चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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दिन अनुमान दो घंटे के चढ़ चुका है। महाराज सुरेन्द्रसिंह, राजा बीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह वगैरह खिड़कियों में बैठे उस तिलिस्मी मकान की तरफ देख रहे हैं, जिसके अन्दर लोग हँसते-हँसते कूद पड़ते हैं। उस मकान के नीचे बहुत-सी कुर्सियां रखी हुई हैं जिन पर हमारे ऐयार तथा और भी कई प्रतिष्ठित आदमी बैठे हुए हैं और सब लोग इस बात का इन्तजार कर रहे हैं कि इस मकान पर बारी-बारी से ऐयार लोग चढ़ें और अपनी अक्ल का नमूना दिखावें ।

और ऐयारों की पोशाक तो मामूली ढंग की है, मगर भूतनाथ इस समय कुछ अजब ढंग की पोशाक पहने हुए है। सिवाय चेहरे के उसका कोई अंग खुला हुआ नहीं है। ढीला-ढीला मोटा पायजाम पौर गॅवारू रूईदार चपकन के अतिरिक्त बहुत बड़ा काला मुंडासा बाँधे हुए है, जिसका छिला सिरा पीठ पर से होता हुआ जमीन तक लटक [ २२८ ]रहा है। दोनों हाथ बल्कि नाखून तक चपकन की आस्तीन में घुसा हुआ है और पैर के जूते की भी विचित्र सूरत हो रही है । भूतनाथ का मतलब चाहे कुछ भी क्यों न हो, मगर लोग इसे केवल मसखरापन ही समझ रहे हैं ।

सबके पहले पन्नालाल उस मकान की दीवार पर चढ़ गये और अन्दर की तरफ झांककर देखने लगे, मगर पांच-सात पल से ज्यादा अपने को न बचा सके और हँसते हुए अन्दर की तरफ कूद पड़े।

इसके बाद पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण और चुन्नीलाल ने कोशिश की, मगर ये तीनों भी लौटकर न आ सके और पन्नालाल की तरह हंसते हुए अन्दर कूद पड़े।

इसके बाद और ऐयारों ने भी उद्योग किया, मगर कोई सफल-मनोरथ न हुआ। यहाँ तक कि जीतसिंह, तेजसिंह, भैरोंसिंह और तारासिंह को छोड़कर सभी ऐयार बारी-बारी से जाकर मकान के अन्दर कूद पड़े, केवल भूतनाथ रह गया जिसने सबके आखीर में चढ़ने का इरादा कर लिया था।

भूतनाथ मस्तानी चाल से चलता हुआ सीढ़ी के पास गया और धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा। देखते ही देखते वह दीवार के ऊपर जा पहुंचा। उस पर खड़े होकर एक दफे चारों ओर मैदान की तरफ देखा और इसके बाद मकान के अन्दर की तरफ झांका । यहाँ जो कुछ था उसे देखने के बाद उसने अपना चेहरा उस तरफ किया, जिधर खिड़कियों में बैठे हुए महाराज और राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह बड़े शौक से उसकी कैफियत देख रहे थे ।

भूतनाथ ने हाथ उठाकर तीन दफे महाराज को सलाम किया और जोर से पुकार कर कहा, "मैं इसके अन्दर झांक कर देख चुका और बड़ी देर तक दीवार पर खड़ा भी रहा, अब हुक्म हो तो नीचे उतर जाऊँ !"

महाराज ने नीचे उतर आने का इशारा किया और भूतनाथ मुस्कुराता हुआ,मकान के नीचे उतर आया, इस बीच में और ऐयार लोग भी जो भूतनाथ के पहले मकान के अन्दर कूद चुके थे, घूमते हुए बड़े तिलिस्सी मकान के अन्दर से आ पहुँचे और भूतनाथ की कैफियत देख-सुनकर ताज्जुब करने लगे।

भूतनाथ के उतर आने के बाद सब ऐयार मिल-जुलकर महाराज के पास गये और महाराज ने प्रसन्न होकर भूतनाथ को दो लाख रुपए इनाम देने का हुक्म दिया। सभी ऐयारों को इस बात का ताज्जुब था कि उस तिलिस्म का असर भूतनाथ पर क्यों नहीं हुआ और वह कैसे सभी को बेवकूफ बनाकर आप बुद्धिमान बन बैठा और दो लाख का इनाम भी पा गया।

जीतसिंह--भूतनाथ, यह तुमने क्या किया कौन-सी तरकीब निकाली जिससे इस तिलिस्मी हवा का तुम पर कुछ भी असर न हुआ?

