चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

[ ७९ ]

4

मैं नहीं कह सकता कि भूतनाथ ने ऐसा क्यों किया। भूतनाथ का कौल तो यही है कि मैंने उनको पहचाना नहीं, और धोखा हुआ। खैर जो हो, दयाराम के गिरते ही मेरे मुंह से 'हाय' की आवाज निकली और मैंने भूतनाथ से कहा, "ऐ कम्बख्त ! तूने बेचारे दयाराम को क्यों मार डाला जिन्हें बड़ी मुश्किल से हम लोगों ने खोज निकाला था!".

मेरी बात सुनते ही भूतनाथ सन्नाटे में आ गया। इसके बाद उसके दोनों साथी तो न मालूम क्या सोचकर एकदम भाग खड़े हुए, मगर भूतनाथ बड़ी बेचैनी से दयाराम के पास बैठकर उनका मुंह देखने लगा। उस समय भूतनाथ के देखते ही देखते उन्होंने आखिरी हिचकी ली और दम तोड़ दिया । भूतनाथ उनकी लाश के साथ चिपटकर रोने लगा और बड़ी देर तक रोता रहा। तब तक हम तीनों आदमी पुनः मुकाबला करने लायक हो गये और इस बात से हम लोगों का साहस और भी बढ़ गया कि भूतनाथ के दोनों साथी उसे अकेला छोड़कर भाग गये थे। मैंने मुश्किल से भूतनाथ को अलग किया और कहा, "अब रोने और नखरा करने से फायदा ही क्या होगा, उसके साथ ऐसी ही मुहब्बत थी तो उन पर वार न करना था, अब उन्हें मारकर औरतों की तरह नखरा करने बैठे हो !"

इतना सुनकर भूतनाथ ने अपनी आँखें पोंछी और मेरी तरफ देख के कहा, "क्या मैंने जानबूझकर इन्हें मार डाला है ?"

मैं-—बेशक ! क्या यहाँ आने के साथ ही तुमने उन्हें चारपाई पर पड़े नहीं देखा था?

भूतनाथ-–देखा था, मगर मैं नहीं जानता था कि ये दयाराम हैं। इतने मोटे-ताजे आदमी को यकायक ऐसा दुबला-पतला देखकर मैं कैसे पहचान सकता था?

मैं--क्या खूब, ऐसे ही तो तुम अन्धे थे ? खैर, इसका इन्साफ तो रणधीरसिंह के सामने ही होगा, इस समय तुम हमसे फैसला कर लो, क्योंकि अभी तक तुम्हारे दिल में लड़ाई का हौसला जरूर बना होगा।

भूतनाथ -- (अपने को संभालकर और मुंह पोंछकर) नहीं-नहीं, मुझं अब लड़ने का हौसला नहीं है, जिसके वास्ते मैं लड़ता था जब वही नहीं रहा तो अब क्या ? मुझे ठीक पता लग चुका था कि दयाराम तुम्हारे फेर में पड़े हुए हैं, और अपनी आँखों से देख भी लिया, मगर अफसोस है कि मैंने पहचाना नहीं और ये इस तरह धोखे में मारे गये । लेकिन इसका कसुर भी तुम्हारे ही सिर लग सकता है। [ ८० ]मैं-खैर, अगर तुम्हारे किए हो सके तो तुम बिल्कुल कसूर मेरे ही सिर थोप देना, मैं अपनी सफाई आप कर लंगा, मगर इतना समझ रखो कि लाख कोशिश करने पर भी तुम अपने को बचा नहीं सकते, क्योंकि मैंने इन्हें खोज निकालने में जो कुछ मेहनत की थी, वह इन्द्रदेवजी के कहने से की थी, न तो मैं अपनी प्रशंसा कराना चाहता था और न इनाम ही लेना चाहता था, बल्कि जरूरत पड़ने पर मैं इन्द्रदेव की गवाही दिला सकता हूँ और तुम भी अपने को बेकसूर साबित करने के लिए नागर को पेश कर देना, जिसके कहने और सिखाने में आकर तुमने मेरे साथ दुश्मनी पैदा कर ली।

इतना सुनकर भूतनाथ सन्नाटे में आ गया । सिर झुकाकर देर तक सोचता रहा और इसके बाद लम्बी सांस लेकर उसने मेरी तरफ देखा और कहा, "बेशक मुझे नागर कम्बख्त ने धोखा दिया ! अब मुझे भी इन्हीं के साथ मर-मिटना चाहिए।" इतना कह-कर भूतनाथ ने खंजर हाथ में ले लिया, मगर कुछ न कर सका, अर्थात् अपनी जान न दे सका।

