तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

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हाथ-मुंह धोकर मुलायम तौलिए से हाथ पोंछती हुई अनवरी बड़े-से दर्पण के सामने खड़ी थी। शैला अपने सोफा पर बैठी हुई रेशमी रूमाल पर कोई नाम कसीदे से काढ़ रही थी। अनवरी सहसा चंचलता से पास जाकर उन अक्षरों को पढ़ने लगी। शैला ने अपनी भोली आंखों को एक बार ऊपर उठाया, सामने से सूर्योदय की पीली किरणों ने उन्हें धक्का दिया, वे फिर नीचे झुक गईं। अनवरी ने कहा—मिस शैला! क्या कुंवर साहब का नाम है? जी—नीचा सिर किए हुए शैला ने कहा। क्या आप रोज सवेरे एक रूमाल उनको देती हैं? यह तो अच्छी बोहनी है!—कहकर [ २२ ]________________

अनवरी खिलखिला उठी। शैला को उसकी यह हंसी अच्छी न लगी। रात-भर उसे अच्छी नींद भी न आई थी। इन्द्रदेव ने अपनी माता से उसे मिलाने की जो उत्सुकता नहीं दिखलाई, उल्टे एक ढिलाई का आभास दिया, वही उसे खटक रहा था। अनवरी ने हंसी करके उसको चौंकाना चाहा; किंतु उसके हृदय में जैसे हंसने की सामग्री न थी? इन्द्रदेव ने कमरे के भीतर प्रवेश करते हुए कहा—शैला! आज तुम टहलने नहीं जा सकी? मुझे तो आज किसानों की बातों से छुट्टी न मिलेगी। दिन भी चढ़ रहा है। क्यों न मिस अनवरी को साथ लेकर घूम आओ! अनवरी ने ठाट से उठकर कहा—आदाबअर्ज है कुंवर साहब! बड़ी खुशी से! चलिए न! आज कुंवर साहब का काम मैं ही करूंगी शैला इस प्रगल्भता से ऊपर न उठ सकी। इन्द्रदेव और अनवरी को आत्म-समर्पण करते हुए उसने कहा—अच्छी बात है, चलिए। इन्द्रदेव बाहर चले गए। खेतों में अंकुरों की हरियाली फैली पड़ी थी। चौखूटे, तिकोने, और भी कितने आकारों के टुकड़े, मिट्टी की पेड़ों से अलगाए हुए, चारों ओर समतल में फैले थे। बीच-बीच में आम, नीम और महुए के दो-एक पेड़ जैसे उनकी रखवाली के लिए खड़े थे। मिट्टी की संकरी पगडंडी पर आगे शैला और पीछे-पीछे अनवरी चल रही थीं। दोनों चुपचाप पैर रखती हुई चली जा रही थीं। पगडंडी से थोड़ी दूर पर एक झोपड़ी थी, जिस पर लौकी और कुंभडे की लतर चढ़ी थी। उसमें से कुछ बात करने का शब्द सुनाई पड़ रहा था। शैला उसी ओर मुड़ी। वह झोंपड़ी के पास जाकर खड़ी हो गई। उसने देखा, देखा, मधुवा अपनी टूटी खाट पर बैठा हुआ बंजो से कुछ कह रहा है। बंजो ने उत्तर में कहा—तब क्या करोगे मधुबन! अभी एक पानी चाहिए। तुम्हारा आलू सोराकर ऐसा ही रह जाएगा? ढाई रुपए के बिना! महंगू महतो उधार हल नहीं देंगे? मटर भी सूख जाएगी। ___अरे आज मैं मधुबन कहां से बन गया रे बंजो पीट दूंगा जो मुझे मधुवा न कहेगी। मैं तुझे तितली कहकर न पुकारूंगा। सुना न? हल उधार नहीं मिलेगा, महतो ने साफ-साफ कह दिया है। दस विस्से मटर और दस बिस्से आलू के लिए खेत मैंने अपनी जोत में रखकर बाकी दो बीघे जौ-गेहं बोने के लिए उसे साझे में दे दिया है। यह भी खेत नहीं मिला, इसी की उसे चिढ़ है। कहता है कि अभी मेरा हल खाली नहीं है। __ तब तुमने इस एक बीघे को भी क्यों नहीं दे दिया! __मैंने सोचा कि शहर तो मैं जाया की करता हूं। नया आलू और मटर वहां अच्छे दामों पर बेचकर कुछ पैसे भी लूंगा; और बंजो जाड़े में इस झोपड़ी में बैठे-बैठे रात को उन्हें भूनकर खाने में कम सुख तो नहीं! अभी एक कंबल लेना जरूरी है। तो बापू से कहते क्यों नहीं? वह तुम्हें ढाई रुपया दे देंगे। उनसे कुछ मांगा, तो यही समझेंगे कि मधुवा मेरा कुछ काम कर देता है, उसी की मजूरी चाहता है। मुझे जो पढ़ाते हैं, उसकी गुरु-दक्षिणा मैं उन्हें क्या देता हूं? तितली! जो भगवान करेंगे, वही अच्छा होगा। अच्छा तो मधुबन! जाती हूं। अभी बापू छावनी से लौटकर नहीं आए। जी घबराता [ २३ ]________________

