दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ ग्यारहवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ४२ से – ४८ तक

 

रीति के अनुसार नित्यक्रिया के अन्तर पूजादि कर इष्टदेव को प्रणाम किया फिर हाथ जोड़कर आकाश की ओर देख बोले 'गुरुदेव! मेरी सुध रखना मैं राजधर्म्म पालन करूँगा, क्षत्री कुलोचित कर्म करूँगा! अपने चरणों का प्रसाद मुझको दीजिये। दुराचारी के उपपत्नी का ध्यान इस चित्त से दूर कीजिये जिस में शरीर त्याग करने पर आप के समीप पहुंचूं मनुष्य को उचित है सो मैं करता हूँ। आप अन्तरयामी हैं मेरे अन्तःकरण में दृष्टि करके देखिये अब मैं तिलोत्तमा के प्रणय की इच्छा नहीं रखता। अब उसके दर्शन की लालसा नहीं रखता केवल भूतपूर्व स्मृति अहर्निशि हृदय को जलाती है। आज अभिलाषा त्याग किया। क्या याद न भूलेगी? गुरुदेव चरण कमल का प्रसाद मुझ को दीजिये नहीं तो यह स्मृति दुःख सहा नहीं जाता।

प्रतिमा का विसर्जन हुआ।

तिलोत्तमा ने भूमि में पड़ी स्वप्न देखा है कि निगिड़ अन्धकार में वह एक तारे की ओर देख रही है किन्तु उसने अपनी ज्योति खींच ली इस घोर आंधी में जिस लता से अपना प्राण बांधा था वह टूट गयी, जिस नौका पर चढ़कर समुद्र पार जाने की आशा थी वह नौका डूब गयी॥

 

ग्यारहवां परिच्छेद।
गृहान्तर।

अपने कहने के अनुसार दूसरे दिन उसमान आकर राजपुत्र के सामने उपस्थित हुआ और बोला!

'युवराज। पत्र का उत्तर भेजियेगा?'

उन्होंने उसका उत्तर पहिले से लिख रक्खा था उठा कर उसमान को दिया। उसमान ने पत्र हाथ में लेकर कहा 'अपराध क्षमा हो, हम लोगों की रीति है कि जब कोई दुर्गवासी किसी को पत्र लिखता है रक्षक उसको पढ़ लेते हैं तब भेजते हैं।

युवराज ने कुछ उदास होकर कहा 'यह कहना व्यर्थ है। तुम पत्र खोलकर पढ़ लो इच्छा होय भेजना वा न भेजना।'

उसमान ने खोल कर पढ़ा उसमें यही लिखा था।

अभागिन? मैं तेरी बात न भूलूँगा किन्तु यदि तू पतिव्रता है तो जहाँ तेरा पति गया वहाँ तू भी चली जा और अपने कलंक को दूर कर उसमान ने पढ़ कर कहा। 'राजपुत्र आप का हृदय बड़ा कठोर है।'

राजपुत्र ने उत्तर दिया 'पठानों से विशेष नहीं।'

उसमान का मुँह लाल होगया और कुछ कर्कश होकर बोला 'मैं जानता हूँ कि पठानों ने आप से इतनी अभद्रता न की होगी।'

राजपुत्र को कोप भी हुआ और लज्जा भी लगी। बोले 'नहीं जी मैं अपनी बात नहीं कहता हूँ तुमने मेरे ऊपर तो बड़ी दया की है, बन्दी करके भी प्राणदान दिया जिस को कारागार में बेड़ी डाल कर रखना चाहिये उसको ऐसे चैन से रक्खा और क्या कीजियेगा? किन्तु मैं कहता हूँ, मैं तो आप की भद्रता के जाल में फंसा हूँ। इस सुख का परिणाम कुछ जान नहीं पड़ता यदि मैं बन्दी हूँ और मुझको कारागार में रक्खा है तो दयापूर्वक मुझको इस बंधन से छुड़ाइये और यदि बन्दी नहीं हूँ तो फिर इस स्वर्ण पिंजरे की क्या आवश्यकता थी?'

उसमान ने स्थिर चित्त होकर‌ कहा राजपुत्र! आप इतना घबराते क्यों है दुख बुलाने से नहीं आता आप‌ से आप आता है।

राजपुत्र ने गर्वित बचन से कहा 'आप लोगों की इस कुसुम शय्या की अपेक्षा राजपूत शिला शय्या को अमङ्गल नहीं समझते।

उसमान ने कहा 'और यदि अमङ्गलही होता तो क्या हानि थी'।

राजपुत्र ने उसमान की ओर तीखी दृष्टि करके कहा 'यदि कतलूखां को उचित दण्ड न दिया तो मरनेही में क्या हानि है'?

