तुलसी चौरा
ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

कानपुर: साहित्य सदन, पृष्ठ ९९ से – १०८ तक

 

'मेरी तो राय यही है, कि कमली भी यहीं ठहर जाए। अम्मा लाख समस्यायें पैदा करें, कमली उन्हें संभाल लेगी।'

'यह तुम कह रहे हो। वह जाने क्या सोच रही होगी?'

'इसमें कैसा दुराव छिपाव। आइए, मैं अभी पुछवा देता हूँ।'

'मैं क्या करूँगा वहाँ आकर! तुम ही पूछ कर बता देना।'

'नहीं! मैं एक खास मकसद से कह रहा हूँ। तभी आप उसे समझ पायेंगे। शक की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी।'

शर्मा जी हिचकिचाए।

'सोचिए मत बाऊ जी। मेरे साथ चलिए।'

रवि उठ गया। शर्मा जी भी उसके पीछे चल दिए।

वे लोग ऊपर पहुँचे तब भी दुर्गा स्तुति पाठ चल रहा था।

'पास, तुम नीचे जागों बिटिया। हमें कुछ बातें करती हैं।'

शर्मा जी ने उसे भिजवा दिया। रवि को, पारू को इस तरह भिजवा देना अच्छा नहीं लगा!

'वह भी रह जाती बाऊ जी, उसे क्यों भिजवा दिया।'

'नहीं वह बाद में आ जायेगी। तुम चुप रहो।'

रवि ने फिर इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा।

कमनी उन्हें आते देख उठकर खड़ी हो गयी थी।

'मैं कुछ पूछूँगा तो आपको लगेगा, यह मेरे लिए जबाब दे रही हैं। आप खुद ही पूछ कर देख लें। रवि ने कहा।

शर्मा और रवि कुर्सी पर बैठ गए। कमली नहीं बैठी।

'बैठो बिटिया। हम तुमसे कुछ बातें करना चाहते हैं। कब तक खड़ी रहेगी। मैं तुम्हारा लिहाज समझ रहा हूँ। अब मैं कह रहा हूँ। बैठ जाओ।’

'कोई बात नहीं। खड़े रहने में मुझे कोई दिक्कत नहीं।'

'तुम्हें हो न हो, हमें तो है न।'

'नहीं, आप कहिये तो.......।' 'मेरी बातों का साफ जवाब देना बिटिया। आभार मानूँगा। मैंने तो रवि से कहा था कि तुमसे पूछ कर जवाब दे। पर उसने तो मुझे ही सामने लाकर खड़ा कर दिया।'

'………………'

'क्यों बिटिया। संशवाती वाली घटना पर कामाक्षी पारू को डांट रही थी, तुम्हें बुरा तो नहीं लगा। तुम मुझे साफ-साफ बताना बिटिया………।'

'इसमें बुरा मानने की क्या बात है? उन्होंने पारू को डांटा। मैं कैसे मना करूँ? अगर वे पास को नहीं मुझे ही बुलवा कर डांट देती तब भी बुरा नहीं मानती। मुझे तो इसी बात का बुरा लगता है, कि वह अधिकारपूर्ण मुझे क्यों नहीं डांटती। इस बात का बुरा नहीं लगता कि क्यों डांट रही हैं। यदि रवि की माँ मुझे सीधे डाँट देतीं तो मैं बहुत खुश होती।'

शनी जी ने ऐसे विनम्र उत्तर की अपेक्षा नहीं की थी।

एक क्षण मौन रह के फिर पूछ लिया।

'मैंने सुना तुम्हें साल भर से ऊपर यहीं रहना है। सुनकर अच्छा लगा। इस घर की असुविधाओं में रह जाओगी? रह सको, तो यहाँ आराम से रह लो, वरना तुम लोगों के लिए पास ही में कोई दूसरा इंतजाम किए देता है।'

'यहाँ मुझे कोई असुविधा नहीं है। घर हो तो दोनों ही बातें होंगी। केवल अनुविधाओं से भरा घर या केवल असुविधाओं से भरा घर, ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा।'

'ऐसी बात नहीं है बिटिया। अगर मन न मिले, तो रोज-रोज की झिकझिक लगी रहेगी। फिर बाकी कामों के लिए वक्त कहाँ मिलेगा?'