महाराज, जवामर्दो का कहना बहुत ठीक है कि बहादुरों को अपनी जान प्यारी नहीं होती । वास्तव में जिसे अपनी जान प्यारी होती है, वह कोई हौसले का काम नहीं कर सकता और जो अपनी जान हथेली पर लिए रहता है और समझता है कि दुनिया में मरना एक बार ही है, कोई बार-बार नहीं मरता, वही सब कुछ कर सकता है । भूत-वहादुर होने में सन्देह नहीं, परन्तु इसे अपनी जान प्यारी जरूर थी और इस उल्टी बात का सबब यही था कि वह ऐयाशी के नशे में चूर था। जो आदमी ऐयाश होता है, उसमें ऐयाशी के सबब कई तरह की बुराइयाँ आ जाती हैं और बुराइयों की बुनियाद जम जाने के कारण ही उसे अपनी जान प्यारी हो जाती है, तथा वह कोई भी काम नहीं कर सकता। यही सबब था कि उस समय भूतनाथ जान न दे सका, बल्कि उसकी हिफाजत करने का ढंग जमाने लगा, नहीं तो उस समय मौका ऐसा ही था, इससे जैसी भूल हो गई थी, उसका बदला तभी पूरा होता जब यह भी उसी जगह अपनी जान दे देता और उस मकान से तीनों लाशें एक साथ ही निकाली जाती।

भूतनाथ ने कुछ देर तक सोचने के बाद मुझसे कहा-“मुझे इस समय अपनी जान भारी हो रही है है और मैं मर जाने के लिए तैयार हूँ, मगर मैं देखता हूँ कि ऐसा करने से भी किसी को फायदा नहीं पहुँचेगा। मैं जिसका नमक खा चुका हूँ और खाता हूँ, उसका और भी नुकसान होगा क्योंकि इस समय वह दुश्मनों से घिरा हुआ है । अगर मैं जीता रहूँगा तो उनके दुश्मनों का नामोनिशान मिटाकर उन्हें बेफिक्र कर सकूँगा, अतएव मैं माफी माँगता हूं कि तुम मेहरबानी कर मुझे सिर्फ दो साल के लिए जीता छोड़ दो।"

मै--दो वर्ष के लिए क्या, जिन्दगी-भर के लिए मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ। जब तुम मुझसे लड़ना नहीं चाहते तो मैं क्यों तुम्हें मारने लगा ? बाकी।खामखाह मुझसे दुश्मनी पैदा कर ली है, सो उसका नतीजा तुम्हें आप से आप मिल जायगा जब लोगों को यह मालूम होगा कि भूतनाथ के हाथ से बेचारा दयाराम मारा यह बात कि तुमने गया। [ ८१ ]भूतनाथ--नहीं-नहीं, मेरा मतलब तुम्हारी पहली बात से नहीं है, बल्कि दूसरी बात से है, अर्थात् अगर तुम चाहोगे तो लोगों को इस बात का पता ही नहीं लगेगा कि दयाराम भूतनाथ के हाथ से मारा गया।

मैं--यह क्योंकर छिप सकता है ?

भूतनाथ--अगर तुम छिपाओ तो सब छिप जायगा।

मुख्तसिर यह कि धीरे-धीरे बातों को बढ़ाता हुआ भूतनाथ मेरे पैरों पर गिर पड़ा और बड़ी खुशामद के साथ कहने लगा कि तुम इस मामले को छिपाकर मेरी जान बचा लो । केवल इतना ही नहीं, इसने मुझे हर तरह के सब्जबाग दिखाए और कसमें दे-देकर मेरी नाक में दम कर दिया। लालच में तो मैं नहीं पड़ा, मगर पिछली मुरौवत के फेर में जरूर पड़ गया और भेद को छिपाये रखने की कसम खाकर अपने साथियों को साथ लिए हुए मैं उस घर के बाहर निकल गया। भूतनाथ तथा दोनों लाशों को उसी तरह छोड़ दिया, फिर मुझे मालूम नहीं कि भूतनाथ ने उन लाशों के साथ क्या बर्ताव किया।"

