तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ ११३ ]

7.

बरना के उत्तरी तट पर, सुंदर वृक्षों से घिरा हुआ एक छोटा-सा बंगला है। वहां पर आसपास में ऐसी बहुत-सी कोठियां हैं जिसमें सरकारी उच्च कर्मचारी रहते हैं। बैरिस्टर, वकील और डॉक्टर-जैसे स्वतंत्र व्यवसायी अपने सुखी परिवार को लेकर नगर से बाहर और अधिकारियों के समीप रहना अधिक पसंद करते हैं। इसी स्थान पर बाबू मुकुंदलाल भी रहते हैं। उनके पास तीन छोटे-बड़े बंगले हैं जिनमें से एक में तो वह स्वयं रहते हैं और बाकी दोनों के किराए से उनकी गृहस्थी का सारा खर्च चलता है। दोनों का भाड़ा 200) मिलता है। परंतु मुकुन्दलाल का तो उतना बाहरी खर्च है। गृहस्थी का आवश्यक व्यय तो कर्ज के बल पर चल रहा है। आज से नहीं, कई बरस से।

नंदरानी चुपचाप अपने बंगले से सटकर बहती हुई बरना की क्षीण धारा को देख रही है। उसके सुंदर मुख पर तृप्ति से भरी हुई निराशा थी। तृप्ति इसलिए कि उसका कोई उपाय न था, और निराशा तो थी ही। उसका भविष्य अंधकारपूर्ण था। संतान कोई नहीं। पति निश्चित भाग्यवादी कुलीन निर्धन, जिसके मस्तिष्क में भूतकाल की विभव-लीला स्वप्नचित्र बनाती रहती है।

कत्थई रंग की ऊनी चादर, जिसे वह कंधों से लपेटे थी, खिसककर गिर रही थी। किंतु वह तल्लीन होकर बरना की अभावमयी धारा को देख रही थी। और उसका समय भी वैसा ही ढक् रहा था; जैसा गोधूलि से मलिन दिन।

दो वृक्षों की ऊंची चोटियां पश्चिम के धुंधले और पीले आकाश की भूमिका पर एक उदास चित्र का अंश बना रही थीं। उसके पैरों के समीप बड़ी मटर और शलजम की छोटी [ ११४ ]सी हरियाली थी, किंतु नंदरानी बरना के ढालुवे करारे पर दृष्टि गड़ाए थी, इंद्रदेव का आना उसे मालूम नहीं हुआ।

इंद्रदेव ने 'भाभी' कहकर उसे चौंका दिया। वह कपड़े को संभालती हुई घूम पड़ी। इंद्रदेव ने कहा—आज मेरे यहां कुछ लोग बाहर के आ गए हैं। उनके लिए थोड़ी-सी मटर चाहिए।

और बनावेगा कौन? वही आपका मिसिर न!–रानी ने मुस्कुराते हुए कहा।

तो फिर दूसरा कौन है?—हताश होकर इन्द्रदेव ने उत्तर दिया।

सुनूं भी, कौन आये हैं? कितने हैं, कैसे हैं?

मिस शैला का नाम तो आपने सुना होगा? -संकोच से इंद्रदेव ने कहा।

ओहो यह तो मुझे मालूम ही नहीं! तब तुम लोगों को आज यहीं ब्यालू करना पड़ेगा। मैं अपने मटर की बदनामी कराने के लिए तुम्हारे मिसिर को उसे जलाने न दूंगी। मिस साहिबा किस समय भोजन करती हैं? अभी तो घंटे भर का समय होगा ही।

इंद्रदेव भीतर के मन से तो यही चाहते थे। पर उन्होंने कहा-उनको यहां....

मैं समझ गई! चलो, तुम्हारे साथ चलकर उन्हें बुला लाती हूं। भला मुझे आज तुम्हारी मिस शैला की...कहकर नंदरानी ने परिहासपर्ण मौन धारण कर लिया।

इंद्रदेव नंदरानी के बहुत आभारी और साथ ही भक्त भी थे। उसकी गरिमा का बोझ इंद्रदेव को सदैव ही नतमस्तक कर देता। गुरुजनोचित स्नेह की आभा से नंदरानी उन्हें आप्लावित किया ही करती।

भाभी-कहकर वह चुप रह गये।

क्यों, क्या मेरे चलने से उसका अपमान होगा। एक दिन तो वही मेरी देवरानी होने वाली है, क्या यह बात मैंने झूठ सुनी है?

वास्तविक बात तो यह थी कि इंद्रदेव शैला के आ जाने से बड़े असमंजस में पड़ गये थे, उनकी भी इच्छा थी कि नंदरानी से उसका परिचय कराकर वह छुट्टी पा जाएं। उन्होंने कहा-वाह भाभी, आप भी...

अच्छा-अच्छा, चलो। मैं सब जानती हूं कहती हुई नंदरानी बगल के बंगले की ओर चली। इंद्रदेव पीछे-पीछे थे।

छोटे-से बंगले के एक सुंदर कमरे के बाहर दालान में आरामकुर्सी पर बैठी हुई शैला तन्मय होकर हिमालय के रमणीय दृश्यवाला चित्र देख रही थी। सहसा इंद्रदेव ने कहामिस शैला मेरी भाभी श्रीमती नंदरानी।

शैला उठ खड़ी हई। उसने सलज्ज मस्कान के साथ नंदरानी को नमस्कार किया।

नंदरानी उसके व्यवहार को देखकर गद्गद हो गई। उसने शैला का हाथ पकड़ कर बैठाते हुए कहा-बैठिए, इतने शिष्टाचार की आवश्यकता नहीं।

नंदरानी और इंद्रदेव दोनों ही कुर्सी खींचकर बैठ गए! तीनों चुप थे। नंदरानी ने कहा-आज आपको मेरा निमंत्रण स्वीकार करना होगा।