भूतनाथ--बात मामूली है, जब तक मैं नहीं कहता तभी तक आश्चर्य मालूम पड़ता है।

तेजसिंह--आखिर कुछ कहो भी तो सही।

भूतनाथ--मेरे दिल को इस बात का निश्चय हो गया था कि इस मकान के अन्दर से किसी तरह की हवा, भाफ या धुआं ऊपर की तरफ जरूर उठता है जो झाँक दर देखने [ २२९ ]वाले के दिमाग में सांस के रास्ते से चढ़कर उसे बदहोश या पागल बना देता है, और दीवार के ऊपरी हिस्से पर भी कुछ-कुछ बिजली का असर है, जो उस पर पैर रखने वाले के शरीर को शिथिल कर देता है। या और भी किसी तरह का असर कर जाता है। मैं इस बात को खूब जानता हूँ कि लकड़ी पर बिजली का असर कुछ भी नहीं होता, अर्थात् जिस तरह धातु, मिट्टी, जल, चमड़ा और शरीर में बिजली घुसकर पार निकल जाती है उस तरह लकड़ी को छेद कर बिजली पार नहीं हो सकती अतएव मैंने अपने पैर में लकड़ी के बुरादे का थैला चढ़ा लिया, बल्कि जूते के अन्दर भी लकड़ी की तख्ती रख दी, जिसमें दीवार से पैदा होने वाली बिजली का मुझ पर असर न हो, इसके बाद बेहोशी का असर न होने के लिए दवा भी खा ली, इतना करने पर भी जब तक मैं मकान के अन्दर झांकता रहा तब तक अपनी सांस को रोके रहा। मैंने अन्दर की तरफ चलती-फिरती और नाट्य करके हँसाने वाली पुतलियों को देखा और उस पीतल की चादर पर भी ध्यान दिया जो दीवार के ऊपर जड़ी थी और जिसके साथ कई तारे भी लगी हुई थीं। यद्यपि उसका असल भेद मुझे मालूम न हुआ मगर मैंने अपने बचाव की सूरत निकाल ली।

इतना कहकर भूतनाथ ने खंजर की नोक से अपने पायजामे में एक छेद कर दिया और उसमें, से लकड़ी का बुरादा निकाल कर सभी को दिखाया। भूतनाथ की बातें सुनकर महाराज बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भूतनाथ तथा और ऐयारों की तरफ देखकर कहा, "वास्तव में भूतनाथ ने बहुत ने बहुत ठीक तर्कीब सोची। उस तिलिस्म के अन्दर जो कुछ भेद है हम बता देते हैं, इसके बाद तुम लोग उसके अन्दर जाकर देख लेना । जमानिया तिलिस्म के अन्दर से इन्द्रजीतसिंह एक कुत्ता लाए हैं जो देखने में बहुत छोटा और संग-मर्मर का बना हुआ मालूम होता है और बहुत-सी पीतल की बारीक तारें उस पर लिपटी हुई हैं । असल में वह कुत्ता कई तरह के मसालों और दवाइयों से बना हुआ है । वह कुत्ता जब पानी में छोड़ दिया जाता है तो उसमें से मस्त और बदहोश कर देने वाली भाफ निकलती है और उसके साथ जो तारें लिपटी हुई हैं, उनमें बिजली पैदा हो जाती है। दीवार के ऊपर जो पीतल की चादर बिछाई गई है उसी के साथ वे तारें लगा दी गई हैं और उससे कुछ नीचे हटकर एक अच्छे तनाव का शामियाना तान दिया गया है, जिसमें कूदने वाले को चोट न लगे। इसके अतिरिक्त (भूतनाथ से) जिन्हें तुम पुतलियाँ कहते हो वे वास्तव में पुतलियाँ नहीं हैं बल्कि जीते जागते आदमी हैं जो भेष बदलकर काम करते हैं और एक खास किस्म की पोशाक पहनने और दवा सूंघने के सबब उन सब पर उस बिजली और बेहोशी का असर नहीं होता । इस खेल के दिखाने की तरकीब भी एक ताम्रपत्र पर लिखी हुई है जो उसी कुत्ते के साथ पाया गया था। इन्द्रजीत का बयान है कि जमानिया तिलिस्म में इस तरह के और भी कुत्ते मौजूद हैं ।

