चन्द्रकान्ता सन्तति 5/19.4
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कमलिनी को देख कर दोनों कुमार शरमाए और मन में तरह-तरह की बातें सोचने लगे। देखते-देखते कमलिनी उनके पास आ गई और प्रणाम करके बोली, "आप यहाँ जमीन पर क्यों बैठे हैं? उस कमरे में चलकर बैठिए, जहाँ फर्श बिछा है और सब तरह का आराम है।"
इन्द्रजीतसिंह––मगर वहाँ अँधकार तो जरूर होगा।
कमलिनी––जी नहीं, वहाँ बखूबी रोशनी हो रही होगी, (मुस्करा कर) क्योंकि यहाँ की रानी के मर जाने से यह बाग एक सुघड़ रानी के अधिकार में आ गया है और उसने आपकी खातिर में रोशनी जरूर कर रखी होगी।
इन्द्रजीतसिंह––(कुछ शर्मिन्दगी के साथ) बस, रहने दीजिए, मैं यहां की रानियों का मेहमान नहीं बनता। जो कुछ बनना था, सो बन चुका। अब तो तुम्हारी दिल्लगी का निशाना बनूँगा।
कमलिनी––(हाथ जोड़ कर) मेरी क्या मजाल जो आपसे दिल्लगी करूँ, अच्छा आप मेरे मेहमान बनिए और यहाँ से उठिये।
इन्द्रजीतसिंह––क्या तुम नहीं जानतीं कि यहाँ अपने भी पराए होकर दुःख देने के लिए तैयार हो जाते हैं?
भैरोंसिंह––(कमलिनी से) आपने खयाल किया या नहीं? यह मेरी पूजा हो रही है।
कमलिनी––होनी ही चाहिए, आप इसी के योग्य हैं। (इन्द्रजीतसिंह से) मगर आप मुझ लौंडी पर किसी तरह का शक न करें। यदि आप यह समझते हों कि मैं वास्तव में कमलिनी नहीं हूँ, तो मैं बहुत-सी बातें उस जमाने की आपको याद दिला कर अपने पर विश्वास करा सकती हूँ। जिस जमाने में आप तालाब वाले तिलिस्मी मकान में मेरे साथ रहते थे। (उस समय की दो-तीन गुप्त बातों का इशारा करके) कहिए, अब भी मुझ पर शक है?
इन्द्रजीतसिंह––(बनावटी मुस्कराहट के साथ) नहीं, अब तुम पर शक तो किसी तरह का नहीं है, मगर रंज जरूर है।
कमलिनी––रंज! सो किस बात का?"
इन्द्रजीतसिंह––इस बात का कि यहाँ आने पर तुमने मुझसे जान-बूझ के अपने को छिपाया और मुझे तरद्दुद में डाला!
कमलिनी––(हँसकर और कुमार का हाथ पकड़ के) अच्छा, आप यहाँ से उठिये और उस कमरे में चलिए तो मैं आपकी सब बातों का जवाब दूँगी। आप तो जरा-सी बात में रंज हो जाते हैं। मगर आपके साथ किसी तरह का मसखरापन किया या हम लोगों को आपसे मिलने नहीं दिया गया तो आपकी भावज साहेबा ने, अतः आपकी ऐसी बातों का जवाब भी वे ही देंगी और उनसे भी उसी कमरे में मुलाकात होगी।
इन्द्रजीतसिंह––मेरी भावज साहेबा! सो कौन, क्या लक्ष्मीदेवी?
