चन्द्रकान्ता सन्तति 6/22.10
10
इस बाग में पहले दिन जिस बारहदरी में बैठकर सभी ने भोजन किया था, आज पुनः उसी बारहदरी में बैठने और भोजन करने का मौका मिला। खाने की चीजें ऐयार लोग अपने साथ ले आये थे और जल की वहाँ कमी ही न थी, अतः स्नान-सन्ध्योपासन और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर सब कोई उसी बारहदरी में सो रहे क्योंकि रात के जागे हुए थे और बिना कुछ आराम किये आगे बढ़ने की इच्छा न थी।
जब दिन पहर भर से कुछ कम बाकी रह गया, तब सब कोई उठे और चश्मे के जल से हाथ-मुँह धोकर आगे की तरफ बढ़ने के लिए तैयार हुए ।
हम ऊपर किसी बयान में लिख आये हैं कि यहाँ तीनों तरफ की दीवारों में कई आलमारियाँ भी थीं, अतः इस समय कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने उन्हीं आलमारियों में से एक आलमारी खोली, और महाराज की तरफ देखकर कहा, “चुनार के तिलिस्म में जाने का यही रास्ता है, और हम दोनों भाई इसी रास्ते से वहाँ तक गये थे।"
रास्ता बिल्कुल अँधेरा था, इसलिए इन्द्रजीतसिंह तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए आगे-आगे रवाना हुए और उनके पीछे महाराज सुरेन्द्रसिंह, राजा वीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, इन्द्रदेव वगैरह और ऐयार लोग रवाना हुए। सबसे पीछे कुंअर आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए जाने लगे, क्योंकि सुरंग पतली थी, और केवल आगे की रोशनी से काम नहीं चल सकता था।
ये लोग उस सुरंग में कई धण्टे तक बराबर चलते गये और इस बात का पता न लगा कि कब संध्या या अब कितनी रात बीत चुकी है । जब सुरंग का दूसरा दरवाजा इन लोगों को मिला और उसे खोलकर सब कोई बाहर निकले तो अपने को एक लम्बी-चौड़ी कोठरी में पाया, जिसमें इस दरवाजे के अतिरिक्त तीनों तरफ की दीवारों में और भी तीन दरवाजे थे, जिनकी तरफ इशारा करके कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने कहा, "अब हम लोग उस चबूतरे वाले तिलिस्म के नीचे आ पहुँचे हैं। इस जगह एक-दूसरे से मिली हुई सैकड़ों कोठरियाँ हैं जो भूल-भुलैये की तरह चक्कर दिलाती हैं और जिनमें फँसा हुआ अनजान आदमी जल्दी निकल ही नहीं सकता। जब पहले-पहल हम दोनों भाई यहाँ आये थे तो सब कोठरियों के दरवाजे बन्द थे जो तिलिस्मी किताब की सहायता से खोले गये और जिनका खुलासा हाल आपको तिलिस्मी किताब के पढ़ने से मालूम होगा, मगर इनके खोलने में कई दिन लगे और तकलीफ भी बहुत हुई। इन कोठरियों के मध्य में एक चौखूटा कमरा आप देखेंगे जो ठीक चबूतरे के नीचे है और उसी में से बाहर निकलने का रास्ता है, बाकी सब कोठरियों में असबाब और खजाना भरा हुआ है। इसके अतिरिक्त छत के ऊपर एक और रास्ता उस चबूतरे में से बाहर निकलने के लिए बना हुआ है, जिसका हाल मुझे पहले मालूम न था, जिस दिन हम दोनों भाई उस चबूतरे की राह निकले हैं, उस दिन देखा कि इसके अतिरिक्त एक रास्ता और भी है।"