देखिए बिना कछ पर्व-परिचय के मेरा ऐसा करना चाहे आपको न अच्छा लगे: किंत मेरा इंद्रदेव पर इतना अधिकार अवश्य है और मैं शघ्रिता में भी हूं। मुझे ही सब प्रबंध [ ११५ ]करना है। इसलिए मैं अभी तो छुट्टी मांग कर जा रही हूं। वहीं पर बातें होगी।

शैला को कहने का अवसर बिना दिए ही वह उठ खड़ी हुई। शैला ने इंद्रदेव की ओर जिज्ञासा-भरी दृष्टि से देखा।

नंदरानी ने हंसकर कहा-इन्हें भी वहीं ब्यालू करना होगा।

शैला ने सिर झुकाकर कहा-जैसी आपकी आज्ञा।

नंदरानी चली गई। शैला अभी कुछ सोच रही थी कि मिसिर ने आकर पूछा-ब्यालू के लिए...।

उसकी बात काटते हुए इंद्रदेव ने कहा-हम लोग आज बड़े बंगले में ब्यालू करेंगे। वहां, घीसू से कह दो कि मेरे बगल वाले कमरे में मेम साहब के लिए पलंग लगा दे।

मिसिर के जाने पर शैला ने कहा-मैं तो कोठी पर चली जाऊंगी। यहां झंझट बढ़ाने से क्या काम है। मुझे तो यहां आए दो सप्ताह से अधिक हो गया। वहां तो मुझे कोई असुविधा नहीं है।

इंद्रदेव ने सिर झुका लिया। क्षोभ से उनका हृदय भर उठा। वह कुछ कड़ा उत्तर देना चाहते थे। परंतु संभलकर कहा-हां शैला तुमको मेरी असुविधा का बहुत ध्यान रहता है। तुमने ठीक ही समझा है कि यहां ठहरने में दोनों को कष्ट होगा।

किंतु यह व्यंग्य शैला के लिए अधिक हो गया। इंद्रदेव को वह मना लेने आई थी। वह इसी शहर में रहने पर भी आज कितने दिनों पर उनसे भेंट करने आई, इस बात का क्या इंद्रदेव को दुख न होगा? आने पर भी वह यहां रहना नहीं चाहती। इंद्रदेव ने अपने मन में यही समझा होगा कि वह अपने सुख को देखती है। शैला ने हाथ जोड़कर कहा-क्षमा करो इंद्रदेव! मैंने भूल की है।

भूल क्या? मैं तो कुछ न समझ सका।

मैंने अपराध किया है। मुझे सीधे यहीं आना चाहिए था। किंतु क्या करूं, रानी साहिबा ने मुझे वहीं रोक लिया। उन्होंने बीबी-रानी के नाम अपनी जमींदारी लिख दी है। उसी के लिखाने-पढ़ाने में लगी रही। और मैंने उसके लिए आकर तुम्हारी सम्मति नहीं ली, ऐसा मुझे न करना चाहिए था।

मैं तो समझता हूं कि तुमने कुछ मूल नहीं की। मुझे उसके संबंध में कुछ कहना नहीं था। हां, यह बात दूसरी है कि तुम यहां क्यों नहीं आ पायी। उसे लिखाते-पढ़ाते रहने पर भी तुम एक बार यहां आ सकती थीं। किंतु तुमने सोचा होगा कि इंद्रदेव स्वयं अपने लिए तंग होगा, मैं वहां चलकर उसे और भी कष्ट दूंगी। यही न? तो ठीक तो है। अभी मेरी बैरिस्टरी अच्छी तरह नहीं चलती, तो भी इन कई महीनों में सादगी से जीवन-निर्वाह करने के लिए मैं रुपये जुटा लेता हूं। मुझे सम्पत्ति की आवश्यकता नहीं शैला!

शैला ने देखा, इंद्रदेव के मुंह पर दृढ़ उदासीनता है। वह मन-ही-मन कांप उठी। उसने सोचा कि इंद्रदेव को आर्थिक हानि पहुंचाने में मेरा भी हाथ है। वह कुछ कहना ही चाहती थी कि इंद्रदेव बीच में ही उसे रोककर कहने लगे-मैं संकुचित हो रहा था। मुझे यह कहकर मां का जी दुखाने में भय होता था कि-मैं संपत्ति और जमींदारी से कुछ संसर्ग न रखूगा। अच्छा हुआ कि उन्हीं लोगों ने इसका आरम्भ किया है। तुमको अब यहां कुछ दिनों तक और ठहरना होगा; क्योंकि नियमपूर्वक लिखा-पढ़ी करके मैं समस्त अधिकार और अपनी [ ११६ ]सम्पत्ति मां को दे देना चाहता हूं। मेरे परम आदर की वस्तु 'मां का स्नेह' जिसे पाकर खोया जा सके, वह सम्पत्ति मुझे न चाहिए। और मैं उसे लेकर भी क्या करूंगा? अधिक धन तो पारस्परिक बंधन में रहने वाले को...

शैला चौंककर बोल उठी-तो क्या तुम संन्यासी होना चाहते हो? इंद्रदेव! अंत में यह कलंक भी क्या मुझको मिलेगा।

इंद्रदेव इस अप्रिय प्रसंग से ऊब उठे थे। इसे बंद करने के लिए कहा-अच्छा, इस पर फिर बातें होगी। अभी तो चलो, वह देखो, भाभी का नौकर बुलाने के लिए आ रहा होगा। आओ, कपड़ा बदलना हो तो बदलकर झटपट तैयार हो लो।

शैला हंस पड़ी। उसने पूछा-तो क्या यहां किसी की साड़ियां भी मिल जाएंगी? मुझे तो तुम्हारी गृहस्थ-बुद्धि पर इतना भरोसा नहीं!

