चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ ६७ से – ८३ तक

 

देख कर रंग जाति का बदला।
जाति का रंग है बदल जाता॥
देख आँखें हुईं लहू जैसी।
आँख में है लह उतर आता॥

देख दुख से अधीर सगी को।
है जनमसंगिनी लटी पड़ती॥
दाढ़ है दॉत के दुखे दुखती।
सिर दुखे आँख है फटी पड़ती॥

तब भलाई भूल जाती क्यों नहीं।
जब सचाई ही नही भाती रही॥
जोत तब कैसे चली जाती नही।
जब किसी को आँख ही जाती रही॥

कौन आला नाम रख आला बना।
है जहाँ गुन, है निरालापन वहीं॥
साँझ फूली या कली फूली फबी।
आँख को फूली फबी फूली नहीं॥

एक से जो दिखा पड़े, उन का।
एक ही ढंग है न दिखलाता॥
है कमल फूलना भला लगता।
आँख का फूलना नहीं भाता॥

काम क्या अंजाम देगा दूसरा।
जब नही सकते हमीं अंजाम दे॥
दे सकेगा काम सूरज भी तभी।
जब कि अपनी आँख का तिल काम दे॥

पड़ बुरों मे संगतें पाकर बुरी।
सूझ वाला कब बुराई मे फँसा॥
देख लो काली पुतलियों मे बसे।
आँख के तिल में न कालापन बसा॥

तब भला मैली कुवैली औरते।
क्यों न पायेंगी निराले पूत जन॥
आँख की काली कलूटी पुतलियां।
जब जनें तिल सा बड़ा न्यारा रतन॥

फूट पड़ता है उँजाला भी वहाँ।
घोर अंधियाली जहाँ छाई रही॥
जगमगा काली पुतलियों में हमें।
जोत वाले तिल जताते हैं यही॥

सूझ वाले एक दो ही मिल सके।
और सब अधे मिले हम को यहां॥
देखने को देह मे तिल है न कम।
ऑख के तिल से मगर तिल है कहां॥

वह कभी खीच तान मे न पड़ा।
है जिसे आन बान की न पड़ी॥
मोतियों से बनी लड़ी से कब।
आँसुओं की लड़ी लड़ी झगड़ी॥

बीरपन से तन गयों के सामने।
कब जुलाहे तन सके ताना तने॥
सूर कहला ले, मगर क्यों सूरमा।
सूरमापन के बिना अंधा बने॥

भेख सच्चा दिखा पड़ा न हमे।
देख पाये जहाँ तहाँ भेखी॥
फूल कब पा सके किसी से हम।
नाक फूली हुई बहुत देखी॥

वे सभी क्यारियां निराली है।
बेलियां है जहा अजीब खिली॥
कब सकी बोल बोलियाँ न्यारी।
बोलती नाक कम हमे न मिली॥

जिस जगह पर लगें भले लगने।
चाहिये हम वहीं उमग अटकें॥
है कहीं पर अगर लटक जाना।
तो लटें गाल पर न क्यों लटके॥

लोग कैसे उलझ सकेंगे तब।
जब हमारी निगाह हो सुलझी॥
बात होते हुए उझलने की।
लट कभी गाल से नहीं उलझी॥

है लुनाई फिसल रही जिस पर।
है उसे काम क्या कि कुछ पहने॥
गोल सुथरे सुडौल गालों के।
बन गये रूप रग ही गहने॥

कुछ बड़ों से हो न, पर कितनी जगह।
काम करता है बड़ों का मेल ही॥
पत बचाती है उसी की चिक नई।
माल का तिल क्यों न हो बेतेल ही॥

सब जगह बात रह नहीं सकती।
बात का बॉध दें भले हो पुल॥
हम रहे क्यों न गुलगुले खाते।
रह सका गाल कब सदा गुलगुल॥

जो कि सुख के बने रहे कीड़े।
वे पड़े देख दुख उठाते भी॥
जो उठें तो उठें सँभल करके।
हैं उठे गाल बैठ जाते भी॥

खोजने ले भले नही मिलते।
पर बुरों के सुने कहां न गिले॥
मिल गये बार, बार बू वाले।
मुँह मँहकते हमें कहीं न मिले॥