इन्द्रदेव--जी हाँ, दूसरा रास्ता भी जरूर है, मगर वह तिलिस्म के दारोगा के लिए बनाया गया था, तिलिस्म तोड़ने वाले के लिए नहीं। मुझे उस रास्ते का हाल बखूबी मालूम है।
गोपालसिंह--मुझे भी उस रास्ते का हाल (इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इन्हीं की जुबानी मालूम हुआ है, इसके पहले मैं कुछ भी नहीं जानता था और न ही मालूम था कि इस तिलिस्म के दारोगा यही हैं।
इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने सबको तहखाने अथवा कोठरियों और कमरों की सैर कराई, जिसमें लाजवाब और हद दर्जे की फिजूलखर्ची को मात करने वाली दौलत भरी हुई थी, और एक-से-एक बढ़कर अनूठी चीजें लोगों के दिल को अपनी तरफ खींच रही थीं। साथ ही इसके यह भी समझाया कि इन कोठरियों को हम लोगों ने कैसे खोला, और इस काम में कैसी-कैसी कठिनाइयाँ उठानी पड़ी।
घूमते-फिरते और सैर करते हुए सब कोई उस मध्य वाले कमरे में पहुंचे जो ठीक तिलिस्मी चबूतरे के नीचे था। वास्तव में यह कमरा कल-पुर्जी से बिल्कुल भरा हुआ था। जमीन से छत तक बहुत-सी तारों और कल-पुर्जी का सम्बन्ध था और दीवार के अन्दर से ऊपर चढ़ जाने के लिए सीढ़ियां दिखाई दे रही थीं।
दोनों कुमारों ने महाराज को समझाया कि तिलिस्म टूटने के पहले वे कल-पुर्जे किस ढंग पर लगे थे और तोड़ते समय उनके साथ कैसी कार्रवाई की गई। इसके बाद इन्द्रजीतसिंह सीढ़ियों की तरफ इशारा करके कहा, "अब भी इन सीढ़ियों का तिलिस्म कायम है, हर एक की मजाल नहीं कि इन पर पैर रख सके।"
वीरेन्द्रसिंह--यह सब कुछ है, मगर असल तिलिस्मी बुनियाद वही खोह वाला बंगला जान पड़ता है, जिसमें चलती-फिरती तस्वीरों का तमाशा देखा था, और जहाँ से तिलिस्म के अन्दर घुसे थे।
सुरेन्द्रसिंह–-इसमें क्या शक है। वही चुनार, जमानिया और रोहतासगढ़ वगैरह के तिलिस्मों की नकेल है, और वहाँ रहने वाला तरह-तरह के तमाशे देख-दिखा सकता है और सबसे बढ़कर आनन्द ले सकता है।
जीतसिंह--वहाँ की पूरी-पूरी कैफियत अभी देखने में नहीं आई।
इन्द्रजीतसिंह--दो-चार दिन में वहाँ की कैफियत देख भी सकते हैं । जो कुछ आप लोगों ने देखा वह रुपये में एक आना भी न था। मुझे भी अभी पुनः वहाँ जाकर बहुत-कुष्ठ देखना बाकी है।
सुरेन्द्रसिंह--इस समय तो जल्दी में थोड़ा-बहुत देख लिया है, मगर काम से निश्चिन्त होकर पुनः हम लोग वहां चलेंगे, और उसी जगह से रोहतासगढ़ के तहखाने की भी सैर करेंगे। अच्छा, अब यहाँ से बाहर होना चाहिए।
आगे-आगे कुंअर इन्द्रजीतसिंह रवाना हुए। पाँच-सात सीढ़ियाँ चढ़ जाने के बाद एक छोटा-सा लोहे का दरवाजा मिला, जिसे उसी हीरे वाली तिलिस्मी ताली से खोला, और तब सबको लिए हुए दोनों कुमार तिलिस्मी चबूतरे के बाहर हुए।