इंद्रदेव लज्जित-से खीझ उठे। शैला हाथ-मुंह धोने के लिए चली गई। इंद्रदेव क्रमश: उस घने होते हुए अंधकार में निश्चेष्ट बैठे रहे। शैला भी आकर पास ही कुर्सी पर बैठकर तितली की छोटी-सी सुंदर गृहस्थी का काल्पनिक चित्र खींच रही थी। दासी लालटेन लेकर शैला को बुलाने के लिए ही आई।

इंद्रदेव ने कहा-चलो शैला!

दोनों चुपचाप नंदरानी के बंगले में पहुंचे। दालान में कम्बल बिछा था। मुकुंदलाल कम्बल के एक सिरे पर बैठे हुए छोटी-सी सितारी पर ईमन का मधुर राग छेड़ रहे थे। दमचूल्हे पर मटर हो रही थी। उसके नीचे लाल-लाल अंगारों का आलोक फैल रहा था। लालटेन आड़ में कर दी गई थी, बाबू मुकुंदलाल को उसका प्रकाश अच्छा नहीं लगता था।

नंदरानी उस क्षीण आलोक में थाली सजा रही थी। सरूप निःशब्द काम करने में चतुर था। वह नंदरानी के संकेत से सब आवश्यक वस्तु भण्डार में से लाकर जुटा रहा था।

शैला और इंद्रदेव को देखते ही मुकुंदलाल ने सितारी रखकर उनका स्वागत किया। शैला ने नमस्कार किया। सब लोग कम्बल पर बैठे। नंदरानी ने थाली लाकर रख दी। इंद्रदेव ने शैला का परिचय देते हुए यह भी कहा कि-आप हिंदू-धर्म में दीक्षित हो चुकी हैं। आपने धामपर में गांव के किसानों की सेवा करना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है।

नंदरानी विस्मित होकर शैला के मौन गौरव को देख रही थी। किंत मकंदलाल का ललाट, रेखा-रहित और उज्ज्वल बना रहा। जैसे उनके लिए यह कोई विशेष ध्यान देने की बात न थी। उन्होंने मटर का एक पूरा ग्रास गले से उतारते हुए कहा-भाई इंद्रदेव, तुम जो कह रहे हो, उसे सुनकर मिस शैला की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। यह भी एक तरह का संन्यास-धर्म है। किंतु मैं तो गृहस्थ नारी की मंगलमयी कृति का भक्त हूं। वह इस साधारण संन्यास से भी दुष्कर और दम्भ-विहीन उपासना है।

नंदरानी ने कुछ सजग होकर अपने पति की वह बात सुनी। उसके अधर कुछ खिल उठे। उसने कहा-इंद्रदेव जी, और क्या दूं?

मुकुंदलाल ने थोड़ा-सा हंसकर कहा-अपनी-सी एक सुंदर सह-धर्मिणी। शैला के कर्णमूल लाल हो उठे। और इंद्रदेव ने बात टालते हुए कहा-मैं समझता हूं कि भाभी जानती होगी कि इस अपने पेट के लिए जुटाने वाले मनुष्य को, उनकी-स्त्री की आवश्यकता नहीं हो सकती। [ ११७ ] शैला और भी कटी जा रही थी। उसको इंद्रदेव की सब बातें निराश हृदय की संतोषभरी सांस-सी मालूम होती थीं। वह देख रही थी नंदरानी को और तुलना कर रही थी तितली से। एक की भरी-पूरी गृहस्थी थी और दूसरी अभाव से अकिंचन; तिस पर भी दोनों परिवार सुखी और वास्तविक जीवन व्यतीत कर रहे थे।

नंदरानी ने कहा-इतना पेटू हो जाना भी अच्छा नहीं होता इंद्रदेव! अपना ही स्वार्थ न देखना चाहिए!

कहां भाभी! मैंने तो अभी कुछ भी नहीं खाया। अभी मिठाइयां तो बाकी ही हैं। तिस पर भी मैं पेटू कहा जाऊं? आश्चर्य!

अरे राम! मैं खाने के लिए थोड़े ही कह रही हूं। अभी तो तुमने कुछ खाया ही नहीं! मेरा तात्पर्य था तुम्हारे ब्याह से।

ओहो तो मैं देखता हूं कि कोई मूर्ख कुमारी मुझसे ब्याह करने की भीख मांगने के लिए तुम्हारे पास पल्ला पसार कर आई थी न! उसको समझा दो भाभी! मैं तो उसके लिए कुछ न कर सकूँगा।

नंदरानी हंसने लगी। शैला से उसने पूछा-क्यों, आप तो कुछ? जी नहीं; मुझे कुछ न चाहिए! कहकर शैला ने उसकी ओर दीनता से देखा।

मुकुंदलाल ने इंद्रदेव से कहा-तुम ठीक कहते हो इंद्रदेव, मैं भूल कर रहा था। स्त्री के लिए पर्याप्त रुपया या सम्पत्ति की आवश्यकता है! पुरुष उसे घर में लाकर जब डाल देता है तब उसकी निज की आवश्यकताओं पर बहुत कम ध्यान देता है। इसलिए मेरा भी अब यही मत हो गया है कि स्त्री के लिए सुरक्षित धन की व्यवस्था होनी चाहिए! नहीं तो तुम्हारी भाभी की तरह वह स्त्री अपने पति को दिन-रात चुपचाप कोसती रहेगी।

