कण्ठ के लाल फूलों की माला उतारकर आगे बढ़ाई, परन्तु धर्मानुज भी इस देवदासी के रूप सागर में डूब रहा था। उसने आचार्य की बात नहीं सुनी। दुबारा पुकारने पर वह चौंककर उठा-उसने माला दोनों हाथों में ले ली। मंजुघोषा के निकट पहुँचकर उसने काँपते हाथों से वह माला उस देवदासी के कण्ठ में डालना चाहा। पर मंजु ने अपने दोनों हाथ उसके लिए फैला दिए। दोनों के नेत्र मिले। दोनों बाहर की सुध भूलकर वैसे के वैसे ही खड़े रह गए। दोनों के नेत्र चमक उठे, उनमें एक लाज व्याप गई, होंठ काँपने लगे और शरीर कंटकित हो गया। दिवोदास ने साहस करके माला मंजु के कण्ठ में डाल दी। मंजु ठगी-सी खड़ी रह गई। दिवोदास अपने स्थान पर लौट आया। धीरे-धीरे मंजुघोषा अपने आवास को लौट गई। दिवोदास प्यासी आँखों से उसकी मनोहर मूर्ति को देखता रहा। महाराज महाआचार्य और पुजारी तथा सब लोग उठकर अपने-अपने स्थान को चल दिए। दिवोदास भी घायल पक्षी की भाँति लड़खड़ाता हुआ अपने आवास पर पहुँचा। उसकी भूख-प्यास जाती रही।