'मुझे आपकी बात सुनकर आश्चर्य होता है। अभी तक तो मेरी वजह से कोई बात नहीं हुई। मैं तो इसी घर में रहना चाहती हूँ। कामाक्षी काकी को कई अर्थों में अपना गुरू माना है। उनसे कितना
कुछ सीखना है मुझे।

'पर यदि तुम्हें शिष्या के रूप में वे न स्वीकारें तो?'

'तो क्या एकलव्य ने शिष्यत्व ग्रहण करने के पहले द्रोण की अनुमति ली थी। श्रद्धा और भक्ति भाव हो तो बहुत कुछ सीखा जा सकता है।'

'तो फिर तुम उससे अधिक सुविधाजनक स्थान में रहना नहीं चाहती?'

'तहीं। आपके यहाँ कहावत भी तो है, जहाँ राम हैं वहीं अयोध्या है। मैं तो सुविधाओं में रहते उकता गयी हूँ।'

पूर्वी संस्कृति में उसकी पकड़, उसका गहन अध्ययन, उसकी बातों से साफ झलक रहा था। बोले तो ठीक है। इस तरह के सवालों से तुम्हें कोई चोट पहुँची हो, तो बुरा मत मानना बेटी। हमारे जाने-अनजाने में तुम्हें कोई तकलीफ हो या असुविधा पहुँचे तो उसे भूल जाना। बस, मैं तो सिर्फ इतना चाहता था कि तुम्हें यहाँ किसी तरह की तकलीफ न हो।'

'आप रवि के पिता हैं, विद्वान हैं। भारतीय संस्कृति को पूर्णता को समझते हैं। आपको मैं कतई गलत नहीं समझूँगी। ईश्वर करे ऐसी परिस्थिति कभी न आए।'

रवि ने उन्हें देखा। मानो पूछ रहा हो, अब तो आपको तसल्ली हो गयी होगी।'

'ठीक है, मैं पारू को भिजवाता हूँ।'

शर्मा जी उतरने लगे।

'आप चलिए बाऊ, मैं अभी आया।' रवि बोला। 'आराम से आना। जल्दी नहीं है।' शर्मा जी ने उत्तरते हुए कहा उन्हें एहसास हो गया, इस युवती की संस्कृति के प्रति गहरी श्रद्धा है और वह तमास असुविधाओं के साथ जीने का साहस रखती है। अब उससे यह पूछना कि वह वेणुकाका के साथ ठहरेगी या नहीं मूर्खता भरा प्रश्न था। रवि ने कमली के विषय में जो कुछ भी कहा था, बह शत-प्रतिशत सही है। कामाक्षी की हरकतों के प्रति ही वे भयभीत थे। अब उन्हें विश्वास हो गया कि कमली इन हरकतों से प्रभावित नहीं होगी।

संझबाती वाली बात को लेकर कहीं कमली रवि से कुछ कह न बैठे, उसका खटका उन्हें था। पर कमली ने साफ जता दिया कि उसके मन में इस बात को लेकर कोई मैल नहीं है। कामाक्षी के प्रति उसकी श्रद्धा में रत्ती भर भी फर्क नहीं आया है।

कमली की ओर से समस्यायें भले ही उठें, पर कामाक्षी की ओर से या फिर इस गाँव वालों की ओर से समस्या उठ सकती है। इसका भय उन्हें था।

रवि नीचे आ गया। बाप-बेटे ने इस विषय पर फिर से कोई बातचीत नहीं की। अगले दिन वेणूकाका से गाड़ी लेकर रवि और कमली पांडीचेरी, कारैक्काल आदि स्थानों के लिए निकले। साथ में किसी ड्राइवर को ले जाने पर काका ने जोर दिया।

'नहीं काका, हम दोनों ही ड्राइविंग जानते हैं। कोई खराबी आ जाए तो हम संभाल लेंगे।'

हालांकि वे सप्ताह भर के लिए गये थे। घर उन्हें लौटने में दस दिन लग गए।

दस दिनों तक घर सूना पड़ा रहा।

वे लोग जिस समय घर लौटे, कामाक्षी बैठक में बैठी हुई वीणा में राग तोड़ी बजा रही थी। भीतर प्रवेश करते ही कमली खड़ी की खड़ी रह गयी। साक्षात् सरस्वती की तरह लग रही थीं वे। राग की वर्षा में पूरा घर भीग उठा था।

कमली के लिए यह अनिवर्चनीय अनुभव था। वीणा बजाती कामाक्षी के चेहरे की अपूर्व आभा को ठगी सी देखती रह गयी। 'क्या हुआ बेटी? अभी लौटी हो! यहीं क्यों खड़ी रह गयी?' शर्मा जी के प्रश्न ने उसे यथार्थ में ला पटका। रवि अटैची लिए भीतर आ गया।

