चंद्रकांता संतति भाग 5
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १०६ से – ११० तक

 

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वास्तव में भूतनाथ का हाल बड़ा ही विचित्र है। अभी तक उसका असल भेद खुलने में नहीं आता। वह जहाँ जाता है वहाँ ही एक विचित्र घटना देखने में आती है, जिससे मिलता है, उसी से एक नई बात पैदा होती है, और जब जो कुछ करता है, उसी में एक अनूठापन मालूम होता है। इस समय वह बलभद्रसिंह के साथ चुनारगढ़ वाले तिलिस्म में मौजूद है और वहाँ पहुँचने के साथ ही वह सुन चुका है कि कल राजा वीरेन्द्रसिंह भी इस जगह आने वाले हैं। वीरेन्द्रसिंह को तो आये हुए आज कई दिन हो चुके होते, मगर उन्होंने जान बूझकर रास्ते में बहुत देर लगा दी। नकली किशोरी, कामिनी और कमला के क्रिया-कर्म का बखेड़ा (जिसका करना लोगों को धोखे में डालने के लिए आवश्यक था) चुनार में ले आना उन्होंने पसन्द न किया बल्कि रास्ते में निपटा डालना उचित जाना, इसलिए पन्द्रह-बीस दिन की देर उन्हें रास्ते में हो गई और इसी से वहाँ पहुँच जाने पर भूतनाथ ने सुना कि राजा वीरेन्द्रसिंह कल आने वाले हैं।

उस खँडहर में पहुँचने पर रात के समय भूतनाथ ने जो कुछ तमाशा देखा था उसका विचित्र हाल तो हम ऊपर के किसी बयान में लिख ही चुके हैं, आज उसी के आगे का हाल लिखकर हम अपने पाठकों के चित्त में भूतनाथ की तरफ से पुनः एक तरह का खुटका पैदा करना चाहते हैं।

बलभद्रसिंह ने जब अपने सिरहाने वाला लिफाफा उठाकर शमादान के सामने खोला तो उसके अन्दर से एक अँगूठी निकली जिसे देखते ही वह चिल्ला उठा और तब बिना कुछ कहे अपनी चारपाई पर आकर बैठ गया। भूतनाथ ने उससे पूछा, "क्यों, यह अँगूठी कैसी है और इसे देखकर तुम घबरा क्यों गये?"

बलभद्रसिंह––इस अँगूठी ने मुझे कई ऐसी बातें याद दिला दीं जिन्हें स्वप्न की तरह कभी याद करके मैं चौंक पड़ता था, मगर आज नहीं, फिर कभी मैं इसका खुलासा हाल तुमसे कहूँगा।

भूतनाथ––भला देखो तो सही उस लिकाफे के अन्दर कोई चिट्ठी भी है या केवल अँगूठी।

बलभद्रसिंह––(लिफाफा भूतनाथ के हाथ में देकर) लो, तुम्हीं देखो।

भूतनाथ––(शमादान के पास लिफाफा ले जाकर और उसे अच्छी तरह देखकर) हाँ-हाँ, इसमें चिट्ठी भी तो है।

बलभद्रसिंह––(भूतनाथ के पास जाकर) देखें।

भूतनाथ ने वह चिट्ठी बलभद्रसिंह के हाथ में दी और बलभद्रसिंह ने बड़े शौक से उसे पढ़ा, यह लिखा हुआ था––

"यह अँगूठी देकर तुम्हें विश्वास दिलाते हैं कि तुम हमारे हो और हम तुम्हारे हैं। भूतनाथ को अपना सच्चा सहायक समझो और जो कुछ वह कहे, उसे करो। भूतनाथ यह नहीं जानता कि हम कौन हैं, मगर हम कल उससे मिलकर अपना परिचय देंगे और जो कुछ कहना होगा, कहेंगे।"

इस चिट्ठी को पढ़कर दोनों के जी में एक तरह का खुटका पैदा हो गया और बिना कुछ विशेष बातचीत किये दोनों अपनी-अपनी चारपाई पर जाकर लेट रहे, मगर बची हुई रात दोनों ने अपनी आंखों में ही काटी, किसी को नींद न आई।