कमलिनी––जी हाँ, वे उसी कमरे में बैठी आपका इन्तजार कर रही हैं, चलिए।
इन्द्रजीतसिंह––हाँ, हैं तो उनसे मैं जरूर मिलूँगा। जबसे मैंने यह सुना है क तारा वास्तव में लक्ष्मीदेवी हैं तभी से मैं उनसे मिलने के लिए बेताब हो रहा हूँ।
यह कहकर इन्द्रजीतसिंह उठ खड़े हुए और अपने सूखे हुए कपड़े पहनकर कमलिनी के साथ उसी कमरे की तरफ चले जिसमें पहले भी कई दफे आराम कर चुके थे। उनके पीछे-पीछे आनन्दसिंह और भैरोंसिंह गए।
इस समय कमलिनी मामूली ढंग में न थी बल्कि बेशकीमत पोशाक और गहनों से अपने को सजाए हुए थी। एक तो यों ही किशोरी के मुकाबले की खूबसूरत और हसीन थी तिस पर इस समय की बनावट और शृंगार ने उसे और भी उभाड़ रखा था। यद्यपि आज उससे मिलने के पहले कुमार तरह-तरह की बातें सोच रहे थे और इन्द्रानी तथा आनन्दी वाले मामले से शर्मिन्दा होकर जल्दी उससे मिलना नहीं चाहते थे मगर जब सामने आकर खड़ी हो गई तो सब बातें एक तरह पर थोड़ी देर के लिए भूल गये और खुशी-खुशी उसके साथ चलकर उस कमरे में जा पहुँचे।
इस कमरे का दरवाजा मामूली ढंग पर बन्द था, जो कमलिनी के धक्का देने से
च॰ स॰-5-8
वह औरत जिसने कुमार को सलाम नहीं किया, लक्ष्मीदेवी थी और वह राजा गोपालसिंह की जुबानी यह सुन चुकी थी कि दोनों कुमार उनके छोटे भाई हैं, अतः दोनों कुमारों ने स्वयं लक्ष्मीदेवी को सलाम किया और उनकी पिछली अवस्था पर अफसोस करके पुनः जमानिया की रानी बनने पर प्रसन्नता के साथ मुबारकबाद देने के बाद और विषयों में भी देर तक उससे बातें करते रहे। इसके बाद किशोरी, कामिनी इत्यादि से बातचीत तकी नौबत पहुँची। किशोरी और इन्द्रजीतसिंह में तथा कामिनी और आनन्दसिंह में सच्ची और बढ़ी-चढ़ी मुहब्बत थी, परन्तु धर्म, लज्जा और सभ्यता का पल्ला भी उन लोगों ने मजबूती के साथ पकड़ा हुआ था। इसलिए यद्यपि यहाँ पर कोई बड़ी-बूढ़ी औरत मौजूद न थी जिससे विशेष लज्जा करनी पड़ती तथापि इन चारों ने इस समय बनिस्बत जुबान के विशेष करके आँखों के इशारों तथा भावों ही में अपने दुःख-दर्द और जुदाई के सदमे को झलकाकर उपस्थित अवस्था तथा इस अनोखे मेल-मिलाप पर प्रसन्नता प्रकट की। कमलिनी, लाड़िली, कमला, सरयू और इन्दिरा आदि से भी कुशल-क्षेम पूछने के बाद इन लोगों में यों बातें होने लगीं––
इन्द्रजीतसिंह––(लक्ष्मीदेवी से) आपको इस बात की शिकायत तो जरूर होगी कि आपको हद से ज्यादा दुःख भोगना पड़ा, मगर यह जानकर आप अपना दुःख जरूर भूल गई होंगी कि भाई साहब ने कम्बख्त मायारानी की बदौलत जो कुछ कष्ट भोगा उसे भी कोई साधारण मनुष्य सहन नहीं कर सकता।
लक्ष्मीदेवी––निःसन्देह ऐसा ही है, क्योंकि मुझे तो किसी-न-किसी तरह आजादी की हवा मिल भी रही थी मगर उन्हें अंधेरी कोठरी में जिस तरह रहना पड़ा वैसा ईश्वर न करे, किसी दुश्मन को भी नसीब हो।
इन्द्रजीतसिंह––(मुस्कराकर) मगर मैंने तो सुना था कि आप उनसे नाराज हो गई हैं और जमानिया जाने में...
कमलिनी––(हँसकर) ये बनिस्बत उनके जिन्न को ज्यादा पसन्द करती थीं।
लक्ष्मीदेवी––वास्तव में उन्होंने बड़ा भारी धोखा दिया था।
कमला––आपने ठीक कहा, क्योंकि ऐयारी दोनों ही ने की थी।
कमलिनी––ओफ, जब मैं वह समय याद करती हूँ, जब ये तारा बनकर मेरे यहाँ रहतीं और ऐयारी का काम करती थीं, तो मुझे आश्चर्य होता है। वास्तव में इनकी ऐयारी बहुत अच्छी होती थी और ये दुश्मनों का पता खूब लगाती थीं। रोहतासगढ़ पहाड़ी के नीचे जब मायारानी का ऐयार कंचनसिंह को मारकर आपको रथ पर सुला के ले गया था तब भी इन्होंने मुझे वह खबर कुछ ही देर पहले पहुँचाई थी।
इन्द्रजीतसिंह––(ताज्जुब से) हाँ! तब तो इनका बहुत बड़ा अहसान मेरी गर्दन पर भी है! ओफ, वह जमाना भी कैसा भयानक था! मजा तो यह था कि दुश्मन लोग आपस में लड़-मरते थे पर एक की दूसरे को खबर नहीं होती थी। देखो, रोहतासगढ़ में मायारानी की चमेली ने तो माधवी पर वार किया और माधवी को मरते दम तक इस बात का पता न लगा। अगर पता लग जाता तो क्या आज दिन माधवी मायारानी के साथ मिलकर यहाँ के तिलिस्मी बाग में आने की हिम्मत कभी करती?