उसमान ने कहा 'युवराज! पठान लोग जो कहते हैं वहीं करते हैं।'

युवराज ने हंस कर कहा 'सेनापति तुम यदि‌‌ हमको धमकाने आये हो तो यह श्रम तुम्हारा निष्फल है।'

उसमान ने कहा 'राजपुत्र हमलोग आपुस की‌ परम्परा को भली भांति जानते हैं व्यर्थ वाक्यव्यय से कुछ प्रयोजन नहीं! मैं आपके पास एक विशेष कार्य के निमित्त आया हूँ।'

जगतसिंह को आश्चर्य हुआ और बोले 'क्या?'

उसमान ने कहा 'मैं जो आपसे प्रस्तावना करता हूँ‌ वह कतलूखां के कहने से नहीं करता।'

ज॰। 'अच्छी बात है।'

उ॰। सुनिये! राजपूत और पठानों के युद्ध में दोनों पक्ष की हानि है।

राजपूत ने कहा 'पठानों का नाश तो युद्ध का मुख्य प्रयोजन है।'

उसमान ने कहा 'सत्य है किन्तु यह कब सम्भव है कि एक की हानि हो और एक की न हो मान्दारणगढ़ के जीतने वाले कुछ बलहीन नहीं है।

जगतसिंह ने कुछ मुसकिरा कर कहा 'वे तो बड़े कुशल हैं।'

उसमान ने कहा 'जो हो आत्मश्लाघा हमारा काम नहीं है।'

रात दिन मोगलराज से विवाद करके पठानों का उडि़स्सा में रहना नहीं हो सक्ता। किन्तु वे उनके आधीन भी नहीं हो सक्ते। आप मेरी बातों को और भांति न समझिये। आप तो राजनीति जानते हैं, देखिये दिल्ली से उड़िस्सा कितनी दूर है। दिल्लीश्वर ने जो मानसिंह के पराक्रम से पठानों पर इस बार जय पायी तो यह जयध्वजा कब तक खड़ी रहेगी? महाराज मानसिंह सेना लेकर पलट जायेंगे और उड़िस्सा से दिल्लीश्वर का राज भी लौट जायगा। पहले भी तो अकबर ने इस देश को जीता था किन्तु कितने दिन अपने आधीन रक्खा? अब भी वैसाही होगा। बहुत होगा फिर सेना आवेगी और जय होगी, फिर पठान स्वाधीन हो जायेंगे। वे बंगाली तो नहीं हैं जो आधीन हो जायें, फिर राजपूत और पठानों के रुधिर बहाने से क्या लाभ है?'

जगतसिंह ने कहा 'तुम क्या चाहते हो।'

उसमान ने कहा मैं 'कुछ नहीं कहता। मेरे स्वामी सन्धि करना चाहते हैं।'

ज॰। 'कैसी सन्धि?'

उ॰। दोनों पक्षवालों को कुछ २ दबना चाहिये। नवाब कतलूखां ने अपने बाहुबल से बंग देश के जिस प्रदेश को जीता है वे उसको छोड़ देते हैं अकबरशाह भी उडि़स्सा छोड़ कर सेना लेकर चले जायें और फिर कभी आक्रमण न करें। इसमें बादशाह की कुछ हानि नहीं होती पर पठानों की होती है। हमलोगों ने क्लेश भोग कर जो पाया है उसे छोड़ देते है और अकबर को वह छोड़ना पड़ता है जो उन्होंने नहीं पाया है।

राजकुमार ने सुनकर कहा 'अच्छी बात है। कि तुम यह बातें हमसे क्यों कहते हो? मेल और बिगाड़ करनेवाले महाराज मानसिंह हैं उनके पास दूत भेजो'।

उसमान ने कहा 'उनके पास दूत भेजा गया था पर किसी ने महाराज से कह दिया कि पठानों ने आप को मारडाला। महाराज मारे क्रोध के सन्धि के नाम से घृणा करते हैं और दूत की बातों का विश्वास नहीं करते, यदि आप स्वयं जाकर सन्धि का प्रस्ताव करें तो वे मानेंगे।'

राजपुत्र ने फिर उसमान की ओर देख कर कहा 'इसका क्या अर्थ जो आप हमको जाने कहते हैं। हमारा हस्ताक्षर भेजने से महाराज को विश्वास हो सकता है।'

