जमसेदजी नसरवानजी ताता का जीवन चरित्र/१—जन्म और आरंभकाल

जमसेदजी नसरवानजी ताता का जीवन चरित्र
मन्नन द्विवेदी 'गजपुरी'

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १ से – २० तक

 

जमसेदजी नसरवानजी

ताता का

जीवन चरित्र।

पहला अध्याय।

जन्म और आरंभकाल।

धर्मवीर, कर्मवीर, दानवीर, दयावीर, राजभक्त, देशभक्त महात्मा जमसेदजी नसरवानजी ताताका जन्म सन् १८३९ ई॰ में बड़ौदा राज्यके नवसारी गांवमें हुआ था। धन्य था वह दिन और धन्य थी वह घड़ी और सबसे बढ़कर धन्य था बड़ौदा राज्य जिसने ऐसे महापुरुष को अपनी भूमिमें जन्माया। बड़ौदा राज्यके और उपकारोंके साथ साथ हम उसके इसलिये भी कृतज्ञ हैं कि उसके नवसारी गांवमें हिन्दुस्तान की कला और कारीगरी, उसके उद्योग और आर्थिक उन्नतिमें नई जान डालने वाला महापुरुष पैदा हुआ।

नवसारी हजार वर्षसे अधिक समयसे पारसी पुरोहितोंका केन्द्र होता चला आया है। पारसमें मुसलमानोंके अत्याचार होने पर जब पारसी भागकर हिन्दुस्तानमें आये थे तभीसे नवसारी एक प्रसिद्ध पारसी नगर होगया है।

जैला पुरोहितोंकी मंडली में हुआ करता है, नवसारीमें वादविवाद और मजहबी बहस मुवाहसे बराबर हुआ करते थे। धर्मग्नश जेदावस्ताका ठीक अर्थ क्या है और पुराने रिवाज क्या हैं, ऐसेही उधार धर्मके सिद्धांतों पर शास्त्रार्थ होते थे।

ईश्वर निराकार है या साकार, जीवित पितरोंका श्राद्धहोना चाहिये या मरोंका, इन प्रश्नोंको लेकर आर्यसमाजियों और सनातनियों को इन्त कटाकट करते जिन लोगोंने देखा है धे पारसी भट्टाचार्यों की धर्मचर्या को समझ जायंगे।

जहां परमात्माकी सृष्टि में अनेक आश्चर्यजनक बातें हुआ करती हैं, वहां वह भी एक अचम्मा था कि नवसारीले वचन वीर पारस्ती पुरोहितोंमें कर्मवीर जमसेदजी नसरवानजी ताता ने जन्म लिया। ताताजीके पिता भी एक मामूली हैसियतके पारसी पुरोहित थे।

नवसारी गांव में कोई अंगरेजी स्कूल नहीं था। इसलिये बालकने एक गुरूजीसे पढ़ना लिखना और थोड़ा बहुत हिसाब सीखा। लेकिन जिसको इतना बड़ा काम करना था उसको इतनी थोड़ी शिक्षासे क्या होता! इसलिये ऊंची शिक्षाके लिये बालक ताता सन १८५२ ई० में बम्बई भेजे गये और वहां जाकर आप उस एलफिंस्टन कालेजमें भरती हुये जिसमें बम्बई सूबेके क़रीब क़रीब कुल बड़े आदमियोंने तालीम पाई है। बम्बई इस प्रामीण बालकके लिये एक नई, बिल्कुल निराले ढंगकी जगह थी। कारीगरी, रोजगार, कालेज, कचहरी, नाटकघर सभी चीजें ताताके लिये अजीब थीं। सन १८५८ ई॰ में १९ वर्ष की उम्र में ताताजी अपना पढ़ना पूरा करके कालेजसे अलग हुए। उसी साल इस देशकी सरकारी यूनिवर्सिटियां खुलीं और बी॰ ए॰, एम॰ ए॰ आदि डिग्रियां कायम हुईं। अगर शौक होता तो ताता महाशय दो चार सालमें ग्रैजुयेट होजाते! लेकिन परमात्माने उनको दूसरे कामके लिये जन्माया था और भारतमाता इस सपूतके हाथसे एक दूसरी उन्नति का स्वप्न देख रही थी।