कमलिनी––कदापि नहीं! (हँसकर) मगर आश्चर्य तो यह है कि जिस माधवी और मायारानी ने इतना ऊधम मचा रखा था, उन्हीं दोनों से आपने शादी कर ली। अफसोस तो यही है कि उनके पापों ने उन्हें बचने न दिया और हम लोगों को मुबारकबाद देने का मौका न मिला!
इन्द्रजीतसिंह––(शरमाकर) तुम तो...!
लक्ष्मीदेवी––(कुमार की बात काटकर कमलिनी से) बहिन, तुम भी कैसी शोख हो! कई दफे तुमसे कह चुकी हूँ कि इस बात का जिक्र न करना, मगर आखिर तुमने न मानी! खैर, अगर कुमार ने शादी की तो फिर तुम्हें क्या? तुम ताना मारने वाली कौन? और फिर भूल-चूक की बात ही क्या है, इन्होंने कुछ जान-बूझके तो शादी की ही नहीं, धोखे में पड़ गय। खबरदार, अब इस बात का जिक्र कोई करने न पाये। (कुमार से) हाँ, तो बताइए कि हम लोगों का हाल आपको कुछ मालूम हुआ या नहीं?
इन्द्रजीतसिंह––मैं तो बहुत दिनों से तिलिस्म के अन्दर हूँ, मगर बाहर का हाल, जिसमें आप लोगों का हाल भी मिला हुआ था, भाईसाहब (गोपालसिंह) बराबर सुना दिया करते थे और जो कुछ नहीं मालूम है वह अब मालूम हो जायेगा, क्योंकि ईश्वर की कृपा से आप लोगों का बहुत अच्छा समागम हुआ है, एक-दूसरे से आप-बीती कहने-सुनने का मौका आज से बढ़कर फिर न मिलेगा। साथ ही इसके मैं यह भी कहूँगा कि आप (कमलिनी की तरफ इशारा करके) इन्हें बात-बात में डाँटने या दबाने की तकलीफ न करें, ये जितना और जो कुछ मुझे कहें कहने दीजिये क्योंकि मैं इनके हाथ बिका हूँ, इन्होंने हम लोगों के साथ जो कुछ सलूक किया है, वह किसी से छिपा नहीं है और न उसका बोझ हम लोगों के सिर से कभी उतर सकता है...।
कमलिनी––बस-बस, ज्यादा तारीफों की भरमार न कीजिए। अगर आप...(सरयू की तरफ देख के) चाची, क्षमा कीजिए, और जरा इस कमरे में जाकर (दोनों कुमारों और भैरोंसिंह की तरफ बताकर) इन लोगों के लिए खाने का इन्तजाम कीजिए।
सरयू कमलिनी का मतलब समझ गई कि उसके सामने हँसी-दिल्लगी की बातें करते इन लोगों को शर्म मालूम होती है और उचित भी यही है कि अतः वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई और तब कमलिनी ने पुनः इन्द्रजीतसिंह से कहा, "हाँ, अगर आप मेरे हाथ बिके हुए हैं तो कोई चिन्ता नहीं, मैं आपको बड़ी खातिर के साथ अपने पास रखूगी।"
किशोरी––(मुस्कराती हुई) इनकी ताबीज बना के गले में पहन लेना।
कमलिनी––जी नहीं, गले तो ये तुम्हारे मढ़े जायेंगे, मैं तो इन्हें हाथों पर लिए फिरूँगी।
लक्ष्मीदेवी––बल्कि चुटकियों पर, क्योंकि तुम ऐसी ही शोख और मसखरी हो! (कुमार से) आज हम लोगों के लिए बड़ी खुशी का दिन है, ईश्वर ने बड़े भागों से यह दिन दिखाया है, अतएव अगर हम लोग हँसी-दिल्लगी में कुछ विशेष कह जायें तो रंज न मानिएगा।
इन्द्रजीतसिंह––ताज्जुब है कि आप रंज होने का जिक्र करती हैं! क्या आप इस बात को नहीं जानतीं कि इन्हीं बातों के लिए हम लोग कब से तरस रहे हैं! (कमलिनी की तरफ देख के और मुस्करा के) मगर आशा है कि अब तरसना न पड़ेगा।
कमलिनी––यह तो (किशोरी की तरफ बता के) इन्हें कहिए, तरसने की बात का जवाब तो यही दे सकेंगी।
किशोरी––ठीक है, क्योंकि आदमी जब किसी के हाथ बिक जाता है तो आजादी की हवा खाने के लिए उसे तरसना ही पड़ता है।
इन्द्रजीतसिंह––(बात का ढंग दूसरी तरफ बदलने की नीयत से कमलिनी की तरफ देखकर) हाँ, यह तो बताओ कि नानक से और तुम लोगों से मुलाकात हुई थी या नहीं?
