दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ प्रथम परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग  (1918) 
द्वारा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

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दुर्गेशनन्दिनी।
द्वितीयखण्ड।

प्रथम परिच्छेद।
आयेशा।

जगतसिंह की आँख खुली तो देखा कि एक सुन्दर महल में पलंग के ऊपर पड़े हैं, कोठरी अति प्रशस्थ और सुशोभित है, पत्थर के चट्टान पर एक बहुमूल्य 'गलीचा' पड़ा है और उसपर सोने चांदी के गुलाबपाश इत्रदान, इत्यादि धरे हैं, द्वारों में खिड़कियों में और झरोखों में धानी परदे पड़े हैं और चारों ओर से सुन्दर सुगन्ध आ रही है।

परन्तु घर सूनसान था, केवल एक किंकरी खड़ी चुपचाप पंखा झुल रही थी और एक दूसरी उसके पीछे खड़ी देख रही थी। जिस पलंग पर जगतसिंह सोते थे उसके एक तरफ एक स्त्री बैंठी उनके चोटों में औषध लेपन कर रही थी और गलीचे पर एक सुवेषित यवन बैठा पान खा रहा था और आगे उसके एक फ़ारसी पुस्तक धरी थी। किन्तु सब सन्नाटे में थे, किसीके मुँह से शब्द नहीं निकलता था राजपुत्र ने चारों ओर देखा और चाहा कि करवट ले पर शरीर की वेदना के कारण फिरा नहीं गया।

पार्श्ववर्ती स्त्री ने राजकुमार की यह दशा देख धीरे से कहा 'चुपचाप पड़े रहो हिलो डोलो न।'

[  ]राजकुमार धीमे स्वर में बोले 'मैं कहाँ हूँ?'

उस स्त्री ने कहा 'आप चुपचाप रहें चिन्ता न करें।'

राजपुत्र ने फिर धीरे से पूछा 'कै बजे होंगे?'

स्त्री ने कहा 'दोपहर होगई। आप चुप रहिये बोलने से घाव टूटने का भय रहता हैं और नहीं तो हमलोग जाते हैं।'

राजपुत्र ने दीनता प्रकाश पूर्वक फिर पूछा 'तुम कौन हो?'

स्त्री ने कहा 'हमारा नाम आयेशा है।'

राजकुमार चुपरहे और उसका मुँह देखने लगे। इस व्यापार को अभी तक किसी ने नहीं देखा था।

आयेशा २२ वर्ष से ऊपर न थी किन्तु उस की सुन्दरता शब्दों द्वारा प्रकाश करना बड़ा कठिन है तिलोत्तमा भी परम सुन्दर थी पर इसमें और उसमें बड़ा भेद था। तिलोत्तमा नवबालिका की भांति कोमल, संकुचित और निरमल स्वभाव योवन के रस से अज्ञात थी सुख पर उसके भोलापन चमकता था। नेत्र हाव भाव और कामकटाक्ष को जानते ही न थे शरीर का भी उसको अभी अच्छा ज्ञान न था बालापन प्रत्येक अङ्ग से टपकता था। पर आयेशा ऐसी न थी। वह प्रातकालीन नलिनी की भांति विकसित सुवासित और रसपरिपूर्ण थी। शरीर की आभा गृह को दीप्तमान करती थी। यदि बिमला की तुलना इससे करें तो भी नहीं हो सकती क्योंकि वह सुन्दर तो अवश्य थी परन्तु गृहस्थी के कर्म करने से उसके हाथ पैर कठोर थे और शरीर भीतर से पाला था। यदि तिलोत्तमा के शरीर की प्रभा बालशशि की भांति थी तो बिमला की तैलाधीन दीपक के समान थी और आयेशा की मध्यान्ह पूर्व मार्त्तण्डरश्मि की भांति जिसपर पड़ती थी वह खिल उठता था।