जिसको पापी पेटके लिये अपनी स्वतन्त्रता बेचकर हां हजूर करना नहीं था, जिसको वकील बनकर अपने देश वासियोंको लड़ाकर, उनका खून चूसकर मोटा होना नहीं था, जिसको ज़मींदार बनकर दीन किसानोंके पैदावारकी कच्ची कुर्की करानी नहीं थी, जिसको पुरोहित बनकर परमात्माकी दलाली करके टका ऐंठना नहीं था, जिसको डांड़ी मारकर लोगोंको ठगना नहीं था, जिसको कुली बनकर पापी आरकाटियों का शिकार बनकर, नराधम, श्वेत शरीर कृष्णपन व्यापारियों के लिये फावड़े चलाकर गन्ने पैदा करना नहीं था, जिसके हाथमें भारतकी कारीगरीके उद्धार का यश था, जिसको अपने अशिक्षित और मनमोदक खानेवाले देशवासियों को साइंस शिक्षा देनी थी, जिसको निरुद्यमी भारतके लिये पानीसे बिजली पैदाकर साहस और चातुर्यका नमूना खड़ा करना था, उसको किसी दूसरी ही शिक्षाकी ज़रूरत थी। इसीलिये युवक ताताने सरस्वती मंदिरका पूजन समाप्त कर लक्ष्मी मंदिरमें नैवेद्य चढ़ानेका विचार किया।

आपके पिताके पास बहुत थोड़ा धन था जिससे वे चीन देशके साथ रोज़गार करते थे। उस वक्त अफीमका रोज़गार इने गिने लोगोके हाथमें था जो और किसी पर इसका भेद नहीं खुलने देते थे। ताताजी काम सीखनेके लिये हांगकांग भेजे गये, जहां उनको बहुत तजरवा हुआ।

सन् १८६१ ई॰ में अमेरिकाके उत्तरी और दक्षिणी सूबोमे लड़ाई शुरू हुई। यह लड़ाई पांच बरस तक चलती रही। इससे न सिर्फ लड़नेवालों का नुकसान हुआ बल्कि लैंकशायरके कपड़े कारखानोंको भी बड़ा धक्का लगा। इन कारखानोंकी रूई अधिकतर अमेरिकासे आती थी। लड़ाईने यह आमद बंद कर दी। रोजगारी पारसियोने सोचा कि इस मौकेसे फायदा उठाना चाहिये। प्रसिद्ध पारसी प्रेमचंद रायचंदजी नेता बने। इस वक्त रूईके रोज़गारसे इन लोगोको ५१ करोड़ रुपये मिले।

ताताजी को भी इसमें बड़ा मुनाफा हुआ। लेकिन इन लोगोंको जितना फायदा हुआ उससे कहीं बढ़कर आगेकेलिये इन लोगोंने अन्दाजा लगाया था, कहीं बढ़कर तैयारी की थी। इनलोगोंने सोचा था कि लड़ाई बहुत दिन तक चलेगी लेकिन वह बहुत जल्द बंद होगई। इससे इनको बड़ा धक्का लगा। पहली जुलाई सन १८६५ ई॰ बंबईके इतिहासमें अभाग्य दिन समझा जाता है। अमीर गरीब होगये, गरीब भिखारी बन गये और भिखारी भूखों मरने लगे। इससे ताता परिवार को भी बड़ा नुकसान हुआ।

लेकिन साधारण आत्मायें जिन कठिनाइयोंसे विदलित और विचलित होजाती हैं महापुरुष उनसे और भी दृढ़ होते हैं। ठीक बात तो यह है कि अगर विघ्न बाधाओं को न झेलना पड़े तो आदमी कमजोर रह जाय और बड़े बड़े कामोंको न उठा सके।

कोंहार घड़ा बनाते वक्त एक हाथ नीचे देता है लेकिन दूसरे हाथले बाहरसे घड़ेको पीटकर मजबूत बनाता है। इसके बाद भी घड़ेकी अग्नि परीक्षा होती है। जब आवेमें पक कर वह पक्का होजाता है तब गर्मी और लूहके सताये पथिकोंको अपना ठंढा पानी पिलाकर उनका हृदय शीतल करता है।

महात्माओं की भी यही दशा है। दुखियोंके दुःख दूर करने के पहले उनको खुद दुःख झेलना पड़ता है।

ताताजीने अपना इंगलैंडका कारोबार बंद कर दिया लेकिन हिन्दुस्तानकी दूकान किसी तरह चलाते रहे। आपने हिम्मत नहीं छोड़ी। किसीने बहुत ठीक कहा है कि जो अपनी मदद आप करता है भगवान भी उसकी मदद करता है। ताताके भाग्यसे थोड़े दिनके बाद अबीसीनियांकी लड़ाई शुरू हुई। बंबईसे जो अंगरेजी पल्टन भेजी गई उसकी रसदका ठीका ताताने लिया। एक बरस का सामान किया गया था लेकिन लड़ाई जल्द खतम होगई और ताताको बड़ा मुनाफा हुआ। इससे आपका कारोबार फिर संभल गया।