सब कोई तिलिस्म की सैर करके लौट आये और अपने-अपने काम-धंधे में लगे । कैदियों के मुकदमे को थोड़े दिन तक मुल्तवी रखकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की शादी पर सबने ध्यान दिया और इसी के इन्तजाम की फिक्र करने लगे। महाराज सुरेन्द्रसिंह ने जो काम जिसके लायक समझा, उसके सुपुर्द करके कुल कैदियों को चुनारगढ़ भेजने का हुक्म दिया और यह भी निश्चय कर लिया कि दो-तीन दिन के बाद हम लोग भी चुनारगढ़ चले जायेंगे, क्योंकि बारात चुनारगढ़ ही से निकलकर यहाँ आयेगी।
भरतसिंह और दिलीपशाह वगैरह का डेरा बलभद्रसिंह के पड़ौस ही में पड़ा और दूसरे मेहमानों के साथ-ही-साथ इनकी खातिरदारी का बोझ भी भूतनाथ के ऊपर डाला गया। इस जगह संक्षेप में हम यह भी लिख देना उचित समझते हैं कि कौन काम किसके सुपुर्द किया गया।
(1) इस तिलिस्मी इमारत के इर्द-गिर्द जिन मेहमानों के डेरे पड़े हैं, उन्हें किसी बात की तकलीफ तो नहीं होती, इस बात को बराबर मालूम करते रहने का काम भूतनाथ के सुपुर्द किया गया-
(2) मोदी, बनिए और हलवाई वगैरह किसी से किसी चीज का दाम तो नहीं लेते, इस बात की तहकीकात के लिए रामनारायण ऐयार मुकर्रर किए गए।
(3) रसद वगैरह के काम में कहीं किसी तरह की बेईमानी तो नहीं होती, या चोरी का नाम तो किसी की जुबान से नहीं सुनाई देता, इसको जानने और शिकायतों के करने पर चुन्नीलाल ऐयार तैनात किए गए।
(4) इस तिलिस्मी इमारत से लेकर चुनारगढ़ तक की सड़क और उसकी सजावट का काम पन्नालाल और पण्डित बद्रीनाथ के जिम्मे किया गया।
(5) चुनारगढ़ में बाहर से न्यौते में आए हुए पण्डितों की खातिरदारी और पूजा-पाठ इत्यादि के सामान की दुरुस्ती का बोझ जगन्नाथ ज्योतिषी पर डाला गया।
(6) बारात और महफिल वगैरह की सजावट तथा उसके सम्बन्ध में जो कुछ काम हो, उसके जिम्मेवार तेजसिंह बनाये गये।
(7) आतिशबाजी और अजायबातों के तमाशे तैयार करने के साथ-ही-साथ उसी तरह की एक इमारत के बनवाने का हुक्म इन्द्रदेव को दिया गया, जैसी इमारत के अन्दर हँसते-हँसते इन्द्रजीतसिंह वगैरह एक दफे कूद गये थे, और जिसका भेद अभी तक खोला नहीं गया है।
(8) पन्नालाल वगैरह के बदले में रणधीरसिंहजी के डेरे की हिफाजत तथा किशोरी, कामिनी वगैरह की निगरानी के जिम्मेवार देवीसिंह बनाये गये।
(9) ब्याह-सम्बन्धी खर्च की तह्वील (रोकड़) राजा गोपालसिंह के हवाले की गई।
1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, पाँचवाँ भाग, चौथा बयान । (10) कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के साथ रहकर उनके विवाह- सम्बन्धी शान-शौकत और जरूरतों को कायदे के साथ निभाने के लिए भैरोंसिंह और तारासिंह छोड़ दिये गये।
