तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ १४१ ]

3.

[ १४२ ]इंद्रदेव चले गए। अधिकार खो बैठने का जैसे उन्हें कुछ दुख हो रहा था। सम्पत्ति का अधिकार! अब वह धामपुर के कुछ नहीं थे। परिवार से बिगाड़ और सम्पत्ति से भी वंचित! मां की दृष्टि में वह बिगड़े हुए लड़के रह गए। उन्होंने देखा कि सम्मिलितकुटुम्ब के प्रति उनकी जितनी घृणा थी, वह कृत्रिम थी; रामजस, मलिया, राजो और तितली, उनके साथ ही और भी कई अनाथ स्वेच्छा से एक नया कुटुंब बनाकर सुखी हो रहेहैं।

शैला को वाटसन के साथ कछ नवीनता का अनुभव होने लगा। इंद्रदेव के लिए उसके हृदय में जो कुछ परकयित्व था, उसका यहां कहीं नाम नहीं। वह मनोयोगपूर्वक बैंक और अस्पताल तथा पाठशाला की व्यवस्था में लगी। वाट्सन का सहयोग! कितना रमणीय था। शैला के त्याग में जो नीरसता थी, वह वाट्सन को देखकर अब और भी स्पष्ट होने लगी। वह संसार के आकर्षण में जैसे विवश होकर खिंच रही थी। वाट्सन का चुम्बकत्व उसे अभिभूत कर रहा था। अज्ञात रूप से वह जैसे एक हरी-भरी घाटी में पहुंचने पर. आंख खोलते ही. वसंत की प्रफुल्लता, सजीवता और मलय-मारुत, कोकिल का कलरव, सभी का सजीव नृत्य अपने चारों ओर देखने लगी। खेतों की हरियाली में उसके हृदय की हरियाली मिल जाती। वाट्सन के साथ सायंकाल में गंगा के तट पर वह घंटों चुपचाप बिता देती।

वाट्सन का हृदय तब भी बांध से घिरी हुई लम्बी-चौड़ी झील की तरह प्रशांत और स्निग्ध था। उसमें छोटी-छोटी बीचियों का भी कहीं नाम नहीं। अद्भुत! शैला उसमें अपने को भूल जाती। इंद्रदेव, धीरे-धीरे मूल चले थे।

रात की डाक से नंदरानी का एक पत्र शैला को मिला। उसमें लिखा था।—बहूरानी!

तुम दूसरों की सेवा करने के लिए इतनी उत्सुक हो, किंतु अपने घर का भी कुछ ध्यान है? मैं समझती हूं कि तुम्हारे देश में स्वतंत्रता के नाम पर बहुत-सा मिथ्या प्रदर्शन भी होता है। क्या तुम इस वातावरण में उसे भूल नहीं सकी हो? यदि नहीं, तो मैं उसे तुम्हारा सौभाग्य कैसे कहूं? मैं तो जानती हूं कि स्त्री, स्त्री ही रहेगी। कठिन पीड़ा से उव्दिग्न होकर आज का स्त्री-समाज जो करने जा रहा है, वह क्या वास्तविक है? वह तो विद्रोह है सुधार के लिए। इतनी उद्दण्डता ठीक नहीं। तुम इंद्रदेव के स्नेही हृदय में ठेस न पहुंचाओगी। ऐसा तो मुझे विश्वास है। पर जब से वह धामपुर से लौट आए हैं, उदास रहते हैं। कारण क्या है, तुम कुछ सोचने का कष्ट करोगी?

हां, एक बात और है। तुम्हारी सास अपनी अंतिम सांसों को गिन रही है। क्या तुम एक बार इंद्रदेव के साथ उनके पास न जा सकोगी?