नंदरानी अप्रतिभ-सी होकर बोली-यह लो, अब मुझी पर बरस पड़े।

मुकुंदलाल ने और भी गंभीर होकर कहा-अच्छा इंद्रदेव! तुमसे एक बात कहूं? मिस शैला के सामने भी वह बात करने में मुझे संकोच नहीं। यह तो तुम जानते हो कि मैं धीरेधीरे ऋण में डूब रहा हूं। और जीवन के भोग के प्याले को, उसका सुख बढ़ाने के लिए, बहुत धीरे-धीरे दस-बीस बूंद का चूंट लेकर खाली कर रहा हूं। होगा सो तो होकर ही रहेगा। किंतु तुम्हारी भाभी क्या कहेगी। मैं चाहता हूं कि ये दोनों छोटे बंगले मैं नंदरानी के नाम लिख दूं। और फिर एक बार विस्मृति की लहर में धीरे-धीरे डूडू और उतराऊं।

नंदरानी की आखों से दो बूंद औसू टपक पड़े। न जाने कितनी अमंगल और मगंल की कोमल भावनाएं संसार के कोने-कोने से खिलखिला पड़ी। उसने मुकुंदलाल का प्रतिवाद करना चाहा; परंतु नारी-जीवन का कैसा गूढ़ रहस्य है कि वह स्पष्ट विरोध न कर सकी। इतने में इंद्रदेव ने कहा-भाई साहब मुझे एक रजिस्ट्री करानी है! मैं अपनी समस्त सम्पत्ति मां के नाम लिख देना चाहता हूं। क्योंकि...

शैला ने तौलिए से हाथ पोंछते हुए इंद्रदेव की ओर देखा। उसने अभी-अभी इंद्रदेव के अभावों का दृश्य देखा है। उसने सम्पत्ति से और उसकी आशा से भी वंचित होने की मन में ठानी है।

मुकुंदलाल ने कहा-हां, हां, कहो क्योंकि स्त्रियों को ही धन की आवश्यकता है। और संभवत: वे ही इसकी रक्षा भी कर सकती हैं। तो फिर ठीक रहा। कल ही इसका प्रबंध कर [ ११८ ]दो।

सब लोग हाथ-मुंह धोकर अपनी कुर्सियों पर आराम से बैठे ही थे कि सरूप ने आकर कहा-बैरिस्टर साहब से मिलने के लिए एक स्त्री आई है। उसका कोई मुकद्दमा है।

सब लोग चुप रहे। शैला सोच रही थी कि क्या स्त्रियां सचमुच धन की लोलुप हैं। फिर उसने स्वयं ही उत्तर दिया-नहीं, समाज का संगठन ही ऐसा है कि प्रत्येक प्राणी को धन की आवश्यकता है। इधर स्त्री को स्वावलम्बन से जब पुरुष लोग हटाकर, उसके भाव और अभाव का दावित्व अपने हाथ में ले लेते हैं, तब धन को छोड़कर दूसरा उनका क्या सहारा है?

इतने में सरूप गरम कमरे में चाय की प्याली सजाने लगा। नंदरानी भोजन करने बैठी। उससे खाया न गया।

दालान में परदे गिरा दिए गये थे। ठंडी हवा चलने लगी थी। किंतु नंदरानी झटपट हाथ-मुंह धोकर पान मुख में रखकर वहीं एक आरामकुर्सी पर अपनी ऊनी चादर में लिपटी हुई पड़ी रही; उसके मन में संकल्प-विकल्प चल रहा था। आज तक का त्याग, कुछ मूल्य पर बिकने जा रहा है। उसका मन यह मूल्य लेने से विद्रोह कर रहा था। तब भी जीवन के कितने निराशा भरे दिन काटने होंगे। ज्योतिषी ने कह दिया है कि बाबू मुकुंदलाल अब अधिक दिन जीने के नहीं हैं-उनका भीतरी शरीर भग्न पोत की तरह काल-समुद्र में धीरे-धीरे धंसता जा रहा है, फिर भी, उस ऊर्जस्वित आत्मा का सेतु अभी डुबा देने वाले जल के ऊपर ही है। उनकी अवस्था पचास वर्ष की और नंदरानी की चालीस की है। किंतु संसार जैसे उनके सामने अंतिम घड़ियां गिन रहा है। गृहस्थ जीवन के मंगलमय भविष्य में उनका विश्वास नहीं। उसमें रहते हुए भी पुराना संस्कार, उन्हें थके हुए घोड़े के लिए टूटा हुआ छकड़ा बन रहा है, वह जैसे उसे घसीट रहे हैं।

किंतु मुकुंदलाल के लिए यह अवस्था तभी होती है जब वह नंदरानी को अपने जीवन के साथ मिलाकर देखते हैं। फिर जैसे अपने स्थान को लौटकर सितारी, मित्र वर्ग और उनके आतिथ्य-सत्कार में लग जाते हैं।

नंदरानी खिन्न होकर सो गई। उसने नहीं जाना कि कब शैला और इंद्रदेव दूसरी ओर चले गए।

मुकुंदलाल ने सोने के कमरे में जाते हुए देखा कि नंदरानी अभी वहीं पड़ी है। वह एक क्षण तक चुपचाप खड़े रहे। फिर दासी को बुलाकर धीरे-से कहा-कुछ और ओढा दो। न जागे तो यहां आग भी सुलगा दो। देखो, परदे ठीक से बांध देना। यहां गरम रहे, तुम्हारी मालकिन थक गई हैं।-फिर सोने चले गए।

दूसरे दिन, बरकतअली ने स्टाम्प इंद्रदेव के पास भेज दिया और बाहर मिलने की आशा में बैठा रहा। जब बारह बजने लगा तब घबरा कर कोठी के बाहर निकल आया और आम के पेड़ के नीचे बैठी हुई एक स्त्री से उसने कहा-मां जी! आज बैरिस्टर साहब एक काम में फंसे हुए हैं। आप जाइए, कल आपका काम हो जाएगा।

वह सिर झुकाए हुए बोली-कल कब आऊं?