जिस रूईके रोजगारने बंबईको धक्का दिया था, आपने फिर उसीको उठाया। एक तेलके कारखानेका दिवाला निकल गया था। कुछ लोगोंके साथ आपने वहींके कल पुरजे खरीद कर सूत कातने और कपड़ा बुननेका कारखाना खोला। उससे मुनाफा बहुत हुआ। लेकिन कुछही दिनों बाद आपने उस कारखानेको बेच दिया। बात तो यह थी कि आपकी जबरदस्त आत्मा इस छोटे कारोबारसे संतुष्ट नहीं थी। आपने सोचा कि काम इस तरह उठावैं कि भारतवर्ष दुनियांके बड़े बड़े देशोंका मुकाबिला कर सकै न कि सिर्फ ताता परिवार को इस पांच लाख रुपये मिलैं।

आपने सोचा कि विलायती कपड़ोंका, मुकाबिला करनेके पहले यह देख लेना चाहिये कि उनकी तरक्की की वजह क्या है। देखना है कि मज़दूरी महंगी होनेपर भी किस तरह सस्ते और नुमाइशी कपड़े हमारे बाजारोंमें पटे रहते हैं। आपने बिचारा कि कहां इतने दिनोंके सिद्धहस्त अङ्गरेज कारीगर और कहां दिन भरमें अढ़ाई कोस चलनेवाले, ताना तननेवाले अपढ़ जुलाहे, दोनोंका मुकाबिला कैसे होगा, अपने दरिद्र भाइयों के रक्तका पैसा सात समुद्र पार जानेसे कैसे रुकैगा।

इन्हीं बातोंको सोच विचारकर आप मैनचेस्टरके कारखानोंको देखनेके लिये इंगलैंड गये। भारतमाताके सौभाग्यसे आप हिन्दू नहीं थे, नहीं तो पंडित मंडली अपनी सारी काबलियत खर्च करके अपने दत्तात्रेयके समयके फटे गले धर्मशास्त्र के पन्नोंको लेकर धर्मकी दुहाई देनेसे बाज न आती और न आलसी, दुराचारी, डाही बिरादरीवाले पंचायतसे इनको बाहर किये बिना मानते।

लेकिन पारसी जातिने कभी अपने धर्मको अपनी उन्नतिमें बाधक न होने दिया और यही कारण है कि इस देशके मुट्ठी भर हमारे पारसी भाई हमारे सब कामों में नेता हैं। भारतमाताके इन सपूतों का महत्व जानना हो तो नवीन भारतके कामोंसे इनकी सेवाओंको निकालकर देखिये कि क्या बच जाता है।

कर्मवीर ताताने आंखें खोलकर इंगलैंडमें सफर किया और वहांके कारख़ानोंके गुप्त भेदको समझा। आपको इस बातका पूरा विश्वास होगया कि मिल ऐसी जगहमें खोलनी चाहिये जहां आस पासमें कपासकी खेती अधिक होती हो। कुछ दिनके बाद और लोगोंने भी आपके इस विचारसे फायदा उठाया। इसी बजहसे खानदेश, मध्यप्रान्त और गुजरातमें बहुत सी मिलें खुल गईं।

ताताजीने बहुत सोच बिचारके बाद नागपुरको पसंद किया। आपको इस काममें इतनी सफलता रही इसीसे मालूम होता है कि जगहका चुनाव कितना अच्छा हुआ। एक कंपनी स्थापित हुई जिसका नाम "सेंट्रल इंडियन स्पिनिंग ऐंड वीविंग कंपनी" पड़ा।

ता॰ १ जनवरी सन् १८७७ ई॰ में मिल का आरम्भ हुआ। यह वही शुभ दिन है जिस रोज स्वर्गवासिनी महारानी विक्टोरिया इस देशकी राजराजेश्वरी हुईं। उसी दिन मिल खोल कर, ताताजीने मानों यह सिद्ध किया कि सुशासनके लिये औद्योगिक उन्नति का एक दिन भी पिछड़ना ठीक नहीं है। कारख़ानेका नास "दी इम्प्रेस मिल" पड़ा। श्रीगणेश तो होगया लेकिन काम जितने महत्वका था उतनाही कठिन भी था।