तुम्हारी स्नेहमयी

नंदरानी

दूसरे दिन बड़े सवेरे—जब पूर्व दिशा की लाली को थोड़े-से काले बादल ढक रहे थे, गंगा में से निकलती हुई भाप पर थोड़ा-थोड़ा सुनहरा रंग चढ़ रहा था, तब-शैला चुपचाप उस दृश्य को देखती हुई मन-ही-मन कह उठी—नहीं, अब साफ-साफ हो जाना चाहिए। कहीं यह मेरा भ्रम तो नहीं? मुझे निराधार इस भाप की लता की तरह बिना किसी आलम्बन के इस अनन्त में व्यर्थ प्रयास नहीं ही करना चाहिए। इन दो-एक किरणों से तो काम नहीं चलने का। मुझे चाहिए सम्पूर्ण प्रकाश! मैं कृतज्ञ हूं, इतना ही तो! अब मुझसे क्या मांग है? इंद्रदेव के साथ क्या निभने का नहीं? वह स्वतंत्रता का महत्त्व नहीं समझ [ १४३ ]सके। उनके जीवन के चारों ओर सीमा की टेढ़ी-मेढ़ी रेखा अपनी विभीषिका से उन्हें व्यस्त रखती है। उनको संदेह है, और होना भी चाहिए। क्या मैं बिल्कुल निष्कपट हूं? क्या । वाट्सन? नहीं-नहीं वह केवल स्निग्ध भाव और आत्मीयता का प्रसार है। तो भी मैं इंद्रदेव से विरक्त क्यों हूं? मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं। इतने थोड़े-से समय में यह परिवर्तन! मैंने इंद्रदेव के समीप होने के लिए जितना प्रयास किया था, जितनी साधना की थी, वह सब क्या ऊपरी थी? और वाट्सन! फिर वही वाट्सन!

उसने झल्लाकर दूसरी ओर मुंह फेर लिया।

उधर से ही एक डोंगी पर वाट्सन, अपने हाथ से डंडा चलाते हुए, आ रहे थे। सामने मल्लाह सिकुड़ा हुआ बैठा था। बादल फट गया था। सूर्य का बिम्ब पूरा निकल

आया था। गंगा धीरे-धीरे बह रही थी। संकल्प-विकल्प के कुलों में मधुर प्रणयकल्पना-सी वह धारा सुंदर और शतिल थी।

वाट्सन ने डोंगी तरि पर लगा दी। शैला ने झुंझलाहट से उसकी ओर देखना चाहा, परंतु वह मुस्कुराकर नाव पर चढ़ गई।

अब मांझी खेने लगा। दोनों आस-पास बैठे थे। दोनों चुप थे। नाव धीरे-धीरे बह रही

वाट्सन ने हंसी से कहा—शैला! तो तुम गंगा-स्नान करने सवेरे नहीं आतीं। फिर कैसी हिंदू!

नाव बीच में चली जा रही थी। शैला ने देखा, एक ब्राह्मण-परिवार तट पर उस शीतकाल में नहा रहा है। शैला ने हंसकर कहा—तुम भी प्रति रविवार को गिरजे में नहीं जाते, फिर कैसे ईसाई!

तब तो न तुम हिंदू और न मैं ईसाई!

बस केवल स्त्री और पुरुष!—सहसा शैला के मुंह से अचेतन अवस्था में निकल गया। वाट्सन ने चौंककर उसकी ओर देखा। शैला झेंप-सी गई। वाटसन हंस पड़े।

नाव चली जा रही थी। कुछ काल तक दोनों ही चुप हो गए, और गम्भीरता का अभिनय करने लगे। फिर ठहरकर वाट्सन ने कहा—शैला तुम बुरा तो न मानोगी? पूछो न क्या है?

तुम इस विवाह से सुखी हो!–अरे—मैंने कहा, संतुष्ट हो न?

शैला ने दीनता से वाट्सन को देखा। उसके हृदय में सूनापन था, वही अट्टहास कर उठा। वाट्सन ने सानना के स्वर में कहा—शैला तुमने भूल की है, तो उसका प्रतिकार भी है। मैं समझता हूं कि तुमने अपने ब्याह की रजिस्ट्री सिविल मैरिज के अनुसार अवश्य करा ली होगी।

शैला को जैसे थप्पड़ लगा, वाट्सन के प्रश्न में जो गूढ़ रहस्य था; वह भयानक होकर शैला के सामने मूर्तिमान हो गया। उसने दोनों हाथों में अपना मुंह छिपा लिया। उसने कहा-वाट्सन, मुझे क्षमा करोगे। स्त्रियों को सब जगह ऐसी ही बाधाएं होगी। क्या तुम उनकी दुर्बलता को सहानुभूति से नहीं देख सकोगे?