यहाँ तक भूतनाथ का हाल कहकर कुछ देर के लिए दलीपशाह चुप हो गया और उसने इस नीयत से भूतनाथ की तरफ देखा कि देखें यह कुछ बोलता है या नहीं। इस समय भूतनाथ की आँखों से आँसू की नदी बह रही थी और वह हिचकियाँ ले-लेकर रो रहा था । बड़ी मुश्किल से भूतनाथ ने अपने दिल को सम्हाला और दुपट्टे से मुह पोंछ कर कहा, "ठीक है, ठीक है, जो कुछ दलीपशाह ने कहा, सब सच है । मगर यह बात मैं कसम खाकर कह सकता हूँ कि मैंने जानबूझकर दयाराम को नहीं मारा । वहाँ राजसिंह को खुले हुए देखकर मेरा शक यकीन के साथ बदल गया और चारपाई पर पड़े हुए देखकर भी मैंने दयाराम को नहीं पहचाना । मैंने समझा कि यह भी कोई दलीपशाह का साथी होगा। बेशक दलीपशाह पर मेरा शक मजबूत हो गया था और मैं समझ बैठा था कि जिन लोगों ने दयाराम के साथ दुश्मनी की है दलीपशाह जरूर उनका साथी है। यह शक यहाँ तक मजबूत हो गया था कि दयाराम के मारे जाने पर भी दलीपशाह की तरफ से मेरा दिल साफ न हुआ। बल्कि मैंने समझा कि इसी (दलीपशाह) ने दयाराम को वहाँ लाकर कैद किया था। जिस नागर पर मुझे शक हुआ था, उसी कम्बख्त की जादू-भरी बातों में मैं फंस गया और उसी ने मुझे विश्वास दिला दिया कि इसका कर्ता-धर्ता दलीप शाह है । यही सबब है कि इतना हो जाने पर भी मैं दलीपशाह का दुश्मन बना ही रहा। हाँ, दलीपशाह ने एक बात नहीं कही, वह यह है कि इस भेद को छिपाये रखने की कसम खाकर भी दलीपशाह ने मुझे सूखा नहीं छोड़ा। इन्होंने कहा कि तुम कागज पर लिखकर माफी मांगो तब मैं तुम्हें माफ करके यह भेद छिपाये रखने की कसम खा सकता हूँ । लाचार होकर मुझे ऐसा करना पड़ा और मैं माफी के लिए चिट्ठी लिख हमेशा के लिए इनके हाथ में फंस गया।

दलीपशाह--बेशक यही बात है, और मै अगर ऐसा न करता तो थोड़े ही दिन बाद भूतनाथ मुझे दोपी ठहरा कर आप सच्चा बन जाता। खैर, अब मैं इसके आगे का हाल बयान करता हूँ जिसमें थोड़ा-मा हाल तो ऐसा ही होगा जो मुझे खास भूतनाथ से [ ८२ ]मालूम हुआ था।

इतना कहकर दलीपशाह ने फिर अपना बयान शुरू किया-

दलीपशाह--जैसाकि भूतनाथ भी कह चुका है, बहुत मिन्नत और खुशामद से लाचार होकर मैंने कसूरवार होने और माफी मांगने की चिट्ठी लिखाकर इसे छोड़ दिया और इसका ऐब छिपा रखने का वादा करके अपने साथियों को साथ लिए उस घर से बाहर निकल गया और भूतनाथ की इच्छानुसार दयाराम की लाश को और भूतनाथ को उसी मकान में छोड़ दिया। फिर मुझे नहीं मालूम कि क्या हुआ और इसने दयाराम की लाश के साथ कैसा बर्ताव किया।

वहाँ से बाहर होकर मैं इन्द्रदेव की तरफ रवाना हुआ, मगर रास्ते भर सोचता जाता था कि अब मुझे क्या करना चाहिए, दयाराम का सच्चा-सच्चा हाल इन्द्रदेव से बयान करना चाहिए या नहीं । आखिर हम लोगों ने निश्चय कर लिया कि जब भूतनाथ से वादा कर चुके हैं तो इस भेद को इन्द्रदेव से भी छिपा ही रखना चाहिए।

जब हम लोग इन्द्रदेव के मकान में पहुंचे तो उन्होंने कुशल-मंगल पूछने के बाद दयाराम का हाल दरियाफ्त किया जिसके जवाब में मैंने असल मामले को तो छिपा रखा और बात बनाकर यों कह दिया कि कुछ मैंने या आपने सुना था, वह ठीक ही निकला अर्थात् राजसिंह ही ने दयाराम के साथ वह सलूक किया और दयाराम राजसिंह के घर में मौजूद भी थे, मगर अफसोस, बेचारे दयाराम को हम लोग छुड़ा न सके और वे जान से मारे गये !

इन्द्रदेव--(चौंककर) हैं ! जान से मारे गये !

मैं जी हां, और इस बात की खबर भूतनाथ को भी लग चुकी थी। मेरे पहले ही भूतनाथ, राजसिंह के उस मकान में जिसमें दयाराम को कैद कर रखा था, पहुँच गया और उसने अपने सामने दयाराम की लाश देखी जिसे कुछ ही देर पहले राज सह ने मार डाला था, तब भूतनाथ ने उसी समय राजसिंह का सिर काट डाला। सिवाय इसके वह और कर ही क्या सकता था!इसके थोड़ी देर बाद हम लोग भी उस घर जा पहुंचे और दयाराम तथा राजसिंह की लाश और भूतनाथ को वहां मौजूद पाया, दरियाफ्त करने पर भूतनाथ ने सब हाल बयान किया और अफसोस करते हुए हम लोग वहाँ से रवाना हुए।

इन्द्रदेव--अफसोस ! बहुत बुरा हुआ ! खैर, ईश्वर की मर्जी !

