चंद्रकांता संतति भाग 5
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ २३९ से – आवरण-चित्र तक

 

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महाराज सुरेन्द्रसिंह के दरबार में दोनों नकाबपोश दूसरे दिन नहीं आये, बल्कि तीसरे दिन आये और आज्ञानुसार बैठ जाने पर अपनी गैरहाजिरी का सबब एक नकाबपोश ने इस तरह बयान किया––

"भैरोंसिंह और तारासिंह को साथ लेकर, यद्यपि हम लोग इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के पास गये थे। मगर रास्ते में कई तरह की तकलीफ हो जाने के कारण जुकाम (सर्दी) और बुखार के शिकार बन गये, गले में दर्द और रेजिश के सबब से साफ बोला नहीं जाता था। बल्कि अभी तक आवाज साफ नहीं हुई, इसीलिए कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने जोर देकर हम लोगों को रोक लिया और दो-तीन अपने पास से हटने न दिया, लाचार हम लोग हाजिर न हो सके। उन्होंने एक चिट्ठी भी महाराज के नाम की दी है।"

यह कहकर नकाबपोश ने एक चिट्ठी जेब से निकाली और उठ कर महाराज के हाथ में दी। महाराज ने बड़ी प्रसन्नता से वह चिट्ठी जो खास इन्द्रजीतसिंह के हाथ की लिखी हुई थी, पढ़ी और इसके साथ बारी-बारी से सभी के हाथ में वह चिट्ठी घूमी। उसमें प्रणाम इत्यादि के बाद यह लिखा हुआ था––

"आपके आशीर्वाद से हम लोग प्रसन्न हैं। दोनों ऐयारों के न होने से जो तकलीफ थी, अब वह भी जाती रही। रामसिंह और लक्ष्मणसिंह ने हम लोगों की बड़ी मदद की, इसमें कोई सन्देह नहीं। हम लोग तिलिस्म का बहुत ज्यादा काम खत्म कर चुके हैं। आशा है कि आज के तीसरे दिन हम दोनों भाई आपकी सेवा में उपस्थित होंगे और इसके बाद जो कुछ तिलिस्म का काम बचा हुआ है, उसे आपकी सेवा में रहकर ही पूरा करेंगे। हम दोनों की इच्छा है कि तब तक आप कैदियों का मुकदमा भी बन्द रखें क्योंकि उसके देखने और सुनने के लिए हम दोनों बेचैन हो रहे हैं। उपस्थित होने पर हम दोनों अपना अनूठा हाल भी अर्ज करेंगे।"

इस चिट्ठी को पढ़कर और यह जान कर सभी प्रसन्न हुए कि अब कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आना ही चाहते हैं। इसी तरह इस उपन्यास के प्रेमी पाठक भी यह जानकर प्रसन्न होंगे कि अब यह उपन्यास भी शीघ्र ही समाप्त होना चाहता है। अस्तु, कुछ देर तक खुशी के चर्चे होते रहे और इसके बाद पुनः नकाबपोशों से बात-चीत होने लगी––

एक नकाबपोश––भूतनाथ लौट कर आया या नहीं?

तेजसिंह––ताज्जुब है कि अभी तक भूतनाथ नहीं आया। शायद आपके साथियों ने उसे···

नकाबपोश––नहीं-नहीं, हमारे साथी लोग उसे दुःख नहीं देंगे। मुझे तो विश्वास था कि भूतनाथ आ गया होगा, क्योंकि वे दोनों नकाबपोश लौटकर हमारे यहाँ पहुँच गये जिन्हें भूतनाथ गिरफ्तार करके ले गया था। मगर अब शक होता है कि भूतनाथ पुनः किसी फेर में तो नहीं पड़ गया या उसे पुनः हमारे किसी साथी को पकड़ने का शौक तो नहीं हुआ!

तेजसिंह––आपके साथी ने लौटकर अपना हाल तो कहा होगा?

नकाबपोश––जी हाँ, कुछ हाल कहा था, जिससे मालूम हुआ कि उन दोनों को गिरफ्तार करके ले जाने पर भूतनाथ को पछताना पड़ा।

तेजसिंह––क्या आप बता सकते हैं कि क्या-क्या हुआ?

नकाबपोश––बता सकते हैं, मगर यह बात भूतनाथ को नापसन्द होगी, क्योंकि भूतनाथ को उन लोगों ने उसके पुराने ऐबों को बताकर डरा दिया था और इसी सबब से वह उन नकाबपोशों का कुछ बिगाड़ न सका। हाँ, हम लोग उन दोनों नकाबपोशों को अपने साथ यहाँ ले आये हैं यह सोचकर कि भूतनाथ यहाँ आ गया होगा, अतः उनका मुकाबला हुजूर के सामने करा दिया जायेगा।

तेजसिंह––हाँ! वे दोनों नकाबपोश कहाँ हैं?