यह कहकर जब वह लौटने लगी, तो मधुबन ने कहा-अच्छा, फिर आज से मैं रहा मधुबन और तुम तितली। यही न? दोनों की आंखें आंखें एक क्षण के लिए मिली—स्नेहपूर्ण आदान-प्रदान करने के लिए। मधुबन उठ खड़ा हुआ, तितली बाहर चली आई। उसने देखा, शैला और अनवरी चुपचाप खड़ी हैं! वह सकुचा गई। शैला ने सहज मुस्कुराहट से कहा—तब तुम्हारा नाम तितली हे क्यों? हां-कहकर तितली ने सिर झुका लिया। आज जैसे उसे अकेले में मधुबन से बातें करते हुए समग्र संसार ने देखकर व्यंग्य से हंस दिया हो। वह संकोच में गड़ी जा रही थी। शैला ने उसकी ठोढ़ी उठाकर कहा—लो, यह पांच रुपए तुम्हारे उस दिन की मजूरी के हैं। मैं, में न लगी। बाप बिगड़ेंगे। वह चंचल हो उठी। किंतु शैला कब मानने वाली थी। उसने कहा—देखो, इसमें ढाई रुपए तो मधुबन को दे दो, वह अपना खेत सींच ले और बाकी अपने पास रख लो। फिर कभी काम देगा। अब मधुबन भी निकल आया था। वह विचार-विमूढ था, क्या कहे! तब तक तितली को रुपया न लेते देखकर शैला ने मधुबन के हाथ में रुपया रख दिया, और कहा—बाकी रुपया जब तितली मांगे तो दे देना। समझा न? मैं तुम लोगों को छावनी पर बुलाऊं, तो चले आना। ___ दोनों चुप थे। अनवरी अब तक चुप थी; किंतु उसके हृदय ने इस सौहार्द को अधिक सहने से अस्वीकार कर दिया। उसने कहा—हो चुका, चलिए भी। धूप निकल आई है। शैला अनवरी के साथ घूम पड़ी। उसके हृदय में एक उल्लास था। जैसे कोई धार्मिक मनुष्य अपना प्रातः-कृत्य समाप्त कर चुका हो। दोनों धीरे-धीरे ग्राम-पथ पर चलने लगीं। अनवरी ने धीरे-से प्रसगं छेड़ दिया मिस शैला! आपको इन देहाती लोगों से बातचीत करने में बड़ा सुख मिलता है। मिस अनवरी! सुख! अरे मुझे तो इनके पास जीवन का सच्चा स्वरूप मिलता है, जिसमें ठोस मेहनत, अटूट विश्वास और संतोष से भरी शांति हंसती-खेलती है। लंदन की भीड़ से दबी हुई मनुष्यता में मैं ऊब उठी थी, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मैं दुख भी उठा चुकी हूं। दुखी के साथ दुखी की सहानुभूति होना स्वाभाविक है। आपको यदि इस जीवन में सुख-ही-सुख मिला है तो... नहीं-नहीं, हम लोगों को सुख-दुख जीवन से अलग होकर कभी दिखाई नहीं पड़ा। रुपयों की कमी ने मुझे पढ़ाया और मैं नर्स का काम करने लगी। जब अस्पताल का काम छोड़कर अपनी डॉक्टरी का धंधा मैंने फैलाया, तो मुझे रुपयों की कमी न रही। पर मुझे तो यही समझ पड़ता है कि मेहनत-मजूरी करते हुए अपने दिन बिता लेना, किसी के गले पड़ने से अच्छा है। ___ अनवरी यह कहते हुए शैला की ओर गहरी दृष्टि से देखने लगी। वह उसकी बगल में आ गई थी। सीधा व्यंग्य न खल जाए इसलिए उसने और भी कहा हम मसलमानों को तो मालिक की मर्जी पर अपने को छोड़ देना पड़ता है, फिर सुख-दुख की अलग-अलग परख [ २४ ]________________