इसीलिए मैं आज तक अविवाहित हूं। सम्भव है कि जीवन पर ऐसा ही रहूं। मुझसे यह अत्याचार न हो सकेगा। उहूं, कदापि नहीं। [ १४४ ] शैला का स्वप्न भंग हो चला! उसने जैसे आंखे खोलकर बंद कमरे में अपने चारों ओर अंधकार ही पाया। वह कम्पित हो उठी। किंतु वाट्सन अचल थे। उनका निर्विकार हृदय शांत और स्मितिपूर्ण था। शैला निरवलम्ब हो गई।

शैला के मन में ग्लानि हुई। वह सोचने लगी—पूणा! हां, वास्तव में मुझसे धृणा करता है। यह कुलीन और मैं दरिद्र बालिका! तिस पर भी एक हिंदू से ब्याह कर चुकी हूं और मेरा पिता जेल-जीवन बिता रहा है। तब! यह इतनी ममता क्यों दिखाता है?

दया! दया ही तो; किंतु इसे मुझ पर दया करने का क्या अधिकार है?

उसने उव्दिग्न होकर कहा-अब उतरना चाहिए।

वाट्सन ने मल्लाह से नाव को तट से लगा देने की आज्ञा दी। दोनों उतर पड़े। दोनों ही चुपचाप पथ पर चल रहे थे।

कुहरा छंट गया था। सूर्य की उज्ज्वल किरणें चारों ओर नाच रही थीं। वह ग्राम का जन-शून्य प्रांत अपनी प्राकृतिक शोभा में अविचल था—ठीक वाट्सन के हृदय की तरह।

घूमते-फिरते वे दोनों बनजरिया में जा पहुंचे। वहां उत्साह और कर्मण्यता थी। सब काम तीव्रगति से चल रहे थे। खेत की टूटी हुई मेड पर मिट्टी चढ़ाई जा रही थी। कहीं पेड़ रोपे जा रहे थे। आवां फूंकने के लिए ईंधन इकट्ठा हो गया था। पाठशाला की खपरैल में से लड़कियों का कोलाहल सुनाई पड़ता था।

शैला रुकी। वाट्सन ने कहा—तो मैं चलता हूं तुम ठहरकर आना। मुझे बहुत-सा काम निबटाना है।

वह चले गए, और वह चुपचाप जाकर तितली के पास एक मोढ़े पर बैठ गई। तितली ने शघ्रिता से पाठ समाप्त कराकर लड़कियों को कुछ लिखने का काम दिया, और शैला का हाथ पकड़कर दूसरी ओर चली। अभी वह भटे के पास पहुंची होगी कि उसे दूर से आते हुए एक मनुष्य को देखकर रुक जाना पड़ा। वह कुछ पहचाना-सा मालूम पड़ता था। शैला भी उसे देखने लगी।

शैला ने कहा—अरे यह तो रामदीन है!

रामदीन ने पास आकर नमस्कार किया। तब जैसे सावधान होकर तितली ने पूछारामदीन, तू जेल से छूट आया?

जेल से छूटकर लोग घर लौट आते हैं, इस विश्वास में आशा और सांत्वना थी। तितली का हृदय भर आया था।

रामदीन ने कहा—मैं तो कलकत्ता से आ रहा हूं। चुनार से तो मैं छोड़ दिया गया था। वहां मैं अपने मन से रहता था। रिफार्मेटरी का कुछ काम करता था। खाने को मिलता था। वहीं पड़ा था। मधुबन बाबू से एक दिन भेंट हो गई। वह कलकत्ता जा रहे थे। उन्हीं के संग चला गया था।

तितली की आखों में जल नहीं आया, और न उसकी वाणी कांपने लगी। उसने पूछा-तो क्या तू भी उनके साथ ही रहा?