मैंने भूतनाथ के ऐब को छिपाकर जो कुछ इन्द्रदेव से कहा, भूतनाथ की इच्छानुसार ही कहा था। भूतनाथ ने भी यही बात मशहूर की और इस तरह अपने ऐब को छिपा रखा।

यहां तक भूतनाथ का किस्सा कहकर जब दलीपशाह कुछ देर के लिए चुप हो गया तब तेजसिंह ने उससे पूछा, "तुमने तो भला भूतनाथ की बात मानकर उस मामले को छिपा रखा, मगर शम्भू वगैरह इन्द्रदेव के शागिर्दो ने अपने मालिक से उस भेद को क्यों छिपाया?"

दलीपशाह--(एक लम्बी साँस लेकर) खुशामद और रुपया बड़ी चीज है । बस, [ ८३ ]इसी से समझ जाइये और मैं क्या कहूँ !

तेजसिंह-ठीक है, अच्छा तब क्या हुआ? भूतनाथ की कथा इतनी ही है, या और भी कुछ ?

दलीपशाह-जी अभी भूतनाथ की कथा समाप्त नहीं हुई, अभी मुझे बहुत-कुछ कहना बाकी है। और बातों के सिवाय भूतनाथ से एक कसूर ऐसा हुआ है जिसका रंज भूतनाथ को इससे भी ज्यादा होगा।

तेजसिंह–सो क्या?

दलीपशाह–सो भी मैं अर्ज करता हूँ।

इतना कहकर दलीपशाह ने फिर कहना शुरू किया-

इस मामले को वर्षों बीत गये । मैं भूतनाथ की तरफ से कुछ दिनों तक बेफिक रहा, मगर जब यह मालूम हुआ कि भूतनाथ मेरी तरफ से निश्चिन्त नहीं है बल्कि मुझे इस दुनिया से उठा, बेफिक्र हुआ चाहता है तो मैं भी होशियार हो गया और दिन-रात अपने बचाव की फिक्र में डूबा रहने लगा। (भूतनाथ की तरफ देखकर) भूतनाथ, अब मैं वह हाल बयान करूँगा जिसकी तरफ उस दिन मैंने इशारा किया था, जब तुम हमें गिरफ्तार करके एक विचित्र पहाड़ी स्थान में ले गये थे और जिसके विषय में तुमने कहा था कि-"यद्यपि मैंने दलीपशाह की सूरत नहीं देखी है" इत्यादि । मगर क्या तुम इस समय भी...

भूतनाथ--(बात काटकर) भला मैं कैसे कह सकता हूँ कि मैंने दलीपशाह की सुरत नहीं देखी है जिसके साथ ऐसे-ऐसे मामले हो चुके हैं, मगर उस दिन मैंने तुम्हें भी धोखा देने के लिए वे शब्द कहे थे, क्योंकि मैंने तुम्हें पहचाना नहीं था। इस कहने से मेरा मतलब था कि अगर तुम दलीपशाह न होगे तो कुछ न कुछ जरूर बात बनाओगे। खैर, जो कुछ हुआ सो हुआ। मगर तुम वास्तव में अब उस किस्से को बयान करने वाले हो?

दलीपशाह--हां, मैं उसे जरूर बयान करूँगा।

भूतनाथ--मगर उसके सुनने से किसी को कुछ फायदा नहीं पहुंच सकता और न किसी तरह की नसीहत ही हो सकती है। वह तो महज मेरी नादानी और पागलपने की बात थी। जहाँ तक मैं समझता हूँ, उसे छोड़ देने से कोई हर्ज नहीं होगा।

दलीपशाह--नहीं, उसका बयान जरूरी जान पड़ता है। क्या तुम नहीं जानते या भूल गये कि उसी किस्से को सुनने के लिए कमला की भां, अर्थात् तुम्हारी स्त्री यहाँ आई हुई है?