कमलिनी––जी नहीं, उस पर तो आपको बड़ा रंज होगा!
इन्द्रजीतसिंह––हाँ, इसलिए कि उसने अपनी चाल-चलन को बहुत बिगाड़ रखा है। (कमला से) तुमने यह तो सुना ही होगा कि नानक भूतनाथ का लड़का है और भूतनाथ तुम्हारा पिता है!
कमला––जी हाँ, मैं सुन चुकी हूँ, मगर वे (लम्बी साँस लेकर) आजकल अपनी भूलों के सबब आप लोगों के मुजरिम बन रहे हैं!
इन्द्रजीतसिंह––चिन्ता मत करो, पिछले जमाने में अगर भूतनाथ से किसी तरह का कसूर हो गया तो क्या हुआ, आजकल वह हम लोगों का काम बड़ी खूबी और नेक-नीयती के साथ कर रहा है और तुम विश्वास रखो कि उसका सब कसूर माफ किया जायेगा।
कमला––यदि आपकी कृपा हो तो सब अच्छा ही होगा। (कमलिनी की तरफ इशारा करके) इन्होंने भी मुझे ऐसी ही आशा दिलाई है।
लक्ष्मीदेवी––इनका तो वह ऐयार ही ठहरा, इन्हीं के दिए हुए तिलिस्मी खंजर की बदौलत उसने बड़े-बड़े काम किए और कर रहा है। हाँ, खूब याद आया, (इन्द्रजीतसिंह से) मैं आपसे एक बात पूछूँगी।
इन्द्रजीतसिंह––पूछिये।
लक्ष्मीदेवी––तालाब वाले तिलिस्मी मकान से थोड़ी दूर पर जंगल में एक खूबसूरत नहर है और वहीं पर किसी योगिराज की समाधि है...।
इन्द्रजीतसिंह––हाँ-हाँ, मैं उस स्थान का हाल जानता हूँ। यद्यपि मैं वहाँ कभी गया नहीं, मगर 'रिक्तगन्थ' की बदौलत मुझे वहाँ का हाल बखूबी मालूम हो गया है, (कमलिनी की तरफ देखकर) इन्हें भी तो मालूम ही होगा क्योंकि वह 'रिक्तगन्थ' बहुत दिनों तक इनके पास था।
कमलिनी––जी हाँ, उसी रिक्तगन्थ की बदौलत मुझे उसका हाल मालूम हुआ था और उसी जगह से वह तिलिस्मी खंजर और नेजा मैंने निकाला था[१] मगर मैं उस रिक्तगन्थ की लिखावट अच्छी तरह समझ नहीं सकती थी, इसलिए उसका ठीक-ठीक और पूरा हाल मैं न जान सकी।
लक्ष्मीदेवी––इसी सबब से आप मेरी बातों का ठीक जवाब न दे सकी तब मैंने सोचा कि आपसे मुलाकात होने पर पूछूँगी कि क्या वहाँ भी कोई तिलिस्म है?