महाराज की बातें सुनकर सभी को बड़ा ताज्जुब हुआ, इसी तरह हमारे पाठक महाशय भी ताज्जुब करते और सोचते होंगे कि यह तमाशा सम्भव है या असम्भव ? मगर उन्हें समझ रखना चाहिए कि दुनिया में कोई बात असम्भव नहीं है। जो अब असम्भव है वह पहले जमाने में सम्भव थी और जो पहले जमाने में असम्भव थी वह आज सम्भव हो रही है। 'दीवार कहकहा' वाली बात आप लोगों ने जरूर सुनी होगी। [ २३० ]उसके विषय में भी यही कहा जाता है कि उस दीवार पर चढ़ कर दूसरी तरफ झांकने वाला हँसता-हँसता दूसरी तरफ कूद पड़ता था और फिर उस आदमी का पता ही नहीं लगता कि क्या हुआ और कहाँ गया। इस मशहूर और ऐतिहासिक बात को कई आदमी झूठ समझते हैं मगर वास्तव में ऐसा नहीं है । इसके विषय में हम नीचे एक लेख की नकल करते हैं जो तारीख 14 मार्च सन् 1905 ई० के अवध अखबार में छपा था-

"अगले जमाने में फिलासफर (वैज्ञानिक) लोग अपनी बुद्धि से जो चीजें बना गये हैं अब तक यादगार हैं। उनकी छोटी-सी तारीफ यह है कि इस समय के लोग उनके कामों को समझ भी नहीं सकते । उनके ऊंचे हौसले और ऊँचे खयाल की निशानी चीन हाते की दीवार है और हिन्दुस्तान में भी ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनका किस्सा आगे चल कर मैं लिखूगा । इस समय 'दीवार कहकहा' पर लिखना चाहता हूँ।"

"मैंने सन् 1899 ई० में 'अखबार आलम' मेरठ में कुछ लिखा जिसकी मालिक अखबार ने बड़ी प्रशंसा की थी, अब उसके कुछ और विशेष सबब खयाल में आये हैं जो बयान करना चाहता हूँ।

"मुसलमानों के प्रथम राज्य में उस समय के हाकिम ने इस दीवार की अवस्था जानने के लिए एक कमीशन भेजा था जिसके सफर का हाल दुनिया भर के अखबारों से प्रकट हुआ है।

"संक्षेप में यह कि कई आदमी मरे परन्तु ठीक तौर पर नहीं मालूम हो सका कि उस दीवार के उस तरफ क्या हाल-चाल है ।

"उसकी तारीफ इस तरह पर है कि उस दीवार की ऊँचाई पर कोई आदमी जा नहीं सकता और जो जाता है वह हँसते-हँसते दूसरी तरफ गिर जाता है, यदि गिरने से किसी तरह रोक लिया जाय तो जोर से हँसते-हंसते मर जाता है ।

"यह एक तिलिस्म कहा जाता है या कोई और बात है, पर यदि सोचा जाय तो यह कहा जायगा कि अवश्य किसी बुद्धिमान आदमी ने हकीमी कायदे से इस विचित्र दीवार को बनाया है।

"यह दीवार अवश्य कीमियाई विद्या से मदद लेकर बनाई गई होगी।"

यह बात जो प्रसिद्ध है कि दीवार के उस तरफ जिन्न और परी रहते हैं जिनको देखकर मनुष्य पागल हो जाता है और उसी तरफ को दिल दे देता है, यह बात ठीक हो सकती है परन्तु हँसता क्यों है यह सोचने की बात है।

