देवांगना
चतुरसेन शास्त्री

नई दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ ५६ से – ५९ तक

 

रंग में भंग



सिद्धेश्वर कमरे में गद्दी के ऊपर बैठा समाने खिड़की से चमकते हुए बहुत-से तारों और चन्द्रमा को देख रहा था। चौकी पर सामने एक ताँबे की तख्ती रखी थी। ऊपर कुछ अंक लिखे थे—उन्हें देख-देखकर वह एक भोजपत्र पर कुछ लकीरें खींच रहा था, फिर कुछ उँगलियों पर गिनता था। बीच-बीच में उसकी भृकुटि में बल पड़ जाते थे। आकाश में चन्द्रमा पर एक बादल का टुकड़ा छा गया। सिद्धेश्वर ने एकाग्र होकर उस ताम्रपत्र पर दृष्टि गड़ा दी। अन्त में व्याकुल होकर लेखनी फेंक दी। उसने आप ही बड़बड़ाते हुए कहा—

"वही एक फल। दुर्भाग्य, असफलता, दुर्घटना, रक्तपात। सब दुष्ट ग्रह मिल गए हैं। मंगल, बुध, शुक्र और शनि तथा चन्द्रमा चौथे स्थान में हैं। गुरु-केतु केन्द्र में, राहु अष्टम में है। जन्म से राहु पंचम है। परन्तु चाहे जो हो, मेरी शक्ति बड़ी है, मेरा मन्त्रबल ऊँचा है। मैं आशा नहीं छोड़ूँगा। सात अरब की सम्पदा और अनिन्द्य सुन्दरी मंजुघोषा त्यागने की वस्तु नहीं। मंजु मेरे अधीन है, परन्तु सम्पत्ति? (ताँबे की तख्ती पर दृष्टि डालकर) यह आधा बीजक है, आधा सुनयना ने कहीं छिपा रखा है।" वह उठकर बेचैन होकर टहलने लगा।

उसने फिर कहा—"चाहे जो हो, छल से या बल से, मैं उसे वश में करूँगा! परन्तु इतना विलम्ब क्यों हो रहा है? माधव उसे अभी तक लाया क्यों नहीं? कहीं उस पर मेरा कौशल तो प्रकट नहीं हो गया? नहीं, यह सम्भव नहीं।"

इसी समय एक विश्वस्त दासी ने आकर सूचना दी कि माधव और दासी मंजुघोषा चरण सेवा में आ रहे हैं।

सिद्धेश्वर ने प्रसन्न होकर कहा—"उन्हें आने दो।"

आगे मंजु, पीछे माधव ने आकर प्रणाम किया।

सिद्धेश्वर ने कहा—"माधव! इसे पवित्र देवी के कक्ष में ले जाओ, और पूजा का प्रबन्ध करो। मैं अभी आकर इसे महामन्त्र की दीक्षा दूँगा। (मंजु से) मंजु, आज तुम्हारा जीवन सफल होगा।"

माधव झुककर चल दिया, मंजु भी सिर झुकाकर चुपचाप पीछे-पीछे चली गई।

सिद्धेश्वर ने हाथ मलते हुए कहा—"अब कहाँ जाती है।"

वह अपने हाथ से ढाल-ढालकर मद्य पीने लगा।

माधव मंजु को लेकर गुप्त द्वार से उस अँधेरी टेढ़ी-मेढ़ी राह से चला। मंजु भयभीत हुई। उसने कहा—"यहाँ कहाँ लिए जाते हो?"

"पवित्र देवी तो वहीं है।" "पर यहाँ तो घोर अन्धकार है।"

"तुम्हारे जाते ही वह आलौकिक हो जाएगा।"

"मुझे मेरे आवास में पहुँचा दो माधव।"

"आज नहीं, कल।"

"कल क्यों?"

"कल मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा।"

"इसका क्या मतलब है?"

