चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ १०६ से – १२३ तक

 

लाल होगे सुख मिले खीजे मले।
वे पड़े पीले डरे औ दुख सहे॥
रॅग बदलने की उन्हें है लत लगी।
गाल होते लाल पीले ही रहे॥

हैं उन्हें कुछ समझ रसिक लेते।
पर सके सब न उलझनों को सह॥
है बड़ा गोलमाल हो जाता।
गाल मत गोल गोल बातें कह॥

है निराला न आँख के तिल सा।
और उस मे सका सनेह न मिल॥
पा उसे गाल खिल गया तू क्या।
दिल दुखा देख देख तेरा तिल॥

आब में क्यों न आइने से हों।
क्यों न हों कांच से बहुत सुथरे॥
पर अगर है गरूर तो क्या हैं।
गाल निखरे खरे भरे उभरे॥

पीसने के लिये किसी दिल को।
तू अगर बन गया कभी पत्थर॥
तो समझ लाख बार लानत है।
गाल तेरी मुलायमीयत पर॥

मुँह

हो गयी बन्द बोलती अब तो।
तू बहुत क्या बहँक बहँक बोला।
तू भली बात के लिये न खुला।
मुँह तुझे आज मोत ने खोला॥

है बहुत से अडोल ऐसे भी।
ना कि बिजली गिरे नहीं डाले॥
'जी' गये भी नही खुला जो मुँह।
मौत कैसे भला उसे खोले॥

बोल सकते हो अगर तो बोल लो।
तुम बड़ी प्यारी रसीली बोलियाँ॥
दिल किसी का चूर करते मत रहो।
मुँह चला कर गालियों की गोलियाँ॥

जो कभी कुछ न सीख सकते हों।
दो चली सीख सब उन्हें सिखला॥
मात कर के न बात को मुँह तुम।
दो करामात बात की दिखला॥

जो किसी को कभी नहीं भाती।
है उसी की तुझे लगन न्यारी॥
क्यों लगी आग तो न मुँह तुझ में।
बात लगती अगर लगी प्यारी॥

प्यास से सूख क्यों न जावे वह।
पर सकेगा न रस टपक पाने॥
मुँह बिचारा भला करे क्या ले।
दाँत ऐसे अनार के दाने॥

मुँह पसीने से पसीजा जब किया।
तब अगर आँसू बहा तो क्या बहा॥
सूखता ही मुँह रहा जब प्यास से।
आँख से तब रस बरसता क्या रहा॥

जीभ तो बेतरह रहे चलती।
चटकना गाल को पड़े खाना॥
मुँह अजब चाल यह तुमारी है।
कूर बच जाय औ पिसे दाना॥

मत सितम आँख मूद कर ढाओ।
तुम बदी से करोड़ बार डरो॥
जो गये वार वार मुँह उन पर।
भौह तलवार की न वार करो॥

तीर सी आँखें, भवें तलवार सी।
और रख कर पास फाँसी सी हँसी॥
डाल फदे सी लटों के फद मे।
मुँह बढ़ा दो मत किसो को बेबसी॥

मुँह बड़े ही भयावने तुम हो।
बन सके हो भले न तो भाले॥
चैन जो था बचा बचाया वह।
बच न पाया चले बचन गोले॥

जो बुरे आठो पहर घेरे रहे।
तो भली ऑखें न क्यों पीछे हटें॥
मुँह बुरा है जो भले तुम को लगे।
बाल बेसुलझे हुए, उलझी लटें॥

पड़ गई है बान जटने की जिन्हें।
वे भला कैसे न भोले को जटें॥
मुँह किसी ने सौप क्यों तुम को दिया।
साँप जैसे बाल साँपिनि सी लटें॥

मुँह तुम्हें जो रुचा चटोरापन।
जीव कैसे न तब भला कटते॥
तुम रहे जब हराम का खाते।
तब रहे राम राम क्या रटते॥

मुँह कहाँ तब रहा ढँगीलापन।
जब कि बेढंग तुम रहे खुलते॥
जब गया आब गालियाँ बक बक।
तब रहे क्या गुलाब से धुलते॥

बात कड़वी निकल पड़ेहीगी।
क्यों न उस में सदा अमी बोलूं॥
राल टपके बिना नही रहती।
क्यों न मुँह को गुलाब से धो लू॥

मुँह! चढ़ा नाक भौंह साथी से।
पूच से नेह गॉठ सूठा तू॥
जो बनी झूठ को रही रुचि तो।
जूठ से झूठमूठ रूठा तू॥

और पर क्या बिपत्ति ढाओगे।
मुँह तुमारी विपत्ति तो हट ले॥
वह हँसे या डॅसे न औरों को।
उँस तुम्हीं को न नागिनी लट ले॥