उ॰। उसका यह कारण है कि महाराज मानसिंह हमलोगों के समाचार को नहीं जानते। आपके द्वारा उनको हमलोगों का वास्तविक बल समझ पड़ेगा, और विशेष करके आपकी बातों को पतिआयंगे भी। लिखने से यह बात नहीं हो सकती संधि का तुरन्त एक फल तो यह होगा कि आप कारागार से छूट जायेंगे। नवाब कतलूखां को विश्वास है कि आप सन्धि का प्रबन्ध अवश्य करेंगे।

ज॰। मैं पिता के पास जाने से मुँह नहीं मोड़ता।

उ॰। यह बात सुनकर मुझको बड़ा अन्नन्द हुआ परंतु एक निवेदन और है। यदि आप इस प्रकार सन्धि का प्रबन्धन कर सके तो फिर आपको इस दुर्ग में पलट आना पड़ेगा।

ज॰। मैं कह जाऊं और फिर न आऊं, तो इसका निश्चय कैसे हो सकता है।

उसमान ने हंसकर कहा 'इस बात का निश्चय है। राजपूत लोग कहकर मुकरते नहीं यह सब लोग जानते हैं।'

राजपुत्र ने सन्तुष्ट होकर कहा 'मैं अंगीकार करता हूँ कि पिता से मिलकर अकेला दुर्ग को पलट आऊंगा'।

उ॰। और एक बात स्वीकार कीजिये तो हमारे ऊपर बड़ा अनुग्रह हो—कि महाराज के पास जाकर आप हमलोंगो की इच्छानुसार सन्धि सम्पादन कीजिये।

राजपुत्र ने कहा 'सेनापति महाशय मैं यह बात स्वीकार नहीं कर सकता दिल्ली के अधिकारी ने हमको पठानों को जय करने के निमित भेजा था, मैं पठानों को पराजित करूँगा सन्धि नहीं करूँगा। मैं चरचा भी न करूँगा।'

उसमान को सन्तोष और क्षोभ दोनों हुआ। बोले 'युवराज आपने राजपूत कुल योग्य उत्तर दिया पर विचार कर देखिये कि दूसरा और कोई आपके छूटने का उपाय नहीं है।'

ज॰। हमारे छूटने से दिल्लीश्वर को क्या? क्षत्रिय कुल में अनेक योधा हैं।

उसमान ने कातर होकर कहा 'राजकुमार! हमारा निवेदन सुनिये और इस हठ को छोड़ दीजिये।'

जा॰। क्यों?

उ॰। मैं आप से सत्य कहता हूँ कि नवाब साहेब ने आप को इतने आदर सत्कार से इसी आशा पर रक्खा है कि आप के द्वारा सन्धि का प्रबंध हो जायगा। यदि आपने मुँह मोड़ा तो अपनी हानि की।

ज॰। फिर मुझको भय देखाते हो। इसी लिये मैंने कार गार में रहने की प्रार्थना तुम से की थी।

उ॰। राजकुमार! कतलूखां यदि आपको कारागारही में रखकर तृप्त हो तो बड़ी बात।

युवराज ने भौं टेढ़ी करके कहा 'वीरेन्द्रसिंह की दशा मेरी भी होगी, और क्रोध के मारे आँखैं लाल हो गयीं।

उसमान ने कहा 'मैं जाता हूँ। अपना काम म कर चुका कतलूखां की आज्ञा आपको दूसरे दूत द्वारा ज्ञात होगी।

थोड़ी देर के अनन्तर वह दूत आया। उसका वेष सैनिक पुरुष की भांति था, पर साधारण सिपाहियों से कछ बढ़कर बोध होता था। उसके सङ्ग और चार सिपाही थे। राजपुत्र ने पूछा! 'तुम क्यों आये?'

सैनिक ने कहा 'आप को दूसरी कोठरी में चलना होगा' 'मैं प्रस्तुत हूँ चलो' कहकर राजपुत्र दूतों के पीछे हो लिये।

 

बारहवां परिच्छेद।
अलौकिक आभरण।

महा उत्सव उपस्थित। आज कतलूखां का जन्मदिन है। दिन में सब लोग राग, रङ्ग, नृत्यगान भोजन पान, इत्यादि में नियुक्त थे और रात को इससे भी अधिक दुर्ग में दीपावली दान होने लगी, सैनिक, सिपाही, उमरा, नोकर, चाकर, धनी, रंक, मतवाले, नट, नर्तक, नायक, नायिका, बजनिया, मानमती, माली, गन्धी, तमोली, हलवायी, ठठेरे, कसरे इत्यादि से दुर्ग परिपूर्ण हो गया। जिधर देखो उधर दीपमाला, गाना बजाना इतर, पान, पुष्प, बाजी, वेश्या देख पड़ते थे। महल में इससे

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