"कल तुममें वह शक्ति आ जाएगी।"

"मैं नहीं समझी, माधव।"

"न समझना ही अच्छा है।"

"क्यों?"

"सेवक का धर्म समझाना नहीं, आज्ञा का पालन करना है।"

मंजु–क्या?

वे एक एकान्त कक्ष में पहुँचे, वहाँ बड़ी-बड़ी विशाल-विकराल मूर्तियाँ रक्खी हुई थीं। माधव ने उँगली से दिखाकर कहा—"वह देवी है... वहीं रहो। और जो कुछ पूछना हो आचार्य से पूछना।" मंजु कुछ देर चुपचाप खड़ी माधव को एकटक देखती रही!

माधव मंजु को वहीं खड़ी छोड़कर चला गया। मंजु वहाँ की भयानक मूर्तियों को देखकर भय से काँपने लगी। एकाएक गुप्त द्वार से सिद्धेश्वर ने प्रवेश किया।

सिद्धेश्वर ने मंजु के निकट आकर कहा—"सुन्दरी मंजुघोषा, तुम्हारे आने से इस पवित्र स्थान के सभी दीपक मन्द पड़ गए, समझती हो क्यों?"

मंजु ने नीची दृष्टि से कहा—"नहीं प्रभु।"

"तुम्हारी सुन्दरता से। तुम्हारे कोमल अंग के सुगन्ध ने यहाँ के सभी फूलों की सुगन्ध को मात कर दिया है।"

मंजु विरक्त भाव से चुप खड़ी रही। उसने लज्जा और संकोच से सिर झुका लिया।

सिद्धेश्वर ने मंजु का हाथ पकड़कर कहा—"मंजु, तुम मेरी बात नहीं समझीं?"

"नहीं प्रभु!" उसने हाथ खींचकर छुड़ा लिया।

"तुम भोली जो ठहरी, पहले इस पवित्र प्रसाद को पिओ।"

उसने मद्य डालकर पात्र मंजु के मुँह के पास लगा दिया, फिर बोला—"पिओ मंजु, यह देवता का प्रसाद है।"

मंजु ने निषेध किया। परन्तु सिद्धेश्वर ने उसे जबर्दस्ती पिला दिया।

पीछे स्वंय भी पी। मंजु भयभीत हो एक खम्भे के सहारे टिक गई।

सिद्धेश्वर ने कहा—"तुम्हारे सौन्दर्य का मद इस मद से बहुत अधिक है। समझीं मंजु!" उसने मंजु की ठोढ़ी छूकर कहा।

"प्रभो! आप गुरु हैं, ऐसी बातें न कीजिए।"

सिद्धेश्वर ने हँसकर कहा—"ठीक है, आओ अब महामन्त्र की दीक्षा दूँ।" उसने उसका हाथ पकड़ा और एक ओर को ले चला।

दिवोदास, जयमंगल, सुखानन्द और गोरख भी छिपते हुए पीछे-पीछे चले। जिस

कमरे में वे पहुँचे, उस कमरे में विलास की सब सामग्री उपस्थित थी। गुदगुदा पलंग था, बड़ी-बड़ी वीणाएँ, मद्य के स्वर्णपात्र आदि सामग्री उपस्थिति थी। कमरा खूब सजा था। फूलों की मालाएँ जगह-जगह टँगी थीं। सिद्धेवश्वर मंजु का हाथ पकड़े आया और पलंग की ओर संकेत करके कहा—"यहाँ बैठो प्यारी!"

मंजु यह सम्बोधन सुनकर चमक उठी। उसने अधीर होकर कहा—"प्रभु मुझे जाने दीजिए।" वह उठ खड़ी हुई।

सिद्धेश्वर ने हाथ पकड़कर कहा—"जाती कहाँ हो प्यारी, मेरे हृदय में आकर बैठो।"

उसने खींचकर उसे आलिंगनपाश में बाँध लिया।

मंजु ने बलपूर्वक अलग होने की चेष्टा करते हुए कहा—"प्रभु, मैं आपकी पाली हुई पुत्री हूँ, छोड़िए! छोड़िए!!"