लत बुरी छूटती नहीं छोड़े।
क्यों न दुख के पड़े रहे पाले
पान का चाबना कहाँ छूटा।
मुँह छिले और पड़ गये छाले॥

जो उन्हें गुन का सहारा मिल सके।
बात तो कब गढ़ नहीं लेते गुनी॥
दख तो पाई नहीं पर बारहा।
बान 'बूढ़े' मुँह मुंहासे' की सुनी॥

दुख मिले चाहे किसी को सुख मिले।
है सभी पाता सदा अपना किया॥
आप ही तो वह अँधेरे मे पड़ा।
जो किसी मुँह ने बुझा दीया दिया॥

जो भरोसे न भाग के सोये।
दैव उन से फिरा नही फिर कर॥
जो रखें जान गिर उठें वे ही।
कब भला दाँत उठ सका गिर कर॥

हैं दुखी दीन को सताते सब।
हो न पाई कभी निगहबानी॥
लग सका और दाँत में न कभी।
हिल गये दाँत मे लगा पानी॥

नटखटों से बचे रहे कब तक।
जब उन्हे छोड़ नटखटी न हटी॥
क्या हुआ बार बार बच बच कर।
कब भला दाँत से न जीभ कटी॥

क्यों किसी बेगुनाह को दुख दें।
छूट क्यों जाँय कर गुनाह सगे॥
और के हाथ में लगे तब क्यों।
जब बुरी जीभ में न दॉत लगे॥

जो बड़प्पन है न तो कैसे बड़ा।
बन सके कोई बड़ाई पा बड़ी॥
देख लो कबि के बनाने से कहाँ।
दाँत की पाँती बनी मोती-लड़ी॥

सैकड़ों नेकियाँ किये पर भी।
नीच है ढा बिपत्ति कल लेता॥
जीभ है दाँत की टहल करती।
दाँत है जीभ को कुचल देता॥

कर सकेगे हित बने उतना न हित।
कर सकेगा हित सदा जितना सगा॥
दे सकेंगे सुख न असली दाँत सा।
देख लो तुम दाँत चॉदी के लगा॥

है बुरी लत का लगाना ही बुरा।
बन हठीली क्यों न वह हठ ठानती॥
हम अमी भर भर कटोरी नित पियें।
पर चटोरी जीभ कब है मानती॥


नित बुराई बुरे रहें करते।
पर भली कब भला रही न भली॥
दाँत चाहे चुभें, गड़ें, कुचलें।
पर गले दाँत जीभ कब न गली॥

सग दुखों से सगा दुखी होगा।
जल ढलेगा जगह मिले ढालू॥
प्यास से जब कि सूखता है मुँह।
जायमा सूख तब न क्यों तालू॥

हित करेंगे जिन्हे कि हित भाया।
लोग चाहे बने रहे रूखे॥
जीभ क्यों चाट चाट तर न करे।
लब तनिक भी अगर कभी सूखे॥

जो भले हैं भला करेंगे ही।
कुछ किसी से कभी बने न बने॥
तर किया कब न जीभ ने लब को।
क्या किया जीभ के लिये लब ने॥


बस नहीं जिस बात मे ही चल सका।
हो गई उस बात में ही बेबसी॥
क्यों न भूखा भूख के पाले पड़े।
क्यों न सूखा मुँह हाँसे सूखी हँसी॥

कर सकेंगी संगते कैसे असर।
सब तरह की रंगतें जब हों सधी॥
लाल कब लब की ललाई से हुई।
कब हॅसी उस की मिठाई से बँधी॥

बाढ़ परवाह ही नही करती।
क्यों न उस पर बिपत्ति हो ढहती॥
हम मुड़ा लाख बार दें लेकिन।
मूॅछ निकले बिना नहीं रहती॥

है सभी खीज खीज जाते तब।
रज जब जान बूझ है देते॥
बीसियों बार मनचले लड़के।
मूॅछ तो नोच नोच हैं लेते॥


हो सके काम जो समय पर हो।
हो सका वह न ठान ठाने से॥
पाँव लेवें जमा भले ही हम।
मूॅछ जमती नही जमाने से॥

पट सके, या पट न औरों से सके।
पर कहीं "नटखट" भला है बन गया॥
पड़ सके या पड़ सके पूरी नहीं।
मूॅछ भूरी का न भूरापन गया॥