हां, मैं वहां रिक्शा खींचता था। फिर मधुबन बाबू के जेल जाने पर भी कुछ दिन रहा। पर बीरू से मेरी पटी नहीं। वह बड़ा ढोंगी और पाजी था। वह बड़ा मतलबी भी था। जब तक हम लोग उसको कमाकर कुछ देते थे, वह दादा की तरह मानता था। पर जब मधुबन [ १४५ ]बाबू न रहे तो वह मुझसे टेढ़ा-सीधा बर्ताव करने लगा। मैं भी छोड़कर चला आया।

तितली को अभी संतोष नहीं हुआ था। उसने पूछा—क्यों रे रामदीन! सुना है तुम लोगों ने वहां पर भी डाका और चोरी का व्यवसाय आरम्भ किया था। क्या यह सच है?

रिक्शा खींचते-खींचते हम लोगों की नस ढीली हो गई। कहां का डाका और कहां की चोरी। अपना-अपना भाग्य है। राह चलते भी कलंक लगता है। नहीं तो मधुबन बाबू ने वहां किया ही क्या। यहां जो कछ हआ हो, उसे तो मैं नहीं जानता। वहां पर तो हम लोग मेहनत-मजूरी करके पेट भरते थे।

तितली ने गर्व से शैला की ओर देखा। शैला ने पूछा—अब क्या करेगा रामदीन? अब, यहीं गांव में रहूंगा। कहीं नौकरी करूंगा।

क्या मेरे यहां रहेगा? शैला ने पूछा।

नहीं मेम साहब! बड़े लोगों के यहां रहने में जो सुख मिलता है, उसे मैं भोग चुका।

अरे दाना रस के लिए दीदी ने पूछा है कि...कहती हुई मलिया पीछे से आकर सहसा चुप हो गई। उसने रामदीन को देखा।

तितली ने स्थिर भाव से कहा—कहती क्यों नहीं? बोल न, क्यों लजाती है। लिए जा, पहले अपने रामदीन को कुछ खिला।

जाओ बहन!—कहकर वह घूम पड़ी।

रामदीन! बनजरिया में बहुत-सा काम है। जो काम तुमसे हो सके करो। चना-चबेना खाकर पड़े रहो। तितली ने कहा।

शैला ने देखा, वह कहीं भी टिकने नहीं पाती है। कुछ लोगों को उसने पराया बना रखा है। और कुछ लोग उसे ही पराया समझते हैं। वह मर्माहत होकर जाने के लिए घूम पड़ी।

तितली ने कहा—बैठो बहन! जल्दी क्या है?

तितली, तुमने भी मुझसे स्नेह का संबंध ढीला कर दिया है! मेरा हृदय चूर हो रहा है। न जाने क्यों, मेरे मन में ऐसी भावना उठती है कि मुझे मैं 'जैसी हूं—उसी रूप में' स्नेह करने के लिए कोई प्रस्तुत नहीं। कुछ-न-कुछ दूसरा आवरण लोग चाहते हैं इंद्रदेव बाबू भी?

उनका समर्पण तो इतना निरीह है कि मैं जैसे बर्फ की-सी शीतलता में चारों ओर से घिर जाती हूं। मैं तुम्हारी तरह का दान कर देना नहीं सीख सकी। मैं जैसे और कुछ उपकरणों से बनी हूं! तुम जिस तरह मधुबन को...

अरे सुनो तो, मेरी बात लेकर तुमने अपना मानसिक स्वास्थ्य खो दिया है क्या? वह तो एक कर्तव्य की प्रेरणा है। तुम भूल गई हो। बापू का उपदेश क्या स्मरण नहीं है? प्रसन्नता से सब कुछ ग्रहण करने का अभ्यास तुमने नहीं किया। मन को वैसा हम लोग अन्य कामों के लिए तो बना लेते हैं; पर कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं जिनमें हम लोग सदैव संशोधन चाहते हैं। जब संस्कार और अनुकरण की आवश्यकता समाज में मान ली गई, तब हम परिस्थिति के अनुसार मानसिक परिवर्तन के लिए क्यों हिचकें मेरा ऐसा विश्वास है कि प्रसन्नता से परिस्थिति को स्वीकार करके जीवन-यात्रा सरल बनाई जा सकती है। बहन! तुम कहीं भूल तो नहीं कर रही हो? तम धर्म के बाहरी आवरण से अपने को ढककर हिंद-स्त्री बन गई हो सही, किंतु उसकी संस्कृति की मूल शिक्षा भूल रही हो। हिंदू-स्त्री का श्रद्धापूर्ण समर्पण [ १४६ ]उसकी साधना का प्राण है। इस मानसिक परिवर्तन को स्वीकार करो। देखो, इंद्रदेव बाबू कैसे देव-प्रकृति के मनुष्य हैं। उस त्याग को तुम अपने प्रेम से और भी उज्ज्वल बना सकती हो।

