चंद्रकांता संतति भाग 6
देवकीनंदन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १८१ से – १८४ तक

 

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इतना किस्सा कहकर दिलीपशाह ने दम लिया और फिर इस तरह कहना शुरू किया-

"गिरिजाकुमार ने अपना काम करके दारोगा का पीछा नहीं छोड़ा, बल्कि उसे यह जानने का शौक पैदा हुआ कि देखें, अब दारोगा साहब क्या करते हैं। जमानिया की तरफ विदा होते हैं, या पुनः मनोरमा के घर जाते हैं, या अगर मनोरमा के घर जाते हैं तो देखना चाहिए कि किस ढंग की बातें होती हैं और कैसी रंगत निकलती है।"

यद्यपि दारोगा का चित्त दुविधा में पड़ा हुआ था, परन्तु उसे इस बात का कुछ- कुछ विश्वास जरूर हो गया था कि मेरे साथ ऐसा खोटा बर्ताव मनोरमा ने ही किया है, दूसरे किसी को क्या मालूम है कि मुझमें उसमें किस समय क्या बातें हुई ! मगर साथ ही इसके वह इस बात को भी जरूर सोचता था कि मनोरमा ने ऐसा क्यों किया? मैं तो कभी उसकी बात से किसी तरह इनकार नहीं करता था। जो कुछ भी उसने कहा, उस बात की इजाजत तुरन्त दे दी, अगर वह चिट्ठी लिख देने के लिए कहती तो चिट्ठी भी लिख देता, फिर उसने ऐसा क्यों किया ..?

खैर, जो कुछ भी हो, दारोगा साहब अपने हाथ से रथ जोतकर सवार हुए और भनोरमा के पास न जाकर सीधे जमानिया की तरफ रवाना हो गये। यह देखकर गिरिजा- कुमार ने उस समय उनका पीछा छोड़ दिया और मेरे पास चला आया। जो कुछ मामला हुआ था, खुलासा बयान करने के बाद दारोगा साहब की लिखी हुई चिट्ठी दी और फिर मुझसे विदा होकर जमानिया की तरफ चला गया।

मुझे यह जानकर हौल-सी पैदा हो गई कि बेचारे गोपालसिंह की जान मुफ्त ही जाना चाहती है । मैं सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए, जिसमें गोपालसिंह की जान बचे। एक दिन और रात तो इसी सोच में पड़ा रह गया और अन्त में यह निश्चय किया कि इन्द्रदेव से मिलकर यह सब हाल कहना चाहिए। दूसरा दिन मुझे घर का इन्त- जाम करने में लग गया, क्योंकि दारोगा की दुश्मनी के खयाल से मुझे घर की हिफाजत का पूरा-पूरा इन्तजाम करके ही तब बाहर जाना जरूरी था, अतः मैंने अपनी स्त्री और बच्चे को गुप्त रीति से अपनी ससुराल अर्थात् स्त्री के माँ-धाप के घर पहुंचा दिया और उन लोगों को जो कुछ समझाना था, सो भी समया दिया। इसके बाद घर का इन्तजाम करके इन्द्रदेव की तरफ रवाना हुआ।

जब इन्द्रदेव के मकान पर पहुंचा तो देखा कि वे सफर की तैयारी कर रहे हैं। पूछने पर जवाब मिला कि गोपालसिंह बीमार हो गये हैं, उन्हें देखने के लिए ही जाते हैं । सुनने के साथ ही मेरा दिल धड़क उठा और मेरे मुंह से ये शब्द निकल पड़े-"हाय, अफसोस ! कम्बख्त दुश्मन लोग अपना काम कर गये!"