आठ बजे।

तब मैं जाती हूं-कहकर स्त्री धीरे-से उठी और बंगले के बाहर हो गई। [ ११९ ] अभी वह थोड़ी दूर सड़क पर पहुंची होगी कि उसी फाटक से एक मोटर उसके पीछे से निकली। उसका शब्द सुनकर, मोटर की ओर देखती हुई, वह एक ओर हटी और उसने पहचान लिया इंद्रदेव और शैला। उसने साहस से पुकारा-बहन शैला।

किंतु शैला ने सुना नहीं। इंद्रदेव मोटर चला रहे थे। वह करुण पुकार दोनों के कान में नहीं पड़ी।

वह स्त्री धीरे-धीरे फाटक में लौट आई, और आम के नीचे जाकर बैठ रही।

शैला जब रजिस्ट्री पर गवाही करके इंद्रदेव के साथ उस बंगले पर लौटी, तो उसे न जाने क्यों मानसिक ग्लानि होने लगी। वह हाथ-मुंह पोंछकर बगीचे में घूमने के लिए चली। एक छोटा-सा चमेली का कुञ्ज था। उसमें फूल नहीं थे। पत्तियां भी विरल हो चली थीं; वह रूखी-रूखी लता, लोहे के मोटे तारों से लिपट गई थी; तीव्र धूप में चाहे उसे कितना ही जलाता हो, फिर भी उसके लिए वही अवलम्ब था। किरणें उसमें प्रवेश करके उसे हंसाने का उद्योग कर रही थीं। शैला उस निस्सहाय अवस्था को तल्लीन होकर देख रही थी।

सहसा तितली ने उसके सामने आकर पुकारा-बहन! मैं कब से तुमको खोज रही हूं। तुमको देखा और पुकारा भी; पर तुमने न सुना। सच है, संसार में सब मुंह मोड़ लेते हैं! विपत्ति में किससे आशा की जाए।

शैला ने घूमकर देखा। यह वही तितली है? कई पखवारों में ही वह कितनी दुर्बल और रक्त-शून्य हो गई है। औखें जैसे निराशा-नदी के उद्गम-सी बन गई हैं। बाहरी रूप-रेखा जैसे शून्य में विलीन होने वाले इंद्रधनुष-सी अपना वर्ण खो रही है। उसे अभी अपने मानसिक विप्लव से छुट्टी नहीं मिली थी। फिर भी उसने संभलते हुए पूछा-तितली! क्या हुआ है बहन! तुम यहां कैसे!

बडे दुःख में पड़कर मैं यहां आई हूं बहन! मैं लुट गई -तितली की रूखी आखों से औसू निकल पड़े।

क्यों मधुबन कहां है। सुनते ही शैला ने पूछा।

पता नहीं। उस दिन गांव में लाठी चली। रामजस को लोग मारने लगे। उन्होंने जाकर रामजस को बचाया, जिसमें छावनी के कई नौकर घायल हो गए। पुलिस की तहकीकात में सब लोगों ने उन्हीं के विरुद्ध गवाही दी। थानेदार ने रुपया मांगा। और मुकद्दमे के लिए भी रुपये की आवश्यकता थी। महंतजी के पास उन्होंने राजो को भेजा। राजो कहती थी कि महंत ने उसके साथ अनुचित व्यवहार करना चाहा। इस पर वहीं छिपे हुए उन्होंने महंत का गला घोंट दिया। राजो तो चली आई। पर उनका पता नहीं!

यहां तक! और जब लड़ाई हुई। तब तुमने मुझे क्यों नहीं कहला भेजा? शैला ने पूछा।

परंतु तितली चुप रही। मैना के संबंध की बात, अपनी उदासी और राजो की सब कथा कहने के लिए जैसे उसके हृदय में साहस नहीं था।

तब क्या किया जाए? उनका पता कैसे लगेगा बहन! इधर शेरकोट पर बेदखली हो गई है। और बनजरिया पर भी डिग्री हुई है, कोई रुपया देता नहीं। मुकदमा कैसे लड़ा जाए? मुझे कोई सहायता नहीं देना चाहता। मैं तो सब ओर से गई। यहां कई वकीलों के पास गई। वे कहते हैं, पहले रुपया ले आओ, तब तुम्हारी बात सुनेंगे। फिर एक सज्जन ने [ १२० ]बताया कि यहीं कहीं मिस्टर देवा नाम के एक सज्जन बैरिस्टर रहते हैं। वे प्राय: दीनदुखियों के मुकदमे बिना कुछ लिये लड़ देते हैं। मैं उन्हीं को खोजती हुई यहां तक पहुंची।

शैला घबरा गई। वह अभी तो इंद्रदेव के सर्वस्व-त्याग करने का दृश्य देखकर आई थी। उसके मन में रह-रहकर यही भावना हो रही थी, कि यदि मैं इंद्रदेव को थोड़ा-सा भी विश्वास दिला सकती, तो उनके हृदय में यह भीषण विराग न उत्पन्न होता। वह फिर अपने को ही इंद्रदेव की सांसारिक असफलता मानती हुई मन-ही-मन कोस रही थी कि तितली का यह दुख से दग्ध संसार उसके सामने अनुनय की भीख मांगने के लिए खड़ा था। वह किस मुंह से इंद्रदेव से उसकी सहायता के लिए कहे। यदि नहीं कहती है तो अपनी सब दुर्बलताएं तितली से स्वीकार करनी होंगी। जिसको हम प्यार करते हैं, जिसके ऊपर अभिमान करने का ढोंग कई बार संसार में प्रचलित कर चुके हैं, उसके लिए यह कहना कि 'वह मझसे अप्रसन्न है. मैं नहीं...' कितनी छोटी बात है! वह कैसे निराश करती। उसने तितली से कहा-अच्छा, ठहरो। मैं आज इसका कोई उपाय करूंगी तितली! क्या यह जानती हो कि यह मिस्टर देवा कोई दूसरे नहीं, तुम्हारे जमींदार इंद्रदेव ही हैं।

तितली सन्न हो गई। उसने चारों ओर निराशा के सिंधु को लहराते हुए देखा। वह रो पड़ी और बोली-बहन! तब मुझे छुट्टी दो। मैं जाऊं, कहीं दूसरी शरण खोजूं!