दूसरे दिन सवेरे ही पन्नालाल उन दोनों के पास पहुँचे और रात भर का कुशल-मंगल पूछा। दोनों ही ने दुनियादारी के तौर पर कुशल-मंगल कहकर बातचीत की मगर रात के विचित्र हाल को अपने दिल के अन्दर ही छिपा रखा।

दिनभर इन दोनों का बड़े चैन और आराम से बीता। जीतसिंह से भी मुलाकात और कई तरह की बातें हुई, मगर जीतसिंह और उनकी आज्ञानुसार किसी ऐयार ने भी उन दोनों से मुकदमे की बात या किसी तरह का सवाल न किया क्योंकि यह बात पहले ही से तय पा चुकी थी कि बिना राजा वीरेन्द्रसिंह के आये इस बारे में किसी तरह की बातचीत भूतनाथ से न की जायगी।

आज किसी समय राजा वीरेन्द्रसिंह के आने की खबर थी, मगर वे न आये। संध्या के समय हरकारे ने आकर जीतसिंह को खबर दी कि राजा साहब कल संध्या के समय यहाँ आवेंगे, भूतनाथ और बलभद्रसिंह के आने की खबर उन्हें हो गई है।

संध्या होने के साथ ही भूतनाथ और बलभद्रसिंह के दिलों में धुकधुकी पैदा हो गई कि देखना चाहिए कि आज की रात कैसी गुजरती है। तिलिस्मी चबूतरे के अन्दर से कौन निकलता है, और क्या कहता है।

रात आधी से ज्यादा जा चुकी है, कल की तरह आज भी इस लम्बे-चौड़े मकान के अन्दर सन्नाटा छाया हुआ है। भूतनाथ और बलभद्रसिंह अपनी-अपनी चारपाई पर लेटे हुए हैं। मगर नींद किसी की आँखों में नहीं है और दोनों का ध्यान उसी तिलिस्मी चबूतरे की तरफ है। कल की तरह आज भी उस चबूतरे वाले दालान में कन्दील जल रही है जिसके सबब से वह पत्थर वाला चबूतरा साफ दिखाई दे रहा है। भूतनाथ ने देखा कि कल की तरह आज भी इस पत्थर वाले चबूतरे का दरवाजा खुला और उसके अन्दर से एक आदमी स्याह लबादा ओढ़े हुए निकला। धीरे-धीरे घूमता-फिरता वह उस कमरे के दरवाजे पर पहुँचा जिसमें भूतनाथ और बलभद्रसिंह आराम कर रहे थे। कमरे का दरवाजा खुलने के साथ ही वे दोनों उठ बैठे और उस आदमी को कमरे के अन्दर पैर रखते हुए देखा।

उस आदमी ने हाथ के इशारे से बलभद्रसिंह को बैठने के लिए कहा और भूतनाथ को अपने पास बुलाया। भूतनाथ चारपाई के नीचे उतर पड़ा और अपना तिलिस्मी खंजर, जो खूटी के साथ लटक रहा था, लेकर उस आदमी के पास गया। वह आदमी भूतनाथ को अपने साथ कमरे के बाहर वाले दालान में ले गया और वहाँ से सीढ़ी की राह नीचे उतरने के लिए कहा। भूतनाथ भी चुपचाप उसके साथ नीचे चला गया।

यहाँ भी एक कन्दील जल रही थी और चारों तरफ सन्नाटा था। उस आदमी ने अपना चेहरा खोल दिया और भूतनाथ को अपनी तरफ अच्छी तरह देखने के लिए कहा। भूतनाथ सूरत देखते ही चौंक पड़ा और बोला––"हैं, यह मैं किसकी सूरत देख रहा हूँ! क्या धोखा तो नहीं है?"

आदमी––नहीं-नहीं, कोई धोखा नहीं है, 'मेमकुलचे' कहने से शायद तुम्हारा शक जाता रहेगा।

भूतनाथ––हाँ, अब मेरा शक जाता रहा। मगर आप यहाँ कहाँ? क्या मुझे किसी तरह का विचित्र हुक्म दिया जायगा? या मुझे राजा साहब से माफी माँगने की मोहलत ही न मिलेगी?

