देवांगना/टेढ़ी चाल
टेढ़ी चाल
काशी के महामात्य का नाम शिवशर्मा था। वे एक वृद्ध विद्वान् शैव ब्राह्मण थे। राजनीति
और धर्मनीति में बड़े पण्डित थे। काशी राजवंश तक की इन्होंने अपनी विलक्षण बुद्धि तथा
नीति से बहुत बार रक्षा की थी। इनका वैभव भी राजा से कम न था। वह समय ही ऐसा
था। राजा और मन्त्री का गुट, क्षत्रिय और ब्राह्मण का गुट था। ये ब्राह्मण ही इन राजाओं की
सत्ता को अखण्ड बनाए रखते थे। वे राजा को ईश्वर का आंशिक अवतार बताते और उनकी
सभी उचित-अनुचित आज्ञा को ईश्वरीय विधान के समान सिर झुकाकर मानना सब प्रजा
का धर्म बताते थे। इसके बदले इन्हें पुरोहिताई तथा मन्त्री के अधिकार प्राप्त हुए थे। राजा
लोग इन ब्राह्मण मन्त्रियों पर अपने भाई-बन्धु से भी अधिक विश्वास रखते थे। इनका
वैभव, महल, ऊपरी ठाट-बाट राजा से किसी अंश में कम न होता था। ये ही मन्त्री राजा की
धर्मनीति और राजनीति के संचालक थे।
काशी के महामात्य आचार्य के लिए बहुत-सी भेंट-सामग्री साथ लाए थे। उसे देखकर वज्रसिद्धि ने प्रसन्न मुद्रा से कहा :
"अमात्यवर, काशीराज कुशल से तो हैं?"
"आचार्य के अनुग्रह से कुशल है।"
"मैं नित्य देवी वज्रतारा से उनकी मंगल कामना करता हूँ। हाँ, महाराज यज्ञ कर रहे हैं?"
"उसी में पधारने के लिए मैं आपको आमन्त्रित करने आया हूँ। महाराज ने सांजलि प्रार्थना की है कि आचार्य भिक्षुसंघ सहित पधारें।"
"परन्तु महामात्य, यज्ञ में पशुवध होगा, गवालम्भन होगा, यह सब तो सद्धर्म के विपरीत है।"
"आचार्य, प्रत्येक धर्म की एक परिपाटी है। उसकी आलोचना से क्या लाभ? काशिराज आप पर श्रद्धा रखते हैं, इसी से उन्होंने आपको समरण किया है। फिर परस्पर धार्मिक सहिष्णुता तो उसी प्रकार बढ़ सकती है।"
"यह तो ठीक है, परन्तु काशिराज तो कभी इधर आए ही नहीं।"
"तो क्या हुआ, मैं उनका प्रतिनिधि देवी वज्रतारा का प्रसाद लेने आया हूँ।"
"साधु-साधु, मन्त्रिवर, देवी वज्रतारा का प्रसाद लो", आचार्य ने व्यग्र भाव से इधर-उधर देखा। महानन्द अभिप्राय समझ बद्धांजलि पास आया।
आचार्य ने कहा—"भद्र महानन्द! अमात्यराज को देवी का प्रसाद दो।" महानन्द ने "जो आज्ञा" कह, एक भिक्षु को संकेत किया। भिक्षु ने प्रसाद मन्त्री को अर्पित किया।
प्रसाद लेकर मन्त्री ने कहा—"अनुगृहीत हुआ आचार्य।"
"मन्त्रिवर, आपकी सद्धर्म में ऐसी ही श्रद्धा बनी रहे।"
"आचार्य काशिराज आप ही के अनुग्रह पर निर्भर हैं।"
"तो अमात्यराज, मैं उनकी कल्याण कामना से बाहर नहीं हूँ।"
"ऐसी ही हमारी भावना है, क्या मैं कुछ निवेदन करूँ?"
"क्यों नहीं?"
"क्या लिच्छविराज काशी पर अभियान करना चाहते हैं?"
"ऐसा क्यों कहते हैं मन्त्रिवर?"
"मुझे विश्वस्त सूत्र से पता लगा है।"
"तो उस राजनीति को मैं क्या जानूँ?"
"लिच्छविराज तो आपके अनुगत हैं आचार्य!"
"मन्त्रिवर, मैं केवल अपने संघ का आचार्य हूँ, लिच्छविराज का मन्त्री नहीं।"
"परन्तु आचार्य, वे आपकी बात नहीं टालेंगे।"
"क्या आप यह चाहते हैं कि मैं लिच्छविराज से काशिराज के लिए अनुरोध करूँ?"
"मैं नहीं आचार्य, काशिराज का यह अनुरोध है।"
"क्या काशिराज ने ऐसा कोई लेख आपके द्वारा भेजा है?"
"यह है आचार्य।”
लेख पढ़कर कुछ देर बाद वज्रसिद्धि ने गम्भीर मुद्रा से कहा :
"तो मैं काशिराज का अतिथि बनूँगा।"
"काशिराज अनुगृहीत होंगे आचार्य..."
"मैं यज्ञ में आऊँगा।"
"अनुग्रह हुआ आचार्य।"
"तो महामात्य, एक बात है, लिच्छविराज का आक्रमण रोक दिया जायेगा, पर लिच्छविराज का अनुरोध काशिराज को मानना पड़ेगा।"
"वह क्या?"
"यह मैं अभी कैसे कहूँ?"
"तब?"
"क्या काशिराज मुझ पर निर्भर नहीं है?"
"क्यों नहीं आचार्य?"
"तब उनकी कल्याण-कामना से मैं जैसा ठीक समझूगा करूँगा?"
"ऐसा ही सही आचार्य, काशिराज तो आपके शरण हैं।"
"काशिराज का कल्याण हो।"
मन्त्री ने अभिवादन किया और चले गए। आचार्य वज्रसिद्धि बड़ी देर तक कुछ सोचते रहे। इससे सन्देह नहीं कि सुखदास ने यह सब बातें अक्षरशः सुन लीं।