दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ तेरहवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग  (1918) 
द्वारा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

[ ५३ ]तुझसे मिलूंगी।'

इस प्रकार तोष जनक बातें कहकर बिमला ने तिलोत्तमा को समझाया किंतु उसने तिलोत्तमा के हेतु जो अपना जाना बंद रक्खा इसका भेद तिलोत्तमा को कुछ न मालूम हुआ बहुत दिन से तिलोत्तमा के मुख पर प्रसन्नता के चिन्ह नहीं देख पड़ते थे बिमला की बातें सुनकर आज उसका बदन कमला सा खिल उठा। बिमला को भी उसकी दशा देखकर आनंद हुआ। गदगद स्वर से बोली 'लो अब मैं जाती हूँ।'

तिलोत्तमा ने कुछ संकुच कर कहा 'मैं देखती हूँ कि तू दुर्ग की सम्पूर्ण बातों को जानती है बता तो हम लोगों के और साथी कहाँ है कौन किस दशा में है?'

बिमला ने देखा कि इस विपद में भी जगत सिंह तिलोत्तमा को नहीं भूलते। उसने उनका कठोर पत्र पाया था उस में तिलोत्तमा का नाम भी नहीं था, इस बात को सुनकर तिलोत्तमा को और भी दुःख होगा इसलिये उसका ज़िक्र न करके बोली—

'जगतसिंह भी इसी दुर्ग में हैं और कुशल से हैं।'

तिलोत्तमा चुप रह गई।

बिमला आँसू पोंछते २ वहाँ से चली गई।

 

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तेरहवां परिच्छेद।
अंगूठी दिखलाना।

बिमला के जाने के पीछे तिलोत्तमा के मन में चिन्ता उत्पन्न हुई। पहिले तो यह सोचकर मनको बड़ा आनंद हुआ कि अब शीघ्र दुष्ट के बंधन से छुटूंगी और फिर बिमला का उस पर स्नेह और तद्धारा उद्धार। फिर सोचने लगी कि छूट कर [ ५४ ]मैं कहाँ जाऊँगी? अब पिता के घर में कौन होगा? और रोने लगी। क्या राजकुमार कुशल से हैं। और कहाँ हैं? क्या करते हैं? क्या वे भी बंदी है? और धाड़ मार रोने लगी 'हे अधम प्राण! राजपुत्र तेरे लिये बंदी हुए और तू अब भी नहीं निकलता! अब मैं क्या करूँ? वे क्या कारागार में होंगे? वह कारागार कैसा होगा? क्या वहाँ और भी कोई जा सकता है वहाँ बैठे वे क्या सोचते होंगे? क्या इस पापिन का भी कभी स्मरण करते होंगे? हाँ करते क्यों न होंगे। हाँ! मैंही इस विपति की कारण हूँ। न जाने मुझको अपने मनमें कितनी गाली देते होंगे। हैं, मैं क्या कह रही हूं? क्या वे कभी किसी को गाली देते हैं? हाँ इसको भूल गए होंगे। हमको यवनगृहनिवासिनी समझ कर घृणा करते होंगे। किन्तु इसमें मेरा क्या दोष है? जैसे वे पराधीन हैं वैसे मैं भी हूँ। मैं उनको समझा सकती हूँ और यदि न समझेंगे तो उनके सामने कलेजा काढ़ कर रख दूँगी। प्राचीन काल में अग्निद्वारा परीक्षा होती थी अब कलिकाल में नहीं होती। यदि वे ऐसे न मानेंगे तो मैं अग्नि में खड़ी होकर अपनी सतीत्व सिद्ध कर दिखाऊँगी। हाँ! उस त्रिभुवन मनमोहन का दर्शन कब मिलेगा? वे कैसे बंधन से छूटेंगे? मैं अकेली छूट कर क्या करूँगी? यह अंगूठी मेरी मां ने कहाँ पाई? क्या इसके द्वारा उनका उद्धार नहीं हो सकता? मेरे बुलाने को कौन आने वाला है? क्या वह उनके छुड़ाने का कोई यत्न नहीं कर सकता? हे प्राणनाथ एक बेर तो आ-मिलो!

एक बेर तो इस दग्ध हृदय को शीतल करों।

तिलोत्तमा इस प्रकार विलाप कर रही थी कि एक परिचारिका आई। [ ५५ ]

तिलोत्तमा ने उससे पूछा 'रात कितनी गई होगी?'

दासी ने कहा 'दोपहर।'

जब अपना काम करके दासी चली गई तिलोत्तमा अंगूठी लेकर चली पर मारे भय के हाथ पैर कांपते थे और मुँह भी सूखा जाता था, कभी चलती थी फिर खड़ी हो जाती थी, पैर आगे नहीं पड़ता था, किसी प्रकार महल के द्वार पर्यन्त गई देखा तो पहरे वाले सब खोजा हबशी उन्मत्त पड़े हैं, किसी ने उसको देखा नहीं किंतु तिलोत्तमा को यही वोध होता था कि सब हमको देख रहे हैं और मारे डर के सिमटी जाती थी। ज्यों त्यों करके द्वार के बाहर पहुँची, वहाँ एक सिपाही अपनी नौकरी पर खड़ा था। उसने तिलोत्तमा को देखकर कहा तुम्हारे पास अँगूठी है?