कश्मीर में केशर के खेतों की भी यही तारीफ है । तो क्या उसकी सुगन्ध वहाँ जाकर एकत्र होती है, या वहाँ भी केशर के खेत हैं जिससे हंसी आती है ? परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि ऐसा होता तो यह भी मशहूर होता कि वहाँ केशर की महक आती है। नहीं-नहीं, कुछ और ही हिकमत है जैसा कि हिन्दुस्तान में किसी शहर के मसजिद की मीनारों में यह तारीफ थी कि ऊपर खड़े होकर पानी का भरा गिलास हाथ में लो तो वह आप ही आप छलकने लगता था। इसकी जाँच के लिए एक इंजीनियर साहब ने उसे गिरबा दिया और फिर उसी जगह पर बनवाया परन्तु वह बात न रही। या आगरा में ताजबीबी के रौजे के फव्वारों के नल जो मिट्टी के खरनचे की तरह थे जैसे खपरैल [ २३१ ]या बगीचे के नल होते हैं। संयोग से फव्वारों का एक नल टूट गया, उसकी मरम्मत की गई, तो दूसरी जगह से फट गया यहाँ तक कि तीस-चालीस वर्ष से बड़े-बड़े कारीगरों ने अपनी-अपनी कारीगरी दिखाई परन्तु सब व्यर्थ हुआ। अब तक तलाश है कि कोई उसे बना कर अपना नाम करे, मतलब यह कि 'दीवार कहकहा' भी ऐसी ही कारीगरी से बनी है जिसकी कीमियाई बनावट मेरी समझ में यों आती है कि सतह जहाँ जमीन से आसमान तक कई हिस्सों में अलग की गई है, लम्बाई का भाग कई हवाओं से मिला है जैसे आक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बोलिकएसिड गैस, क्लोराइन इत्यादि । फिर इन हवाओं में से और भी कई चीजें बनती हैं जैसा कि नाइट्रोजन का एक मोरक्कब पुट ऑक्साइड आफ नाइट्रोजन है (जिसको लाफिंग गैस भी कहते हैं)। बस दुनिया के उस सतह पर जहाँ लाफिंग गैस जिसको हिन्दी में हंसाने वाली हवा कहते हैं पाई गई है, उस जगह पर यह दीवार सतह जमीन से इस ऊँचाई तक बनाई गई है। इस जगह पर बड़ी दलील यह होगी कि फिर बड़ी बनाने वाले आदमी कैसे उस जगह अपने होश में रह सकें वे क्यों न हँसते-हँसते मर गये? और यही हल करना पहले मुझसे रह गया था जिसे अब उस नजीर से जो अमेरिका में कायम हुई है हल करता हूँ, याने जिस तरह एक मकान कल के सहारे एक जगह से उठा कर दूसरी जगह रख दिया जाता है उसी तरह यह दीवार भी किसी नीची जगह में इतनी ऊँची बनाकर कल से उठाकर उस जगह रख दी गई है जहाँ अब है। लाफिंग गैस में यह असर है कि मनुष्य उसके सूंघने से हँसते-हँसते दम घुट कर मर जाता है।

अब यह बात रही कि आदमी उस तरफ क्यों गिर पड़ता है ? इस खिचाव को भी हम समझे हुए हैं परन्तु उसकी केमिस्ट्री (कीमियाई) अभी हम न बतावेंगे, इसको फिर किसी समय पर कहेंगे।

"दृष्टान्त के लिए यह नजीर लिख सकते हैं कि ग्वालियर की जमीन की यह तासीर है कि जो मनुष्य वहाँ जाता है, वहीं का हो जाता है, जैसे यह कहावत है कि एक कांवर वाला जिसके कांवर में उसके माता-पिता थे वहाँ पहुँचा और कांवर उतार कर बोला कि तुम्हारा जहाँ जी चाहे जाओ, मुझको तुमसे कुछ वास्ता नहीं। उस तपस्वी के माता-पिता बुद्धिमान थे, उन्होंने अपने प्यारे लड़के की आरजू-मिन्नत करके कहा कि हमको चम्बल दरिया के पार उतार दो फिर हम चले जायेंगे । लाचार होकर बड़ी हुज्जत से लड़का उनको दरिया के पार ले गया, ज्योंही उस पार हुआ, त्योंही चाहा कि अपनी नादानी से लज्जित होकर माता-पिता के चरणों पर गिर कर माफी चाहे, परन्तु उसके माता-पिता ने कहा कि 'ऐ बेटा, तेरा कुछ कसूर नहीं, यह तासीर उस जमीन की थी।'