लेकिन ताता महोदय कठिनाइयोंसे डरने वाले आदमी नहीं थे। जमीन खरीद ली गई, इमारतें खड़ी होगईं। काम चलने लगा। इम्प्रेस मिलके लिये सबसे बढ़कर भाग्यकी बात यह हुई, कि सरवेजनजी दादा भाई उसके मैनेजर नियत हुए। इसके पहले आप जी॰ आई॰ पी॰ रेलवेके ट्रैफिक मैनेजर थे। गोकि आपको कपड़े के कारखानेका तजरबा नहीं था लेकिन आप सा परिश्रमी, चतुर और ईमान्दार आदमी जिस कामको उठावेगा, उसीको अच्छी तरहसे करेगा। आज इस्प्रेस मिलकी जो उन्नति दिखाई पड़ती है उससे साफ मालूम होता है कि मैनेजरके चुनावमें ताता महोदयने कितनी बुद्धिमता की। इस देशकी कारीगरीकी उन्नति चाहने वालोंको समझ लेना चाहिये कि औद्योगिक उन्नतिके लिये सरवेजनजी ऐसे कार्यदक्ष मैनेजर की उतनी ही आवश्यकता है जितनी ताताजी जैसे साहसी और दूरदर्शी पूंजी वालेकी। ताताके मस्तिष्कसे नित्य नये विचार निकलते थे और वेजनजी उनको कार्य-रूपमें लाते थे। कारखाना खोल दिया गया और कपड़े बनने लगे। लेकिन इनसे भी महत्वका काम था कपड़े बेचनेका प्रबंध। अगर जरा भी ढीलापन किया जाता तो विदेशी कारखानोंके मुकाबिलेमें कपड़े पड़े पड़े सड़ जाते या सस्ते दामोंपर निकलकर घाटेपर घाटे लगाते हुए भारत माताके कफनका काम देते। लेकिन परमात्माने ऐसे दो कर्मवीर उत्पन्न कर दिये जो नित्य नये वस्त्रोंसे माताका शृङ्गार करेंगे, उसके लाखों निस्सहाय बालकोंको भोजन और कपड़े देंगे। कपड़े खपानेके लिये बाजारकी तलाश होने लगी। चतुर और अनुभवी एजेंट जगह जगह भेजे गये।

यह सब होनेपर ताता महोदयने मालके भेजनेका भी ठीक प्रबंध कर लिया। इस तरह सब काम दुरुस्त होजाने पर इम्प्रेस मिलका काम ठीक चलने लगा। इसके बाद ताताजीने बड़े बड़े शहरों में घूमघूम कर देखा कि कारखानेके लिये कहांसे कौन सी नई बात सीखी जा सकती है। इसी बिचारसे आप जापान भी गये। वहांसे तरह तरहके विचार लेकर आप बम्बई लौटे। कहना नहीं होगा कि पहले बहुतसी कठिनाइयां रास्तेमें आई लेकिन कर्मवीरने सबको दूर हटा दिया। कुछ दिनोके बाद तो इस्प्रेस मिलकी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की होने लगी। सन १९१३ ई॰ के अन्त तक इस कंपनीने २ करोड़ ९३ लाख ४५ हजार ७ रुपये मुनाफेके दिये थे। इसका मतलब यह है कि हर एक हिस्सेपर उसका २॥ गुना मुनाफा दिया जा चुका था। यह तो हुआ। लेकिन ताताजी सिर्फ अपनी या अपने हिस्सेदारोंकी उन्नतिसे संतुष्ट रहनेवाले आदमी नहीं थे। आप अच्छी तरह समझते थे कि जो करोड़ों रुपये हिस्सेदारों में बांटे गये थे वे उन मजदूरों के परिश्रमके फल थे जो थोड़ी तनख्वाहों पर कठिन उद्योग करते रहते हैं।

इस विचारसे कई तरहके इनाम मुकर्रर किये गये। कर्मचारियोंके लिये पुस्तकालय और खेलके स्थान बनवाये गये।

इसके सिवाय ताता महोदयने अंप्रैटिसी का कायदा निकाला। नवयुवक उम्मेदवार होकर आपके कारखाने में काम सीख सकते हैं। कारखाने को अधिकार होगा कि कुछ दिनोके लिये मुनासिब तनख्वाह पर उनको नौकर रखे। दस सालकी कामयाबीके बाद ताता महोदयने सूत कातनेका कारखाना खोलने का विचार किया।

सन् १८८५ ई॰ तक सूत कातनेके बहुतसे कारखाने खुल चुके थे लेकिन बारीक माल पैदा करनेवाला इनमेंसे एक भी न था। ताताजीने सोचा कि अब सिर्फ मोटा माल पैदा करनेसे जीवन चरित्न। काम न चलेगा। आपका पूरा विश्वास था कि लंबे धागेकी रूईसे बारीक माल तैयार होसकता है। इसी विचारसे आपने एक कम्पनी खोली जिसका नाम पड़ा "स्वदेशी"।