कमली का ध्यान अब भी कामाक्षी की उस अलौकिक रुप पर ही रमा हुआ था।

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पर अगले कुछ दिनों में जो कुछ घटा, वे शर्मा जी की धारणा के विपरीत ही रहीं। कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार, यहाँ के नियम, धर्म एवं असुविधाएँ, पुरातन पंथी गृहस्वामिनी का व्यवहार कमली के लिए अड़चनें ही पैदा कर सकती हैं। शर्मा जी ने यही सोचा था! पर कमली ने उस घर के नियमों के अनुरूप अपने को ढालना शुरू कर दिया, पूरे समर्पण भाव के साथ। उसने अपने को इस घर की परम्पराओं के अनुकूल ढाल लिया, घर के अन्य सदस्यों को अपनी इच्छा के अनुरूप बदलने की कोशिश नहीं की। कमली के प्रति शर्मा जी की सहानुभूति का कारण, उसका यह स्वभाव ही था।

जिस रात वे पांडीचेरी से लौटे, कमली ने रवि से कहा था, 'आपकी माँ को वीणा बजाते देखने लगा था, जैसे साक्षात् वीणा- वादिनी उतर आयी हो।'

'अच्छी डिप्लोमेसी है, यह। दुश्मन को भी प्रशंसा से जीत लो।' रवि उसे छेड़ना चाहता था। पर कमली के स्वर में इतनी मुग्ध आर्द्रता थी कि वह उसके पीछे छिपी श्रद्धा को भांप गया। इसलिए चुप रहा।

'अम्मा में पुरातन कर्मकांडी परिवार की सारी विशेषताएँ मौजूद हैं।'

मेरा मतलब प्लस और माइनस दोनों ही गुणों से हैं। पर देख रहा हूँ, तुम अम्मा के प्लस पाहट को ही देखती हो....।'

'जो चीज हमें नहीं रुचे, उसे माइनस पाइंट कह देना गलत है रवि।' 'रवि को लगा कि वह स्वयं रवि के मुँह से अम्मा की कम- जोरियों को नहीं सुनना चाहती। अम्मा की फुर्ती, तुलसी पूजन, गोपूजन करना, गिट्टो खेलना, कौड़ियाँ खेलना, वीणा बजाना, स्त्रोत श्लोक पाठ करना, सब कुछ कमली के लिए अपूर्व है। लगा कि उसने कमली को इन तमाम विरोधाभाषों के बीच जीने का जो अभ्यास फ्रांस में करवाया था, उसमें आशातीत सफलता मिली है।

'मुझे अम्मा की तरह नौ गजी धोती पहनने की इच्छा है। बसंती को कल बुलवाया है सिखाने के लिए।' कमली ने कहा सो रवि चौंक गया। जब अपने ही यहाँ की युवतियाँ अठारह हाथ की लांग वाली धोती पहनना भूलती जा रही हैं। ऐसे में कमली की इसके प्रति रुचि उसे अच्छी लगी।

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अगले दिन सुबह इरैमुडिमणि अपनी नई दुकान के उद्घाटन में जन्हें आमंत्रित करने आए, तो शर्मा जी घर पर नहीं मिले। रवि और कमली को अपने आने का मकसद बता कर चले गए।

'देखो बेटा, बाऊ जी भले ही न मानें, पर हम तो मुहूर्त और लग्न के विपरीत ही काम करते हैं। कल का दिन शुभ तो नहीं, पर मैं कल ही उद्घाटन करवा रहा हूँ। वे आएँ न आएँ, उनकी मर्जी है। तुम आओगे तो इन्हें भी लेते आना।'

सुबह साढ़े नौ बजे जब शर्मा जी लौटे तो रवि ने सूचना दी।

पर शर्मा जी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। पर उनका चेहरा परे- शान लग रहा था।

'वह अपने ढंग से अशुभ दिन में कमी की शुरूआत कर रहे हैं। आपको भी आने को कहा है―।

'..............'

'क्या हुआ बाऊ! आपका चेहरा उतरा क्यों है?' 'सारे फसाद की जड़ तो यही है न। ऊपर से मैं वहाँ चला जाऊँ तो फिर सीमावय्यर छोड़ेंगे थोड़े ही।'

'कैसा फसाद बाऊ?'