'दीवार कहकहा के उस तरफ भी ऐसा ही खिंचाव है, जिसको हम ग्वालियर की हिस्टरी तैयार हो जाने पर यदि जीते रहे तो किसी समय परमेश्वर कृपा से आप लोगों पर जाहिर करेंगे, अभी तो हमको यह विश्वास है कि इतिहास ग्वालियर के बनाने वाले ग्रेटर साहब ही इस खिंचाव के बारे में कुछ बयान करेंगे। इतिहास लेखक महाशय को चाहिए कि ग्वालियर की तारीफ में इस किस्से की हकीकत जरूर बयान करें कि कांवर वाले ने कांवर क्यों रख दी थी और इसकी तारीख लिखें या इस किस्से को झूठ साबित [ २३२ ]करें, क्योंकि जो बात मशहूर होती है ग्रंथकर्ता को उसके झूठ-सच के बारे में जरूर कुछ लिखना चाहिए। तो भी ग्वालियर का इतिहास तैयार हो जाने पर उस खिंचाव के बारे में जो दीवार के उस तरफ है पूरा-पूरा हाल लिखेंगे।"

ग्वालियर की जमीन में कई तरह की खासियत हैं जिनको हम उस हिस्टरी की समालोचना में (यदि वह बातें हिस्टरी से बच रहीं) जाहिर करेंगे। दीवार-कहकहा के सम्बन्ध में जहाँ तक अपना खयाल था आप लोगों पर प्रकट किया, यानी दुनिया के उस हिस्से की सतह पर दीवार नहीं बनाई गई है जहाँ ऑक्साइड आफ नाइट्रोजन है बल्कि पहले दूसरी जगह बनाकर फिर कल के जरिये से वहाँ उठाकर रख दी गई है । यदि यह कहा जाय कि गैस सिर्फ उसी जगह थी और जगह क्यों नहीं है तो उसका सहज जवाब यह है कि जमीन से आसमान तक तलाश करो, किसी-न-किसी ऊँचाई पर तुमको गैस मिल ही जायगी। दूसरे यह कि कोई हवा सिर्फ खास जगह पर मिलती है, मसलन बन्द जगह की हलाक करने वाली बन्द हवा, जैसा कि अक्सर कुएँ में आदमी बर्तते हैं और घबरा कर मर जाते हैं। यदि यह कहा जाय कि वहाँ हवा नहीं है तो यह नहीं हो सकता।

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पहले जमाने के आदमी अपनी कारीगरी का अच्छा-अच्छा नमूना छोड़ गये हैं- जैसे मिट्टी की मीनार, या नौशेरवानी बाग या जवाहरात के पेड़ों पर चिड़ियों का गाना या आगरे का ताज जिसकी तारीफ में तारीख-तुराब के बुद्धिमान लेखक ने किसी लेखक का यह फिकरा लिखा है जिसका संक्षेप यह है कि "इसमें कुछ बुराई नहीं, यदि है तो यही है कि कोई बुराई नहीं।"देखिये आगरा में बहुत-सी बादशाही समय की टूटी-फूटी इमारतें हैं जिनमें पानी दौड़ाने के नल (पाइप) वैसे ही मिट्टी के हैं जैसे कि आज-कल मिट्टी के गोल परनाले होते हैं, उन्हीं नलों से दूर-दूर से पानी आता और नीचे से ऊपर कई मरातिम तक जाता था। इसी तरह से ताजगंज के फव्वारों के नल भी थे तथा और भी इसी तरह के हैं जिनमें से एक टूटने पर लोहे के नल लगाये गये, जब उनसे काम न चला तो बड़े-बड़े भारी पत्थरों में छेद करके लगाये गये, परन्तु बेफायदा हुआ।

