चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ १४५ से – १५९ तक

 

तलवा

जब न कॉटे के लिये कॉटा बने।
पाँव के नीचे पड़े जब सब सहे॥
जब छिदे छिल छिल गये सॅभले नही।
क्यों न तब छाले भरै तलवे रहे॥

काम के कलाम

बात की करामात

क्या अजब मुँह सी गया उनका अगर।
टकटकी बाँधे हुए जो थे खड़े॥
जब बरौनी सी तुझे सूई मिली।
आँख तुझ मे जब रहे डोरे पड़े॥

थिर नहीं होतीं थिरकती है बहुत।
हैं थिरकने मे गतों को जाँचती॥
काठ का पुतला ललकतों को बना।
आँख तेरी पुतलियाँ है नाचती॥

खोलते ही खोलने वाले रहे।
भेद उस के पर न खोले से खुले॥
तोल करके मान मन कितना गया।
पर न तोले आँख तेरे तिल तुले॥

है न गहरी दुई बहुत लाली।
है न उस में मजीठ बूँद चुई॥
खीझ से बूझ का लहू करके।
आँख तू है लहूलुहान हुई॥

हम बतायें तो बतायें किस तरह।
तू न जाने कौन मद में है सना॥
कान कितने झूमते हैं आज भी।
देख तेरे झूमकों का झूमना॥

तब निकलता न किस लिये सूरज।
जब ललाई लिये फटी पौ थी॥
कान पाता न क्यों तरौना तब।
जब ललकती छिदी हुई लौ थी॥

होठ औ दॉत मिस समय पा कर।
मुँह लगे फल भले बुरे पाने॥
है अगर फल कही इनारू का।
तो कहीं है अनार के दाने॥

बोल बोले अमेल, फूल झड़े।
चाँदनी को किये हँसी से सर॥
लग गये चार चॉद जिस मुँह को।
हम उसे चाँद सा कहें क्यों कर॥

एक तिल फूल एक दुपहरिया।
दो कमल और दो गुलाब बड़े॥
भूल है फूल मिल गये इतने।
फूल मुँह से किसी अगर न झड़े॥

बोलने आदि के बड़े आले।
सब निराले कमाल तुम जैसे॥
मिल किसी काल में उसे न सके।
मुँह तुम्हें हम कमल कहें कैसे॥

सब दिनों साथ एक सूगे के।
दो ममोले हिले मिले देखे॥
मुँह तुमारे कमाल के बल से।
चाँद मे दो कमल खिले देखे॥

नाचती मछलियाँ, हरिन भोले।
हो ममोले कभी बना लेते॥
मुँह कभी निज अजीब आँखों को।
कर कमल, हो कमाल कर देते॥

है कही बाल भी कही आँसू।
और मुँह मे कही हँसी का थल॥
है कहो मेघ औ कही बिजली।
औ कही पर बरस रहा है जल॥

क्यों न मुँह को चॉद जैसा ही कहें।
पर भरम तो आज भी छूटा नहीं॥
चाँद टूटा ही किया सब दिन, मगर।
टूट कर भी मुँह कभी टूटा नहीं॥

है बनाते निरोग कायम को।
काम के रम ढग बीच ढले॥
है बहुत ही लुभावने होते।
दाँत सुथरे धुले भले उजले॥

तुम कभी अनमोल मोती बन गये।
औ कभी हीरे बने दिखला दमक॥
दाँत है चालाकियाँ तुम मे न कम।
चौंकता हूं देख चौके की चमक॥

मिल न रगीनियाँ सकी उसको।
पास उस के हँसी नही होती॥
देख करके बहार दॉतों की।
हार कैसे न मानता मोती॥

सॉझ के लाल लाल बादल में।
है दिखाती कमाल चन्दकला॥
या बही लाल पर अमीधारा।
या हँसी होंठ पर पड़ी दिखला॥

लोग चाहे कौंध बिजली की कहें।
या अमीधारा कहे रस में सनी॥
पर कहेगे हम बड़े ही चाव से।
है हॅसी मुखचन्द की ही चाँदनी॥

है सहेली खिले हुए दिल की।
फूल पर है सनेह-धार लसी॥
है लहर रसभरे उमगों की।
चाँदनी है हुलास चन्द हॅसी॥

जब हंसी तुझ से दुई ऑखे सुखी।
देख तुझ को सॉसते वे जब सहें॥
सूझ वाले तब न तुझ को किस तरह।
चॉदनी औ कौध बिजली की कहें॥

नास कर देती अगर सुध बुध रही।
किस तरह तो है अभी उस मे बसी॥
जब दरस की प्यास बुझतां ही नही।
तब भला रस-सोत कैसे है हँसी॥

आग बल उठने कलेजे में लगे।
आँख से चिनगारियाँ कढ़ती रहें॥
देख उस को जी अगर जलता रहे।
तो हँसी को चाँदनी कैसे कहे॥

हैं थली होनहार लीकों को।
लाभ की या सहेलियाँ हैं ए॥
कौल की लाल लाल पंखड़ियाँ।
या किसी को हथेलियाँ हैं ए॥

अनूठे विचार

जब न उस मे मिला रसीलापन।
जीभ उस की बनी सगी तब क्या॥
फूल मुँह से अगर न झड़ पाया।
बात की झड़ भला लगी तब क्या॥

खोट घुट्टी में किसी की जो पड़ी।
वह बँटाने से कभी बॅटती नही॥
नाक कटवा ली गई कह कर जिसे।
काटने से बात वह कटती नही॥

चाहते हो बनी रहे लाली।
पर पड़ा चाल ढाल का ठाला॥
छूट पाता नहीं बिलल्लापन।
किस तरह बोल रह सके बाला॥

