चंद्रकांता संतति भाग 5
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ २१६ से – २१९ तक

 

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महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह तथा उनके ऐयारों के सामने एक नकाबपोश ने दोनों कुमारों का हाल इस तरह बयान करना शुरू किया––

नकाबपोश––कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने भी उन पाँचों कैदियों के साथ रात को उसी बाग में गुजारा किया। सवेरा होने पर सब मामूली कामों से छुट्टी पाकर दोनों भाई उसी बीच वाले बुर्ज के पास गये और चबूतरे वाले पत्थरों को गौर से देखने लगे। उन पत्थरों में कहीं-कहीं अंक और अक्षर भी खुदे हुए थे, उन्हीं अंकों को देखते-देखते इन्द्रजीतसिंह ने एक चौखूटे पत्थर पर हाथ रखा और आनन्दसिंह की तरफ देखकर कहा, "बस इसी पत्थर को हमें उखाड़ना चाहिए।" इसके जबाव में आनन्दसिंह ने "जी हाँ" कहा और तिलिस्मी खंजर की नोक से टुकड़े को उखाड़ डाला।

पत्थर के नीचे एक छोटा-सा चौखूटा कुण्ड बना हुआ था और उस कुंड के बीचोंबीच में लोहे की एक गोल कड़ी लगी थी जिसे कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने खींचना शुरू किया। उस कड़ी के साथ लोहे की पच्चीस-तीस हाथ लम्बी जंजीर लगी हुई थी जो बराबर खिंचती हुई चली आई और जब वह रुक गई अर्थात् अपनी हद तक खिंच कर बाहर निकल आई, तब उस चबूतरे के चारों तरफ का निचला पत्थर आप से आप उखड़कर जमीन के साथ लग गया और उसके अन्दर जाने के लिए दो रास्ते दिखाई देने लगे। इनमें से एक रास्ता नीचे तहखाने में उतर जाने के लिए था और दूसरा बुर्ज के ऊपर चढ़ने के लिए।

दोनों कुमार पहले बुर्ज के ऊपर चढ़ गये और वहाँ से चारों तरफ की बहार देखने लगे। खास बाग के कुछ हिस्से और उनके कई तरफ की मजबूत दीवारें तथा कुछ इमारतें और पेड़-पत्ते इत्यादि दिखाई दे रहे थे। उन सभी को गौर से देखने के बाद कुमार नीचे उतर आये और उन पाँचों कैदियों को यह कहकर कि "तुम लोग इसी बाग में रहो, खबरदार नीचे न उतरना" दोनों भाई तहखाने में उतर गये।

नीचे उतरने के लिए चक्करदार ग्यारह सीढ़ियाँ थीं जिन्हें तै करने के बाद वे दोनों एक लम्बे-चौड़े कमरे में पहुँचे। वहाँ बिल्कुल अन्धकार था, मगर तिलिस्मी खंजर की रोशनी करने पर वहाँ की सब चीजें साफ दिखाई देने लगीं। वह कमरा लम्बाई में बीस हाथ और चौड़ाई में पन्द्रह हाथ से ज्यादा न होगा। उसके बीचोंबीच में लोहे का एक चबूतरा था और उसके ऊपर लोहे की एक शेर बैठा हुआ था जिसकी चमकदार आँखें उसके भयानक चेहरे के साथ ही साथ देखने वालों के दिल पर खौफ पैदा कर सकती थीं। उसके सामने जमीन पर लोहे का एक हथौड़ा पड़ा हुआ था। बस इसके अतिरिक्त उस कमरे में और कुछ भी न था। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने उस शेर के सिर को अच्छी तरह टटोलना शुरू किया।

उस शेर के दाहिने कान की तरफ केवल एक उँगली जाने लायक छोटा-सा गढ़ा था। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने अपनी जेब में से एक चमकदार चीज निकाल कर उस गड़हे में फँसाने के बाद शेर के सामने वाला हथौड़ा जमीन से उठाकर उसी से वह चमकदार चीज (कील) एक ही चोट में ठोंक दी और इसके बाद तुरन्त ही दोनों भाई उस तहखाने के बाहर निकल आये।