उन फव्वारों की यह तारीफ है कि जो जितना ऊँचा जा रहा है उतनी ही ऊँचाई पर यहाँ से वहाँ तक बराबर धारें गिरती हैं । अब जो कहीं बनते हैं तो धार बराबर करने को ऊँची-नीची सतह पर फव्वारे लगाने पड़ते हैं।

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इसी तरह का तिलिस्म के विषय का एक लेख ता० 30 मार्च, सन् 1905 के अवध अखबार में छपा था, उसका अनुवाद भी हम नीचे लिखते हैं-

"गुजरे हुए जमाने के काबिल-कदर यादगारो ! तुमको याद करके हम कहाँ तक [ २३३ ]रोयें और कहाँ तक विलाप करें? जमाने के बेकदर हाथों की बदौलत तुम अब मिट गये और मिटते चले जाते हो, जमीन तुमको खा गई और उनको भी खा गई जो तुम्हारे जानने वाले थे, यहाँ तक कि तुम्हारा निशान, तो निशान तुम्हारा नाम तक भी मिट गया!

"खलीफा-बिन-उम्मीयाँ के जमाने में जिन दिनों अब्दुल मलिक बिनमर्दा की तरफ से उसका भाई अब्दुलअजीज बिनमर्दा मिश्र देश का गवर्नर था, एक दिन उसके सामने दफीना (जमीन के नीचे छिपा हुआ खजाना) का हाल बतलाने वाल: कोई शख्स हाजिर हुआ। अब्दुल अजीज ने बात-बात ही में उससे कहा, "किसी दफीना का हाल तो बताइये !" जिसके जवाब में उसने एक टीले का नाम लेकर कहा कि उसमें खजाना है और इसकी परख इस तौर से हो सकती है कि वहां की थोड़ी जमीन खोदने पर संग- मरमर और स्याह पत्थर का फर्श मिलेगा, जिसके नीचे फिर खोदने से एक खाली दरवाजा दिखाई देगा, उस दरवाजे के उखड़ने के बाद सोने का एक खम्भा नजर आवेगा, जिसके ऊपरी हिस्से पर एक मुर्ग बैठा होगा, उसकी आँखों में जो सुर्ख मानिक जड़े हैं वह इस कदर कीमती हैं कि सारी दुनिया उनके बदले और दाम में काफी हो तो हो । उसके दोनों बाजू मानिक और पन्ने से सजे हुए हैं और सोने वाले खम्भे से सोने के पत्तरों का कुछ हिस्सा निकल कर उस मुर्ग के सिर पर छाया किये हुए है।

"यह ताज्जुब की बात सुन कर उस गवर्नर का कुछ ऐसा शौक बढ़ा कि आमतौर पर हुक्म दे दिया कि वह जगह खोदी जाय और जो लोग उसको खोदेंगे और उसमें काम करेंगे, उनको हजारों रुपये दिये जायेंगे । वह जगह एक टीले पर थी, इस वजह से बहुत घेरा देकर खुदाई का काम शुरू हुआ। पता देने वाले ने जो संगमर्मर और स्याह पत्थर के फर्श वगैरह बताये थे, वे मिलते जाते थे और बताने वाले के कौल की तसदीक होती जाती थी और इसी वजह से अब्दुलअजीज का शौक बढ़ता जाता था तथा खुदाई का काम मुस्तैदी के साथ होता जाता था कि यकायक मुर्ग का सिर जाहिर हुआ। सिर के जाहिर होते ही एकवारगी आँखों को चकाचौंध करने वाली तेज रोशनी उस खोदी हुई जगह से निकल कर फैल गई, मालूम हुआ कि बिजली तड़प गई ।

"यह गैरमामूली रोशनी मुर्ग की आँखों से निकल रही थी। दोनों आँखों में बड़े- बड़े मानिक जड़े हुए थे, जिनकी यह बिजली थी। और ज्यादा खोदे जाने पर उसके दोनों जड़ाऊ बाजू भी नजर आये और फिर उसके पाँव भी दिखाई दिये।