आदमी––हाँ, तुम्हें एक विचित्र हुक्म दिया जायगा, मगर यह बताओ कि राजा साहब के बारे में तुमने क्या सुना है? वे कब तक यहाँ आवेंगे?

भूतनाथ––राजा वीरेन्द्रसिंह कल यहाँ अवश्य आ जायेंगे, आज हरकारे ने आकर यह पक्की खबर जीतसिंह को दी है। आदमी––(कुछ सोचकर) यह तो बड़ी मुश्किल हुई है, हमारे लिए नहीं, बल्कि तुम्हारे लिए।

भूतनाथ––(काँपकर) सो क्यों! मैंने अब कौन-सा नया अपराध किया है?

आदमी––नया अपराध किया तो नहीं, मगर करना पड़ेगा।

भूतनाथ––नहीं-नहीं, मैं अब कोई अपराध न करूँगा। जो कुछ कर चुका हूँ, उसी का कलंक मिटाना मुश्किल हो रहा है!

आदमी––मगर क्या किया जाय, लाचारी है, अपराध तो करना ही होगा और सो भी इसी समय।

भूतनाथ––(कुछ सोचकर) भला यह तो बताइये कि वह अपराध है क्या और मुझे क्या करना होगा?

आदमी––यह तो जानते ही हो कि बलभद्रसिंह हमारा है।

भूतनाथ––जी हाँ, इस समय तो मेरी जान बचाने वाला है।

आदमी––बेशक।

भूतनाथ––तब आप क्या चाहते हैं?

आदमी––यही कि इसी समय बलभद्रसिंह को बेहोश करके हमारे हवाले कर दो। हम तो उन्हें कल ही उठा ले गये होते, मगर कल हमें निश्चय हो गया कि तुम जाग रहे होंगे और लड़ने लिए अवश्य तैयार हो जाओगे, इसलिए सोचा कि पहले तुम्हें अपना परिचय दे लें, तब यह काम करें जिसमें तुम्हारा दिल भी खुटके में न रहे।

भूतनाथ––मगर यह तो बड़ी मुश्किल होगी। अच्छा, कल राजा वीरेन्द्रसिंह से उनकी मुलाकात तो करा लेने दीजिए।

आदमी––यह नहीं हो सकता, उन्हें हम आज ही ले जायेंगे। नहीं तो हमारा बहुत हर्ज होगा और उस हर्ज में तुम्हारा भी नुकसान है।

भूतनाथ––हाय, नुकसान और दुःख भोगने के लिए तो मैं पैदा ही हुआ हूँ! न जाने मेरी किस्मत में निश्चिन्त होना भी बदा है या नहीं। राजा वीरेन्द्रसिंह सुन चुके हैं कि भूतनाथ, बलभद्रसिंह को छुड़ा लाया है, अब अगर इस समय आप उन्हें ले जायेंगे कल राजा वीरेन्द्रसिंह उन्हें मुझसे माँगेंगे तो क्या जवाब दूँगा?

आदमी––कह देना कि मैं रात को सोया हुआ था, न मालूम बलभद्रसिंह कहाँ चले गये। मुझे कुछ खबर नहीं, आप अपने पहरे वालों से पूछिए।

भूतनाथ––हाँ, यदि आप न मानेंगे तो ऐसा ही करना पड़ेगा।

आदमी––तो बस अब विलम्ब न करो, झटपट जाओ और उन्हें बेहोश करके हमारे पास ले आओ।

भूतनाथ––जिस समय मैंने बलभद्रसिंह को छुड़ाया था, उस समय उन्हें विश्वास नहीं होता था कि मैं उनके साथ नेकी कर रहा हूँ, बड़ी मुश्किल से तो उन्हें विश्वास दिलाया। इस समय आप जानते हैं कि वे भी जाग रहे हैं, आप खुद ही उन्हें बैठे रहने के लिए कह आए हैं, अब मैं उन्हें जबर्दस्ती बेहोश करूँगा तो उनके दिल में क्या आवेगा? क्या वे यह समझेंगे कि भूतनाथ ने नेकनीयती के साथ मेरी जान बचाई थी? आदमी––अगर ऐसा समझेंगे तो समझें, तुम सोच क्या रहे हो! क्या मेरा हुक्म न मानोगे?