नागपुर के विक्टोरिया गार्डन्के नजदीक जमीन लीगई और वहीं कारखाना खोलने का इरादा किया गया। उसी वक्त बम्बई प्रांत की सबसे बड़ी मिल "धरमसी" नीलाम हो रही थी। उसमें कुल ५० लाख रुपये खर्च हुए थे लेकिन साता महोदयने उसको १२॥ लाख रुपये पर खरीदा। लेकिन बादमें मालूम हुआ कि उस मिलमैं बहुतसी खराबियां हैं। ताता महोदयको इसके लिये बहुतसी कठिनाइयां उठानी पड़ीं लेकिन आप हताश होनेवाले आदमी नहीं थे।

अन्तमें इम्प्रेस मिल की तरह इसमें भी फायदा होने लगा।

इन दो कम्पनियोंके संबंधमें दो एक और बातें बतलाना जरूरी है। आम तौरसे एजेण्टों को तैयार मालपर १ पैसा फी पाउंड कमीशन मिलता था। इस हिसाबसे ताता महोदयको ६० हजार रुपये सालानासे कम कमीशन नहीं मिलता। लेकिन आपका खास मतलब कारीगरीको बढ़ाना था, न कि अपना पाकेट भरना। इसीलिये आप सिर्फ ६ हजार लेते थे। बादमें और भी कमी कर दी गई।

कपड़ेके कारखानेमें आपने एक और बड़ा सुधार किया। आपने सभी पुरानी कलों को निकालकर रिंग चरखों को लगाया। मिसिरदेशकी लंबे धागेवाले कपास की खेतीका आपने इस देशमें प्रचार किया। नवसारीमें आपने नमूनेके खेत भी बनवाये। इस विषय पर आपने एक छोटी किताब लिख कर प्रकाशित की। हर्षकी बात है कि गवर्नमेंटने इस ओर बड़ा ध्यान दिया है। गवर्नमेंट फार्मोंमें तरह तरहकी कपास बोई जा रही है। गवर्नमेंट इस विषय पर सदा ताता ऐंड सन्स कम्पनीकी सम्मति लेती है।

ताता महोदयने विचार किया कि सिर्फ अच्छी रूई पैदा करनेसे काम न चलैगा। मालके ले जानेका सुविधा होना उतनाही जरूरी था जितना कि अच्छा माल तैयार करना।

उस समय हांगकांग और शंघाईको जानेवाला अधिकतर माल पी॰ ऐंड ओ॰ कम्पनी द्वारा भेजा जाता था। उसके बाद दो और विदेशी कम्पनियोंका नंबर था। ज्यों ज्यों मिलोंकी संख्या बढ़ने लगी त्यों त्यों, ये कम्पनियां अपने स्टीमरोंका किराया बढ़ाने लगीं। मिलवाले घबराने और शोर मचाने लगे। ताता-कारखानेका अधिकतर माल चीन और जापानको जाता था। इसलिये तीनों स्टीमर कम्पनियोंके कुटिल सम्मेलनसे आपको भी हानि हुई।

अपनी और अपने देशकी हानिको देखकर चुपचाप बैठना ताता महोदयके स्वभावके विरुद्ध था। जापान जाकर आपने उस देशकी एक स्टीमर कम्पनीसे बातचीत की। कम किराये पर माल लेजाने पर वह तैयार हुई। ताताजीने अधिकांश मिलों से वादा करा लिया कि वे नई जापानी कम्पनी द्वारा अपना माल भेजने। पी० ऐंड ओ॰ और उसकी सहगामिनी कम्पनियो को कभी आशा न थी कि मिलवाले इतनी जल्दी एक होजायंगे, एक होकर इतने मार्केका काम करैंगे। इसलिये अचानक यह दशा देखकर वे बेतरह घबराई। लेकिन घबरानेसे क्या काम चल सकता था? अस्तु उनलोगोंने एक नई चाल निकाली। उनलोगोंने किराया घटाकर १३) और १९) रुपये प्रति घन टनसे २) धनटन कर दिये। पी॰ ऐंड ओ॰ ने तो अन्तमें १, कर दिया। कहां मुनाफेसे पेट भरी हुई तीन कम्पनियां और कहां अकेले मिस्टर ताता। बड़ाही विषम युद्ध था। निश्चय ताता महोदय की जीत हुई होती, लेकिन साथी मिलवालोंने अदूरदर्शिता का परिचय दिया। जिस आशासे जाल फैलाया गया था, वह सफल हुई। कहां ११) रुपये और कहां १) रुपया। वे लोग लोभको न रोक सके। लालच-वश उनलोगोंने अपना प्रण तोड़कर अपने देशको अपनी समुन्नत एशियायी शक्तिके सामने झूठा बनाया, ताता महोदयको नीचा दिखाया, घाटा पहुंचानेवाली कम्पनियोंके हाथमें अपनेको सौंप दिया। इस लड़ाईसे एक लाभ तो अवश्य हुआ कि किराया हमेशाके लिये पहलेसे कम होगया। ताता महोदयने इसके बाद एक और कम्पनी को ऐसीही शिक्षा दी।