करने की किसको पड़ी है। शैला ने जैसे चौंककर कहा तो क्या स्त्रियां अपने लिए कुछ भी नहीं कर सकतीं? उन्हें अपने लिए सोचने का अधिकार भी नहीं है? बहुत करोगी मिस शैला, तो यही कि किसी को अपने काम का बना लोगी। जैसा सब जगह हम लोगों की जाति किया करती है। पर उसमें दुख होगा कि सुख, इसका निपटारा तो वही मालिक कर सकता है। शैला न जाने कितनी बातें सोचती हुई चुप हो गई। वह केवल इस व्यंग्य पर विचार करती हुई चलने लगी। उत्तर देने के लिए उसका मन बेचैन था; पर अनवरी को उत्तर देने में उसे बहुत-सी बातें कहनी पड़ेंगी। वह क्या सब कहने लायक हैं? और यह प्रश्न भी उसके मन में आने लगा कि अनवरी कुछ अभिप्राय रखकर तो बात नहीं कर रही है। उसको भारतीय वायुमंडल का पूरा ज्ञान नहीं था। उसने देखा था केवल इन्द्रदेव को, जिसमें श्रद्धा और स्नेह का ही आभास मिला था। संदेह का विकृत चित्र उसके सामने उपस्थित करके अपने मन में अनवरी क्या सोच रही है, यही धीरे-धीरे विचारती हुई वह छावनी की ओर लौटने लगी। ___ अनवरी ने सौहार्द बढ़ाने के लिए कुछ दूसरा प्रसंग छेड़ना चाहा; किंतु वह सौजन्य के अनुरोध से संक्षिप्त उत्तर मात्र देती हुई छावनी पर पहुंची। अभी इन्द्रदेव का दरबार लगा हआ था। आरामकी पर लेटे हए वह कोई कागज देख रहे थे। एक बड़ी-सी दरी बिछी थी। उस पर कुछ किसान बैठे थे। इन लोगों के जाते ही दो कुर्सियां और आ गईं। पर इन्द्रदेव ने अपने तहसीलदार से कहा—इस पोखरी का झगड़ा बिना पहले का कागज देखे समझ में नहीं आएगा। इसे दूसरे दिन के लिए रखिए। तहसीलदार इन्द्रदेव के बाप के साथ काम कर चुका था। वह इन्द्रदेव से काम लेना चाहता था। उसने कहा—लेकिन दो-एक कागज तो आज ही देख लीजिए, उनकी बेदखली जल्दी होनी चाहिए। __अच्छा, मैं चाय पीकर अभी आता हूं।—कहकर इन्द्रदेव शैला और अनवरी के साथ कमरे में चले गए। बुड्ढे से अब न रहा गया। उसने कहा, तहसीलदार साहब, मैं कल से यहां बैठा हूं। मुझे क्यों तंग किया जा रहा है! तहसीलदार ने चश्मे के भीतर से आंखें तरेरते हुए कहा—रामनाथ हो न? तंग किया जा रहा है! हूं! बैठो अभी। दस बीघे की जोत बिना लगान दिए हड़प किए बैठे हो और कहते हो, मुझे तंग किया जा रहा है। क्या कहा? दस बीघे! अरे तहसीलदार साहब, क्या अब जंगल-परती में भी बैठने न दोगे? और वह तो न जाने कब से कृष्णार्पण लगी हुई बनजरिया है! वही तो बची है, और तो सब आप लोगों के पेट में चला गया। क्या उसे भी छीनना चाहते हो? तहसीलदार चुपचाप उसे घूरने लगा। ___ इन्द्रदेव शैला के साथ बाहर चले आए। अनवरी के लिए देर से माधुरी की भेजी हुई लौंडी खड़ी थी। वह उसके साथ छोटी कोठी में चली गई। इन्द्रदेव ने बुड्ढे को देखकर तहसीलदार को संकेत किया। तहसीलदार अभी बुड्ढे रामनाथ की बात नहीं छेड़ना चाहता था। किंतु इन्द्रदेव के संकेत से उसे कहना ही पड़ा—इसका नाम रामनाथ है। यह [ २५ ]________________