प्यार से उसकी पीठ थपथपाते हुए शैला ने कहा-नहीं, तुम दूसरी जगह न जाओ, मैं आज अपनी ही परीक्षा लूंगी। तुमको यह नहीं मालूम कि आज ही उन्होंने अपनी जमींदारी का सर्वस्व त्याग दिया है।

क्या कहती हो बहन!

हां तितली! इंद्रदेव ने अपने ऐश्वर्य का आवरण दूर फेंक दिया है। वह भी आज हमीं लोगों के-से श्रमजीवी-मात्र हैं। मझे तम्हारे लिए बहत-कुछ करना होगा। गांव का सुधार करने मैं गई थी। क्या एक कुटुंब की भी रक्षा न कर सकूगी? चलो तुम मेरे कमरे

में नहा-धोकर स्वस्थ हो जाओ। मैं इंद्रदेव से पूछकर तुमको बुलाती हूं।

इतना कहकर शैला ने तितली का हाथ पकड़कर उठाया और अपनी कोठरी में ले गई।

उधर इंद्रदेव चाय की टेबल पर बैठे हुए शैला की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनका हृदय हल्का हो रहा था। त्याग का अभिमान उनके मुंह पर झलक रहा था और उसमें छिपा था एक व्यंग्य भरा रूठने का प्रसंग। शैला भी क्या सोचेगी। मन में मनुष्य अपने त्याग से जब प्रेम को आभारी बनाता है तब उसका रिक्त कोश बरसे हुए बादलों पर पश्चिम के सूर्य के रत्नालोक के समान चमक उठता है। इंद्रदेव को आज आत्मविश्वास था और उसमें प्रगाढ़ प्रसन्नता थी।

शैला आई और धीरे-से एक कुर्सी खींचकर बैठ गई। दोनों ने चुपचाप चाय की प्याली खाली कर दी। फिर भी चुप! दोनों किसी प्रसंग की प्रतीक्षा में थे।

परंतु इंद्रदेव का हृदय तो स्पष्ट हो रहा था। उन्होंने चुप रहने की आवश्यकता न समझकर सीधा प्रश्न किया-तो मैं समझता हूं कि, कल तुम धामपुर जाओगी आज तो यहीं कोठी पर रुकना पड़ेगा क्योंकि मैंने तुम्हारा अधूरा काम पूरा कर दिया है। उसे तो जाकर मां से कहोगी ही! फिर समय कहां मिलेगा। कल सवेरे जाओगी। एं!

शैला मेज के फूलदार कपड़े पर छपे हुए गुलाब की पंखुड़ियां नोच रही थी? सिर [ १२१ ]नीचा था और औखें डबडबा रही थीं। वह क्या बोले?

इंद्रदेव ने फिर कहा—तो आज यहीं रहना होगा!

क्या तुम चाहते हो कि मैं अभी चली जाऊं?—बड़े दुःख से शैला ने उत्तर दिया।

यह लो, मैं पूछ रहा हूं। नहीं-नहीं-मैं तो तुम्हारी ही बात कर रहा हूं। तुम तो उसी दिन चली जा रही थीं। मैंने देखा कि तुम अपना काम अधूरा ही छोड़कर चली जा रही हो, इसीलिए रोक लिया था। अब तो मैं समझता हूं कि तुम अपने ग्राम-सुधार की योजना अच्छी तरह चला लोगी। मां को समझा देना कि जब इंद्रदेव को ही अपने लिए सम्पत्ति की आवश्यकता नहीं रही, तब उन्हें चाहिए कि यह संचित सम्पत्ति अधिक-से-अधिक दीनदुःखियों के उपकार में लगाकर पुण्य और यश की भागी बनें।

तो, तुम अब भी गांव के सुधार में विश्वास रखते हो?

मेरे इस त्याग में इस विचार का भी एक अंश है शैला कि जब तक उस एकाधिपत्य से मैं अपने को मुक्त नहीं कर लेता, मेरी ममता उसके चारों ओर प्रेम की छाया की तरह घूमा करती। अब मेरा स्वार्थ उससे नहीं रहा। मैं तो समझता हूं कि गांवों का सुधार होना चाहिए। कुछ पढ़े-लिखे सम्पन्न और स्वस्थ लोगों को नागरिकता के प्रलोभनों को छोड़कर देश के गांव में बिखर जाना चाहिए। उनके सरल जीवन में-जो नागरिकों के संसर्ग से विषाक्त हो रहा है।-विश्वास, प्रकाश और आनन्द का प्रचार करना चाहिए। उनके छोटेछोटे उत्सवों में वास्तविकता, उनकी खेती में संपन्नता और चरित्र में सुरुचि उत्पन्न करके उनके दारिद्र और अभाव को दूर करने की चेष्टा होनी चाहिए। इसके लिए सम्पत्तिशालियों को स्वार्थ-त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है।

किंतु अधिकार रखते हए तो उसे तुम और भी अच्छी तरह कर सकते थे। शक्ति केन्द्र यदि अधिकारों के संचय का सदुपयोग करता रहे, तो नियंत्रण भली-भांति चल सकता है, नहीं तो अव्यवस्था उत्पन्न होगी। तुम्हारे इस त्याग का अच्छा ही फल होगा, इसका क्या प्रमाण है? मैं तो समझती हूं कि तुमने किसी झोंक में आकर यह कर डाला।

शैला की यह बात सुनकर इंद्रदेव हंसने लगे। उसी हंसी में अवहेलना भरी थी। फिर उन्होंने कहा-संसार के अच्छे-से-अच्छे नियम और सिद्धांत बनते और बिगड़ते रहेंगे। मैं सबको प्रसन्न और संतुष्ट रखने के लिए अपने-आपको जकड़कर रखना नहीं चाहता। जो होना है वह हो ले। मैंने जो अच्छा समझा, वही किया। अच्छा, तो अब अपनी कहो। क्या निश्चय हुआ?