भूतनाथ-ठीक है, मगर हाय ! मैं सच्चा बदनसीब हूँ जो इतना होने पर भी उन्हीं बातों को

इन्द्रदेव--अच्छा-अच्छा, जाने दो भूतनाथ ! अगर तुम्हें इस बात का शक है कि दलीपशाह बातें बनाकर कहेगा या उसके कहने का ढंग लोगों पर बुरा असर डालेगा तो

1. देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति बीसवां भाग, बारहवां बयान । [ ८४ ]मैं दलीपशाह को वह हाल कहने से भी रोक दूंगा और तुम्हारे ही हाथ की लिखी हुई तुम्हारी अपनी जीवनी पढ़ने के लिए किसी को दूंगा जो इस सन्दूकड़ी में बन्द है ।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने वही सन्दूकड़ी निकाली जिसकी सूरत देखने ही से भूत- नाथ का कलेजा काँपता था ।

उस सन्दूकड़ी को देखते ही एक दफे तो भूतनाथ घबराया-सा होकर काँपा, मगर तुरन्त ही उसने अपने को सँभाल लिया और इन्द्रदेव की तरफ देख के बोला, "हाँ हाँ आप कृपा कर इस सन्दूकड़ी को मेरी तरफ बढ़ाइये, क्योंकि यह मेरी चीज है और मैं इसे लेने का हक रखता हूँ । यद्यपि कई ऐसे कारण हो गये हैं जिनसे आप कहेंगे कि यह सन्दूकड़ी तुम्हें नहीं दी जायगी, मगर फिर भी मैं इसी समय इस पर अपना कब्जा कर सकता हूँ, क्योंकि देवीसिंहजी मुझसे प्रतिज्ञा कर चुके हैं कि सन्दूकड़ी बन्द की बन्द तुम्हें दिला दूंगा, अब देवीसिंहजी की प्रतिज्ञा झूठी नहीं हो सकती !" इतना कहकर भूत- नाथ ने देवीसिंह की तरफ देखा।

देवीसिंह--(महाराज से) निःसन्देह मैं ऐसी प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।

महाराज--अगर ऐसा है तो तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी नहीं हो सकती। मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।

इतना सुनते ही देवीसिंह उठ खड़े हुए, उन्होंने इन्द्रदेव के सामने से वह सन्दूकड़ी उठा ली और यह कहते हुए भूतनाथ के हाथ में दे दी, "लो मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करता हूँ, तुम महाराज को सलाम करो जिन्होंने मेरी और तुम्हारी इज्जत रख ली।"

भूतनाथ–-(महाराज को सलाम करके) महाराज की कृपा से अब मैं जी उठा।

तेजसिंह--भूतनाथ, तुम यह निश्चय जानो कि यह सन्दूकड़ी अभी तक खोली नहीं गयी है, अगर सहज में खुलने लायक होती तो शायद खुल गयी होती।

भूतनाथ--(सन्दूकड़ी अच्छी तरह देख-भाल कर) बेशक यह अभी तक खुली नहीं है ! मेरे सिवाय कोई दूसरा आदमी इसे बिना तोड़े खोल भी नहीं सकता। यह सन्दूकड़ी मेरी बुराइयों से भरी हुई है, या यों कहिये कि यह मेरे भेदों का खजाना है, यद्यपि इसमें के कई भेद खुल चुके हैं, खुल रहे हैं और खुलते जायेंगे, तथापि इस समय इसे ज्यों का त्यों बन्द पाकर मैं बराबर महाराज को दुआ देता हुआ यही कहूँगा कि मैं जी उठा, जी उठा, जी उठा ! अब मैं खुशी से अपनी जीवनी कहने और सुनने के लिए तैयार हूँ और साथ ही इसके यह भी कह देता हूँ कि अपनी जीवनी के सम्बन्ध में जो कुछ कहूँगा, सच कहूंगा !

इतना कहकर भूतनाथ ने वह सन्दूकड़ी अपने बटुए में रख ली और पुनः हाथ जोड़कर महाराज से बोला, महाराज, मैं वादा कर चुका हूँ कि अपना हाल सच-सच वयान करूँगा, परन्तु मेरा हाल बहुत बड़ा और शोक, दुःख तथा भयंकर घटनाओं से भरा हुआ है। मेरे प्यारे मित्र इन्द्रदेवजी, जिन्होंने मेरे अपराधों को क्षमा कर दिया है, कहते हैं कि तेरी जीवनी से लोगों का उपकार होगा और वास्तव में बात भी ठीक ही है अतएव कई कठिनाइयों पर ध्यान देकर मैं नियमपूर्वक महाराज से एक महीने की मौह- लत मांगता हूँ। इस बीच मैं अपना पूरा-पूरा हाल लिखकर पुस्तक के रूप में महाराज के [ ८५ ]सामने पेश करूंगा और सम्भव है कि महाराज उसे सुन-सुनाकर यादगार के तौर पर अपने खजाने में रखने की आज्ञा देंगे । इस एक महीने के बीच में मुझे भी सब बातें याद करके लिख लेने का मौका मिलेगा और मैं अपनी निर्दोष स्त्री तथा उन लोगों से जिन्हें देखने की भी आशा नहीं थी, परन्तु जो बहुत-कुछ दुःख भोगकर भी दोनों कुमारों की बदौलत इस समय यहाँ आ गये हैं और जिन्हें मैं अपना दुश्मन समझता था, मगर अब महाराज की कृपा से जिन्होंने मेरे कसूरों को माफ कर दिया है, मिल-जुलकर कई बातों का पता भी लगा लूंगा, जिससे मेरा किस्सा सिलसिलेवार और कायदे से हो जायगा।"