जब हमी निज भरम गॅवा देंगे।
लोग तब क्यों भरम न खोलेंगे॥
बोल जब हम सके सँभाल नही।
बोलियाँ लोग क्यों न बोलें॥

कब कहाँ पर किसे न भीतर से।
ढोल की ही तरह मिले पाले॥
जब रहे बोलते रहे बढ़ बढ़।
कर सके कुछ कभी न बढ़बोले॥

और के दुख दर्द की भी सुध रखें।
कस नही लेवें सितम पर ही कमर॥
नित उसे हम नोचते ही क्यों रहें।
नोचने से नुच गई दाढ़ी अगर॥

जब कलेजा और का है फाड़ते।
और कहते बात है ताड़ी हुई॥
आँख तब क्यों फाड़ कर है देखते।
दूसरों की दाढ़ियाँ फाड़ी हुई॥

क्या अजब जो मचल बुढ़ापे में।
लड़ कई की कसर गई काढ़ी॥
जो न पाये बिचार ही पक तो।
क्या करेगी पको दुई दाढ़ी॥

क्यों किसी की बात हम जड़ते रहे।
जो जड़े तो नग अनूठे ही जड़ें॥
क्यों पड़े हम और लोगों के गले।
जो पड़े वन फूल की माला पड़ें॥

तब सुधरते तो सुधरते किस तरह।
जब कि सकते सीख हम ले ही नहीं॥
किस तरह तब वह भला जी मे धँसे।
बात उतरी जब गले से ही नही॥

क्या हुआ पजे कड़े जो मिल गये।
आदमीयत किस लिये हो छोड़ते॥
तोड़ना हो सिर बुरों का तोड़ दो।
क्यों किसी की उँगलियाँ हो तोड़ते॥

पाँव भी रक्खें अहितपथ मे न तो।
हित अगर कर दें न उठते बैठते॥
कुछ किसी से अठ क्यों फूले फिरें।
अठ पजों को रहें क्यों अठते॥

तो हुआ नाम क्या सधा मतलब।
जो चला काम सिर किये गजा॥
जो रही आनबान कान मले।
जो मिला मान मोड़ कर पजा॥

चुभ सका कम या बहुत ही चुभ सका।
कम दिया या दुख दिया उस ने बड़ा॥
जान पर तो मेमने के आ बनी।
क्या मोलायम और क्या पजा कड़ा॥

दीन दुखियों पर पसीजें क्यों न हम।
देख उन की आँख से आँसू छना॥
क्यों किसी की वे गरम मूठी करें।
है न उन के पास मूठी भर चना॥

सब जगह वे ही सदी माने गये।
मान का जो मान रख करके जिये॥
हम लथेड़ें तो लथेड़ें क्यों उसे।
खा थपेड़े लें न पड़े के लिये॥

खोल दिल दान दें, खिला खायें।
धन दुआ कब धरम किये से कम॥
धन अगर है बटोरना हम को।
तो बटोरे न हाथ अपना हम॥

हैं बुरा काम कर बुरा करते।
यह बुरा काम ही बताता है॥
दिल दुखा दिल दुखा नही किस का।
पाप कर हाथ कॉप जाता है॥

ध्यार के सारे निराले ढंग जब।
छल कपट के रग मे ढाले गये॥
हित-नियम आले न जब पाले पले।
तब गले में हाथ क्या डाले गये॥

धर्म ही है साथ जाता जीव के।
तन चिता तक ही पहुँच पाया मरे॥
रह गई धरती यही की ही यही।
कौन छाती पर गया धन को धरे॥

क्यों न पाये थल भली रुचि ऑख मे।
क्यों बुरी रुचि हाथ से जाये पिसी॥
जाय जम जो प्यार जड़ जी मे न तो।
जाय गड़ छाती न छाती में किसी॥

है सताना भला नही होता।
क्यों किसी को गया सताया है॥
पक गये तो गये बला से पक।
क्यों कलेजा गया पकाया है॥

दाम हो, या छदाम पास न हो।
पर बने मन न सूम-मन जैसा॥
जान जाये न दमड़ियाँ देते।
जी न निकले निकालते पैसा॥

चाह वालों को न दे चाहत बढ़ा।
लाभ का मद दे न लोभी को पिला॥
लालसाओं का न दे लासा लगा।
जी न ललचाये बुरी लालच दिला॥

ठीक कोई कर कभी सकता नही।
भाग, बिगड़े भाग, का फूटा हुआ॥
टूट पड़ कर किस लिये है तोड़ते।
जुड़ सका जोड़े न जी टूटा हुआ॥

जाँय रंग प्यार-रगतों मे हम।
सब जगह रग जो जमाना है॥
लाभ करके लुभावनी बातें।
जी लुभा लें अगर लुभाना है॥

वह किये लाड़ लाड़ करता है।
है उखड़ता उखाड़ने से जा॥
मत बिगाड़े बिगाड़ने वाले।
कब न बिगड़ा बिगाड़ने से जी॥

बद बनाती कब नहीं बद आदतें।
छूट पाती है बुरी लत छन नही॥
मन-सहक कैसे नहीं जाता सहक।
क्यों बहॅकता मन-बहँक का मन नहीं॥

हम धनी जी के रहे सब दिन बने।
हाथ मे चाहे हमारे हो न धन॥
तन भले ही हाथ मे हो और के।
पर पराये हाथ मे होवे न मन॥

बात हित की क्यों बताये हम उसे।
बूझ होते बन गया जो बैल हो॥
रख बुरे मैला न कैसे मन मिले।
मेल क्यों हो जब कि मन मे मैल हो॥

poem>

कर बुरा अपना भला चाहे न हम। हित हमारे हों न अनहित मे सने॥ जाय तन तन-परवरी परतुल नही। मतलबों का मन न मतवाला बने॥</poem>