यही तो मुझे दुःख है। मैं कभी-कभी सोचती हूं कि मुझ वन-विहंगिनी को पिंजड़े में डालने के लिए उनको इतना कष्ट सहना पड़ा। किसी तरह मैं अपने को मुक्त करके उनका भी छुटकारा करा सकती!

तुम अपने जीवन को, स्त्री-जीवन को, और भी जटिल न बनाओ। तुम इंद्रदेव के स्नेह को अपनी ओर से अत्याचार मत बनाओ। मैं मानती हूं कि कभी-कभी हित-चिंता समाज में पति-पत्नी पर, पिता-पुत्र पर, भाई-भाई पर, अपने स्नेहातिरेक को अत्याचार बना डालना है; परंतु उस स्नेह को उसके वास्तविक रूप में ग्रहण कर लेने पर एक प्रकार का सुख-संतोष होता ही है।

तो तुम मधुबन को अब भी प्यार करती हो?

इसका तो कोई प्रश्न नहीं है। बहन शैला! संसार भर उनको चोर, हत्यारा और डाकू कहे; किंतु मैं जानती हूं कि वह ऐसे नहीं हो सकते। इसलिए मैं कभी उससे धृणा नहीं कर सकती। मेरे जीवन का एक-एक कोना उनके लिए, उस स्नेह के लिए, संतुष्ट है। मैं जानती हूं कि वह दूसरी स्त्री को प्यार नहीं करते। कर भी नहीं सकते। कुछ दिनों तक मैना को लेकर जो प्रवाद चारों ओर फैला था, मेरा मन उस पर विश्वास नहीं कर सका। हां, मैं दुःखी । अवश्य थी कि उन्हें क्यों लोग संदेह की दृष्टि से देखते हैं। उतनी-सी दुर्बलता भी मेरे लिए अपकार ही कर गई। उनको मैं आगे बढ़ने से रोक सकती थी। किंतु तुम वैसी भूल न करोगी। इंद्रदेव को भग्नहृदय बनाकर कल्याण के मार्ग को अवरुद्ध न करो। मानव के अंतरतम में कल्याण के देवता का निवास है। उसकी संवर्धना ही उत्तम पजा है। मैं इधर मनोयोगपर्वक पढ़ रही हूं। जितना ही मैं अध्ययन करती हूं उतना ही यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है जो कुछ सुंदर और कल्याणमय है, उसके साथ यदि हम हृदय की समीपता बढ़ाते रहे तो संसार सत्य और पवित्रता की ओर अग्रसर होगा।

तितली का मुंह प्रसन्नता से दमक रहा था।

शैला ने अपने मन का समस्त बल एकत्र करके उससे आदर्श ग्रहण करने का प्रयत्न किया। वह एक क्षण में ही सुंदर स्वप्न देखने लगी, जिसमें आशा की हरियाली थी। अपनी सेवावृत्ति को जागरूक करने की उसने दृढ़ प्रतिज्ञा की। उसने तितली का हाथ पकडकर कहा क्षमा करना बहन! मैं अपराध करने जा रही थी। आज जैसे बाबाजी की आत्मा ने तुम्हारे द्वारा फिर से मेरा उद्धार किया। हम दोनों ने एक ही शिक्षा पाई है सही; परंतु मुझमें कमी है, उसे पूर्ण करना मेरा कर्तव्य है।