तिलोत्तमा ने डरते २ अँगूठी दिखाई। उसने उसको भली भांति उलट पुलट कर देखा और फिर उसी बनत की एक अपने पास से निकाल कर दिखाई और बोला "हमारे सङ्ग आओ डरो मत।"

तिलोत्तमा उसके साथ २ चली। अंतःपुर के पहरे वालों की जो दशा थी वही सब स्थान पर थी और विशेष कर आज की रात कुछ रोक टोक नहीं थी। वह प्रहरी तिलोत्तमा को लिये लिये अनेक द्वार घर, आंगन में फिरता २ दुर्ग के फाटक पर पहुँचा और खड़ा होकर पूछने लगा 'अब तुम कहाँ जाओगी? जहाँ कहो वहाँ तुमको पहुँचादें।'

बिमला ने जो कह दिया था वह तो तिलोत्तमा को भूल गया, पहिले जगतसिंह का ध्यान आया और मन में हुआ कि वहीं चलने को उससे कहें परंतु लज्जा ने कहने न दिया। प्रहरी ने फिर पूछा 'कहाँ चलोगी?' [ ५६ ]

तिलोत्तमा के मुँह से शब्द नहीं निकला मानो घबरा सी गई और कलेजा धड़कने लगा आँखें खुली थीं परंतु आगे का मार्ग नहीं सूझता था। इतने में मुँह से आकस्मित जगतसिंह का नाम निकला।

पहरेवाले ने कहा 'जगतसिंह तो कारागार में हैं वहाँ कोई जा नहीं सकता। किंतु हम को यह आशा है कि तुम जहाँ कहो वहाँ तुम को पहुँचा दें अतएव चलो वहीं लेचले।'

फिर वह दुर्ग में घुसा और तिलोत्तमा भी कठपुतली की भांति उसके पीछे २ चली। कारागार के द्वार पर उसने जाकर देखा कि सब पहरेवाले सजग अपने २ काम में चैतन्य हैं। एक से पूछा कि राजपुत्र कहाँ हैं? उसने उङ्गली से दिखा दिया। फिर इसने पूछा कि जागते हैं कि सोते? वह द्वार पर्यन्त गया और आकर कहने लगा 'जागते हैं।'

अंगूठी वाले ने कहा 'द्वार खोल दो यह स्त्री उनसे भेंट करेगी।'

पहरे वाले ने कहा "क्या? ऐसी आज्ञा नहीं है।"

तब अंगूठी वाले ने उसमान का चिन्ह दिखाया और उसने तुरंत केवाड़ खोल दिया।

राजकुमार एक सामान्य चारपाई पर लेटे थे, द्वार के खुलने का शब्द सुनकर उठ बैठे। तिलोत्तमा द्वार पर ठिठक रही।

अंगूठी वाले ने कहा 'चलो यहाँ क्यों खड़ी हो रही'? तिसपर भी तिलोत्तमा आगे नहीं बढ़ी, फिर उसने कहा 'चलो, यहाँ ठहरना उचित नहीं है।'

तिलोत्तमा पीछे हटने लगी परंतु उधर को भी पैर नहीं उठा प्रहरी घबराया। [ ५७ ]

इतने में तिलोत्तमा को कुछ साहस हो आया और भीतर घुसी।

राजकुमार को देखतेही उसकी और भी रही सही सुध भूल गई और नीचे सिर करके खड़ी हो रही।

पहिले तो राजकुमार ने उसे चीन्हा नहीं मन में शंका करने लगे कि यह कौन स्त्री है और क्यों खड़ी है? चारपाई पर से उठे और द्वार के समीप आकर तिलोत्तमा को पहिचाना।

दोनों की आँखें चार हुईं फिर तिलोत्तमा ने सिर झुका लिया पर शरीर की गति से यह जान पड़ा कि राजकुमार के चरण पर गिरा चाहती है।

राजपुत्र पीछे हटकर खड़े हुए और बोले।

'क्या बीरेन्द्रसिंह की कन्या है?'

तिलोत्तमा को सांप ने डस लिया बीरेन्द्रसिंह की कन्या? यह पूछना कैसा? क्या जगतसिंह तिलोत्तमा का नाम भी भूल गए? दोनों कुछ काल चुप रहे। फिर राजपुत्र ने कहा 'यहाँ तुम्हारा क्या प्रयोजन है?' यह प्रश्न कैसा? तिलोत्तमा को घुमटा आने लगा और ऐसा मालूम होता था कि घर, द्वार, सेज, दीप सब धूम रहा है। चौकठ पर झुक कर खड़ी हो रही।

देर तक राजकुमार उत्तर पाने के अभिलाषी खड़े थे अंत को बोले—तुमको क्लेश होता है, फिर जाओ पुरानी बातों को भुलादो।'

तिलोत्तमा का भ्रम दूर हुआ और वह टूटे वृक्ष की भांति भूमि पर गिर पड़ी।

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