इतना कहकर भूतनाथ ने इन्द्रदेव, राजा गोपालसिंह, दोनों कुमारों और दलीप- शाह वगैरह की तरफ देखा और तुरन्त ही मालूम कर लिया कि उसकी अर्जी कबूल कर ली जायगी।

महाराज ने कहा, "कोई चिन्ता नहीं, तब तक हम लोग कई जरूरी कामों से छुट्टी पा लेंगे।" राजा गोपालसिंह और इन्द्रदेव ने भी इस बात को पसन्द किया और इसके बाद इन्द्रदेव ने दलीपशाह की तरफ देखकर पूछा, "क्यों दलीपशाह, इसमें तुम लोगों को कोई उज्र तो नहीं है ?"

दलीपशाह--(हाथ जोड़कर) कुछ भी नहीं, क्योंकि अब महाराज की आज्ञा- नुसार हम लोगों को भूतनाथ से किसी तरह की दुश्मनी भी नहीं रही और न यही उम्मीद है कि भूतनाथ हमारे साथ किसी तरह की खुटाई करेगा, परन्तु मैं इतना जरूर कहूँगा कि हम लोगों का किस्सा भी महाराज के सुनने लायक है और हम लोग भूतनाथ बाद अपना किस्सा भी सुनाना चाहते हैं।

महाराज--निःसन्देह तुम लोगों का किस्सा भी सुनने योग्य होगा और हम लोग उसके सुनने की अभिलाषा रखते हैं । यदि सम्भव हुआ तो पहले तुम्हीं लोगों का किस्सा सुनने में आवेगा । मगर सुनो दलीपशाह, यद्यपि भूतनाथ से बड़ी-बड़ी बुराइयाँ हो चुकी हैं और भूतनाथ तुम लोगों का भी कसूरवार है, परन्तु इधर हम लोगों के साथ भूतनाथ ने जो कुछ किया है, उसके लिए हम लोग इसके अहसानमन्द हैं और इसे अपना हितू समझते हैं।

इन्द्रदेव--बेशक-बेशक !

गोपाल सिंह-जरूर हम लोग इसके अहसान के बोझ से दबे हुए हैं।

दलीपशाह--मैं भी ऐसा ही समझता हूँ । भूतनाथ ने इधर जो-जो अनूठे काम किए हैं, उनका हाल कुँअर साहब की जुबानी हम लोग सुन चुके हैं। इसी खयाल से तथा कुंअर साहब की आज्ञा से हम लोगों ने सच्चे दिल से भूतनाथ का अपराध क्षमा ही नहीं कर दिया बल्कि कुअर साहब के सामने इस बात की प्रतिज्ञा भी कर चुके हैं कि भूतनाथ को दुश्मनी की निगाह से कभी न देखेंगे ।

महाराज--बेशक, ऐसा ही होना चाहिए, अतः बहुत-सी बातों को सोचकर और इसकी कार गुजारी पर ध्यान देकर हमने इसके सब कसूर माफ करके इसे अपना ऐयार बना लिया है, आशा है कि तुम लोग भी इसे अपनायत की निगाह से देखोगे और पिछली बातों को बिल्कुल भूल जाओगे । [ ८६ ]दलीपशाह-महाराज अपनी आज्ञा के विरुद्ध चलते हुए हम लोगों को कदापि न देखेंगे, यह हमारी प्रतिज्ञा है।

महाराज-(अर्जुनसिंह तथा दलीपशाह के दूसरे साथी की तरफ देख कर) तुम गों की जुबान से भी हम ऐसा ही सुनना चाहते हैं ।

दलीपशाह का साथी—मेरी भी यही प्रतिज्ञा है और ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरे दिल में दुश्मनी के बदले दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की करने वाली भूतनाथ की मुहब्बत पैदा करें।

महाराज-शाबाश ! शाबाश!