कब भलाई से भलाई ही हुई।
सादगी से बात सारी कब सधी॥
साध रह जाती सिधाई की नही।
देख सीधी दाढ़ियों को भी बँधी॥

बाहरी रूप रग भावों ने।
भीतरी बात है बहुत काढ़ी॥
खुल भला क्यों न जाय सीधापन।
देख सीधी खुली हुई दाढ़ी॥


गुन तभी पा सके निरालापन।
जब गुनी जन बुरे नहीं होते॥
सुर तभी है कमाल दिखलाते।
जब गले बेसुरे नहीं होते॥

है किसी मे अगर नही जौहर।
बीर तो वह बना न कर हीले॥
सूरमापन कभी नही पाता।
काट सूरत गला भले ही ले॥

जो बना जैसा बना वैसा रहा।
बन सका कोई बनाने से नहीं॥
चितवने तिरछी सदा तिरछी मिली।
गरदनें ऐंठी सदा ऐंठी रही॥

सब पढ़ पा सके न पूरा ज्ञान।
हे बहुत से पढ़े लिखे भी लठ॥
सुर सबों में दिखा सका न कमाल।
कम न देखे गये सुरीले कठ॥


सब दयावान ही नहीं होते।
औ सभी हो सके कभी न भले॥
सैकड़ों ही कठोर हाथों से।
फूल से कठ पर कुठार चले॥

बात मुॅह से तब निकल कैसे सके।
जब सती का हाथ लोहू मे सने॥
फूट पाये कठ तब कैसे भला।
कठ-माला कठमाला जब बने॥

क्यों हुनर दिखला न मन को मोह लें।
दूसरों के रूप गुन पर क्यों जलें॥
कोयले से रग पर ही मस्त रह।
हैं निराला राग गातीं कोयलें॥

पा सहारा जाति के ही पाँव का।
जाति का है पाँव जम कर बैठता॥
जाति ही है जाति की जड़ खोदती।
हाथ ही है हाथ को तो ऐंठता॥


ढग से बचते बचाते ही रहें।
बे-बचाये कौन बच पाया कही॥
जो बचावों को नहीं है जानता।
ब्यांचने से हाथ वह बचता नहीं॥

कौन बैरी हितू किसो का है।
है समय काम सब करा लेता॥
तरबतर तेल से किया जिस ने।
है वही हाथ सर कतर देता॥

कर सकी न बुरा बुरी संगति उसे।
दैव दे देता जिसे है बरतरी॥
बाँह बदबूदार होती ही नहीं।
क्यों न होवे काँख बदबू से भरी॥

नेक तो नेकियाँ करेंगे ही।
क्यों बिपद पर बिपद न हो आती॥
क्या नहीं पाक दूध देती है।
पीप से भर गई पकी छाती?॥


है बुरी रुचि ही बना देती बुरा।
क्यों सहें लुचपन भली रुचि-थातियाॅ॥
लाड़ दिखला दूध पीने के समय।
क्या नहीं लड़के पकड़ते छातियाॅ॥

भेद कुछ छोटे बड़े मे है नही।
बान पर-हित की अगर होवे पड़ी॥
थातियाॅ हित की बनी सब दिन रही।
हों भले ही छातियाँ छोटी बड़ी॥

दैव की करतूत ही करतूत है।
कब मिटाये अंक माथे के मिटे॥
आज तक तो एक भी छाती नहीं।
हो सको चौड़ी हथौड़ी के पिटे॥

दुख न सब को सका समान सता।
मिस गये फूल लौं सभी न मिसे॥
वह दिया जाय पीस कितना ही।
पाँव बनता नहीं पिसान पिसे॥


पोसते लोग हैं निबल को ही।
गो सबल बार बार खलते हे॥
जब गये फूल हो गये मसले।
सग को पाँव कब मसलते हैं॥

नीच से नीच क्यों न हो कोई।
है न ऊँचे टहल-समय टलते॥
पॉव जब दुख रहे हमारे हो।
हाथ तब क्या उन्हे नही मलते॥

ऐठ मे डूब जो बहुत बँहका।
क्यों न उस पर भला बिपद पड़ती॥
जब गई फूल औ चली इतरा।
किस लिये तब न पखड़ी झड़ती॥