नकाबपोश––बाहर फाटक पर उन्हें छोड़ आया हूँ। किसी को हुक्म दिया जाये, उन्हें भीतर बुला लाये।

इशारा पाते ही एक चोबदार उन्हें बुलाने के लिए चला गया, और उसी समय भूतनाथ भी दरबार में हाजिर होता दिखाई दिया। कौतुक की निगाह से सबने भूतनाथ को देखा भूतनाथ ने राबको सलाम किया और आज्ञानुसार देवीसिंह के बगल में बैठ गया।

जिस समय भूतनाथ इस इमारत की ड्योढ़ी पर आया था उसी समय उन दोनों नकाबपोशों को फाटक पर टहलता हुआ देखकर चौंक पड़ा था। यद्यपि उन दोनों के चेहरे नकाब से खाली न थे, मगर फिर भी भूतनाथ ने उन्हें पहचान लिया कि ये दोनों वही नकाबपोश हैं, जिन्हें हम फँसा ले गये थे। अपने धड़कते कलेजे और परेशान दिमाग को लिए हुए भूतनाथ फाटक के अन्दर चला गया और दरबार में हाजिर होकर उसने दोनों सरदार नकाबपोशों को देखा।

एक नकाबपोश––कहो भूतनाथ, अच्छे तो हो?

भूतनाथ––हुजूर लोगों के इकबाल से जिन्दा हूँ, मगर दिन-रात इसी सोच में पड़ा रहता हूँ कि प्रायश्चित्त करने या क्षमा माँगने से ईश्वर भी अपने भक्तों के पापों को भुलाकर क्षमा कर देता है परन्तु मनुष्यों में वह बात क्यों नहीं पाई जाती!

नकाबपोश––जो लोग ईश्वर के सच्चे भक्त हैं, और जो निर्गुण और सगुण सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर का भरोसा रखते हैं, वे जीवमात्र के साथ वैसा ही बर्ताव करते हैं, जैसा ईश्वर चाहता है या जैसीकि हरि-इच्छा समझी जाती है। अगर तुमने सच्चे दिल से परमात्मा से क्षमा माँग ली और अब तुम्हारी नीयत साफ है तो तुम्हें किसी तरह का दुःख नहीं मिल सकता। अगर कुछ मिलता है तो इसका कारण तुम्हारे चित्त का विकार है। तुम्हारे चित्त में अभी तक शान्ति नहीं हुई और तुम एकाग्र होकर उचित कार्यों की तरफ ध्यान नहीं देते, इसलिए तुम्हें सुख प्राप्त नहीं होता। अब हमारा कहना इतना ही है कि तुम शान्ति के स्वरूप बनो और ज्यादा खोज-बीन के फेर में न पड़ो। यदि तुम इस बात को मानोगे, तो निःसन्देह अच्छे रहोगे, और तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।

भूतनाथ––निःसन्देह आप उचित कहते हैं।

देवीसिंह––भूतनाथ, तुम्हें यह सुनकर प्रसन्न होना चाहिए कि दो ही तीन दिन में कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आने वाले हैं।

भूतनाथ––(ताज्जुब से) यह कैसे मालूम हुआ?

देवीसिंह––उनकी चिट्ठी आई।

भूतनाथ––कौन लाया है?

देवीसिंह––(नकाबपोशों की तरफ बताकर) ये ही लाये हैं।

भूतनाथ––क्या मैं उस चिट्ठी को देख सकता हूँ?

देवीसिंह––अवश्य।

इतना कहकर देवीसिंह ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह की चिट्ठी भूतनाथ के हाथ में दे दी, और भूतनाथ ने प्रसन्नता के साथ पढ़कर कहा, "अब सब बखेड़ा तय हो जायेगा!"

जीतसिंह––(महाराज का इशारा पाकर भूतनाथ से) भूतनाथ, तुम्हें महाराज की तरफ से किसी तरह का खौफ नहीं करना चाहिए, क्योंकि महाराज आज्ञा दे चुके हैं कि तुम्हारे ऐबों पर ध्यान न देंगे और देवीसिंह, जिन्हें महाराज अपना अंग समझते हैं, तुम्हें अपने भाई के बराबर मानते है। अच्छा, अब यह बताओ कि तुम्हारे लौट आने में इतना विलम्ब क्यों हुआ, क्योंकि जिन दो नकाबपोशों को तुम गिरफ्तार करके ले गये थे उन्हें अपने घर लौटे दो दिन हो गए।

भूतनाथ कुछ जवाब देना ही चाहता था कि वे दोनों नकाबपोश भी हाजिर हुए जिन्हें बुलाने के लिए चोबदार गया था। जब वे दोनों सबको सलाम करके आज्ञानुसार बैठ गये तब भूतनाथ ने जवाब दिया––

भूतनाथ––(दोनों नकाबपोशों की तरफ बताकर) जहाँ तक मैं खयाल करता हूँ, ये दोनों नकाबपोश वे ही हैं, जिन्हें मैं गिरफ्तार करके ले गया था। (नकाबपोशों से) क्यों साहबो?