भूतनाथ––मेरी क्या मजाल जो आपका हुक्म न मानूं।

इतने ही में उसी तरह का स्याह लबादा ओढ़े और भी एक आदमी वहाँ आ पहुँचा। भूतनाथ समझ गया कि वह आदमी इसी का साथी है और कल भी यहाँ आया था। इस नये आये हुए आदमी ने पहले आदमी से खास बोली (भाषा) में कुछ बातचीत की जिसे भूतनाथ कुछ भी न समझ सका, इसके बाद उसने परदा हटा के अपनी सूरत भूतनाथ को दिखा दी।

अव भूतनाथ के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा और वह एक दम घबरा के बोला, "नहीं-नहीं, मैं जागता नहीं हूँ बल्कि जो कुछ देख रहा हूँ, सब स्वप्न है!"

दूसरा आदमी––भूतनाथ, तुम पागल हो गए हो!

भूतनाथ––बेशक यही बात है, या तो मैं स्वप्न देख रहा हूँ या पागल हो गया हूँ।

पहला आदमी––न तो तुम स्वप्न देख रहे हो और न पागल ही हो गए हो, जो कुछ देख-सुन रहे हो सब ठीक है। अच्छा, अब तुम हम लोगों के साथ आओ, किसी दूसरी जगह अँधेरे में खड़े होकर बातचीत करेंगे, तो हम यहाँ केवल इसलिए खड़े हो गये थे कि तुम्हें अपनी सूरत दिखा दें।

इतना कहकर वे दोनों आदमी भूतनाथ का हाथ पकड़े हुए दूसरे दालान में चले गए जहाँ बिल्कुल अन्धकार था और वहाँ बातचीत करने लगे। इस जगह उन तीनों में जो कुछ बातें हुईं वह ऐयारी भाषा में हुईं, इसलिए लिख न सके, मगर आगे चलकर इन बातों का जो कुछ नतीजा निकलेगा पाठकों को मालूम हो जायगा। हाँ इतना कह देना जरूरी है कि डेढ़ घण्टे तक उन तीनों में खूब बातें होती रहीं, इस बीच में दो दफे भूतनाथ के बड़े जोर से हँसने की आवाज आई, ताज्जुब नहीं कि वह आवाज बलभद्रसिंह के कानों तक भी पहुँची हो। इसके बाद भूतनाथ वहाँ से रवाना होकर बलभद्रसिंह के पास आया, देखा कि अभी तक वह बैठे हुए हैं और भूतनाथ का इन्तजार कर रहे हैं।

भूतनाथ को देखते ही बलभद्रसिंह बोले, "आओ-आओ भूतनाथ, मेरे पास बैठ जाओ और बताओ कि क्या हुआ! वह आदमी कौन था जो तुम्हें ले गया था?"

"मैं सब विचित्र हाल आपसे कहता हूँ।" यह कहता हुआ भूतनाथ बलभद्रसिंह के पास बैठ गया, मगर इस तरह पर सटकर बैठा कि उसकी कमर में लगा तिलिस्मी खंजर बलभद्रसिंह के बदन से छू गया और वह उसी समय काँपकर बेहोश हो गये।

बलभद्रसिंह के बेहोश हो जाने के बाद भूतनाथ ने उनकी गठरी बाँधी और नीचे उतारकर दोनों विचित्र आदमियों के पास ले गया। उन दोनों ने उसे तिलिस्मी चबूतरे के पास पहुँचा देने के लिए कहा और भूतनाथ उसे तिलिस्मी चबूतरे के पास ले गया, तब वे दोनों आदमी बलभद्रसिंह को लेकर चबूतरे के अन्दर चले गये, चबूतरे का पल्ला बन्द हो गया और भूतनाथ कुछ सोचता-विचारता अपनी चारपाई पर आकर लेट रहा।