(11) हरनामसिंह को अपनी मातहती में लेकर जीतसिंह ने यह काम अपने जिम्मे ले लिया कि हर एक के कामों की जाँच और निगरानी रखने के अतिरिक्त कुछ कैदियों को भी किसी उचित ढंग से इस विवाहोत्सव के तमाशे दिखा देंगे, ताकि वे लोग भी देख लें, कि जिस शुभ दिन के हम बाधक थे, वह आज किस खुशी और खूबी के साथ बीत रहा है और सर्वसाधारण भी देख लें, कि धन-दौलत और ऐश-आराम के फेर में पड़कर अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारने वाले, छोटे होकर बड़ों के साथ पैर बांध के नतीजा भोगने वाले, मालिक के साथ में नमकहरामी और उग्र पाप करने का कुछ फल इस जन्म में भी भोग लेने वाले, और बदनीयती तथा पाप के साथ ऊंचे दर्जे पर पहुंचकर यकायक रसातल में पहुँच जानेवाले, धर्म और ईश्वर से सदा विमुख रहने वाले ये ही प्रायश्चित्ती लोग हैं।
इन सबके साथ मातहती में काम करने के लिए आदमी भी काफी तौर पर दिए गये।
इनके अतिरिक्त और लोगों को भी तरह-तरह के काम सुपुर्द किए गए और सब कोई बड़ी खूबी के साथ अपना-अपना काम करने लगे।
अब हम थोड़ा-सा हाल कुँअर इन्द्रजीतसिंह का बयान करेंगे, जिन्हें इस बात का बहुत ही रंज है कि कमलिनी की शादी किसी दूसरे के साथ हो गई, और वे उम्मीद ही में बैठे रह गये।
रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है और कुँअर इन्द्रजीतसिंह अपने कमरे में बैठे भैरोंसिंह से धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं । इन दोनों के सिवाय कोई तीसरा आदमी इस कमरे में नहीं है और कमरे का दरवाजा भी भिड़वाया हुआ है।
भैरोंसिंह--तो आप साफ-साफ कहते क्यों नहीं कि आपकी उदासी का सबब क्या है ? आपको तो आज खुश होना चाहिए, कि जिस काम के लिए आप बरसों परेशान रहे, जिसकी उम्मीद में तरह-तरह की तकलीफ उठाई, जिसके लिए हथेली पर जान रखकर बड़े-बड़े दुश्मनों से मुकाबला करना पड़ा और जिसके होने या मिलने पर ही तमाम दुनिया की खुशी समझी जाती थी, आज वही काम आपकी इच्छानुसार हो रहा है, और उसी किशोरी के साथ आपकी शादी का इन्तजाम हम अपनी आँखों से देख रहे हैं, फिर भी ऐसी अवस्था में आपको उदास देखकर कौन ऐसा है जो ताज्जुब न करेगा?
इन्द्रजीतसिंह--बेशक, मेरे लिए आज यह बड़ी खुशी का दिन है, और मैं खुश हूँ भी, मगर कमलिनी की तरफ से जो रंज मझे हुआ है, उसे हजार कोशिश करने पर भी मेरा दिल बर्दाश्त नहीं कर पाता।
भैरोंसिंह--(ताज्जुब का चेहरा बनाकर)हैं, कमलिनी की तरफ से और आपको रंज ! जिसके अहसानों के बोझ से आप दबे हुए हैं, उसी कमलिनी से रंज ! यह आप क्या कह रहे हैं? इन्द्रजीतसिंह–-इस बात को तो मैं खुद ही कह रहा हूँ, कि उसके अहसानों के वोझ से मैं जिन्दगी-भर हलका नहीं हो सकता और अब तक उसके जी में मेरी भलाई का ध्यान बंधा ही हुआ है, मगर रंज इस बात का है कि अब मैं उसे उस मुहब्बत की निगाह से नहीं देख सकता जिससे पहले देखता था।
भैरोंसिंह--सो क्यों ? क्या इसलिए कि अब वह अपनी ससुराल चली जायेगी, और फिर उसे आप पर अहसान करने का मौका न मिलेगा?
इन्द्रजीतसिंह--हाँ, करीब-करीब यही बात है।
भैरोंसिंह--मगर अब आपको उसकी मदद की जरूरत भी तो नहीं है। हां, इस बात का खयाल बेशक हो सकता है कि अब आप उसके तिलिस्मी मकान पर कब्जा न कर सकेंगे।
इन्द्रजीतसिंह--नहीं-नहीं, मुझे इस बात की कुछ जरूरत नहीं है, और न इसका कुछ खयाल ही है!