"उस मुर्ग वाले सोने के खम्भे के अलावा एक और खम्भा भी नजर आया जो एक इमारत की तरह पर था। यह इमारती खम्भा रंग-बिरंगे पत्थरों का बना हुआ था, जिसमें कई कमरे थे और उनकी छतें बिल्कुल छज्जेदार थीं। उसके दरवाजों पर बड़े और खूबसूरत आलों (ताकों) की एक कतार थी, जिनमें तरह-तरह की रखी हुई सूरतें और बनी सूरतें खूबी के साथ अपनी शोभा दिखा रही थीं, सोने और जवाहरात के जगह- जगह पर ढेर थे, जो छिपे हुए थे, ऊपर से चाँदी के पत्तर लगे थे और पत्तरों पर सोने की कीलें जड़ी थीं । अब्दुलअजीज बिनमर्दा यह खबर पाते ही बड़ो चाह से उस मौके पर पहुँचा और जो आश्चर्यजनक तिलिस्म वहाँ जाहिर था, उसको बहुत दिलचस्पी के साथ [ २३४ ]देर तक देखता रहा और तमाम खलकत की भीड़-भाड़ थी, तमाशबीन अपने बढ़े हुए शौक में एक-दूसरे पर गिरे पड़ते थे। एक जगह ढले हुए ताँबे की सीढ़ी ऊपर तक लगी हुई थी, उसको देखकर एक शख्स ऊपर जल्दी-जल्दी चढ़ने लगा, हरएक तमाशबीन ताज्जुब के साथ वहाँ की हर चीज को देख रहा था ।

"उस जीने की चौथी सीढ़ी पर जब चढ़ने वाले ने कदम रखा तो जीने की दाहिनी और बाईं तरफ से दो नंगी तलवारें, अपना काट और तड़प दिखाती हुई निकलीं । यद्यपि इस चढ़ने वाले ने बचने के लिए हर तरह की कोशिश की। मगर दोनों निकलने वाली तलवारें प्राणघातक शत्रु थीं, जिन्होंने देखते-ही-देखते इस चढ़ने वाले आदमी का काम तमाम कर दिया और फिर यह देखा गया कि इस शख्स के टुकड़े नीचे कट कर गिरे । उनके गिरते ही वह खम्भा झोंके ले-लेकर आप-से-आप हिलने लगा और उस पर से बैठा हुआ मुर्ग कुछ अजब शान से उड़ा कि देखने वाले अचम्भे में होकर देखते रह गये।

जिस वक्त उसने उड़ने के लिए अपने बाजू (डैने) फड़फड़ाये तो अद्भुत सुरीली और दिल लुभाने वाली आवाजें उससे निकलीं--लोग उन्हें सुनकर दंग रह गये और ये आवाजें हवा में गूंज कर दूर-दूर तक फैल गई।

उस मुर्ग के उड़ते ही एक किस्म की गर्म हवा चली जिसकी वजह से जिस कदर तमाशबीन आसपास में खड़े थे वे सब-के-सब उस तिलिस्मी गार (खोह) में गिर पड़े । उस गड़हे के अन्दर उस वक्त खोदने वोले बेलदार, मिट्टी को बाहर फेंकने वाले मजदूर और मेट वगैरह, जिनकी तादाद एक हजार कही जाती है, मौजूद थे। जो सब-के-सब बेचारे फौरन मर गये। अब्दुलअजीज ने यह हाल देखकर एक चीख मारी और कहा, "यह भी अजीब दुखदाई बात हुई ! इससे क्या उम्मीद रखनी चाहिए !"

इसके बाद और मजदूर उसमें लगा दिये गए । जिस कदर मिट्टी वगैरह निकली थी, वह सब-की-सब अन्दर डाल दी गई । वह मर जाने वाले तमाशबीन भी सब उसी के अन्दर तोप दिये गए और आखिर में वह तिलिस्मी जगह अच्छा-खासा एक 'कब्रिस्तान' बन गया। गये थे दफीना निकालने के लिए और इतनी जानें दफन कर आये, खर्च घाटे में रहा ।