वह चमकदार चीज, जो शेर के सिर में ठोंकी गई, क्या थी इसे आप लोग जानते होंगे। यह वही चमकदार चीज थी जो कुँअर इन्द्रजीतसिंह को बाग के उस तहखाने में एक पुतले के पेट में से मिली थी, जिसमें वे कुँअर आनन्दसिंह को खोजते हुए गये थे।[]

जब दोनों कुमार तहखाने के बाहर निकल आये, उसके थोड़ी ही देर बाद जमीन के अन्दर से धमधमाहट और घड़घड़ाहट की आवाज आने लगी, जिससे वे पाँचों कैदी बहुत ही ताज्जुब और घबराहट में आ गये। मगर कुमार ने उन्हें समझा कर शान्त किया और कुछ खाने-पीने की फिक्र में लगे। पहर भर बाद वह आवाज बन्द हुई और तब तक कुमार भी हर तरह से निश्चिन्त हो गये। दोपहर दिन ढलने बाद पाँचों कैदियों को साथ लिए हुए दोनों कुमार पुनः तहखाने के अन्दर उतरे। जब उस कमरे मे वहाँ शेर और चबूतरे का नाम-निशान भी न पाया, हाँ, उसके बदले में उस जगह एक गड़हा देखा जिसमें उतरने के लिए छ:-सात सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। कैदियों को भी साथ लिए और तिलिस्मी खंजर की रोशनी किए हुए दोनों कुमार इस सुरंग में घुसे और लगभग पचास कदम जाने के बाद पुनः एक कमरे में पहुँचे। यह कमरा भी पहले कमरे के बराबर था और इसके सामने की दीवार में पुनः आगे जाने के लिए एक सुरंग का मुहाना नजर आ रहा था अर्थात् इस कमरे को लाँघ कर पुनः आगे बढ़ जाने के लिए भी सामने की तरफ सुरंग दिखाई दे रही थी।

यह कमरा पहले की तरह खाली या सुनसान न था। इसमें तरह-तरह की बेशकीमत चीजों––हब, जवाहिरात और अशफियों––के जगह-जगह ढेर लगे हुए थे जिन्हें देखकर उन पाँचों कैदियों में से एक ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह से पूछा, "यह इतनी बड़ी रकम यहाँ किसके लिए रखी हुई है?"

इन्द्रजीतसिंह––यह सब दौलत हमारे लिए रखी हुई है, केवल इतनी ही नहीं, बल्कि इसी तरह और भी कई जगह इससे भी बढ़कर अच्छी-अच्छी और कीमती चीजें दिखाई देंगी।

कैदी––इन चीजों को आप क्योंकर बाहर निकालेंगे?

इन्द्रजीतसिंह––जब हम लोग तिलिस्म तोड़ते हुए चुनारगढ़ पहुँचेंगे, तब ये सब चीजें निकलवा ली जायेंगी।

कैदी––तब तक इसी तरह ज्यों-की-त्यों पड़ी रहेंगी?

इन्द्रजीतसिंह––हाँ।

इस कमरे में चारों तरफ की दीवारों के साथ तरह-तरह के बेशकीमत हर्बे लटक रहे थे, जिन पर इस खयाल से कि जंग इत्यादि लगकर खराब न हो जायें, का मोमी रोगन लगाया हुआ था। नीचे दो सन्दूक जड़ाऊ जेवरों से भरे हुए थे, जिनमें ताले लगे हुए न थे। इसके अतिरिक्त सोने के बहुत से जड़ाऊ खुशनुमा और नाजुक बर्तन भी दिखाई दे रहे थे।

इन चीजों को देख-भाल कर कुमार आगे बढ़े और सुरंग के दूसरे मुहाने में घुस कर दूर तक चले गये। अबकी दफे का सफर सीधा न था बल्कि घूमघुमौवा था। लगभग डेढ़ या दो कोस जाने के बाद पुनः एक कमरे में पहुँचे। पहले कमरे की तरह इसमें भी आमने-सामने दोनों तरफ सुरंगें बनी हुई थीं।

इस कमरे में सोने-चाँदी या जवाहरात की कोई चीज न थी, हाँ, दीवारों पर बड़ी-बड़ी तस्वीरें लटक रही थी, जो एक किस्म के रोगनी कपड़े पर जिस पर सर्दी-गर्मी का असर नहीं पहुँच सकता था बनी हुई थीं। इन तस्वीरों में रोहतासगढ़ और चुनार की तस्वीरें ज्यादा थीं और तरह-तरह नक्शे भी जगह-जगह लटक रहे थे, जिन्हें बड़े गौर से दोनों कुमार देर तक देखते रहे।

