चन्द्रकान्ता सन्तति 6/23.5
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पाठक, आपने सुना कि नानक ने क्या प्रण किया ? अतः अब यहाँ पर हम यह कह देना उचित समझते हैं कि नानक अपनी मां को लिये हुए जब घर पहुंचा तो वहाँ उसने एक दिन के लिए भी आराम न किया। ऐयारी का बटुआ तैयार करने के बाद हर तरह का इन्तजाम करके और चार-पांच शागिर्दो और नौकरों को साथ लेकर वह उसी दिन घर के बाहर निकला और चुनार की तरफ रवाना हुआ। जिस दिन कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की बारात निकलने वाली थी उस दिन वह चुनार की सरहद में मौजूद था। वारात की कैफियत उसने अपनी आँखों से देखी थी और इस बात की फिक्र में भी लगा हुआ था कि किसी तरह दो-चार कैदियों को कैद से छुड़ा कर अपना साथी बना लेना चाहिए और मौका मिलने पर राजा गोपालसिंह को भी इस दुनिया से उठा देना चाहिए।
अब हम कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल बयान करते हैं।
दोपहर दिन का समय है और सब कोई भोजन इत्यादि से निश्चिन्त हो चुके हैं।
एक सजे हुए कमरे में राजा गोपालसिंह, भरतसिंह, कुंअर आन्दसिंह, भैरोंसिंह और तारासिंह बैठे हुए हँसी-खुशी की बातें कर रहे हैं।
गोपालसिंह-(भरतसिंह से) क्या मुझे स्वप्न में भी इस बात की उम्मीद हो सकती थी कि आपसे किसी दिन मुलाकात होगी? कदापि नहीं, क्योंकि लोगों के कहने पर मुझे विश्वास हो गया कि आप जंगल में डाकुओं के हाथ से मारे गए
भरतसिंह--और इसका बहुत बड़ा सबब यह था कि तब तक दारोगा की बेई- मानी का आपको पता न लगा था, उसे आप ईमानदार समझते थे और उसी ने मुझे कैद किया था। गोपालसिंह--बेशक यही बात है मगर खैर, ईश्वर जिसका सहायक रहता है वह किसी के बिगाड़े नहीं बिगड़ सकता । देखिए, मायारानी ने मेरे साथ क्या कुछ नहीं किया, मगर ईश्वर ने मुझे बचा लिया और साथ ही इसके बिछुड़े हुओं को भी मिला दिया!
भरतसिंह--ठीक है, मगर मेरे प्यारे दोस्त, मैं कह नहीं सकता कि कम्बख्त दारोगा ने मुझे कैसी-कैसी तकलीफें दी हैं और मजा तो यह है कि इतना करने पर भी वह बराबर अपने को निर्दोष ही बताता रहा । अतः जब मैं अपना हाल बयान करूंगा तब आपको मालूम होगा कि दुनिया में कैसे-कैसे नमकहराम और संगीन लोग होते हैं और बदों के साथ नेकी करने का नतीजा बहुत बुरा होता है।
गोपालसिंह–ठीक है, ठीक है, इन्हीं बातों को सोचकर तो भैरोंसिंह बार-बार मुझसे कहते हैं कि 'आपने नानक को सूखा छोड़ दिया सो अच्छा नहीं किया, वह बद है और बदों के साथ नेकी करना वैसा ही है जैसा नेकों के साथ बदी करना।'
भरतसिंह--भैरोंसिंह का कहना वाजिब है, मैं उनका समर्थन करता हूँ।
भैरोंसिंह--कृपानिधान, सच तो यह है कि नानक की तरफ से मुझे किसी तरह बेफिक्री होती ही नहीं। मैं अपने दिल को कितना ही समझाता हूँ मगर वह जरा भी नहीं मानता। ताज्जुब नहीं कि भैरोंसिंह इतना कह ही रहा था कि सामने से भूतनाथ आता हुआ दिखाई पड़ा।
गोपालसिंह--अजी वाह जी भूतनाथ, चार-चार दफा बुलाने पर भी हमें आपके दर्शन नहीं होते!
भूतनाथ--(मुस्कुराता हुआ) अभी क्या हुआ है, दो-चार दिन बाद तो मेरे दर्शन और भी दुर्लभ हो जायेंगे!
गोपालसिंह--(ताज्जुब से) सो क्यों?
भूतनाथ--यही कि मेरा सपूत नानक शहर में आ पहुँचा है और मेरी अन्त्येष्टि क्रिया करके बहुत जल्द अपने सिर का बोझ हलका करने की फिक्र में लगा है । (बैठ कर) कृपा कर आप भी जरा होशियार रहियेगा!
गोपालसिंह--तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि वह इस बदनीयती के साथ यहाँ पर आ गया है?
भूतनाथ–-मुझे अच्छी तरह मालूम हो गया है। इसी से तो मुझे यहाँ आने में देर हो गई क्योंकि मैं यह हाल कहने और तीन-चार दिन की छुट्टी लेने के लिए महाराज के पास चला गया था, वहाँ से लौटा हुआ आपके पास आ रहा हूँ।
गोपालसिंह--तो क्या महाराज से छुट्टी ले आये?
भूतनाथ–-जी हाँ, अब आपसे यह पूछना है कि आप अपने लिए क्या बन्दोबस्त करेंगे?
गोपालसिंह--तुम तो इस तरह की बातें करते हो जैसे उसकी तरफ से कोई बहुत बड़ा तरवुद हो गया हो ! वह बेचारा कल का लौंडा हम लोगों के साथ क्या कर सकता है?
भूतनाथ--सो तो ठीक है, मगर दुश्मन को कभी छोटा और कमजोर नहीं समझना चाहिए।
गोपालसिंह-तुम्हें ऐसा ही डर है तो कहो बैठे-ही-बैठे चौबीस घण्टे के अन्दर उसे गिरफ्तार कराकर तुम्हारे हवाले कर दूं?
भूतनाथ-यह मुझे विश्वास है और आप ऐसा कर सकते हैं, मगर मुझे यह मंजूर नहीं है, क्योंकि मैं जरा दूसरे ढंग से उसका मुकाबला करना चाहता हूँ। आप जरा बाप-बेटे की लड़ाई देखिए तो! हाँ, अगर वह आपकी तरफ झुके, तो जैसा मौका देखिये, कीजियेगा।
गोपालसिंह-खैर, ऐसा ही सही ! मगर तुमने क्या सोचा है, जरा अपना मन- सूबा तो सुनाओ!
इसके बाद उन लोगों में देर तक बातें होती रहीं और दो घण्टे के बाद भूतनाथ उठकर अपने डेरे की तरफ चला गया।