मैं कल जाना चाहती थी। पर अब तो कुछ दिनों के लिए रुकना पड़ा।

क्यों-कोई आवश्यक काम आ पड़ा क्या?

हां, पहले मैं तुम्हारे त्याग की ही परीक्षा करूंगी, फिर दूसरों के किवाड़ खटखटाऊंगी।

शैला सुनूं भी। मुझे क्या परीक्षा देनी है?

तितली बड़ी विपत्ति में पड़कर सहायता के लिए आई है। उसका शेरकोट बेदखल हो रहा है। बनजरिया पर भी लगान की डिग्री हो गई है। उधर आपके तहसीलदार ने एक फौजदारी करवा दी है, जिसमें मधुबन पर पुलिस ने वारण्ट निकलवाया है। और भी, बिहारीजी के महंत ने डाके का मुकदमा भी उस पर चलाया है। मधुबन का पता नहीं। तितली का कोई सहायक नहीं। उसके ब्याह के बाद ही गांव वालों का एक विरोधी-दल इन [ १२२ ]लोगों के विनाश का उपाय सोच रहा था। हम लोगों के हटते ही यह सब हो गया। क्या उसको तुम कानूनी सहायता दे सकोगे?

एक सांस में यह सब कहकर शैला उत्सुकता से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी। इंद्रदेव चुप रहे। फिर धीरे-धीरे उन्होंने कहा-मैं अब उस गांव के संबंध में कुछ करना नहीं चाहता! शैला! तुम जानती ही हो इसका क्या फल होगा?

मैं सब जानती हूं। पर तुम अभी कह रहे थे कि मैं जाकर वहां सुधार का काम अधिक वेग से आरम्भ करूं। यदि मेरे कुछ समर्थकों का इस तरह दमन हो जाएगा, तो मैं क्या कर सकूँगी? अभी तो चकबंदी के लिए कितने झगड़े उठाए जाएंगे। तो मैं समझ लूं कि तुम मुझे कानूनी सहायता भी न दोगे!

मैं तो श्रमजीवी हूं शैला मुझे जो भी फीस देगा, उसी का काम करने के लिए मुझे परिश्रम करना पड़ेगा।

तुमको फीस चाहिए! क्या कहते हो इंद्रदेव! इसीलिए तितली की सहायता करने में तुम आनाकानी कर रहे हो न? शैला की वाणी में वेदना थी।

अपनी जीविका के लिए मैं अब दूसरा कोई काम खोज लूं। फिर और लोगों का काम बिना कुछ लिये ही कर दिया करूंगा। तब तक के लिए क्या तुम क्षमा नहीं कर सकती हो? -इंद्रदेव की मुक्तिमयी निश्चित अवस्था व्यंग्य कर उठी।

शैला के हृदय में जो आदोलन हो रहा था उसे और भी उद्वेलित करते हुए इंद्रदेव ने फिर कहा-और यह पाठ भी तो तुम्हीं से मैंने पढ़ा है। उस दिन, तुमने जब मेरा प्रस्ताव अस्वीकार करते हए कहा था कि 'काम किए बिना रहना मेरे लिए असंभव है, अपनी रियासत में मुझे एक नौकरी और रहने की जगह देकर बोझ से तुम इस समय के लिए छुट्टी पा जाओ,' तब तुम्हराि जो आज्ञा थी, वही तो मैंने किया। अपने इस त्यागपत्र में नील-कोठी को सर्वसाधारण कामों-अर्थात् औषधालय, पाठशाला और हो सके तो ग्रामसुधार संबंधी अन्य कार्यालय के लिए, दान करते हुए मैंने एक निधि उसमें लगा दी है; जिसका निरीक्षण तुमको ही आजीवन करना होगा। उसके लिए तुम्हारा वेतन भी नियत है। इसके अतिरिक्त...।

ठहरो इंद्रदेव! क्या तुम मुझे बंदी बनाना चाहते हो? मैं यदि अब वह काम न करूं तो? -बीच ही में रोककर शैला ने पूछा।

नहीं क्यों? तुमने मुझे जो प्रेरणा दी है, वही करके भी मैं क्या भूल कर गया? और तमने तो उस दिन दीक्षा लेते हए कहा था कि 'तुम्हारे और समीप होने का प्रयत्न हूं' तो क्या यह सब करके भी मैं तुम्हारे समीप होने नहीं पाऊंगा?

क्यों नहीं? -कहते हुए सहसा नंदरानी ने उसी कमरे में प्रवेश किया।

शैला और इंद्रदेव दोनों ही जैसे एक आश्चर्यजनक स्वप्न देखकर ही चौंक उठे। फिर नंदरानी ने हंसते हुए कहा-मिस शैला, आप मुझे क्षमा करेंगी। मैं अनधिकार प्रवेश कर आई हूं। इंद्रदेव से क्षमा मांगने की तो मैं आवश्यकता नहीं समझती।

इंद्रदेव जैसे प्रकृतिस्थ होकर बोले-बैठिए भाभी! आप भी क्या कहती हैं!