दाँत जैसे कड़े, नरम लब से।
हैं सदा साथ साथ रह पाते॥
मुँह तुम्हारे निबाहने ही से।
हैं भले औ बुरे निबह जाते॥

बात जिस की बड़ी अनूठी सुन।
दिल भला कौन से रहे न खिले॥
है बड़ी चूक जो उसी मुँह को।
चुगलिया गालियां चबाव मिले॥

मत उठा आसमान सिर पर ले।
मत भवें तान तान कर सर तू॥
ढा सितम रह सके न दस मुँह से।
मुँह उतारू न हो सितम पर तू॥

क्या बड़ाई काकुलों की हम करें।
जब रही आँखें सदा उन मे फँसी॥
क्यों न उस मुँह को सराहे पा जिसे॥
जीभ है बत्तीस दांतों मे बसी॥

छेद डाला न जब छिछोरों को।
जब बुरे जी न बेध बेध दिये॥
भौह औ आँख के बहाने तब।
मुँह रहे या कमान बान लिये॥

दाँत

हो बली, रख डीलडौल पहाड़ सा।
बस बड़े घर मे, समझ होते बड़ी॥
हाथियों को दॉत काढ़े देख कर।
दाबनी दॉतों सले उँगली पड़ी॥

जब कि करतूत के लगे घस्से।
तब भला किस तरह न वे घिसते॥
पीसते और को सदा जब थे।
दाँत कैसे भला न तब पिसते॥

है निराली चमक दमक तुम मे।
सब रसों बीच हो तुम्ही सनते॥
दाँत यह कुन्दपन तुम्हारा है।
जो रहे कुन्द को कली बनते॥

रस किसी को भला चखाते क्या।
हो बहाते लहू बिना जाने॥
दॉत आनर तुम्हे न क्यों मिलता।
हो अनूठे अनार के दाने॥

क्या लिया बार बार मोती बन।
लोभ करते मगर नही थकते॥
लाल हो लाख बार लोहू से।
दाँत तुम लाल बन नही सकते॥

आस जिस से हो वही जो बद बने।
दूसरों से हो सके तो आस क्या॥
दाँत जब तुम जीभ औ लब मे चुभे।
पासवालों का किया तब पास क्या॥

लाल या काले बनोगे क्यों न तब।
जब कि मिस्सी लाल या काली मली॥
दॉत क्या रगीन बनते तुम रहे।
सादगी रगोनियों से है भली॥

वह बनी क्यों रहे न सोने की।
तुम उसे फेंक दो न ढील करो॥
लीक है वह लगा रही तुम को।
दॉत कुछ कील को सबील करो॥

है नही चुभने, कुचलने, कूचने।
छेदने औ बेधने ही के गिले॥
दाँत सारे औगुनों मे हो भरे।
तुम बिगड़ते औ उखड़ते भी मिले॥

जीभ

कट गई, दब गई, गई कुचली।
कौन साँसत हुई नही तेरी।
जीभ तू सोच क्या मिला तुझ को।
दाँत के आस पास दे फेरी॥

जब बुरे ढग में गई ढल तू।
फल बुरा तब न किस तरह पाती॥
बोलती ऐंठ ऐंठ कर जब थी।
जीभ तब ऐंठ क्यों न दी जाती॥

जब लगी काट छॉट में यह थी।
तब न क्यों काट छाँट की जाती॥
जब कतरब्योंत रुच गई उस को
जीभ तब क्यों कतर न दी जाती॥

बिख रहे जो कि घोलती रस मे।
क्यों उसे रस चखा चखा पालें॥
बात जिस से सदा रही कटती।
क्यों न उस जीभ को करा डालें॥

बात कड़वी, कड़ी, कुढगी कह।
जब रही बीज बैर का बोती॥
तब लगी क्यों रही भले मुँह मे।
था भला जीभ गिर गई होती॥

सच, भली रुचि, सनेह, नरमी का।
नाम ही जब कि वह नहीं लेती॥
तब सिवा बद-लगाम बनने के।
चाम की जीभ काम क्या देती॥

क्या गरम दूध और दाँत करें।
सब दिनों किस तरह बची रहती॥
जीभ कैसे जले कटे न भला।
जब कि थी वह जली कटी कहती॥


क्यों न तब तू निकाल ली जाती।
जब बनी आबरू रही खोती॥
क्यों नही आग तब लगी तुझ में॥
जीभ जब आग तू रही बोती॥