भैरोंसिंह--तो इस बात का खयाल है कि उसने अपनी शादी में आपको न्यौता नहीं दिया ? मगर वह एक हिन्दू लड़की की हैसियत से ऐसा कर भी तो नहीं सकती थी ! हाँ, इस बात की शिकायत आप राजा गोपालसिंहजी से जरूर कर सकते हैं, क्योंकि उस काम के कर्ता-धर्ता वे ही हैं।
इन्द्रजीतसिंह--उनसे तो मुझे बहुत ही शिकायत है, मगर मैं शर्म के मारे कुछ कह नहीं सकता।
भैरोंसिंह--(चौंककर) शर्म तो तब होती, जब आप इस बात की शिकायत करते कि मैं खुद उससे शादी करना चाहता था।
इन्द्रजीतसिंह--हाँ, बात तो ऐसी ही है । (मुस्कराकर) मगर तुम तो पागलों की-सी बातें करते हो।
भैरोंसिंह--(हँसकर) यह कहिए न कि आप दोनों हाथ लड्डू चाहते थे ! तो इस चोर को आप इतने दिनों तक छिपाए क्यों रहे?
इन्द्रजीतसिंह--तो यही कब उम्मीद हो सकती थी कि इस तरह यकायक गुमसुम उसकी शादी हो जायेगी।
भैरोंसिंह--खैर, अब तो जो कुछ होना था सो हो गया, मगर आपको इस बात का खयाल न करना चाहिए। इसके अतिरिक्त क्या आप समझते हैं, कि किशोरी इस बात को पसन्द करती ? कभी नहीं, बल्कि आये दिन का झगड़ा पैदा हो जाता।
इन्द्रजीतसिंह--नहीं, किशोरी से मुझे ऐसी उम्मीद नहीं हो सकती । खैर, अब इस विषय पर बहस करना व्यर्थ है, मगर मुझे इसका रंज जरूर है। अच्छा, यह तो बताओ, तुमने उन्हें देखा है जिनके साथ कमलिनी की शादी हुई?
भैरोंसिंह--कई दफे, बातें भी अच्छी तरह कर चुका हूँ।
इन्द्रजीतसिंह--कैरो हैं?
भैरोसिंह--बड़े लायक, पढ़े-लिखे, पण्डित, बहादुर, दिलेर, हँसमुख और सुन्दर। इस अवसर पर आवेंगे ही, आप भी देख लीजिएगा। आपने कमलिनी से इस बारे में कुछ बातचीत नहीं की?
इन्द्रजीतसिंह--इधर तो नहीं, मगर तिलिस्म की सैर को जाने से पहले मुलाकात हुई थी, उसने खुद मुझे बुलाया था, बल्कि उसी की जुबानी उसकी शादी का हाल मुझे मालूम हुआ था। मगर उसने मेरे साथ विचित्र ढंग का बर्ताव किया।
भैरोंसिंह–-सो क्या? इन्द्रजीतसिंह--(जो कुछ कैफियत हो चुकी थी, उसे बयान करने के बाद)तुम इस बर्ताव को कैसा समझते हो?