इन्द्रजीतसिंह––जी नहीं, वहाँ कोई तिलिस्म नहीं है। जिस दार्शनिक महात्मा की वह समाधि है, उन्होंने यह तिलिस्म तथा रोहतासगढ़ का तहखाना, तालाब वाला तिलिस्मी खँडहर, जिसमें मैं मुर्दा बनाकर पहुँचाया गया था,[२] अथवा जिसमें किशोरी, कामिनी और भैरोंसिंह वगैरह फँस गये थे बनवाया है, और चुनारगढ़ वाला तिलिस्म उनके गुरु का बनवाया हुआ है, यहाँ के राजा जिन्होंने यह तिलिस्म बनवाया था, उन्हीं के शिष्य थे। उन महात्मा ने जीते-जी समाधि ले ली थी और उन्होंने अपना योगाश्रम भी उसी स्थान में बनवाया था। कमलिनी ने तिलिस्मी खंजर उसी योगाश्रम से निकाला होगा क्योंकि वहाँ भी बड़ी-बड़ी अनूठी चीजें हैं।
कमलिनी––जी हाँ, और उसी जगह मैंने इस बात की कसम भी खाई थी कि "भूतनाथ और नानक को अपना भाई समझूँगी, अगर ये लोग हम लोगों के साथ दगा न करेंगे।" यद्यपि यह आश्चर्य की बात है कि अभी तक भूतनाथ के भेदों का सही-सही पता नहीं लगता फिर भी चाहे जो हो यह तो मैं जरूर कहूँगी कि भूतनाथ ने हम लोगों के साथ बड़ी नेकियाँ की हैं।
इन्द्रजीतसिंह––इसमें किसी को क्या शक हो सकता है? भूतनाथ वास्तव में बड़ा भारी ऐयार है। हाँ, यह तो बताओ कि नानक यहाँ कैसे आ पहुँचा?
कमलिनी––भला मैं इस बात को क्या जानूँ?
आनन्दसिंह––(मुस्कराते हुए) अपनी रामभोली को खोजता हुआ आया होगा।
लाड़िली––उसे मालूम हो चुका है कि उसकी रामभोली को मरे तो मुद्दत हो गई।
आनन्दसिंह––खैर, उसकी तस्वीर खोजने आया होगा!
लाडिली––या किसी की बारात में आया होगा!
लाड़िली की इस आखिरी बात ने सबको हँसा दिया और कुँअर आनन्दसिंह शरमाकर चुप हो रहे।
इन्द्रजीतसिंह––(कमलिनी से)इस बात का कुछ पता न लगा कि अग्निदत्त को किसने मारा था! (किशोरी से) शायद इसका जवाब तुम दे सकती हो?
किशोरी––अग्निदत्त को मायारानी के ऐयारों ने मारा था[३] और उन्हीं लोगों ने मुझे ले जाकर उस तिलिस्मी खँडहर में कैद किया था। भैरोंसिंह––(कमलिनी से) हाँ, खूब याद आया, हमने सुना था कि उस समय जब हम लोग शाहदरवाजा बन्द हो जाने के कारण दुःखी हो रहे थे, तब आपने ही विचित्र ढंग से वहाँ पहुँचकर हम लोगों की सहायता की थी। आपको इन बातों की खबर कैसे मिली थी?[४]
कमलिनी––(लक्ष्मीदेवी की तरफ इशारा करके)उन दिनों ये ऐयारी कर रही थीं और इन्होंने ही उन बातों की खबर पहुँचाई थी तथा यह भी कहा था कि "खँडहर वाली बावली साफ हो गई है।" उस बावली में पहुँचने का रास्ता उसी योगिराज की समाधि के पास ही से है। अगर वह बावली खुदकर साफ न हो गई होती तो मैं शाहदरवाजा खोल न सकती क्योंकि ऊपर की तरफ से खँडहर के अन्दर पहुँचना कठिन हो रहा था और भीतर मायारानी के आदमी उस तहखाने में जा पहुँचे थे। वह भी हम लोगों की जिन्दगी का बड़ा कठिन समय था।
कमला––उसी समय राजा शिवदत्त भी वहाँ आकर...