मेरी बात सुनकर इन्द्रदेव चौंक पड़े और उन्होंने पूछा, "आपने 'यह क्या कहा?" दो-चार खिदमतगार वहां मौजूद थे। उन्हें बिदा करके मैंने गिरिजाकुमार का सब हाल इन्द्रदेव से बयान किया और दारोगा साहब की लिखी हुई वह चिट्ठी उनके हाथ पर रख दी। उसे देखकर और सब हाल सुनकर इन्द्रदेव बेचैन हो गए, आधे घण्टे तक तो ऐसा मालूम होता था कि उन्हें तन-बदन की सुध नहीं है इसके बाद उन्होंने अपने को सम्हाला और मुझसे कहा-"बेशक, दुश्मन लोग अपना काम कर गए, मगर तुमने भी बहुत बड़ी भूल की, कि दो दिन की देर कर दी और आज मेरे पास खबर करने के लिए आये ! अभी दो ही घड़ी बीती हैं कि मुझे उनके बीमार होने की खबर मिली है, ईश्वर ही कुशल करें!"

इसके जवाब में चुप रह जाने के सिवाय मैं कुछ भी न बोल सका और अपनी भूल स्वीकार कर ली। कुछ और बातचीत होने के बाद इन्द्रदेव ने मुझसे कहा, "खैर, जो कुछ होना था सो हो गया, अब तुम भी मेरे साथ जमानिया चलो, वहाँ पहुँचने तक अगर ईश्वर कुशल रखी तो जिस तरह बन पड़ेगा, उनकी जान बचायेंगे!"

अतः हम दोनों आदमी तेज घोड़ों पर सवार होकर जमानिया की तरफ रवाना हो गये और साथियों को पीछे से आने की ताकीद कर गए।

जब हम लोग जमानिया के करीब पहुँचे और जमानिया सिर्फ दो कोस की दूरी पर रह गया तो सामने से कई देहाती आदमी रोते और चिल्लाते हुए आते दिखाई पड़े। हम लोगों ने घबराकर रोने का सबब पूछा तो उन्होंने हिचकियाँ लेकर कहा कि हमारे राजा गोपालसिंह हम लोगों को छोड़कर बैकुण्ठ चले गये।

सुनने के बाद हम लोगों का कलेजा धक् हो गया। आगे बढ़ने की हिम्मत न पड़ी और सड़क के किनारे एक घने पेड़ के नीचे जाकर घोड़ों पर से उतर पड़े। दोनों घोड़ों को पेड़ के साथ बांध दिया और जीनपोश बिछाकर बैठ गये, आँखों से आंसू की धारा बहने लगी। घण्टे भर तक हम दोनों में किसी तरह की बातचीत न हुई, क्योंकि चित्त बड़ा ही दुःखी हो गया था। उस समय दिन अनुमान तीन घण्टे के करीब बाकी था। हम दोनों आदमी पेड़ के नीचे बैठे आंसू बहा रहे थे कि यकायक जमानिया से लौटता हुआ गिरिजा- कुमार भी उसी जगह आ पहुँचा। उस समय उसकी सूरत बदली हुई थी, इसलिए हम लोगों ने तो नहीं पहचाना, परन्तु वह हम लोगों को देखकर स्वयं पास चला आया और अपना गुप्त परिचय देकर बोला, "मैं गिरिजाकुमारहूँ।"

इन्द्रदेव--(आँसू पोंछकर) अच्छे मौके परतुम आ पहुँचे । यह बताओ कि क्या वास्तव में राजा गोपालसिंह मर गये?

गिरिजाकुमार--जी हाँ, उनकी चिता मेरे सामने लगाई गई और देखते-ही- देखते उनकी लाश पंचतत्व में मिल गई, परन्तु अभी तक मेरे दिल को विश्वास नहीं होता कि राजा साहब मर गये।

इन्द्रदेव--(चौंककर) सो क्यों? यह कैसी बात?

गिरिजाकुमार--जी हाँ, हर तरह का रंग-ढंग देखकर मेरा दिल यह कबूल नहीं करता कि वे मर गये।

-क्या तुम्हारी तरह वहाँ और भी किसी को इस बात का शक है?

गिरिजाकुमार--नहीं, ऐसा तो नहीं मालूम होता, बल्कि मैं तो समझता हूँ कि खास दारोगा साहब को भी उनके मरने का विश्वास है, मगर क्या किया जाये. मुझे विश्वास नहीं होता और दिल बार-बार यही कहता है कि राजा साहब मरे नहीं।

इन्द्रदेव--आखिर, तुम क्या सोचते हो और इस बात का तुम्हारे पास क्या सबूत है ? तुमने कौन-सी ऐसी बात देखी, जिससे तुम्हारे दिल को अभी तक उनके मरने का विश्वास नहीं होता?

