दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ सोलहवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ६७ से – ७१ तक

 
सोलहवां परिच्छेद।

बदला चुकाना।

आज रात को कतलूखां के बिलास भवन में नाच होता था परन्तु न तो वहां कोई अन्य नाचनेवाली थी और न अन्य कोई देखनेवाला था जैसे और मोगल सम्राट ऐसे अवसरपर सभा में बैठ कर आनन्द करते थे वैसा नियम कतलूखां के यहां नहीं था।वह केवल अपनीही इन्द्रियोंको तृप्त करता था।आज वह अकेला अपनी रमणियो को लिये नाच राग में उन्मत्त था।खोजों के व्यतिरिक्त मनुष्य की आकृति नहीं देख पड़ती थी। कोई रमणी नाचती थी कोई गाती थी कोई लिप्टी उसके शरीर के ताप को शीतल करती थी।

इन्द्रिय के सुख देनेबाली सामग्री सब उस स्थान पर एकत्र थी।गृह में प्रवेश करतेही मन्द सुगन्ध वारि से शरीर शीतल हो जाता था।अनेक चांदी और शीशे के दीप स्थान स्थान पर प्रज्वलित थे।अपरिमित कुसुम राशि कहीं मालाकार, कहीं स्तूपाकार, कहीं स्तवकाकार कहीं रमणियों के केश में कहीं उनके कंठ में विशेष प्रभा प्रकाशित करती थी! किसी के हाथ में फूल का पंखा था कोई फूल का आभरण पहिने थी और कोई परस्पर पुष्पगन्दुक खेल रही थी।कहीं प्रशून की सुगन्धि कहीं गन्ध मै वारि की सुगन्धि,कहीं सौरभ सम्पन्न दीप की सुगन्धि,और कहीं सुवासित द्रव्य मार्जित विलासिनियों के शरीर की सुगन्धि अर्थात् दशोदिक सुगन्धिमय हो रहा था ।दीप की प्रभा,पुष्प की प्रभा,रत्नालंकार की प्रभा और सर्वापरि कुटिल कटाक्ष कारी कामनी मण्डल के उज्जवल नवनों की प्रभा से विलास गृह जगजगा रहा
था।सप्त सुर मिलित बीणा आदि की ध्वनि आकाश में गन गना रही थी तदधिक कोकिल कंठी गाने वालियों की गीत अपसराओं के हृदय में लज्जा उत्पादन करती थी तिस पर ताल लय मिलित नाचने वालियों के पैर के धुंघुरू अपना प्रथक चमत्कार दिखाते थे।

और देखो,मानों कमलवन में हंसिनी शीतल समीर स्पर्श से उन्मत होकर नाचती हैं,प्रफुल्ल कमलबदनी सब धेरे बैठी"हैं। उस नील पटवाली को देखो जिसके दुपट्ट के सितारे उड़गण की भांति चमकते हैं।देखो उसके नेत्र कैसे बड़े२हैं।उसको देखो जो हीरे का तारा लगाये बैठी है।देखो उसका ललाट कैसा चोड़ा है!क्या बिधना ने इस ललाट में यही विलासघर का वास लिखा था?उस पुष्पा भरण वाली को देखो!उसने कैसा उत्तम शृंगार किया है? उस कोमल‌ किंचित रक ओष्टवाली को देखो कैसा‌ मन्द मन्द हंस रही है।देखो उसके झाले ओदने से उसके शरीर का रङ्ग कैसा झलक रहा है।मानो निर्मल नीलाम्बु में से पूर्ण चन्द्र की ज्योति झलक रही है।उसको देखो जो गर्दन झुकाये हंस २ कर बातें कर रही है देखो उसके कान का बाला कैसा हिल रहा है? यह सुन्दर केशवाली कौन है? उसने अपने बाल पेटी पर्यन्त क्यों छिटकाये हैं?क्या शिव के मस्तक पर नागिनियों की जटा बनाती है?

और वह सुन्दरी कौन है जो कतलूखां के समीप बैठी हेम पात्र में सुरा ढाल रही है?वह कौन है जो सबको छोङ कर कतलूखां बार २ अतृप्त लोचन से उसी को देख रहा है? वह तो व्यर्थ अपनी कटाक्षों से उसके हदय को बेध रही है।हां ठीक है वह विमला है।इतनी सुरा क्यों दाल रही है?बाल