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जैेसे उद्यान में पद्म का फूल शोभा देता है उसी प्रकार आयेशा से इस आख्यान की शोभा है। यदि कोई चित्रकार अपनी लेखनी लेकर इस अलेख रूपराशि का प्रतिबिम्ब उतारने की चेष्टा कर बैठता तो निश्चय है कि एक बेर उसको मूर्छा अवश्य आ जाती और ज्ञानशून्य हो जाता। पहिले तो उसको चम्पकरक्त और श्वेतवर्ण के अन्तर्गत शरीर के रङ्ग का रङ्ग कहाँ मिलता? फिर प्रशस्थ ललाट के लिखने के समय मन्मथ के रङ्ग भूमि का ध्यान न जमता मस्तक मध्य विलगित केश अर्ध चन्द्राकार जूड़ा पर्य्यन्त काकपक्ष की भांति कर्णदेश के ऊपर से घुमाने के समय हाथ अवश्य काँप जाता। निर्मल सुरसरिधार के निस्तृत स्थान से किञ्चित दूर पर बांकी भ्रूशैवाल के नीचे पलक पक्ष संचारित झख की जोड़ी प्रसन्नता पूर्वक खेलती हुई कदापि न बन सकती। उसके नीचे कीरबिम्ब फल के ऊपर बैठा हुआ कपोत की पीठ पर जिसके दोनों और दो भुजङ्ग हों केलि कर रहा हो और बीच में सिंहासन पर दो शालिग्राम की बटिया सरोवर के तीर पर धरी हों ऐसा रूप कब बन सकता है। सारांश जिसको बिधना ने स्वयं अनुपम बना दिया उसकी उपमा मनुष्य वापुरा क्या बना सकेगा। ऊपर की लाट बना कर अतिक्षीन लंक को ऊर्ध्व भार सहने के अयोग्य समझ उसने नीचे दो स्तंभ खड़े कर दिये जब भी चलते समय लच खाकर शरीर के दोहरा हो जाने का भय मन में लगा ही रहा। राजकुमार बहुत काल पर्यन्त आयेशा को देखते रहे और तिलोत्तमा का ध्यान आ गया और हृदय विदीर्ण होकर शरीर क्षत द्वारा रुधिर वेग से बहने लगा। फिर मूर्छा आई और उन्होंने आँख बन्द कर ली।

स्त्री जो पलङ्ग पर बैठी थी डर कर खड़ी होगई और [  ] पुस्तक पाठ करनेवाला यवन उसके मुंह की ओर देखने लगा। वह उठकर धीरे २ यवन के समीप जाकर उसके कान में बोली—

'उसमान शीघ्र वैद्य के समीप किसीको भेजो।'

दुर्गजयी उसमान ही गलीचे पर बैठा था। आयेशा की बात सुनकर उठ गया।

आयेशा ने एक रूपे का बर्तन उठा उसमें से जलवत एक वस्तु लेकर राजपुत्र के मुख और मस्तक पर छिड़का।

उसमानखां भी शीघ्रही लौट आया और चिकित्सक को लेता आया। उसने अपनी बुद्धि के अनुसार यत्न कर लहू का बहना बन्द किया और अनेक औषध आयेशा के पास रख उनके सेवन की विधि बताने लगा।

आयेशा ने धीरे से पूछा 'अब क्या बोध होता है?'

भिषक ने कहा-'ज्वर बहुत है।'

वैद्य को जाते देख उसमान ने द्वार पर जाकर उसके कान में कहा 'बचने की आशा है कि नहीं?"

भिषक ने उत्तर दिया "लक्षण तो नहीं है पर ईश्वर की गति जानी नहीं जाती जब फिर कोई विशेष क्लेश हो तो हम को बुला लेना।"

दूसरा परिच्छेद।
पाषाण संयुक्त कुसुम।

उस दिन आयेशा और उसमान बड़ी रात तक जगतसिंह के समीप बैठे थे। कभी उनको चेत होजाता था और कभी मूर्छा आ जाती थी। भिषक भी कई बेर आए और गए

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