इस तरहसे सन् १८७५ ई॰ से लेकर सन् १८९५ ई॰ तक ताता महोदयने स्वदेशीकी सफलताके लिये बहुतसे काम किये आपमें बड़ा भारी गुण यह था कि आप करते अधिक थे और कहते कम। स्वदेशी आन्दोलन उठाने वाले, स्वदेशी पर हजार दफे लेक्चर देनेवाले, उसके लिये कई बार राजदंड भोगे हुए सज्जनोंमें से एकने भी स्वदेशीको उतना अग्रसर नहीं किया जितना महाशय जमसेदजी नसरवानजी ताताने किया। लेकिन आपके कार्य्य करनेका ढंग ऐसा था कि राजा प्रजा दोनों आपसे प्रसन्न रहते थे। भारतीय प्रजा आपको पूजनीय बुद्धिसे देखती थी। भारत सरकार मुक्तकंठसे आपकी प्रशंसा करती थी और हमारे देशी रजवाड़े सदा आपकी सहायता करने को तैयार रहते थे।

ताता महोदय का जीवन उनलोगोंके लिये विशेष शिक्षाप्रद है जो समझते हैं कि अंगरेजी व्यापारियोंको बायकाट करके हमारी औद्योगिक उन्नति होसकती है। उनको समझना चाहिये कि भारतकी कारीगरीकी जो अधोगति होगई है, उसका सुधारना दो चार दिन या इनेगिने लोगोंका काम नहीं है। राजाप्रजा, विद्वान्, कारीगर और किसान सब मिलकर अगर काम करैं, तब भी बहुत दिनों में हालत कुछ कुछ दुरुस्त होसकती है।

महात्मा गांधीका विचार है कि कल कारखानोंकी आवश्यकता नहीं, रेलवे स्टीम और तारके कारण हमारा पतन होता जा रहा है। आपका कहना है कि प्राचीन ढंग पर हाथसे काम लेकर हम अपनी कारीगरी सुधार सकते हैं। ऐसे पूजनीय नेताकी बात कौन गलत कर सकता है?

अच्छी बात होती यदि कलियुगके स्थान पर फिर सत्ययुग आजाता। संसार गांधीजीके सात्विक विचारों पर चलने लगता! सभी देश अपने अपने देशके लिये चीजें बनाते, कमाते और खाते, अपना अपना राग अलापते। लेकिन इसके होनेकी कुछ संभावना नहीं मालूम होती है। दूसरे देश कोयला, धूआं, और बिजलीकी सहायता लेनेसे नहीं चूकनेवाले और न हमारी लाख प्रार्थना पर भी वे अपने मालको अपनेही घर रखने पर संतुष्ट हैं। वर्तमान विज्ञानके नयेसे नये आविष्कारोंसे सुसज्जित होकर, अपनी जीती जागती जातिके असंख्य रुपये लगाकर अपने बाहुबलसे प्राप्त की हुई राजनैतिक सुविधाओंसे लाभ उठाते हुए, अन्य देश साल साल, महोने महीने, दिन दिन, घड़ी घड़ी और छिन छिन हमारे बाजारोंको सस्ती चीजोंसे पाटपाट कर अपार धन ढोढोकर ले जारहे हैं। संसारकी घुड़दौड़में न शरीक होकर अपने घरकी रक्षा करने ही किस असाधारण, उद्योगकी, किस अटल धैर्य, किस अतुलनीय देशभक्तिकी और कितनी सच्ची राज-भक्तिकी आवश्यकताहोगी कुछ ठिकाना है: उद्योगके शिखरपर पहुंचे हुए यूरोपीय देशों और कलापटु जापानका मुकाबिला हम अपने टूटे चरखों और ढीले ढाले करघोंसे कर सकैंगे, यह उतना ही सम्भव है जितना बड़े बड़े किलोको महिम्नस्तोत्रसे उड़ा देना।

हर्षकी बात है, कि ताता महोदय के विचार समय के अनुकूल थे। आपके प्रत्येक कार्य देशकालके अनुसार होते थे। समुन्नत देशोंकी भांति आपने भी अग्नि, वरुण और विद्युतकी उपासना आवश्यक समझी थी। यही कारण है, कि आपके कल कारखाने बड़ी कामयाबीसे चल रहे हैं, हजारों देशवासियोंका पेट भर रहे हैं, धनवानोंको अच्छा मुनाफा दे रहे हैं और देशका करोड़ो रुपया विदेश जानेसे बचा रहे हैं।