ढाल और ढाल, बस्त्र के भीतर छरी तो है न? हां है क्यों नहीं। तो इतना हंसती कैसे है ? कललूखां तो तेरीही ओर देख रहा है। हैं यह क्या ? कटाक्ष ! और फिर यह क्या ? देखो सुरा से उसने यवन को विक्षिप्त कर दिया । इसी कारण जान पड़ता है। सबको हटा कर आप कतलूखां के पास बैठी है।क्यों न हो?यह हंसी।यह भाव?यह मधुर भाषण यह कटाक्ष फिर मद्य।कतलूखां तो चैतन्य है पर क्या हुआ।बिमला तो अभी पिला रही है।यह क्या शब्द है?क्या कोई गाता हैं?किसी मनुष्य के गाने का शब्द है?विमला गाती है।क्या सुर है।क्या ध्वनि।क्या लय देखो उसके झुमके कैसे हिलते हैं?देखो माथा कैसा हिलाती है । और सुरादे, ढाल ढाल।यह क्या?देखो बिमला नावती है।क्या छवि है?क्या भाव बताती है?और मुरा दे।शरीर देखो कैसा सुन्दर।गदन देखो।कतलुखां सम्भलो। सम्मलो कामाग्नि बढ़ चली!जह!अब बदन से चिनगारियां निकलने लगी ला प्याला। आहा!ला प्याला।मेरी प्यारी और हंसी।और कटाक्ष। फिर शराब श!फिर शराब!'हह हह हमको मद्य दे मम मम मत कर देर। वव वव वहु विनती करत कक कक करू न अबेर।जोड़त जोड़त हाथ हम प्यालो प्यालो लाओ। तरसत तरसत हाय मोहि जल्दी जल्दी प्याओ॥आं आं. प्यालो दे हमें प्यालो देदै प्याल!आंदै दें दे मत देर कर मत कर प्यारी बाल।।'

कतलूखां उन्मत्त होगया।बिमला को पुकार कर बोला 'प्यारी तू कहां गई?'

बिमला ने उनके कन्धे पर एक हाथ देकर कहा'मैं तो आपके चरणों के समीप हूं।"और दूसरे हाथ से कचसे।

कतलूखां ने चिल्लाकर बिमला को ढकेल दिया मौर निर्मूल

वृक्ष की भांति आप भी भूमि पर अन्टचित गिर पड़ा। बिमला ने अपना काम कर लिया।

'पिशाची। शयतानिन।'कह कर कतलूखां चिल्लाने लगा। और मुंह से फेन छूटने लगा।

बिमला ने कहा'मैं पिशाची नहीं हूं,शयतानिन नहीं हूं मै तो बीरेन्द्र सिंह की विधवा स्त्री हूं,और वहां से झठ निकल खड़ी हुई।

कतलूखां को हिचकिचीबंध गई तथापि यथाशक्य चिल्लाता रहा। स्त्रियां भी सब रोने लगीं। बिमला भी रोते २ बची। भीतर बात चीत करने का शब्द सुन भागी एक कोठरी में बहुत से पहरे वाले और खोजा बैठे थे,उन्होंने उसको रोते देख पछा'क्या हुआ?'

उसने उत्तर दिया 'बड़ा अनर्थ हुआ। शीघ्र जाओ,गृह में लुटेरे घुसे हैं,मैं तो जानती हूं कि नवाब मारै गए।'

इतना सुनते ही वे सब औंधे मुंह दौड़े। बिमला भी महल के द्वार की ओर भागी। वहां के पहरे वाले सब सो रहे थे वह निर्विघ्न द्वार के बाहर पहुंची। चारो ओर उसकी ऐसाही देख पड़ा तब वेग से दौड़ने लगी! फाटक पर पहुंच कर देखा तो वहां सब जागते थे। एक ने उसको देख कर पूछा 'कौन है! कहां जाती है?'

उस समय महल में बड़ा कोलाहल हो रहा था, चारो ओर से लोग उसी ओर भागे जाते थे। बिमला ने कहा 'यहां बैठे क्या करते हो? कोलाहल नहीं सुनते हो?'

पहरे वाले ने पूछा 'कैसा कोलाहल ?'

बिमला ने कहा 'महल में अनर्थ हो रहा है, लुटरे आ पहुंचें हैं।' वे सब फाटक छोड़ कर दौड़े और बिमला ने अपनी राह ली।

थोड़ी दूर जाकर उसने देखा कि एक पुरुष एक वृक्ष के नीचे खड़ा है। देखतेही उसने अभिराम स्वामी को पहिचाना! ज्यों उनके समीप पहुंची कि स्वामी जी बोले ' मैं तो घबरा गया था, दुर्ग में कोलाहल कैसे होता है ?'

विमला ने कहा - मैं तो अपना काम कर आई, अब यहां बहुत बात करने का अवकाश नहीं है, जलदी घर चलो फिर मैं सब बताऊंगी। तिलोत्तमा घर पहुंच गयी।'

अभिराम स्वामी ने कहा 'वह अभी आसमानी के संग जाती है आगे मिल जायगी।'

दोनों जल्दी २ चले और कुटी में पहुंच कर देखा कि आयेशा की अनुग्रह से आसमानी के सङ्गतिलोतमा भी पहुंच गयी । वह अभिराम स्वामी के पैर पर गिर कर रोने लगी। स्वामी जी ने सन्तोष देकर कहा ' ईश्वर की कृपा से तुम सब दृष्ट के हाथ से छूटी हो अब यहां ठहरना उचित नहीं है। मुसलमान यदि सुन पावेंगे तो अबकी बार प्राण से मार डालेंगे चलो रातो रात यहां से चल दें।'

यह बात सब के मन भायी ॥

सतरहवां परिच्छेद ।

अन्त काल।

विमला के भागने के थोड़ेही काल पीछे एक कर्मचारी ने जगतसिंह से कारागार में जाकर कहा।

युवराजा जवाव साहेब का मरण काल समीप है, वे आपको बुलाते हैं।'

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