सीमावय्यर चाहते थे कि यह जगह देशिकामणि को न मिले। इसलिये उन्होंने मेरे पेशगी लेने के बाद अहमद अली को मेरे पास भेजा! मैंने अपने वचन से अनुसार देशिकामणि को ही दिलवा दिया। मठ से भी पत्र आ गया है। मैंने जब सीमावच्यर को पढ़वा भी दिया।

खूब बिगड़े। बोले, नास्तिक को मठ की जमीन किराये पर दी जा रही है। यह अधर्म है, अनाचार है। 'मुझको गालियाँ भी सुनाई। परसों बटाई की बैठक थी, तब भी मैंने सही जरूरतमंदों को ही बटाई पर खेत उठवाये। उस बात से भी चिढ़े बैठे हैं। वे अपने आदमियों को ही दिलवाना चाहते थे। मैंने उस दिन भी बैठक स्थगित कर दी।'

'तो इसमें आप दुखी क्यों होते हैं? आपने तो सही काम किया है।'

'दुखी नहीं हूँ बेटे। वहाँ जाते डर लगता है! फिर यह देशिका- मणि अशुभ मुहूर्त में काम शुरू कर रहा है। सीमावव्यर को अब इस बात से भी चिढ़ होगी। वैसे सैद्धांतिक रूप से चाहे जैसा भी हो, देशिकामणि ईमानदार है।’

'आपकी हिचकिचाहट पर हँसी आ रही है, बाऊ जी! बेईमान चाहे जो भी सोच ले, इससे क्या ईमानदार का साथ देना छोड़ देंगे। यही तो हमारे देश की खासियत बनती जा रही है।

बेईमानों, अत्याचारियों के डर से ईश्वर को पूजने वाला देश है या न्याय और आंतरिक शुद्धि से युक्त सत्य दर्शन न हो तो वैसी भक्ति किस काम की। किसी बेईमान गुन्डे के डर से अपने अजीज मित्र के समारोह में आप न जाएँ, यह कुछ जब नहीं रहा। आप जाएँ न जाएँ, मैं और कमली जरूर जाएँगे। 'बात वह नहीं है। खैर, चलो, हम साथ ही चलते हैं।' शर्मा भी क्षणभर की हिचकिचाहट के बाद मान गये। पर उनका चेहरा परेशान था। मन में जाने कैसी हिचकिचाहट बाकी थी। कर्मकांडी ब्राह्मण का एक विदेशी युवती के साथ नास्तिक के यहाँ जाने की घटना को शंकरमंगलम के लोग किस रूप में देखेंगे....." वे यह सोच कर आतंकित हो रहे थे।

उनका भय सीमावय्यर और अपने अन्य विरोधियों को लेकर ही था। पर निजी तौर पर देशिकामणि के दामाद के इस उद्घाटन समारोह में सम्मिलित होने की उनकी हार्दिक इच्छा थी। उद्घाटन के लिए शुभ मुहूर्त तय करना न करना हर व्यक्ति की अपने इच्छा पर निर्भर है। उसे विवश नहीं किया जा सकता।

बेटे ने किस तरह सही नब्ज पर उंगली रख दी थी।

कहा था 'आप लोग न्याय की पूजा करते हैं पर अन्याय से भय- भीत होते हैं।'

शर्मा को वहीं बात चुभ गयी थी और चलने के लिए तैयार हो हो गए।

रवि और कमली के तैयार होने के पहले वे कामाक्षी से बोलकर बाहर आ गये।

वही हुआ जिसका उन्हें सन्देह था। रवि, कमली और शर्मा को साथ निकलते देखकर, लोगबाग बाहर ओसारे पर निकल आए।

सामने से पण्डित शम्भू नाथ शास्त्री आ रहे थे। शर्मा और रवि को अभिवादन किया और कमली को देखकर शर्मा जी से सवाल किया, ये कौन हैं?'

'फ्रांस से आयी हैं। हमारे देश, हमारी संस्कृति के विषय में कुछ लिखना चाहती हैं।' शर्मा ने कहा।

'ठीक है फिर मिलते हैं,' शास्त्री चले गए। दो चार और लोग मिले उन्हें भी इसी तरह उत्तर देकर टरकाना पड़ा। 'वहां तो जब तक परिचय नहीं करवाया जाता, लोग बाग पूछते तक नहीं' रवि ने कहा तो शर्मा ची हँस दिए।

'तुम पश्चिमी सभ्यता के बारे में कहते रवि, यहाँ तो नाभि नाला से अलग होते ही शिशु दूसरों में रुचि लेने लगता है।'