इस कमरे की कैफियत को देखकर इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, "मालूम होता है, 'ब्रह्म-मण्डल' यही है, इसी जगह हम लोगों को बराबर आना पड़ेगा तथा चुनारगढ़ के तिलिस्म की चाबी भी इसी जगह से हमें मिलेगी।" आनन्दसिंह––बेशक यही बात है, इस जगह के 'ब्रह्म-मण्डल' होने में कुछ भी सन्देह नहीं हो सकता।

इन्द्रजीतसिंह––फिर अब तुम्हारी क्या राय है? इस समय यहाँ कुछ काम किया जाय या नहीं? क्योंकि इस काम को हम लोग अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं।

आनन्दसिंह––मेरी राय में तो इस समय यहाँ कोई काम न करना चाहिए, क्यों कि (कैदियों की तरफ इशारा करके) इन लोगों को तकलीफ होगी, पहले इन लोगों को तिलिस्म के बाहर कर देना उचित होगा, फिर हम लोग यहाँ आकर अपना काम किया करेंगे।

इन्द्रजीतसिंह––मैं भी यही उचित समझता हूँ, इसके अतिरिक्त हम लोगों को यहाँ कई दफे आने की जरूरत पड़ेगी, अतः इस समय अगर यहाँ अटक कर कोई काम करेंगे तो बाहर निकलने में बहुत देर हो जायेगी और हम भी परेशान और दुःखी हो जायेंगे।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह आगे की तरफ बढ़े और सभी को लिए सामने वाली सुरंग में घुसे। अबकी दफे दोनों कुमारों और कैदियों को बहुत ज्यादा चलना पड़ा और साथ ही इसके भूख-प्यास की भी तकलीफ उठानी पड़ी। कई कोस का सफर करने के बाद जब वे लोग सुरंग के बाहर निकले, तो सुबह की सफेदी आसमान पर फैल चुकी थी, इसलिए दोनों कुमारों ने अन्दाज से समझा कि अबकी दफे हम लोग चौदह या पन्द्रह घंटे तक बराबर चलते रहे और जमानिया को बहुत दूर छोड़ आये।

सुरंग के बाहर निकलकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने जिस सरजमीन पर अपने को पाया वह बहुत ही दिलचस्प और सुहावनी घाटी थी। चारों तरफ कम ऊँची, सुन्दर और हरी-भरी पहाड़ियों के बीच में सरसब्ज मैदान था, जिसके बीच में बरसाती पानी से बचने के लिए एक स्थान भी बना हुआ था। इस सरजमीन को इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिह ने बहुत ही पसन्द किया और इन्द्रजीतसिंह ने उन कैदियों की तरफ देखकर कहा, "अब तुम लोग अपने को आजाद और तिलिस्मी कैदखाने से बाहर निकला हुआ समझो, थोड़ी देर में हम लोग तुम्हें इस घाटी से बाहर पहुँचा देंगे फिर जहाँ तुम लोगों की इच्छा हो, चले जाना।"

इसके जवाब में इन कैदियों ने हाथ जोड़कर कहा––"अब हम लोग इन चरणों को छोड़ नहीं सकते! यद्यपि अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिए हम लोग बेताब हो रहे हैं परन्तु हमारी यह अभिलाषा भी आपकी कृपा के बिना पूरी नहीं हो सकती, अतः हम लोग आपके साथ-ही-साथ राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में चलने की इच्छा रखते हैं।"

दोनों कुमारों ने उनकी प्रार्थना मंजूर कर ली और इसके बाद जो कुछ अनूठी कार्रवाई उन लोगों ने की, दूसरे दिन बयान करूँगा।

इतना कहकर नकाबपोश चुप हो गया और अपने घर जाने की इच्छा से राजा साहब का मुँह देखने लगा। यद्यपि महाराज इसके आगे भी इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल सुनना चाहते थे, परन्तु इस समय नकाबपोशों को छुट्टी दे देना ही उचित जान कर घर जाने की इजाजत दे दी और दरबार बर्खास्त किया।

  1. देखिए चन्द्रकान्ता संतति, दसवाँ भाग, पहला बयान।