हिन्दुस्तानके बड़े से बड़े व्यापारियो और मिल वालों को जो महत्व मिल सकता था, वह ताता महोदयको मिल गया। 'स्वदेशी' और 'इम्प्रेस' मिलों के नाम देश ही नहीं विदेशों में भी फैल गये।

ताता महोदय ऐसे रोजगारियोंमें से नहीं थे जो देश हीके रुपयेको इधर से उधर कर देने को तरक्की और व्यापार कहते है। आप समझते थे कि जब तक देशके धन को बाहर जानेसे न रोक दिया जाय या विदेशों के रुपये भारत में न खींच लिये जायं तब तक व्यापार, व्यापार नहीं और न मुनाफे को मुनाफा कह सकते हैं। आपके कपड़े और सूतकी मिलें इसी इरादेसे खोली गई थीं।

सन् १८९५ ई॰ में भारत के बने हुए कपड़ों पर टैक्स लगाया गया। विलायती जुलाहों के विचारमें हिन्दुस्तानी व्यापारी बहुत मोटे होते जाते थे, इसलिये उनके स्वास्थ्यके लिये आवश्यक था कि उन्हें दुबले होनेकी औषधि दी जाय। शायद इसी मतलबसे हिन्दुस्तानी कारखानोंपर इक्साइज ड्यूटी लगाई गई।

एक तो भारतीय कारीगरीकी दशा वैसे ही खराब हो गयी थी, दूसरे यह टैक्स। आन्दोलन शुरू हुआ। बम्बई मिल ओनर्स एसोसियेशन ने गवर्नमेंट की सेवा में एक मेमोरियल भेजा। मिस्टर ताता और सिस्टर एन॰ एन॰ वाडिया, भारत गवर्नमेटके फाइनेल मिनिस्टर (अर्थ मन्त्री) के पास भेजे गये।

लेकिन कुछ नतीजा न निकला। इसके थोड़े ही दिन बाद ताता महोदय विलायत गये। वहां आप उस वक्तके भारतमंत्री लार्ड हैमिल्टनसे मिले। हैमिल्टन साहयकी रायमें हिन्दुस्तानी मिलोंका औसत मुनाफा १० या १२ फी सदीसे कम नहीं था। मिस्टर ताताकी रायमें मंत्री साहबके विचार गलत थे। साहब बहादुरने दाता महोदयसे प्रमाण मांगे। ताताजीने बहुत ही विचार पूर्ण रिपोर्ट तैयार करके यह साबित कर दिया कि हमारी मिलोंके मुनाफे औसतन ६ फी सदीसे अधिक नहीं है। इस रिपोर्टकी एक कापी भारतसचिवकी सेवामें भेजी गई। लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ।

एक और महत्वकी बात कहकर यह अध्याय समाप्त किया जायगा। जब ताता महोदयने मिलोंका काम शुरू किया तब काम करनेवालोंकी बड़ी कमी थी। पहले तो मजदूर उचित संख्या मे मिलतेही न थे, जो मिलते थे उनमें भी बहुतसे जुआरी और चोर थे। इस अभावका दूर किया जाना बड़ा आवश्यक था। कुरला नामका स्थान बंबईके बदमाशोंका अड्डा बन गया था। कपड़ा बुननेवाले अधिकांश मुसलमान जुलाहे थे, जो बड़े कलहप्रिय और बदमाश थे। बात बातमें ये लोग हड़ताल कर दिया करते थे। ताता महोदयने इनको बहुत समझाया बुझाया लेकिन कुछ नतीजा न हुआ। मजदूरे न मिलनेसे बहुतसी मशीनें रोज बेकार रहती थीं। भलेमानस मजदूर लानेके लिये सूरत और भरोच एजेंट भेजे गये। इन जगहोंसे कुछ मजदूरे आये। उनको अच्छी मजदूरी और रहनेके लिये मकान भी दिये गये। लेकिन वे सबके सब रफूचक्कर होगये।

अंतमें मिस्टर ताताने सोचा कि युक्तप्रांतमें मजदूरे सस्ते और बहुत इफरातसे मिल सकते हैं। सन् १८८० के कहत कमीशनने लिखा है कि युक्तप्रांतकी आबादी बहुत धनी है और यहांके बहुतसे लोगोंको रोजगारके लिये बाहर जाना चाहिये। मिस्टर ताताने सोचा कि अगर यहांसे मजदूरे बंबई जायं तो अच्छा हो। आपने सोचा कि युक्तप्रांतमें मजदूरोंको १ आना रोजानासे ज्यादा नहीं मिलता है। बंबईमें जब उनको ६ आने रोज मिलेंगे तब वे खुशी खुशी वहां जायंगे। लेकिन मिस्टर ताताका सोचा हुआ नहीं हुआ। इसके दो कारण मालूम होते हैं। पहली बात तो यह है कि युक्तप्रांतमें भी, मिलमें काम करने योग्य मजदूरोंको उतना कम नहीं मिलता जितना ताता महोदयने सोचा था। दूसरी बात यह है कि घरपर अपने बाल बच्चोंमें रहकर फुरसतके वक्त अपने घरका काम देखते हुए आदमी १ आना रोजमें जितना काम चला सकता है, उतना कई सौ मीलकी दूरी पर, बंबईसी खर्चीली जगहमें अकेला परिवार बंधनसे मुक्त ६ आने पैसेमें नहीं होसकता है।

