चंद्रकांता संतति भाग 5
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १५५ से – १५८ तक

 

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राजा गोपालसिंह को देखते ही सब कोई उठ खड़े हुए और बारी-बारी से सलाम की रस्म अदा की। इस समय भैरोंसिंह ने लक्ष्मीदेवी की आँखों से मिलती हुई राजा गोपालसिंह की उस मुहब्बत, मेहरबानी और हमदर्दी की निगाह पर गौर किया जिसे आज के थोड़े दिन पहले लक्ष्मीदेवी बेताबी के साथ ढूँढ़ती थी या जिसके न पाने से वह तथा उसकी बहिनें तरह-तरह का इलजाम गोपालसिंह पर लगाने का खयाल कर रही थीं।

सभी की इच्छानुसार राजा गोपालसिंह भी दोनों कुमारों के पास ही बैठ गए और सभी की कुशल-मंगल पूछने के बाद कुमार से बोले, "क्या आपको उस बड़े इजलास की फिक्र नहीं है जो चुनार में होने वाला है, और जिसमें भूतनाथ के दिलचस्प मुकदमे का फैसला किया आयेगा जिसमें उसका तथा और भी कई कैदियों के सम्बन्ध में एक से एक बढ़कर अनूठा हाल खुलेगा? साथ ही इसके मुझे यह भी सन्देह होता है कि आप उनकी तरफ से भी कुछ बेफिक्र हो रहे हैं जिनके लिए···

इन्द्रजीतसिंह––नहीं-नहीं, मैं न तो बेफिक्र हूँ, और न अपने काम में सुस्ती ही करना चाहता हूँ!

गोपालसिंह––क्या हम लोग नहीं जानते कि इधर के कई दिन आपने कस तरह व्यर्थ नष्ट किए हैं और इस समय भी किस बेफिक्री के साथ बैठे गप्पें उड़ा रहे हैं?

इन्द्रजीतसिंह––(कुछ कहते-कहते रुक कर) जी नहीं, इस समय तो हम लोग इन्दिरा का किस्सा सुन रहे थे।

गोपालसिंह––इन्दिरा कहीं भागी नहीं जाती थी, यहाँ नहीं तो चुनार में हर तरह से बेफिक्र होकर आप इसका किस्सा सुन सकते थे जहाँ और भी कई अनूठे किस्से आप सुनेंगे। खैर, बताइए कि आप इन्दिरा का किस्सा सुन चुके या नहीं?

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, और सब किस्सा तो सुन चुका, केवल इतना सुनना बाकी है कि आपकी वह तिलिस्मी किताब क्योंकर इसके हाथ लगी और यह उस पुतली की सूरत में क्यों वहाँ रहा करती थी।

गोपालसिंह––इतना किस्सा आप तिलिस्मी कार्रवाई से छुट्टी पाकर सुन लीजिएगा और अगर इस पर आपका ऐसा ही जी लगा हुआ है तो मैं मुख्तसिर में आपको समझाये देता हूँ क्योंकि मैं यह सब हाल इन्दिरा से सुन चुका हूँ। सचाई यह है कि मेरे यहाँ दो ऐयार हरनामसिंह और बिहारीसिंह रहते थे। वे रुपये की लालच में पड़ कर कम्बख्त मायारानी से मिल गए थे और मुझे कैदखाने में पहुँचाने के बाद वे लोग उसी की इच्छानुसार काम करते थे, मगर बुरी राह चलने वालों को या बुरों का संग करने वालों को जो कुछ फल मिला है वही उन्हें भी मिला, अर्थात् एक दिन मायारानी ने धोखा देकर उन्हें खास बाग के एक गुप्त कुएँ में ढकेल दिया[] जिसके बारे में वह केवल इतना ही जानती थी कि वह तिलिस्मी ढंग का कुआँ लोगों को मार डालने के लिए बना हुआ है, मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। वह कुआँ उन लोगों के लिए बना है जिन्हें तिलिस्म में कैद करना मंजूर होता है। मायारानी को चाहे यह निश्चय हो गया कि दोनों ऐयार मर गए, लेकिन वास्तव में वे मरे नहीं बल्कि तिलिस्म में कैद हो गये थे। इस बात को मायारानी बहुत दिनों तक छिपाये रही लेकिन आखिर एक दिन उसने अपनी लौंडी लीला से कह दिया और लीला से यह बात हरनाम सिंह की लड़की ने सुन ली