कमलिनी––हाँ, उस समय भी भूतनाथ ने बड़ी मदद दी। रूहा बनकर अगर वह राजा शिवदत्त को पकड़ न लिए होता तो गजब ही हो जाता।[५]
भैरोंसिंह––मैं तो कुमार की जिन्दगी से बिल्कुल ही नाउम्मीद हो गया था।
कमलिनी––(कुमार से) हाँ, यह तो बताइये कि आप वहाँ किस तरह पहुँचाये गये थे? इसमें तो कोई शक नहीं कि आपको मायारानी के आदमियों ने गिरफ्तार किया था मगर इस बात का पता अभी तक न लगा कि उस मकान के अन्दर आप तथा देवीसिंह वगैरह ने क्या देखा कि हँसते-हँसते उसके अन्दर कूद गये[६] और कूदने के बाद क्या हुआ?
इन्द्रजीतसिंह––कूद पड़ने के बाद फिर मुझे तन-बदन की सुध न रही और यही हाल उन सबका भी हुआ जो मेरे पहले उसके अन्दर कूद चुके थे, मगर यह अभी न बताऊँगा कि उसके अन्दर कौन-सी हँसाने वाली चीज थी।
कमलिनी––यही बात हम लोगों ने जब देवीसिंह से पूछी थी तो उन्होंने भी इनकार करके कहा था कि "माफ कीजिए, उस विषय में तब तक कुछ न कहूँगा जब तक इन्द्रजीतसिंह मेरे सामने मौजूद न होंगे, क्योंकि उन्होंने इस बात को छिपाने के लिए मुझे सख्त ताकीद कर दी है।[७] ताज्जुब है कि आपने अपने साथियों को भी इस तरह की ताकीद कर दी और आज स्वयं भी उसको बताने से इनकार करते हैं!
इन्द्रजीतसिंह––उसमें कोई ऐसी बात नहीं थी जिसके बताने से मुझे परहेज हो मगर मैं चाहता हूँ कि वही तमाशा तुम लोगों को तथा और अपने सबको दिखाकर बताऊँ कि उस मकान के अन्दर बस यही था, निःसन्देह तुम लोगों की भी वैसी दशा होगी।
कमलिनी––तो आज ही तमाशा क्यों नहीं दिखाते? इन्द्रजीतसिंह––आज वह तमाशा मैं नहीं दिखा सकता, हाँ, भाई साहब (गोपालसिंह) अगर चाहें तो दिखा सकते हैं, मगर इसके लिए जल्दी ही क्या है?
लक्ष्मीदेवी––खैर, जाने दीजिये, आखिर एक-न-एक दिन मालूम हो ही जायेगा। अच्छा यह बताइये कि आप जब इस तिलिस्म में या इसके बगल वाले बाग में आये थे तो उस बुड्ढे तिलिस्मी दारोगा से मुलाकात हुई थी या नहीं?
इन्द्रजीतसिंह––हाँ, हुई थी, बड़ा शैतान है, क्या तुम लोगों से वह नहीं मिला?
लक्ष्मीदेवी––भला वह कभी बिना मिले रह सकता है? उसने तो हम लोगों को भी धोखे में डालना चाहा था, मगर तुम्हारे भाई साहब ने पहले ही उसकी शैतानी से हम लोगों होशियार कर दिया था, इसलिए हम लोगों का वह कुछ बिगाड़ न सका।
कमलिनी––मगर आपने उसकी बात मान ली और इसलिए उसने भी आपसे खुश होकर आपकी शादी करा दी। आपको तो उसका अहसान मानना चाहिए...
लक्ष्मीदेवी––(कमलिनी को झिड़ककर) फिर तुम उसी रास्ते पर चलीं! खामखाह एक आदमी को...
इन्द्रजीतसिंह––अबकी अगर वह मुझे मिले तो उसे बिना मारे कभी न छोड़ चाहे जो हो।
इन्द्रजीतसिंह की इस बात पर सब हँस पड़े और इसके बाद लक्ष्मीदेवी ने कुमार से कहा, "अच्छा, अब यह बताइये कि मेरे चले जाने के बाद आपने तिलिस्म में क्या किया और क्या देखा?"
इसी समय सरयू भी वहाँ आ पहुँची और बोली, "चलिये पहले खा-पी लीजिए तब बातें कीजिये।"
लक्ष्मीदेवी के जिद करने से दोनों कुमारों को उठना पड़ा और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाने के बाद फिर उसी ठिकाने बैठकर गप्पें उड़ने लगीं। कुमार ने अपना कुल हाल बयान किया और वे सब आश्चर्य से यह सब कथा सुनती रहीं। इसके बाद कुमार ने इन्दिरा से उसका बाकी किस्सा पूछा।