ताता महोदय ने बंबईके मिल ओनर्स एसोसियेशनका ध्यान इस ओर आकर्षित किया। लेकिन उसने प्रश्नके महत्वको न समझा और न बातकी सुनवाई हुई! यहां देखना यह है कि जो कठिनाई इस समय मिलवालोंको पड़ रही है उसको मिस्टर ताताने पहलेही सोच लिया था। लेकिन संसारमें अधिकांश मनुष्य आनेवाले संकटको पहलेसे देखने में असमर्थ होते हैं! इस संबंधमें मिस्टर ताताने एसोसियेशनके मंत्रीके पास एक पत्र भेजा था। पत्र में मजदूरोंकी कठिनाई बतलाते हुए दिखलाया गया था कि कारीगरीकी तरक्कीके साथ साथ काफी और अच्छे मजदूरोंका मिलना और भी मुश्किल होजायगा। ऐसी दशामें बुद्धिमान मनुष्यका काम है कि पहलेसे सोचकर आने वाले संकटको टालनेका यत्न करै। लेकिन जैसा कहा जा चुका है, न तो ताता महोदयकी बात सुनी गई और न कठिनाई दूर हुई। ऊपर दिखलाया जाचुका है कि ताता महोदयने जो ६ आने रोज पर युक्तप्रांतसे मजदूरोंकी उपयुक्त संख्या पानेकी आशा की थी, यह उनकी गलती थी। मजदूरी अगर और बढ़ा दी जाती तो जरूर काम करनेवाले जाते। ज्यों ज्यों उनको ताता मिलोंकी सुविधाओंका अनुभव होता, ज्यों ज्यों उनमें स्वदेशी कारखानों की शुद्ध वायुसे स्वदेश प्रेम अंकुरित होता त्यों त्यों, वे अपने परिवार और ग्रामवालोंको अधिकाधिक संख्यामें ले जाते इस अवसर पर आप पूछ सकते हैं कि साधारण मजदूरी पर युक्तप्रांतके मजदूरे दूर देश उपनिवेशोंमें कैसे चले जाते हैं। इसके उत्तरमें निस्संकोच और निर्भय होकर कहना पड़ता है कि बहुत कम कुली सही व्यवस्थायें जानने पर उपनिवेशोंमें जायंगे। दूसरी बात यह है कि आरकाटी लोग कुली फंसानेमे जो नीचतायें करते हैं उनको करनेके लिये देशभक्त ताताके कारखानेका छोटेसे छोटा नौकर भी उद्यत न होगा।



दूसरा अध्याय।


अभ्युदय।

पहले अध्यायमें आपने इम्प्रेस मिल और स्वदेशी मिलकी उन्नति देखी। उनके साथ साथ आपने ताता महोदय के परमोच्च विचार, अद्भुत संगठन शक्तिका भी अवलोकन किया। एक जन्म क्या, कई जन्मों में भी इतने बड़े बड़े काम होजायं तब भी बहुत हे, लेकिन ताता महोदयके आदर्शजीवन नाटकमें ये दो कारखाने प्रस्तावना मात्र थे। लोहेका कारखाना, बिजली घर तथा रिसर्च इन्स्टीट्‌यूट उस महापुरुषके महानाटकके तीन मनोरंजक और शिक्षाप्रद अंक थे। इनमेंसे कुछ दृश्य आरंभ होगये थे लेकिन कुछके अभी परदे भी नहीं उठ पाये थे, कि क्रूरकालने अंतिम ड्रापसीन समाप्त कर दिया। विचित्र वियोगांत नाटकका खेल दिखाकर ताता महोदय चले गये।

इस अध्यायमें लोहे और बिजलीके कारखानोंके वर्णन किये जायंगे। पहले लोहेके कारखानेके बारेमें लिखा जायगा। ताता महोदय बहुत दिनोंसे सोच रहे थे कि किस तरह लोहेका वृहद् व्यापार इस देशमें किया जाय। विदेशोंसे लोहा मंगाकर