अर्जुनसिंह-कुंअरसाहब के सामने मैं जो कुछ प्रतिज्ञा कर चुका हूँ उसे महाराज सुन चुके होंगे। इस समय महाराज के सामने भी शपथ खाकर कहता हूँ कि स्वप्न में भी भूतनाथ के साथ दुश्मनी का ध्यान आने पर मैं अपने को दोषी समझूगा।

इतना कहकर अर्जुनसिंह ने वह तस्वीर जो उसके हाथ में थी, फाड़ डाली और टुकड़े-टुकड़े करके भूतनाथ के आगे फेंक दी और पुनः महाराज की तरफ देखकर कहा, "यदि आज्ञा हो और बेअदबी न समझी जाय तो हम लोग इसी समय भूतनाथ से गले मिलकर अपने उदास दिल को प्रसन्न कर लें।"

महाराज-यह तो हम स्वयं कहने वाले थे।

इतना सुनते ही दोनों दलीपशाह, अर्जुनसिंह और भूतनाथ आपस में गले मिले और इसके बाद महाराज का इशारा पाकर एक साथ बैठ गये ।

भूतनाथ-(दूसरे दलीपशाह और अर्जुनसिंह की तरफ देखकर) अब कृपा करके मेरे दिल का खटका मिटाओ और साफ-साफ बता दो कि तुम दोनों में से असल में अर्जुन- सिंह कौन हैं ? जब मैं दलीपशाह को बेहोश करके उस घाटी में ले गया था, तब तुम दोनों में से कौन महाशय वहाँ पहुँचकर दूसरे दलीपशाह बनने को तैयार हुए थे ?

दूसरा दलीपशाह—(हंसकर) उस दिन मैं ही तुम्हारे पास पहुंचा था। इत्ति- फाक से उस दिन मैं अर्जुनसिंह की सूरत बनकर बाहर घूम रहा था और जब तुम दलीपशाह को धोखा देकर ले चले तब मैंने छिपकर पीछा किया था। आज केवल धोखा देने को ही अर्जुनसिंह के रहते मैं अर्जुनसिंह बन कर दलीपशाह के साथ यहाँ आया हूँ।

इतना कहकर दूसरे दलीपशाह ने पास से गीला गमछा उठाया और अपने चेहरे का रंग पोंछ डाला जो उसने थोड़ी देर के लिए बनाया या लगाया था ।

चेहरा साफ होते ही उसकी सूरत ने राजा गोपालसिंह को चौंका दिया और वह यह कहते हुए उसके पास चले गये कि "क्या आप भरतसिंहजी हैं, जिनके विषय में इन्द्रजीतसिंह ने हमें नकाबपोश बनकर इतिला दी थी ?"2 और इसके जवाब में "जी हाँ" सुनकर वे भरतसिंह के गले से चिपट गये । इसके बाद उनका हाथ थामे हुए गोपाल- सिंह अपनी जगह पर चले आये और भरतसिंह को अपने पास बैठा कर महारज से

1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, बीसवाँ भाग, तेरहवां बयान ।

2. देखिए बीसवें भाग के आठवें बयान में कुमार की चिट्ठी । [ ८७ ]बोले, "इनके मिलने की मुझे हद से ज्यादा खुशी हुई, बहुत देर से मैं चाहता था । इनके विषय में कुछ पूर्वी !"

महाराज--मालूम होता है इन्हें भी दारोगा ही ने अपना शिकार बनाया था?

भरतसिंह--जी हां, आज्ञा होने पर मैं अपना हाल बयान करूंगा।

इन्द्रजीतसिंह--(महाराज से) तिलिस्म के अन्दर मुझे पांच कैदी मिले थे जिनमें से तीन तो यही अर्जुनसिंह, भरतसिंह और दलीपशाह हैं। इसके अतिरिक्त दे और हैं जो यहां बुलाये नही गये।दारोगा, मायारानी तथा उसके पक्ष वालों के सम्बन्ध में इन पांचों ही का किस्सा सुनने योग्य है। जब कैदियों का मुकदमा होगा, तब आप देखियेगा कि इन लोगों की सूरत देखकर कैदियों की क्या हालत होती है ।

महाराज--वे दोनों कहां हैं ?

इन्द्रजीतसिंह--इस समय यहां मौजूद नहीं हैं, छुट्टी लेकर अपने घर की अवस्था देखने गये हैं, दो-चार दिन में आ जायेंगे । भूतनाथ—-(इन्द्रदेव से) यदि आज्ञा हो तो मैं भी कुछ पूछू ?

इन्द्रदेव--आप जो कुछ पूछेगे उसे मैं खूब जानता हूँ । मगर खैर, पूछिये ।

भूतनाथ--कमला की मां आप लोगों को कहाँ से और क्योंकर मिली?

इन्द्रदेव--यह तो उसी की जुबानी सुनने में ठीक होगा । जब वह अपना किस्सा बयान करेगी, कोई बात छिपी न रह जायगी ।

भूतनाथ--और नानक की मां तथा देवीसिंहजी की स्त्री के विषय में कब मालूम होगा?