शैला ने लज्जा से अब अवसर पाकर नंदरानी को नमस्कार किया। नंदरानी ने हंसकर [ १२३ ]कहा-तो मैं तुम दोनों को ही आशीर्वाद देती हूं यह जोड़ी सदा प्रसन्न रहे।

अभिमान से भरा हुआ शैला का हृदय अपने को ही टटोल रहा था-क्या मेरे समीप आने के लिए ही इंद्रदेव का वह त्याग है? -यह प्रश्न भीतर-भीतर स्वयं उत्तर बन गया।

शैला ने नंदरानी की प्रसन्न आकृति में विनोद की मात्रा देखी, वह क्षण-भर के लिए अपने को वास्तविक जगत में देख सकी। उसने एक सांस में निश्चय किया कि 'हां' कह दूं। किंतु अब प्रस्ताव करने में कौन आगे बड़े? वह लज्जा और आनन्द से मुस्कुरा उठी।

नंदरानी ने भाव पहचानते ही कहा-मिस शैला जब तुम इंद्रदेव को बहुत दूर तक अपने पथ पर खींच लाई हो, तब यूं अकेले छोड़ देना क्या कायरता नहीं? बोलो, मैं किसी दिन अपने इष्ट-मित्रों को निमंत्रित करूं? मुझे इंद्रदेव का ब्याह करने का अधिकार है। मैं उनकी कुटुम्बिनी हूं। अब मुझे केवल तुम्हारी स्वीकृति चाहिए।

शैला का सिर नीचे झका हआ था। उसकी छटी उठाकर नंदरानी ने कहा-अब बहाना करने से काम नहीं चलेगा। कहो 'हां' बस मैं कर लूंगी।

बहन! मैं स्वीकार करती हूं। परंतु इधर मेरे मन की जो दशा है, वह जब तक तितली का कुछ उपाय...।

चुप भी रहो तितली; बुलबुल, कोयल, सभी का स्वागत होगा। पहले वसंत का उत्सव तो होने दो। मैं तितली को अपने पास रखूगी और इंद्रदेव को उसकी सहायता करनी होगी।

शैला को चुप देखकर फिर नंदरानी ने कहा। इंद्रदेव! तुम बोलते क्यों नहीं? क्या मैं तुम्हारी वकालत करूं और तुम बुद्ध बैरिस्टर बनकर बैठे रहो?

इंद्रदेव हंसकर बोले-भाभी! संसार में कई तरह के न्यायालय होते हैं। आज जिस न्यायालय में खड़ा हूं वहां आप जैसे वकीलों का ही अधिकार है।

तो फिर मैं तुम्हारी ओर से स्वीकृति देती हूं। कल अच्छा दिन है। यहीं मेरे बंगले में यह परिणय होगा। इंद्रदेव, तुम्हारा महत्त्वपूर्ण आडम्बर हट गया है, तब तुम अपने मनुष्य के रूप में वास्तविक स्वतंत्रता का सुख लो। केवल स्त्री और पुरुष ही का संयोग जटिलताओं से नहीं भरा है। संसार के जितने संबंध-विनिमय हैं, उनमें निर्वाह की समस्या कठिन है। तुम जानते हो कि मैंने उसका त्यागपत्र फाड़कर फेंक दिया और रजिस्ट्री कराने के लिए उन्हें नहीं जाने दिया। उनसे सब अधिकार लेकर मैं उनको अपदस्थ करके नहीं रखना चाहती। वे मेरे देवता हैं। उनकी बुराइयां तो मैं देख ही नहीं पाती हूं। हां, अर्थ-संकट है सही, पर यही उनकी मनुष्यता है। धोखा देकर कई बार उनसे कुछ झंस लेने वाले मित्र भी फिर उनसे कुछ ले लेने की आशा रखते हैं। क्या यह मेरे गौरव की वस्तु नहीं है? मैंने उसका त्यागपत्र अस्वीकार कर दिया है; परंतु अब मैं अर्थ-सचिव बन गई हूं। अब वे सीधे मेरे पास कुछ भेज देते हैं। मैं कहती हूं कि पुरुष और स्त्री को ब्याह करना ही चाहिए। एक-दूसरे के सुख-दुख और अभाव-आपदाओं को प्रसन्नता में बदलने के लिए सदैव प्रयत्न करना चाहिए। इसीलिए तुम दोनों को मैं एक में बांध देना चाहती हूं।

शैला ने इंद्रदेव की ओर जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखा। इंद्रदेव ने मिसिर को पुकारकर कहा-देखो, तितली नाम की एक स्त्री बाहर है, उसे बुला लाओ। तितली आई। उसने नमस्कार किया। इंद्रदेव ने कुर्सी दिखलाकर कहा-बैठो।

सहसा उनके मन में वह बात चमक गई जो उनके और तितली के ब्याह के लिए [ १२४ ]धामपुर में एक बार अदृश्य का उपहास बनकर फैल गई थी। फिर प्रकृतिस्थ होकर, तितली के बैठ जाने पर, इंद्रदेव ने कहा-मुझे तुम्हारी सब बातें मालूम हैं। मैं सब तरह की सहायता करूंगा। किंतु जब मधुबन इस समय कहीं जाकर छिप गया है, तब सोच-समझकर कुछ करना होगा। मैं उसका पता लगाने का प्रयत्न करूंगा। और रह गया शेरकोट, उसका कागज मैं देख लूंगा तब कहूंगा! बनजरिया का लगान जमा करवा दूंगा। फिर उसका भी प्रबंध कर दिया जाएगा। तब तक तुम यहीं रहो। क्यों शैला! कल के लिए तुम तितली को निमंत्रित न करोगी?

तितली ने चुपचाप सुन लिया। शैला ने कहा-तितली! कल के लिए, मेरी ओर से निमंत्रण है, तुमको यहीं रहना होगा।

तितली के मुंह पर उस निरानंद में भी एक स्मित-रेखा झलक उठी।

दूसरे दिन वैवाहिक उत्सव के समाप्त हो जाने पर, तितली वहां से बिना कुछ कहे-सुने कहीं चली गई! शैला और इंद्रदेव दोनों ही उसको बहुत खोजते रहे।