भैरोंसिंह--बहुत अच्छा और उचित।
इसी तरह की बातचीत हो रही थी कि पहले दिन की तरह बगल वाले कमरे का दरवाजा खुला, और एक लौंडी ने आकर सलाम करने के बाद कहा, "कमलिनीजी आपसे मिलना चाहती हैं, आज्ञा हो तो।"
इन्द्रजीतसिंह--अच्छा, मैं चलता हूं, तू दरवाजा बन्द कर दे।
भैरोंसिंह–-अब मैं भी जाकर आराम करता हूँ।
इन्द्रजीतसिंह--अच्छा, जाओ, फिर कल देखा जायेगा।
लौंडी–-इनसे (भैरोंसिंह से) भी उन्हें कुछ कहना है।
यह कहती हुई लौंडी ने दरवाजा बद कर दिया, तब तक स्वयं कमलिनी इस कमरे में आ पहुंची, और भैरोंसिंह की तरफ देखकर बोली, (जो उठकर बाहर जाने के लिए तैयार था) "आप कहाँ चले ? आप ही से तो मुझे बहुत-सी शिकायत करनी है।"
भैरोंसिंह–-सो क्या ?
कमलिनी--अब उसी कमरे में चलिये, वहीं बातचीत होगी।
इतना कहकर कमलिनी ने कुमार का हाथ पकड़ लिया, और अपने कमरे की तरफ ले चली, पीछे-पीछे भैरोंसिंह भी गये । लौंडी दरवाजा बन्द करके दूसरी राह से बाहर चली गई और कमलिनी ने इन दोनों को उचित स्थान पर बैठाकर पानदान आगे रख दिया और भैरोंसिंह से कहा, "आप लोग तिलिस्म की सैर कर आये और मुझे पूछा भी नहीं !"
भैरोंसिंह–-महाराज खुद कह चुके हैं कि शादी के बाद औरतों को भी तिलिस्म की सैर करा दी जाये और फिर तुम्हारे लिए तो कहना ही क्या है । तुम तो जब भी चाहो, तभी तिलिस्म की सैर कर सकती हो।
कमलिनी--ठीक है, मानो यह मेरे हाथ की बात है!
भैरोंसिंह--ऐसा ही है।
कमलिनी--(हंसकर) टालने के लिए यह अच्छा ढंग है ! खैर, जाने दीजिये, मुझे कुछ ऐसा शौक भी नहीं है । हाँ, यह बताइए कि वहाँ क्या-क्या कैफियत देखने में आई ? मैंने सुना कि भूतनाथ वहाँ बड़े चक्कर में पड़ गया था और उसकी पहली स्त्री भी वहाँ दिखाई पड़ गई। भैरोंसिंह--बेशक ऐसा ही हुआ।
इतना कहकर भैरोंसिंह ने कुल हाल खुलासा बयान किया और इसके बाद कमलिनी ने इन्द्र जीतसिंह से कहा, "खैर. आप बताइए कि शादी की खुशी में मुझे क्या इनाम मिलेगा?"
इन्द्रजीतसिंह--(हँसकर) गालियों के सिवाय और किसी चीज की तुम्हें कमी ही क्या है जो मैं दूं?
कमलिनी–-(भैरोंसिंह से)सुन लीजिये, मेरे लिए कैसा अच्छा इनाम सोचा गया है ! (कुमार से हँसकर) याद रखियेगा, इस जवाब के बदले मैं आपको ऐसा छकाऊँगी कि खुश हो जाइयेगा!
भैरोंसिंह–-इन्हें तो तुम छका चुकी हो, अब इससे बढ़कर क्या होगा कि चुप- चाप दूसरे के साथ शादी कर ली, और इन्हें अंगठा दिखा दिया । अब तुम्हें ये गालियां न दें तो क्या करें!
कमलिनी--(मुस्कराती हुई) आपकी रा। भी यही है?
भैरोंसिंह--बेशक!
कमलिनी–-तो बेचारी किशोरी के साथ आप यह अच्छा सलूक करते हैं!
भैरोंसिंह--इसका इल्जाम तो कुमार के ऊपर हो सकता है!
कमलिनी–-हाँ, साहब, आज के मर्दो की मुरोवत जो कुछ न कर दिखाए थोड़ा है मैं किशोरी बहिन से इसका जिक्र करूंगी।
भैरोंसिंह--तब तो अहसान पर अहसान करोगी।
इन्द्रजीतसिंह–-(भैरोंसिंह से) तुम भी व्यर्थ की छेड़छाड़ मचा रहे हो, भला इन बातों से क्या फायदा?