एक नकाबपोश––ठीक है, मगर हम लोगों को ले जाकर तुमने क्या किया, सो महाराज को मालूम नहीं है।

भूतनाथ––हम लोग एक साथ ही अपने-अपने स्थान की तरफ रवाना हुए थे, ये दोनों तो बे-खटके अपने घर पर पहुँच गए होंगे, मगर मैं एक विचित्र तमाशे के फेर में पड़ गया था।

जीतसिंह––वह क्या?

भूतनाथ––(कुछ संकोच के साथ) क्या कहूँ, कहते हुए शर्म मालूम होती है!

देवीसिंह––ऐयारों को किसी घटना के कहने में शर्म न होनी चाहिए, चाहे उन्हें अपनी दुर्गति का हाल ही क्यों न कहना पड़े, और यहाँ कोई गैर-शख्स भी बठा हुआ नहीं है। ये नकाबपोश साहब भी अपने ही हैं, तुम खुद देख चुके हो कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने इनके बारे में क्या लिखा है।

भूतनाथ––ठीक है, मगर खैर, जो होगा देखा जायेगा। मैं बयान करता हूँ, सुनिये। इन नकाबपोशों को बिदा करने के बाद जिस समय मैं वहाँ से रवाना हुआ, रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। जब मैं 'पिपलिया' वाले जंगल में पहुँचा, जो यहाँ से दो-ढाई कोस होगा, तो गाने की मधुर आवाज मेरे कानों में पड़ी और मैं ताज्जुब से चारों तरफ गौर करने लगा। मालूम हुआ कि दाहिनी तरफ से आवाज आ रही है, अतः मैं रास्ता छोड़ धीरे-धीरे दाहिनी तरफ चला और गौर से उस आवाज को सुनने लगा। जैसे-जैसे आगे बढ़ता था, आवाज साफ होती जाती थी और यह भी जान पड़ता था कि मैं इस स्वर से अपरिचित नहीं, बल्कि कई दफे सुन चुका हूँ, अतः उत्कण्ठा के साथ कदम बढ़ाकर चलने लगा। कुछ और आगे जाने के बाद मालूम हुआ कि दो औरतें मिलकर बारी-बारी से गा रही हैं, जिनमें से एक की आवाज पहचानी हुई है। जब उस ठिकाने पहुँच गया जहाँ से आवाज आ रही थी तो देखा कि बड़ के एक बड़े और पुराने पेड़ के ऊपर कई औरतें गा रही हैं। वहाँ बहत ठाधिकार हो रहा था, इसलिए इस बात का पता नहीं लग सकता था कि वे औरतें कौनम्ह कैसी और किस रंग-ढंग की हैं तथा उनका पहनावा कैसा है।

मैं भले-बुरे का कुछ ख़याल न करके उस पेड़ के नीचे चला गया और तिलिस्मी खंजर अपने हाथ में लेकर रोशनी के लिए उसका कब्जा दबाया। उसकी तेज रोशनी से चारों तरफ उजाला हो गया और पेड़ पर चढ़ी हुई वे औरतें साफ दिखाई देने लगीं। मैं उनके पहचानने की कोशिश कर ही रहा था कि यकायक उस पेड़ के चारों तरफ चक्र की तरह आग भभक यो और तुरन्त ही वह बुझ गई। जैसे किसी ने बारूद की ढेर में आग दी हो और वह भक कर उड़ जाने के बाद वहाँ केवल धुआँ-ही-धुआँ रह जाये, ठीक वैसा ही मालूम हुआ। आग बुझ जाने के साथ ही ऐसा जहरीला और कडुआ धुआँ फैला कि मेरी तबीयत घबरा गई और मैं समझ गया कि इसमें बेहोशी का असर जरूर है और मेरे साथ ऐयारी की गई। बहुत कोशिश की, मगर मैं अपने को सम्हाल न सका और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।

मैं नहीं कह सकता कि बेहोश होने के बाद मेरे साथ कैसा सलूक किया गया। हाँ, जब मैं होश में आया और मेरी आँखें खुलीं; तो मैंने एक सुन्दर सजे हुए कमरे में अपने को हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर पाया। उस समय कमरे में रोशनी बखूबी हो रही थी, और मेरे सामने साफ फर्श के ऊपर कई औरतें बैठी हुई थीं, जिनमें मेरी औरत ऊँची गद्दी पर बैठी हुई उन सबकी सरदार मालूम पड़ती थी।

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