"बुद्धिमान जन अपने लगाए पेड़ का फल स्वंय खाते हैं, मैंने तुम्हें सींच सींचकर उसी क्षण के लिए बड़ा किया है।" उसने बलपूर्वक खींचकर उसे छाती से लगा लिया।

मंजु ने बल प्रयोग करते हुए चीखकर कहा—"छोड़िए, छोड़िए, प्रभु, छोड़िए!"

"डरो मत मंजु, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।"

"जाने दीजिए, छोड़िए।"

सिद्धेश्वर ने अब जरा कड़े स्वर में कहा—"पगली लड़की जानती है सिद्धेश्वर का मस्तक भूतेश्वर भगवान के साम से झुकता है। वही अब तेरे सामने झुक रहा है। मंजु, मुझे अपने यौवन का प्रसाद दे।" वह मंजु को छोड़कर उसके पैरों के पास घुटने टेककर बैठ गया। मंजु ने घबराकर लजाते हुए कहा—"उठिए प्रभु, यह आप क्या कर रहे हैं?"

"मुझे अपना प्यार दो, मंजु!"

"नहीं प्रभु, यह कभी नहीं हो सकता, मुझे जाने दीजिए।"

"तुम मेरे हृदय में बसी हो, जा कहाँ सकती हो प्रिये! कहो, तुम मेरी हो।"

उसने बलपूर्वक खींचकर उसे पुनः छाती से लगा लिया। मंजु ने क्रोध में भरकर जोर से उसे ढकेल दिया, वह गिरकर घायल हो गया। सिर से खून बहने लगा। उसने क्रोधित हो उठकर मंजु पर चोट करनी चाही, तभी अकस्मात् गुप्त द्वार खुल गया। दिवोदास और जयमंगल तलवार लिए घुस आए। और पीछे-पीछे सुखानन्द भी। इन सबको देखकर सिद्धेश्वर विमूढ़ हो गया।

सिद्धेश्वर-तुम कौन हो? (पहचान कर) पापिष्ठ बौद्ध भिक्षु और तुम अभागे युवक?

दिवोदास-मैं तुम्हारा काल हूँ। पापिष्ठ! पाखण्डी!

यह कहकर दिवोदास तलवार फेंककर सिद्धेश्वर से भिड़ गया। मल्ल युद्ध होने लगा। लड़ते-लड़ते एक पत्थर के खम्भे के पास दोनों जा पहुँचे। बीच-बीच में जयमंगल भी एकाध घूँसा सिद्धेश्वर को जमा देता था। मंजु खड़ी भयभीत देख रही थी। उस खम्भे पर भयानक काली की मूर्ति थी। वहाँ पहुँचकर सिद्धेश्वर ने चिल्लाकर कहा—"अब माँ चण्डी, लो नरबलि।" मूर्ति भयानक रीति से अट्टहास कर उठी। एक बार सब भयभीत हो गए। मंजु अधिक भयभीत हुई। दिवोदास भी डर गया। पृथ्वी काँपने लगी और सैकड़ों बिजलियाँ चमकती और गर्जती दीख पड़ने लगीं। देखते ही देखते वह मूर्ति धरती में धँसने लगी। और कक्ष में अग्नि की ज्वाला भभक उठी। मंजु मूर्छित हो गई। सुखानन्द ने साहस कर आगे बढ़ और पैंतरा सँभाल कर सिद्धेश्वर पर चोट की। सिद्धदेश्वर मूर्छित होकर गिर पड़ा। दिवोदास ने उसके पंजे से छूटकर फुर्ती से मूर्छित मंजुघोषा को उठा लिया तथा एक ओर ले भागा। सुखदास ने भी नंगी तलवार ले उसका अनुगमन किया।