वे पहुँचे तो इरैमुडिमणि की दुकान में भीड़ नहीं थी। तीन तरफ दीवारें खड़ी की गयी थी। न फूलों का हार न आम की पत्तियों का तोरण, कोई हल्दी, चन्दन, कुंकुम नहीं। बस, उनके आन्दोलन के नेता की बड़ी तस्वीर टंगी थी। इरैमुडिमणि सबका स्वागत कर रहे थे। लोगों के बैठने के लिए बैंचें पड़ी थीं। इरैमुडिमणि ने उन्हें बैठाया। चंदन लगाया और मिश्री खिलाई। कुछ देर बातें करते रहे। वे लोग चलने लगे तो इरैमुडिमणि शर्मा जी को एक ओर ले गए।

'अहमद अली को यह जगह नहीं मिली, इसलिए सीमावययर पूरे गाँव में बदनामी फैला रहा है। उसका कहना है कि मैं आस्तिकों से बैर मोल लेना चाहता हूँ, इसीलिए यह दुकान यहाँ लगायी है। सबको धमका रखा है कि कोई भी यहाँ से सामान नहीं खरीदेगा। मैं अच्छों के लिए अच्छा, बुरों के लिए बुरा। व्यापार के लिए सिद्धान्तों को हवा में नहीं उड़ा सकता। अपने सिद्धान्तों को दूसरों पर मैं थोपता भी नहीं। मैं जानता हूँ किस तरह ईमानदारी से व्यवसाय चलाया जा सकता है। हजार सीमावय्यर पैदा हो जाएँ, वे कुछ नहीं बिगाड़ सकते।'

'वह तो ठीक है, देशिकामणि। तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे अधिकार पर हमला कर रहा हूँ। यह मठ की जगह है। आस-पास के लोग धामिक हैं।

यहाँ कुछ दुकान का यह नास्तिक नाम, यह चित्र.... तुम्हें अट- पटा नहीं लगता?'

'हो तो, हो। मैं स्वांग नहीं भर सकता। व्यापार में घाटा हो जाए पर सिद्धान्त में घाटा न हो।" इरैमुडिमणि तैश में आ गए। इरैमुडिमाणि की यह साफ गोई शर्मा को अच्छी लगती थी पर वे जानते थे कि एक न एक दिन सीमावय्यर की दुश्मनी महँगी पड़ेगी।

'तुम ठीक कहते हो यार, तुम्हें अपने सिद्धान्तों पर अटल रहने की पूरी छूट है। पर सीमावय्यर को जानता हूँ न, इसलिए कह रहा हूँ। यह मल सोचना कि तुम्हें विवश कर रहा हूँ। दुकान तुम्हारी है, जैसा चाहो चलाओं।'

'मैं तो आपको घटना से वाकिफ कर देना चाहता था।'

इरैमुडिमणि ने वार्तालाप को पूर्ण विराम दिया। इसी समय काली कमीज पहने तीन चार कार्यकर्त्ता आ गये। उन्हें विदा कर फिर वहीं लौट आए।

'अच्छा हुआ, तुम इन्हें भी साथ ले आए।'

कुछ देर मोन के बाद शर्मा जी ने सीमावय्यर की धमकी के बारे में कह सुनाया। 'रहने दो यार उसे। उसका तो अन्तिम समय आ गया है।' इरै मुडिमणि कड़ुवाहट के साथ बोले।

शर्मा, रवि, कमली तीनों ही इरैमुरिमणि से विदा लेकर निकलने लगे, जाते-जाते रवि बेंच पर रखीं किताबें पलटने लगा।' आदि शंकर दर्शन' 'बोधायनीयनम्' पाँच रात्र वैखानख पद्धति श्री वैष्णव चण्डमारुतम' आदि पुस्तकें रखी हुई थीं।

'क्या देख रहे हो, बेटा। अपनी ही है। पढ़ रहा हूँ इन दिनों, रबि से बोले।'

'कुछ नहीं यूं ही पलट रहा था।' रवि ने कहा।

मोड़ पर आकर रवि ने पूछा, 'एक ओर तो यह अशुभ मुहूर्त में कार्य करते हैं।' दूसरी और धर्म और दर्शन की पुस्तकें पढ़ते हैं। अजीब नहीं लगता।'

'इसमें अजीब क्या है? वह हर बात को जानना चाहता है। ज्ञान को भूख उसमें जबर्दस्त है। इन विरोधाभास के बीच में उसमें एक