गिरिजाकुमार--और बातों के अतिरिक्त दो बातें तो बहुत ही ज्यादा शक पैदा करती हैं। एक तो यह है कि कल दो घण्टे रात रहते मैंने हरनामसिंह और बिहारीसिंह को एक कॅगले की लाश उठाये हुए चोर दरवाजे की राह से महल के अन्दर जाते हुए देखा, फिर बहुत टोह लेने पर भी लाश का कुछ पता न लगा और न वह लाश लौटाकर महल के बाहर ही निकाली गई, तो क्या वह महल ही में हजम हो गई ? उसके बाद केवल राजा साहब की लाश बाहर निकली।

इन्द्रदेव--जरूर, यह शक करने की जगह है।

गिरिजाकुमार--इसके अतिरिक्त राजा गोपालसिंह की लाश को बाहर निकालने और जलाने में हद दर्जे की फुर्ती और जल्दबाजी की गई, यहाँ तक कि रियासत के उमरा लोगों के भी इकट्ठा होने का इन्तजार नहीं किया गया। एक साधारण आदमी के लिए भी इतनी जल्दी नहीं की जाती, वे तो राजा ही ठहरे ! हां, एक बात और भी सोचने लायक है। चिता पर नियम के विरुद्ध लाश का मुंह खोले बिना ही क्रिया कर दी गई और इस बारे में बिहारीसिंह और हरनामसिंह तथा लौंडियों ने यह बहाना किया कि "राजा साहब की सूरत देख मायारानी बहुत बेहाल हो जायेंगी, इसलिए मुर्दे का मुंह खोलने की कोई जरूरत नहीं।" और लोगों ने इन बातों पर खयाल किया हो चाहे न किया हो, मगर मेरे दिल पर तो इन वातों ने बहुत बड़ा असर किया और यही सबब है कि मुझे राजा साहब के मरने का विश्वास नहीं होता।

इन्द्रदेव--(कुछ सोचकर) शक तो तुम्हारा बहुत ठीक है, अच्छा यह बताओ कि तुम इस समय कहाँ जा रहे थे?

गिरिजाकुमार--(मेरी तरफ इशारा करके) गुरुजी के पास यही सब हाल कहने के लिए जा रहा था।

मैं--इस समय मनोरमा कहाँ है सो बताओ!

गिरिजाकुमार--जमानिया में मायारानी के पास है। मैं तुम्हारे हाथ से छूटने के बाद दारोगा और मनोरमा में कैसी निपटी इसका कुछ हाल मालूम हुआ?

गिरिजाकुरार--जी हाँ, मालूम हुआ। उस बारे में बहुत बड़ी दिल्लगी हुई जो मैं निश्चिन्ती के साथ बयान करूंगा।

इन्द्रदेव--अच्छा, यह तो बताओ कि गोपालसिंह के बारे में तुम्हारी क्या राय है और अब हम लोगों को क्या करना चाहिए?

गिरिजाकुमार--इस बारे में मैं एक अदना और नादान आदमी आपको क्या राय दे सकता हूँ ! हाँ, मुझे जो कुछ आज्ञा हो सो करने के लिए जरूर तैयार हूँ।

इतनी बातें हो ही रही थी कि सामने जमानिया की तरफ से दारोगा और जयपाल घोड़ों पर सवार आते हुए दिखाई पड़े, जिन्हें देखते ही गिरिजाकुमार ने कहा, "देखिए, ये दोनों शैतान कहीं जा रहे हैं, इसमें भी कोई भेद जरूर है, यदि आज्ञा हो तो मैं इनके पीछे जाऊँ।"

दारोगा और जयपाल को देखकर हम दोनों पेड़ की तरफ घूम गये, जिसमें वे हमें पहचान न सकें। जब वे आगे निकल गए, तब मैंने अपना घोड़ा गिरिजाकुमार को देकर कहा, "तुम जल्द सवार होकर इन दोनों का पीछा करो।" और गिरिजाकुमारने ऐसा ही किया।