उस निर्जन ग्राम-प्रांत में, जब धूप खेल रही थी, दो हृदयों ने अपने सुख-दुःख की गाथा एक-दूसरे को सुनाकर अपने को हल्का बनाया। आंसू भरी आंखें मिलीं और वे दुर्बल —किंतु दृढ़ता से कल्याण-पथ पर बढ़ने वाले हृदय, स्वस्थ होकर, परस्पर मिले। शैला नील-कोठी की ओर चली। उसके मन में नया उत्साह था। नील-कोठी की सीढ़ियों पर वह फुर्ती से चढ़ी जा रही थी। बीच ही में वाट्सन ने उसे रोका और कहा—मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूं। [ १४७ ]उसने अपने भीतर के जेब से एक पत्र निकालकर शैला के हाथ में दिया। उसे पढ़ते-पढ़ते शैला रो उठी। उसने वाट्सन के दोनों हाथ पकड़कर व्यग्रता से पूछा-वाट्सन! सच कहो, मेरे पिता का ही पत्र है, या धोखा है? मैं उनकी हस्तलिपि नहीं पहचानती। जेल से भी कोई पत्र मुझे पहले नहीं मिला था। बोलो, यह क्या है?

शैला! अधीर न हो। वास्तव में तुम्हारे पिता स्मिथ का ही यह पत्र है। मैं छुट्टी लेकर जब इंग्लैण्ड गया था, तब मैं उससे जेल में मिला था।

ओह! यह कितने दुःख की बात है। शैला उब्दिग्न हो उठी थी।

शैला! तुम्हारा पिता अपने अपराधों पर पश्चाताप करता है। वह बहुत सुधर गया है। क्या तुम उसे प्यार न करोगी करूंगी, वाट्सन! वह मेरा पिता है। किंतु, मैं कितनी लज्जित हो रही हूं। और तुम्हारी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए मैं क्या करूं? बोलो!

कुछ नहीं, केवल चंचल मन को शांत करो। पत्र तो मुझे बहुत दिन पहले ही मिल चुका था। किंतु मैं तुमको दिखाने का साहस नहीं करता था। सम्भव है कि तुमको...।

मुझको बुरा लगता! कदापि नहीं। सब कुछ होने पर भी वह पिता है।

वाट्सन!

तो चलो, वह कमरे में बैठे हुए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

ऐं, सच कहना! कहती हुई शैला कमरे में वेग से पहुंची।

एक बुढ़ा, किंतु बलिष्ठ पुरुष, कुर्सी से उठकर खड़ा हुआ। उसकी बांहें आलिंगन के लिए फैल गईं। शैला ने अपने को उसकी गोद में डाल दिया। दोनों भर पेट रोए। फिर बूढ़े ने सिसकते हुए कहा शैला! जेन के अभिशाप का दण्ड मैं आज तक भोगता रहा। क्या बेटी, तू मुझे क्षमा करेगी? मैं चाहता हूं कि तू उसकी प्रतिनिधि बनकर मुझे मेरे पश्चाताप और प्रायश्चित्त में सहायता दे। अब मुझको मेरे जीते-जी मत छोड़ देना।

शैला ने आंसू-भरी आंखो से उसके मुख को देखते हुए कहा—पापा!

वह और कुछ न कह सकी, अपनी विवशता से वह कुढ़ने लगी। इंद्रदेव का बंधन! यदि वह न होता? किंतु यह क्या, मैं अभी तितली से क्या कह आई हूं? तब भी मेरा बूढ़ा पिता! आह! उसके लिए मैं क्या करूं? उसे लेकर मैं...।

उसकी विचार-धारा को रोकते हुए वाट्सन ने कहा-शैला मैंने सब ठीक कर लिया है। तुम अब विवाहित हो चुकी हो, वह भी भारतीय रीति से, तब तुमको अपने पति के अनुकूल रहकर ही चलना चाहिए; और उसके स्वावलम्बपूर्ण जीवन में अपना हाथ बटाओ। नील-कोठी का काम तुम्हारे योग्य नहीं है। मिस्टर स्मिथ यहां पर अपने पिछले थोड़े-से दिन शांति सेवा-कार्य करते हुए बिता लेंगे, और तुमसे दूर भी न रहेंगे। शैला ने अवाक् होकर वाट्सन को देखा। उसका गला भर आया था। उपकार और इतना त्यागपूर्ण स्नेह! वाट्सन मनुष्य है?