क्या रही जानती मरम रस का।
जब कि रस ठीक ठीक रख न सकी॥
तब किया क्या तमाम रस चख कर।
रामरस जीभ जब कि चख न सकी॥

जीभ औरों की मिठाई के लिये॥
राल भूले भी न बहनी चाहिये।
जब कि कड़वापन तुझे भाता नहीं।
तब न कड़वी बात कहनी चाहिये॥

जब कि प्यारी बात का बरसा न रस।
तू बता तब क्या हुआ तेरे हिले॥
तरबतर जब जीभ तू करती नही।
सो तरावट धूल में तेरी मिले॥


पान को कोस लें मगर वह तो।
है बुरी बात के पड़ी पाले॥
जब कही बात थी जलनवाली।
क्यों पड़े जीभ मे न तब छाले॥

बात तू ही बेठिकाने की करे।
किस तरह हम तब ठिकाने से रहे॥
जीभ तू ने बात जब बेजड़ कही।
बात की जड़ तब तुझे कैसे कहे॥

दाँत से बार बार छिद बिध कर।
जीभ है फल बुरे बुरे चखती॥
है मगर वह उसे दमक देती।
चाटती, पोंछती, बिमल रखती॥

क्या भला तीखे रसों को तब चखा।
जब न उस की काहिली को खो सकी॥
जाति को तीखी बनाने के लिये।
जीभ जब तीखी नही तू हो सकी॥


क्या रहा सामने घड़ा रस का।
जब नहीं एक बूंद पाती तू॥
पत गँवा लोप कर रसीलापन।
है अबस जीभ लपलपाती तू॥

थी जहाॅ सूख तू वही जाती।
पड़ बिपद मे भली न उकताई॥
प्यास के बढ़ गये बिकल हो कर।
किस लिये जीभ तू निकल आई॥

किस लिये तब तू न सौ टुकड़े हुई।
तब बिपद कैसे नही तुझ पर ढही॥
काट देने को कलेजा और का।
जीभ जब तलवार बनती तू रही॥

जीभ तू थी लाल होती पान से।
पर न जाना तू किसी का काल थी॥
धूल में तेरा ललाना तब मिले।
तू लहू से जब किसी के लाल थी॥


रुच भले ही जाय खारापन तुझे।
पर खरी बातें भला किस ने सही॥
जीभ तुझ को चाहिये था सोचना।
एक खारापन खरापन है नही॥

सब रसों में जब कि मीठा रस जँचा।
और तू सब दिन अधिक उस मे सनी॥
जीभ तो है चूक तेरी कम नही।
जो न मीठा बोल कर मीठी बनी॥

होंठ

पान ने लाल और मिस्सी ने।
होंठ तुम को बना दिया काला॥
क्या रहा, जब ढले उसी रॅग मे।
रग मे जिस तुमे गया ढाला॥

जब कि उन मे न रह गई लस्सी।
वे भला किस तरह सटेंगे तब॥
नेह का नाम भी न जब लेगे।
होंठ कैसे नहीं फटेंगे तब॥


वह भली होवे मगर पपड़ी पड़े।
दूध बड़ का ही हुआ 'हित' कर जसी॥
होंठ पपड़ाया हुआ ले क्या करे।
चाँदनी जैसी अमी डूबी हँसी॥

चाहिये था चाॅदनी जैसी छिटक।
वह बना देतो किसी की आँख तर॥
कर उसे बेकार बिजली कौध लौ।
क्या दिखाई मुसकुराहट होंठ पर॥

जब रहे अनमोल लाली से लसे।
पीक मे वे पान की तब क्यों सने॥
जब ललाये वे ललाई के लिये।
तब भला लब लाल मूॅगे क्या बने॥

लालची बन और लालच कर बहुत।
मान की डाली किसी को कब मिली॥
तब रहे क्यों लाल बनले पान से।
लब तुम्हें लाली निराली जबामली॥

दो बना और को न बेचारा।
तुम बुरी बात से बचो हिचको॥
खो किसी की बची बचाई पत।
होंठ तुम बार बार मत बिचको॥

जब मिठाई की बदौलत ही तुम्हें।
बोल कड़वे भी रहे लगते भले॥
मुसकुराहट के बहाने होंठ तुम।
तब अमी-धारा बहाने क्या चले॥

हँसी

जब कि बसना ही तुझे भाता नही।
तब किसी की आँख में तू क्यों बसी॥
क्या मिला बेबस बना कर और को।
क्यों हँसी भाई तुम्हें है बेबसी॥

जो कि अपने आप ही फँसते रहे।
क्यों उन्हीं के फाँसने में वह फँसी॥
जो बला लाई दबों पर ही सदा।
तो लबों पर किस लिये आयी हॅसी।