इन्द्रदेव--वह भी उसी समय मालूम हो जायगा । मगर भूतनाथ, (मुस्कराकर)तुमने और देवीसिंह ने नकाबपोशों का पीछा करके व्यर्थ खटका और तरवुद खरीद लिया। यदि उनका पीछा न करते और पीछे से तुम दोनों को मालूम होता कि तुम्हारी स्त्रियाँ भी इस काम में शरीक हुई थीं, तो तुम दोनों को एक प्रकार की प्रसन्नता होती।प्रसन्नता तो अब भी होगी, मगर खटके और तरदुद से कुछ खून सुखा लेने के बाद !

इतना कहकर इन्द्रदेव हंस पड़े और इसके बाद सभी के चेहरों पर मुस्कराहट दिखाई देने लगी।

तेजसिंह--(मुस्कराते हुए देवीसिंह से) अब तो आपको भी मालूम हो ही गया होगा कि आपका लड़का तारासिंह कई विचित्र भेदों को आपसे क्यों छिपाता था ?

देवीसिंह--जी हाँ, सब कुछ मालूम हो गया। जब अपने को प्रकट करने के पहले ही दोनों कुमारों ने भैरोंसिंह और तारासिंह को अपना साथी बना लिया, तो हम लोग जहां तक आश्चर्य में डाले जाते, थोड़ा था ! देवीसिंह की बात सुनकर पुनः सभी ने मुस्करा दिया और अब दरबार का रंग-ढंग ही कुछ दूसरा हो गया अर्थात् तरदुद के बदले सभी के चेहरे पर हंसी और मुस्कराहट दिखाई देने लगी।

तेजसिंह--(भूतनाथ से) भूतनाथ, आज तुम्हारे लिए बड़ी खुशी का दिन है, क्योंकि और बातों के अतिरिक्त तुम्हारी नेक और सती स्त्री भी तुम्हें मिल गई।जिसे [ ८८ ]तुम मरी समझते थे और हरनामसिंह तुम्हारा लड़का भी तुम्हारे पास बैठा हुआ दिखाई देता है। जो बहुत दिनों से गायब था और जिसके लिए बेचारी कमला बहुत परेशान थी, जब वह हरनामसिंह का हाल सुनेगी, तो बहुत ही प्रसन्न होगी।

भूतनाथ--निःसन्देह ऐसा ही है, परन्तु मैं हरनामसिंह के सामने भी एक संदूकड़ी देखकर डर रहा हूँ कहीं यह भी मेरे लिए कोई दुःख-दर्द सामान लेकर न आया हो ?

इन्द्रदेव--(हँस कर) भूतनाथ, अब तुम अपने दिल को व्यर्थ के खटकों में न डालो, जो कुछ होना था, सो हो गया । अब तुम पूरे तौर पर महाराज के ऐयार हो गये,किसी की मजाल नहीं कि तुम्हें किसी तरह की तकलीफ दे सके और महाराज भी तुम्हारे बारे में किसी तरह की शिकायत नहीं सुनना चाहते ! हरनामसिंह तो तुम्हारा लड़का ही है, वह तुम्हारे साथ बुराई क्यों करने लगा?

इसी समय महाराज सुरेन्द्र सिंह ने जीतसिंह की तरफ देखकर कुछ इशारा किया और जीतसिंह ने इन्द्रदेव से कहा, "भूतनाथ का मामला तो अब तय हो गया इसके बारे में महाराज किसी तरह की शिकायत सुनना नहीं चाहते। इसके अतिरिक्त भूतनाथ ने वायदा किया है कि अपनी जीवनी लिख कर महाराज के सामने पेश करेगा । अतः अब रह गये दलीपशाह, अर्जुन सिंह और भरतसिंह तथा कमला की मां । इन सभी पर जो कुछ मुसीबतें गुजरी हैं, उसे महाराज सुनना चाहते हैं। परन्तु अभी नहीं, क्योंकि विलम्ब बहुत हो गया। अब महाराज आराम करेंगे । अतः अब दरबार बर्खास्त करना चाहिए जिसमें ये लोग भी आपस में मिल-जुलकर अपने दिल की कुलफत निकाल लें, क्योंकि अब यहाँ तो किसी से मिलने में अथवा आपस का बर्ताव करने में परहेज न होना चाहिए।"

इन्द्रजीतसिंह-(हाथ जोड़ कर) जो आज्ञा !

दरबार बर्खास्त हुआ । इन्द्रदेव की इच्छानुसार महाराज आराम करने के लिए जीतसिंह को साथ लिए एक दूसरे कमरे में चले गये। इसके बाद और सब कोई उठे और और अपने-अपने ठिकाने पर, जैसाकि इन्द्रदेव ने इन्तजाम कर दिया था, चले गये मगर कई आदमी जो आराम नहीं करना चाहते थे, वे बँगले के बाहर निकलकर बगीचे की तरफ रवाना हुए।