हां, वह मनुष्य अपनी मानवता में सम्पूर्ण और प्रसन्न खड़ा मुस्कुरा रहा था। शैला ने कृतज्ञता से उसका हाथ पकड़ लिया। वाट्सन ने फिर कहा—मोटर खड़ी है। जाओ, अपनी मरती हुई सास का आशीर्वाद ले लो। जब तुम लौट आओगी, तब मैं यहां से जाऊंगा। तब तक मैं यहां सब काम इन्हें समझा दूंगा। मिस्टर स्मिथ उसे सरलता से कर लेंगे। चलो कुछ खा-पीकर तुरंत चली जाओ। [ १४८ ]उसी दिन संध्या को इंद्रदेव के साथ शैला, श्यामदुलारी के पलंग के पास खड़ी थी। उसके मस्तक पर कुंकुम का टीका था। वह नववधू की तरह सलज्ज और आशीर्वाद से लदी थी।

श्यामदुलारी का जीवन अधिकार और सम्पत्ति के पैरों से चलता आया था। वह एक विडम्बना था या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। वह मन-ही-मन सोच रही जिस मातापिता के पास स्नेह नहीं होता, वही पत्र के लिए धन का प्रलोभन आवश्यक समझते हैं। किंतु यह भीषण आर्थिक युग है। जब तक संसार में कोई ऐसी निश्चित व्यवस्था नहीं होती कि प्रत्येक व्यक्ति बीमारी में पथ्य और सहायता तथा बुढ़ापे में पेट के लिए भोजन पाता रहेगा, तब तक माता-पिता को भी पुत्र के विरुद्ध अपने लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति की रक्षा करनी होगी।

श्यामदुलारी की इस यात्रा में धन की आवश्यकता नहीं रही। अधिकार के साथ उसे बड़प्पन से दान करने की भी श्लाघा होती है। तब आज उनके मन में त्याग था। वद्धा श्यामदुलारी ने अपने कांपते हाथों से एक कागज शैला को देते हुए कहा—बहू मेरा लड़का बड़ा अभिमानी है। वह मुझे सब कुछ देकर अब मुझसे कुछ लेना नहीं चाहता। किंतु मैं तो तुमको देकर ही जाऊंगी। उसे तुमको लेना ही पड़ेगा। यही मेरा आशीर्वाद है,

लो।

शैला ने बिना इंद्रदेव की ओर देखे उस कागज को ले लिया।

अब श्यामदुलारी ने माधुरी की ओर देखा। उसने एक सुंदर डिब्बा सामने लाकर रख दिया। श्यामदुलारी ने फिर तनिक-सी कड़ी दृष्टि से माधुरी को देखकर कहा—अब इसे मेरे सामने पहना भी दे माधुरी! यह तेरी भाभी है।

मानव-हृदय की मौलिक भावना है स्नेह। कभी-कभी स्वार्थ की ठोकर से पशुत्व की, विरोध की, प्रधानता हो जाती है। परिस्थितियों ने माधरी को विरोध करने के लिए उकसाया था। आज की परिस्थिति कुछ दूसरी थी। श्यामलाल और अनवरी का चरित्र किसी से छिपा नहीं था। वह सब जान-बूझकर भी नहीं आये। तब! माधुरी के लिए संसार में कोई प्राणी स्नेह-पात्र ने रह जाएगा। श्यामदुलारी तो जाती ही हैं। प्रेम-मित्रता की भूखी मानवता। बार-बार अपने को ठगा कर भी वह उसी के लिए झगड़ती है। झगड़ती है, इसलिए प्रेम करती है। वह हृदय को मधुर बनाने के लिए बाध्य हुई। उसने अपने मुंह पर सहज मुस्कान लाते हुए डिब्बे को खोला। उसने मोतियों का हार, हीरों की चूडियां शैला को पहना दीं; और सब गहने उसी में पड़े रहे। शैला ने धीरे-से पहनाने के लिए माधुरी से कहा। माधुरी ने भी धीरे-से उसकी कपोल चूमकर कहा—भाभी!

शैला ने उसे गले से लगा लिया। फिर उसने धीरे-से श्यामदुलारी के पैरों पर सिर रख दिया। श्यामदुलारी ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।

और, इंद्रदेव इस नाटक को विस्मय-विमुग्ध होकर देख रहे थे। उन्हें जैसे चैतन्य हुआ। उन्होंने मां के पैरों पर गिरकर क्षमा-याचना की।

श्यामदुलारी की आँखों में जल पर आया।