देवांगना
चतुरसेन शास्त्री

नई दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ १७ से – १९ तक

 

गुरु-शिष्य



आचार्य का रंग अत्यन्त काला था। डील-डौल के भी वे खूब लम्बे थे पर शरीर उनका कृश था। हड्डियों के ढाँचे पर चमड़ी का खोल मढ़ा था। गोल-गोल आँखें गढ़े में धंसी थीं। गालों पर उभरी हुई हड्डी एक विशेष भयानक आकृति बनाती थी। उनका लोकनाम शबर प्रसिद्ध था। वे भूत-प्रेत-बैतालों के स्वामी कहे जाते थे। मारण-मोहन-उच्चाटन तन्त्र-मन्त्र के वे रहस्यमय ज्ञाता थे। वे नीच कुलोत्पन्न थे। कोई कहता––वे जात के डोम हैं, कोई उन्हें धोबी बताता था। वे प्राय: अटपटी भाषा में बातें किया करते थे। लोग उनसे भय खाते थे। पर उन्हें परम सिद्ध समझकर उनकी पूजा भी करते थे। वज्रयान सम्प्रदाय के वे माने हुए आचार्य थे।

भिक्षु धर्मानुज को उन्हीं का अन्तेवासी बनाया गया। धर्मानुज को एक कोठरी रहने को, दो चीवर और दो सारिकाएँ दी गई थीं। एकान्त मनन करने के साथ ही वह आचार्य वज्रसिद्धि से वज्रयान के गूढ़ सिद्धान्त भी समझता था, परन्तु शीघ्र ही गुरु-शिष्य में खटपट हो गई। भिक्षु धर्मानुज एक सीधा, सदाचारी किन्तु दृढ़ चित्त का पुरुष था। वह तन्त्र-मन्त्र और उनके गूढ़ प्रभवों पर विश्वास नहीं करता था। अभिचार प्रयोगों से भी उसने विरक्ति प्रकट की। इसी से एक दिन गुरु-शिष्य में ठन गई।

गुरु ने कहा—सौम्य धर्मानुज, विश्वास से लाभ होता है। पर धर्मानुज ने कहा—"आचार्य, मैंने सुना था——ज्ञान से लाभ होता है।"

"परन्तु ज्ञान गुरु की भक्ति से प्राप्त होता है।"

"इसकी अपेक्षा सूक्ष्म विवेक-शक्ति अधिक सहायक है।"

"तू मूढ़ है आयुष्मान्।"

"इसी से मैं आपकी शरण में आया हूँ।"

"तो यह मन्त्र सिद्ध कर-किलि, किलि, घिरि, घिरि, हुर, हुर वैरोचन गर्भ संचित गस्थरियकस गर्भ महाकारुणिक, ओम् तारे ओम तुमतारेतुरे स्वाहा।"

"यह कैसा मन्त्र है आचार्य।"

"यह रत्नकूट सूत्र है। घोख इसे।"

"पर यह तो बुद्ध वाक्य नहीं है।

"अरे मूढ़! यह गुरुवाक्य है।"

"पर इसका क्या अर्थ है आचार्य?"

"अर्थ से तुझे क्या प्रयोजन है, इसे सिद्ध कर।" "सिद्ध करने से क्या होगा?"

"डाकिनी सिद्ध होगी। खेचर मुद्रा प्राप्त होगी।"

"आपको खेचर मुद्रा प्राप्त है आचार्य?"

"है।"

"तो मुझे कृपा कर दिखाइए।"

"अरे अभद्र, गुरु पर सन्देह करता है, तुझे सौ योनि तक विष्ठाकीट बनना पड़ेगा।"

"देखा जाएगा। पर मैं आपका खेचर मुद्रा देखना चाहता हूँ।"

"किसलिए देखना चाहता है?"

"इसलिए कि यह केवल ढोंग है। इसमें सत्य नहीं है।"

"सत्य किसमें है?"

"बुद्ध वाक्य में।"

"कौन से बुद्ध वाक्य रे मूढ़!"

"सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् विचार और सम्यक् ध्यान, ये आठ आर्ष सत्य है। जो भगवान् बुद्ध ने कहे हैं।"

"किन्तु, आचार्य तू की मैं?"

"आप ही आचार्य, भन्ते!'

"तो तू मुझे सिखाता है, या तू सीखता है?"

"मैं ही सीखता हूँ भन्ते!"

"तो जो मैं सिखाता हूँ सीख।"

"नहीं, जो कुछ भगवान् बुद्ध ने कहा, वही सिखाइए आचार्य।"

"तू कुतर्की है"

"मैं सत्यान्वेषी हूँ, आचार्य।"

"तू किसलिए प्रव्रजित हुआ है रे!"

"सत्य के पथ पर पवित्र जीवन की खोज में।"

"तू क्या देव-दुर्लभ सिद्धियाँ नहीं चाहता?"

"नहीं आचार्य?"

"क्यों नहीं?"

"क्योंकि वे सत्य नहीं हैं, पाखण्ड हैं।"

"तब सत्य क्या तेरा गृह-कर्म है?"

"गृह-कर्म भी एक सत्य है। इन सिद्धियों से तो वही अच्छा है।"

"क्या?"

"पति-प्राणा साध्वी पत्नी, रत्न-मणि-सा सुकुमार कुमार आनन्दहास्य और सुखपूर्ण गृहस्थ जीवन।"

"शान्तं पापं, शान्तं पापं!"

"पाप क्या हुआ भन्ते!"

"अरे, तू भिक्षु होकर अभी तक मन में भोग-वासनाओं को बनाए है?" "तो आचार्य, मैं अपनी इच्छा से तो भिक्षु बना नहीं, मेरे ऊपर बलात्कार हुआ है।"

"किसका बलात्कार रे पाखण्डी!"

"आप जिसे कर्म कहते हैं उस अकर्म का, आप जिसे पुण्य कहते हैं उस पाप कर्म का, आप जिसे सिद्धियाँ कहते हैं उस पाखण्ड कर्म का।"

"तू वंचक है, लण्ठ है, तू दण्डनीय है, तुझे मनःशुद्धि के लिए चार मास महातामस में रहना होगा।"

"मेरा मन शुद्ध है आचार्य।"

"मैं तेरा शास्ता हूँ, तुझसे अधिक मैं सत्य को जानता हूँ। क्या तू नहीं जानता, मैं त्रिकालदर्शी सिद्ध हूँ!"

"मैं विश्वास नहीं करता आचार्य।"

"तो चार मास महातामस में रह। वहाँ रहकर तेरी मनःशुद्धि होगी। तब तू सिद्धियाँ सीखने और मेरा शिष्य होने का अधिकारी होगा।"

उन्होंने पुकारकर कहा–"अरे किसी आसमिक को बुलाओ।"

बहुत-से शिष्य-बटुक-भिक्षु इस विद्रोही भिक्षु का गुरु-शिष्य सम्वाद सुन रहे थे। उनमें से एक सामने से दौड़कर दो आसमिकों को बुला लाया।

आचार्य ने कहा–"ले जाओ इस भ्रान्त मति को, चार मास के लिए महातामस में डाल दो, जिससे इसकी आत्मशुद्धि हो और सद्धर्म के मर्म को यह समझ सके।"

आसमिक उसे ले चले।