भैरोंसिंह--व्याद-शादी में ऐसी बातें हुआ ही करती हैं!
इन्द्रजीतसिंह--तुम्हारा सिर हुआ करता है ! (कमलिनी से)अच्छा, यह बताओ कि इस समय तुमने मुझे क्यों याद किया?
कमलिनी–-हरे राम ! अब क्या मैं ऐसी भारी हो गई कि मुझसे मिलना भी बुरा मालूम होता है?
इन्द्रजीतसिंह--नहीं-नहीं, अगर मिलना बुरा मालूम होता तो मैं यहाँ आता ही क्यों ? पूछता हूँ कि आखिर कोई काम भी है या?
कमलिनी–-हाँ, है तो सही।
इन्द्रजीतसिंह--कहो!
कमलिनी--आपको शायद मालूम होगा कि मेरे पिता जब से यहाँ आये हैं, उन्होंने अपने खाने-पीने का इन्तजाम अलग रखा है, अर्थात् आपके यहाँ का अन्न नहीं खाते और न कुछ अपने लिए खर्च कराते हैं।
इन्द्रजीतसिंह-हाँ, मुझे मालूम है।
कमलिनी--अब उन्होंने इस मकान में रहने से भी इनकार किया है। उनके एक मित्र ने खेमे वगैरह का इन्तजाम कर दिया है, और वे उसी में अपना डेरा उठाकर जाने वाले हैं।
इन्द्रजीतसिंह--यह भी मालूम है।
कमलिनी--मेरी इच्छा है कि यदि आप आप आज्ञा दें, तो लाडिली को साथ लेकर मैं भी उसी डेरे में चली जाऊँ।
इन्द्रजीतसिंह--क्यों ? तुम्हें यहाँ रहने में परहेज ही क्या हो सकता है ?
कमलिनी--नहीं-नही, मुझे किस बात का परहेज होगा, मगर यों ही जी चाहता है कि मैं दो-चार दिन अपने बाप के साथ ही रहकर उनकी खिदमत करूं।
इन्द्रजीतसिंह--यह दूसरी बात है, इसकी इजाजत तुम्हें अपने मालिक से लेनी चाहिए । मैं कौन हूँ जो इजाजत दूं?
कमलिनी--इस समय वे तो यहाँ हैं, नहीं अतः उनके बदले में मैं आप ही को अपना मालिक समझती हूँ।
इन्द्रजीतसिंह--(मुस्कराकर) फिर तुमने वही रास्ता पकड़ा ? खैर, मैं इस बात की इजाजत न दूंगा।
कमलिनी--तो मैं आज्ञा के विरुद्ध कुछ न करूंगी।
इन्द्रजीतसिंह–-(भैरोंसिंह इनकी बातचीत का ढंग देखते हो?
भैरोंसिंह–(हँसकर) शादी हो जाने पर भी ये आपको नहीं छोड़ना चाहतीं, तो में क्या करूं?
कमलिनी--अच्छा, मुझे एक बात की इजाजत तो जरूर दीजिए।
इन्द्रजीतसिंह--वह क्या?
कमलिनी--आपकी शादी में मैं आपसे एक विचित्र दिल्लगी करना चाहती हूँ।
इन्द्रजीतसिंह--वह कौन-सी दिल्लगी होगी?
कमलिनी—यह बता दूंगी तो उसमें मजा ही क्या रह जायेगा ? बस, आप इतना कह दीजिए कि उस दिल्लगी से रंज न होंगे, चाहे वह कैसी गहरी क्गों न हो।
इन्द्रजीतसिंह—(कुछ सोचकर) खैर, मैं रंज न करूंगा।
इसके बाद थोड़ी देर तक हँसी की बातें होती रहीं, और फिर सब उठकर अपने-अपने ठिकाने चले गये।