जब आपने मुझे कैद से छुड़ाया और मैं खुल्लमखुल्ला पुनः जमानिया का राजा बना, तब हरनामसिंह की लड़की फरियाद करने के लिए मेरे पास पहुँची और मुझसे वह हाल कहा। मैंने जवाब में कहा कि वे दोनों ऐयार उस कुएँ में धकेल देने से मरे नहीं हैं बल्कि तिलिस्म में कैद हो गए हैं जिन्हें मैं छुड़ा तो सकता हूँ, मगर उन दोनों ने मेरे साथ दगा की है इसलिए छुड़ाने योग्य नहीं हैं और न मैं उन्हें छुड़ाऊँगा ही। इतना सुन वह चली गई मगर छिपे-छिपे उसने ऐसा भेद लगाया और चालाकी की जिसे सुनेंगे तो दंग हो जायेंगे। मुख्तसिर यह कि अपने बाप को कैद से छुड़ाने की नीयत से उस लड़की ने मेरी तिलिस्मी किताब चुराई और उसकी मदद से तिलिस्म के अन्दर पहुँची, मगर उस किताब का मतलब ठीक-ठीक न समझने के सबब वह न तो अपने बाप को छुड़ा सकी और न खुद ही तिलिस्म के बाहर निकल सकी। हाँ, उसी जगह अकस्मात् इन्दिरा से उसकी मुलाकात हो गई। इन्दिरा को भी अपनी तरह दुःखी जान कर उसने सब हाल इससे कहा और इन्दिरा ने चालाकी से वह किताब अपने कब्जे में कर ली तथा उससे बहुत-कुछ फायदा भी उठाया। तिलिस्म में आने-जाने वालों से अपने को बचाने के लिए इन्दिरा उस पुतली की सूरत बनकर रहने लगी, क्योंकि उसी ढंग के कपड़े इन्दिरा को उस पुतली वाले घर से मिल गए थे। जब मैंने इन्दिरा से यह हाल सुना तो बिहारीसिंह और हरनामसिंह तथा उसकी लड़की को बाहर निकाला। वे सब भी चुनारगढ़ पहुँचाए जा चुके हैं। अब जब आप चुनारगढ़ पहुंचेंगे तो औरों के साथ-साथ उन लोगों का भी तमाशा देखेंगे, तथा···

लक्ष्मीदेवी––(गोपालसिंह से) मगर आप इन बातों को इतनी जल्दी-जल्दी और संक्षेप में कहकर कुमारों को भगाना क्यों चाहते हैं? इन्हें यहाँ अगर एक दिन और देर ही हो जायगी तो क्या हर्ज है?

कमलिनी––मेहमानदारी के खयाल से जल्द छूटना चाहते हैं!

गोपालसिंह––औरतों का काम तो आवाज कसने का ही है, मगर मैं किसी और ही सबब से जल्दी मचा रहा हूँ। महाराज (वीरेन्द्रसिंह) के पत्र बराबर आ रहे हैं कि दोनों कुमारों को शीघ्र भेज दो, इसके अतिरिक्त वहाँ कैदियों का जमाव हो रहा है और नित्य एक नया रंग खिलता है। वहां जितनी आफतें थीं वह सब जाती हीं···

लक्ष्मीदेवी––(बात काट कर) तो कुमार को और हम लोगों को आप तिलिस्म के बाहर क्यों नहीं ले चलते? वहां से कुमार बहुत जल्दी चुनार पहुँच सकते हैं।

गोपालसिंह––(कुमार से) आप इस समय मेरे साथ तिलिस्म के बाहर जा सकते हैं मगर ऐसा होना न चाहिए। आप लोगों के हाथ से जो कुछ तिलिस्म टूटने वाला है उसे तोड़कर फिर इस तिलिस्म के अन्दर ही अन्दर से चुनार पहुँचना उचित होगा। जब आपकी शादी हो जाएगी तब मैं आपको यहाँ लाकर अच्छी तरह इस तिलिस्म की सैर कराऊँगा। इस समय मैं (किशोरी, कामिनी, इन्दिरा वगैरह की तरफ बता कर) इन सभी को लेकर खास बाग में जाता हूँ क्योंकि अब वहाँ सब तरह से शान्ति हो चुकी है और किसी तरह का अन्देशा नहीं वहाँ आठ-दस दिन रहकर फिर सभी को साथ ले मैं चुनार चला जाऊंगा और तब उसी जगह आपसे हम लोगों की मुलाकात होगी।

इन्द्रजीतसिंह––जो कुछ आप कहते हैं वही होगा, मगर यहाँ की अद्भुत बातें देखकर मेरे दिल में कई तरह का खुटका बना है...

गोपालसिंह––वह सब चुनार में निकल जायगा, यहाँ मैं आपको कुछ न बताऊँगा। देखिए, अब रात बीतना चाहती है, सवेरा होने के पहले ही आपको अपने काम में हाथ लगा देना चाहिए।

लक्ष्मीदेवी––(हँस कर) आप क्या आये, मानो भूचाल आ गया! अच्छी जल्दी मचाई, बात तक नहीं करने देते! (कुमार से) जरा इन्हें अच्छी तरह जाँच तो लीजिए, कहीं कोई ऐयार रूप बदलकर न आया हो।

गोपालसिंह––(इन्द्रजीतसिंह के कान में कुछ कहकर) बस, अब आप विलम्ब न कीजिए।

इन्द्रजीतसिंह––(उठकर) अच्छा, तो फिर मैं प्रणाम करता हूँ और भैरोंसिंह को भी आपके ही सुपुर्द किये जाता हूँ। (लक्ष्मीदेवी से) आप किसी तरह की चिन्ता न करें, ये (गोपालसिंह) वास्तव में हमारे भाई साहब ही हैं, अतः अब चुनार में पुनः मुलाकात की उम्मीद करता हुआ मैं आप लोगों से बिदा होता हूँ।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने मुस्कुराते हुए सभी की तरफ देखा और आनन्दसिंह ने भी बड़े भाई का अनुसरण किया। राजा गोपालसिंह दोनों कुमारों को लिए कमरे के बाहर चले गये और कुछ देर तक बातचीत करने तथा समझा कर बिदा करने के बाद पुनः कमरे में चले आये।

  1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति आठवाँ भाग,पाँचवाँ बयान।