बनजरिया पर कुछ लगान नहीं देता। एकरेज जो लगा है, वह भी नहीं देना चाहता। कहता है—कृष्णार्पण माफी पर लगान कैसा? इन्द्रदेव ने रामनाथ को देखकर पूछा—क्यों, उस दिन हम लोग तुम्हारी ही झोंपड़ी पर गए थे? हां सरकार! तो एकरेज तो तुमको देना ही चाहिए। सरकारी मालगुजारी तो तुम्हारे लिए हम अपने आप से नहीं दे सकते। तहसीलदार से न रहा गया, बीच ही में बोल उठा—अभी तो यह भी नहीं मालूम कि यह बनजरिया का होता कौन है। पुराने कागजों में वह थी देवनन्दन के नाम। उसके मर जाने पर बनजरिया पड़ी रही। फिर इसने आकर उसमें आसन जमा लिया। बुड्ढा झनझना उठा। उसने कहा हम कौन हैं, इसको बताने के लिए थोड़ा समय चाहिए सरकार! क्या आप सुनेंगे? शैला ने अपने संकेत से उत्सुकता प्रकट की। किंतु इन्द्रदेव ने कहा—चलो, अभी माताजी के पास चलना है। फिर किसी दिन सुनूंगा। रामनाथ आज तुम जाओ; फिर मैं बुलाऊंगा, तब आना। रामनाथ ने उठकर कहा—अच्छा सरकार! चौबेजी बटुआ लिये पान मुंह में दाबे आकर खड़े हो गए। उनके मुख पर एक विचित्र कुतूहल था। वह मन-ही-मन सोच रहे थे—आज शैला बड़ी सरकार के सामने जाएगी। अनवरी भी वहीं है, और वहीं है बीबीरानी माधुरी! हे भगवान्! शैला, इन्द्रदेव और चौबेजी छोटी कोठी की ओर चले। मधबन के हाथ में था रुपया और पैरों में फरती, वह महंग महतो के खेत पर जा रहा था। बीच में छावनी पर से लौटते हुए रामनाथ से भेंट हो गई। मधुबन के प्रणाम करने पर रामनाथ ने अश्विर्वाद देकर पूछा कहां जा रहे हो मधुबन? आज पहला दिन है, बाबाजी ने उसे मधुवा न कहकर मधुबन नाम से पुकारा। वह भीतर-ही-भीतर जैसे प्रसन्न हो उठा। अभी-अभी तितली से उसके हृदय की बातें हो चुकी थीं। उसकी तरी छाती में भरी थी। उसने कहा बाबाजी. रुपया देने जा रहा है। महंग से पुरवट के लिए कहा था—आलू और मटर सींचने के लिए। वह बहाना करता था, और हल भी उधार देने से मुकर गया। मेरा खेत भी जोतता है और मुझी से बढ़-बढ़कर बातें करता रामनाथ ने कहा—भला रे, तू पुरवट के लिए तो रुपया देने जाता है—सिंचाई होगी; पर हल क्या करेगा? आज-कल कौन-सा नया खेत जोतेगा? मधुबन ने क्षण-भर सोचकर कहा-बाबाजी, तितली ने मुझसे चार पहर के लिए कहीं से हल उधार मांगा था। सिरिस के पेड़ के पास बनजरिया में बहुत दिनों से थोड़ा खेत बनाने का वह विचार कर रही है, जहां बरसात में बहुत-सी खाद भी हम लोगों ने डाल रखी थी। पिछाड़ होगी तो क्या, गोभी बोने का... ___ दुत पागल! तो इसके लिए इतने दिनों तक कानाफूसी करने की कौन-सी बात थी? मुझसे कहती! अच्छा, तो रुपया तुझे मिला? [ २६ ]हां बाबाजी, मेम साहब ने तितली को पांच रुपया दिया था, वही तो मेरे पास है। मेम साहब ने रुपया दिया था! बंजो को? तू कहता क्या है?

हां, मेरे ही हाथ में तो दिया। वह तो लेती न थी। कहती थी, बापू बिगड़ेंगे! किसी दिन मेम साहब का उसने कोई काम कर दिया था, उसी की मजूरी बाबाजी! मेम साहब बड़ी अच्छी हैं।

रामनाथ चुप होकर सोचने लगा। उधर मधुबन चाहता था, बुड्ढा उसे छुट्टी दे। वह खड़ा-खड़ा ऊबने लगा। उत्साह उसे उकसाता था कि महंगू के पास पहुंचकर उसके आगे रुपए फेंक दे और अभी हल लाकर बंजो का छोटा-सा गोभी का खेत बना दे। बुड्ढा न जाने कहां से छींक की तरह उसके मार्ग में बाधा-सा आ पहुंचा।

रामनाथ सोच रहा था छावनी की बात! अभी-अभी तहसीलदार ने जो रूप दिखलाया था. वही उसके सामने नाचने लगा था। उसे जैसे बनजरिया की काया-पलट होने के साथ ही अपना भविष्य उत्पातपूर्ण दिखाई देने लगा। तितली उसमें नया खेत बनाने जा रही है। तब भी न जाने क्या सोचकर उसने कहा-जाओ मधुबन, हल ले जाओ।

मधुबन तो उछलता हुआ चला जा रहा था। किंतु रामनाथ धीरे-धीरे बनजरिया की ओर चला।

तितली गायों को चराकर लौटा ले जा रही थी। मधुबन तो हल ले जाने गया था। वह उनको अकेली कैसे छोड़ देती। धूप कड़ी हो चली थी। रामनाथ ने उसे दूर से देखा। तितली अब दूर से पूरी स्त्री-सी दिखाई पड़ती थी।

रामनाथ एक दूसरी बात सोचने लगा। बनजरिया के पास पहुंचकर उसने पुकारातितली!

उसने लौटकर प्रफुल्ल बदन से उत्तर दिया- 'बापू!'