दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ आठवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ३२ से – ३५ तक

 

लो दो एक दिन तो कुछ नहीं हो सकता। कतलू खाँ की वर्ष गांठ समीप है उस दिन बड़ा उत्सव होगा। पहरे वाले मारे आनन्द के उन्मत्त हो जाते हैं। उसी दिन मैं तुम को मुक्त करूँगा तुम उस दिन रात को महल के द्वार पर आना यदि वहाँ कोई तुमको ऐसी हो दुसरी अँगूठी दिखावे तो तुम उसके सङ्ग हो लेना। आशा है कि निर्विघ्न निकल जाओगी' आगे हरि इच्छा बलवान है।

बिमला ने कहा परमेश्वर तुमको चिरंजीव रक्खें, और मैं क्या कहूँ, और उसका हृदय भर आया और मुँह से बोली नहीं निकली। आशीर्वाद देकर जब बिमला जाने लगी उसमान ने कहा "एक बात तुम से बता दें अकेली आना। यदि कोई तुम्हारे सङ्ग होगा तो काम न होगा। वरन उपद्रव का भय है।"

बिमला समझ गई कि उसमान तिलोत्तमा को सङ्ग लाने का निषेध करता है और अपने मन में सोची कि यदि दो जन नहीं जा सकते तो अच्छी बात है तिलोत्तमा अकेली जायगी।

बिमला बिदा हुई‌॥

आठवां परिच्छेद।
आरोग्य।

सदा किसी का दिन बराबर नहीं रहता। किसी को मुख किसी को दुःख यह परम्परा से चला आया है।

समय एकसा नहीं रहता। क्रमशः जगतसिंह आरोग्य होने लगे। यमराज के पास से बच कर दिन २ शक्ति बढ़ने लगी, ग्लानि दूर हुई और क्षुधा लगने लगी जब भोजन किया बल हुआ और उसी के सङ्ग चिन्ता का भी प्रादुर्भाव हुआ।

पहिले तिलोत्तमा की चिन्ता से मन ग्रसित हुआ। सब से पूछते थे पर किसी ने तुष्टिजनक उत्तर नहीं दिया। आयेशा जानतीही न थी, उसमान बोलताही नहीं था और दास दासी बेचारे क्या जाने। राजकुमार को चैन नहीं मिलता था।

दूसरी चिन्ता होनहार के विषय में थी। अब क्या होगा? यद्यपि सुन्दर सुगन्धमय आगार में शय्या के ऊपर चैन से पड़े रहते थे, दास दासी सेवा में नियुक्त थे, जिस वस्तु की इच्छा होती थी तुरन्त मिलती थी, आयेशा दिन रात भाई की भांति सेवा करती थी पर द्वार पर पहरा खड़ा था। इस पिञ्जरे से कब छूटेंगे? छूटेंगे कि नहीं? सेनागण क्या हुए? सेनापति शून्य वे क्या करते होंगे?

तीसरी चिन्ता आयेशा। यह परहितकारी मनमोहनी कौन है? कहाँ से आई? न तो वह विश्राम करती थी और न हारती थी अहर्निश रोगी की शुश्रूषा में रहती थी। जब तक राजकुमार निरोग नहीं हुए वह नित्य प्रातःकाल आकर इनके सिरहने बैठ कर यथावत् यत्न करती थी और जब तक कोई आवश्यक कर्म नहीं होता था उठती न थी।

जबतक जगतसिंह भली भांति अच्छे नहीं हुए तबतक आयेशा इसी प्रकार उनकी सेवा में लगी रहती थी ज्यौं २ ये अच्छे होने लगे त्यो २ वह भी अपना आना जाना कम करने लगी।

एक दिन दो पहर ढले जगतसिंह अपनी कोठरी में खिड़की के समीप खड़े बाहर का कौतुक देख रहे थे। मनुष्यगण स्वेच्छापूर्वक आते जाते थे। अपनी अवस्था उनसे मन्द देख रामकुमार को बड़ा दुःख हुआ। एक स्थान पर कई मनुष्य मण्डली बांधे खड़े थे युवराज ने मन में अनुमान किया कि कोई कौतुक होता होगा परन्तु बीच की वस्तु नहीं देख पड़ती थी जब उनमें से कुछ लोग चले गए राजपुत्र का संशय दूर हुआ दिखा कि एक मनुष्य हाथ में कुछ पत्रे लिये लोगों को कुछ सुना रहा है। उसी समय युवराज की कोठरी में उसमान का प्रवेश हुआ।

उसमान ने पूछा "आप क्या देखते हैं?"

राजपुत्र ने कहा 'कटहरे में से देखो।'

उसमान ने देख कर कहा 'क्या आपने इसको कभी देखा नहीं?'

राजकुमार ने उत्तर दिया 'नहीं'।

उसमान ने कहा वह तो आपका ब्राह्मण है, कथा, वार्ता करने में बड़ा चतुर है, उसको मान्दारणगढ़ में मैंने देखा था।

राजकुमार मन में चिन्ता करने लगे कि यदि वह मान्दारगढ़ रहा है तो क्या तिलोत्तमा के विषय में कुछ न जानता होगा? बोले 'महाशय इसका नाम क्या है?'

उसमान ने सोच कर कहा उसका नाम कुछ कठिन है। शीघ्र स्मरण नहीं होता, गनपत? न गनपत कि जगपत, ऐसाही कुछ नाम है।

"जगपत" नाम तो इस देश में नहीं होता और यह तो बंगाली है।

हाँ बंगाली तो है, भट्टाचार्य्य उसकी एक अल्ल भी है, इलम या क्या?

बंगालियों के अल्ल में 'इलम' शब्द नहीं होता। यह तो फ़ारसी शब्द है, इलम को बँगला में विद्या कहते हैं।

हाँ हाँ विद्या ठीक है। बँगला में हाथी को क्या कहते हैं? "हस्ती"

और।

करी, दन्ती, वारण, नाग, गज।

हां हां ठीक है, इसका नाम गजपतिविद्या दिग्गज है।

विद्यादिग्गज! वाह! बड़ी भारी अल्ल है। जैसा नाम वैसाही उपनाम। इसके संग बात करने को जी चाहता है।

उसमान ने उसकी बातें सुनी थीं, मन में सोचा कि इसके संग बात करने में कुछ हानि नहीं बोले 'चिन्ता नहीं' दोनों ने बरामदे में जाकर एक भृत्य द्वारा उसको बुलवाया॥

नवां परिच्छेद।
दिग्गज सम्वाद।

नौकरों के संग विद्यादिग्गज आए जगतसिंह ने पूछा आप ब्राह्मण हैं?

दिग्गज ने हाथ जोड़ कर कहा।

यावन्मेरौ स्थितादेवा यावद्गङ्गा महीतले।

असारे खलु संसारे सारं श्वशुरमन्दिरं'।

जगतसिंह ने मुसकिरा कर प्रणाम किया और ब्राह्मण ने आशीर्वाद दिया 'खोदा खां बाबूजी को अच्छी तरह रक्खे'।

राजपुत्र ने कहा महाराज! मैं मुसलमान नहीं हूं में तो हिन्दू हूं।'

दिग्गज ने मन में कहा 'मुसल्मान हम को धोखा देते है या इनका कुछ काम होगा नहीं तो काहे को बुलाते' विषन्न वदन होकर बोले, खां बाबूजी मैं आपको चीन्हता हूँ, मैं आपके घरबों का दास हूँ, मुझसे कुछ न कहिये

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