चंद्रकांता संतति भाग 5
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ७८ से – ८४ तक

 

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भैरोंसिंह के चले जाने के बाद दरवाजा बन्द हो जाने से दोनों कुमारों को ताज्जुब ही नहीं हुआ बल्कि उन्हें भैरोंसिंह की तरफ से एक प्रकार की फिक्र लग गई। आनन्दसिंह ने अपने बड़े भाई की तरफ देखकर कहा, "अब इस रात के समय भैरोंसिंह के लिए हम लोग क्या कर सकते हैं?"

इन्द्रजीतसिंह––कुछ भी नहीं। मगर भैरोंसिंह के हाथ में तिलिस्मी खंजर है, वह यकायक किसी के कब्जे में न आ सकेगा।

आनन्दसिंह––पहले भी तो उनके पास तिलिस्मी खंजर था, बल्कि ऐयारी का बटुआ भी मौजूद था, तब उन्होंने क्या कर लिया था?

इन्द्रजीतसिंह––सो तो ठीक कहते हो, तिलिस्म के अन्दर हर तरह से बचे रहना मामूली काम नहीं है, मगर रात के समय अब हो ही क्या सकता है? आनन्दसिंह––मेरी राय है कि तिलिस्मी खंजर से इस छोटे से दरवाजे को काटने का उद्योग किया जाये, शायद...

इन्द्रजीतसिंह––अच्छी बात है, कोशिश करो।

आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर का वार उस छोटे से दरवाजे पर किया; मगर कोई नतीजा न निकला, आखिर दोनों भाई लाचार होकर वहाँ से हटे और किसी दालान में एक किनारे बैठकर बातचीत में रात बिताने का उद्योग करने लगे।

रात के साथ-ही-साथ दोनों कुमारों को उदासी भी कुछ-कुछ जाती रही और फूलों की महक से बसी हुई सुबह की ठण्डी हवा ने उद्योग और उत्साह का संचार किया। दोनों के पराधीन और चुटीले दिलों में किसी की याद ने गुदगुदी पैदा कर दी और बारह पर्दे के अन्दर से भी खुशबू फैलाने वाली, मगर कुछ दिनों तक नाउम्मीदी के पाले से गन्धहीन हो गई कलियों पर आशारूपी वायु के झपेटे से बहक कर आए हुए शृंगाररूपी भ्रमर इस समय पुनः गुंजार करने लग गये।

क्या आज दिन भर की मेहनत से भी अपने प्रेमी का पता न लगा सकेंगे? क्या आज दिन भर के उद्योग को सहायता से भी इस छोटी-सी मगर अनूठी रंगशाला के नेपथ्य में से किसी की खोज निकालने में सफल मनोरथ न होंगे? क्या आज दिन भर की कार्रवाई भी हमें विश्वास न दिला सकेगी कि इस जानोदिल का मालिक इसी स्थान में आ पहुँचा है जैसा कि सुन चुके हैं और क्या आज दिन भर की उपासना का फल भी जुदाई की उस काली घटा को दूर न कर सकेगा, जिसने इन चकोरों को जीवन-दान देने वाले पूर्णचन्द्र को छिपा रखा है? नहीं-नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता, आज दिन भर में हम बहुत-कुछ कर सकेंगे और उनका पता अवश्य लगावेंगे, जिन पर अपनी जिन्दगी का भरोसा समझते हैं और जिनके मिलाप से बढ़कर इस दुनिया में और किसी चीज को नहीं मानते।

इसी तरह की बातें सोचते हुए दोनों कुमारखड़े हो गये। नहर के किनारे आकर हाथ-मुँह धोने के बाद घड़ी भर के अन्दर ही जरूरी कामों से छुट्टी पाकर वे बाग में घूमने और वहाँ की हर एक चीज को गौर से देखने लगे और थोड़ी ही देर में बारहदरी के सामने वाली उस दोमंजिली इमारत के नीचे जा पहुंचे, जिसके ऊपर वाली मंजिल में रात को कोई काम करते हुए भैरोंसिंह ने कई आदमियों को देखा था।

इस इमारत के नीचे वाला भाग ऊपर वाले हिस्से के विपरीत दरवाजे बल्कि दरवाजे के किसी नामोनिशान तक से भी खाली था। बाग की तरफ वाली नीचे की दीवार साफ तथा चिकने संगमर्मर की बनी हुई थी और बीचोंबीच चार हाथ ऊँचा और दो हाथ चौड़ा स्याह पत्थर का एक टुकड़ा लगा हुआ था। उसमें नीचे लिखे मोटे छत्तीस अक्षर खुदे हुए थे, जिन्हें दोनों कुमार बड़े गौर से देखने और उनका मतलब जानने के लिए उद्योग करने लगे। 

वे अक्षर ये थे––

ने ती के स्म स्सों
हि को ड़ की ति
स्से का लि हि
या से टू
सै जो गे
रो हाँ टें रो

दो घड़ी तक गौर करने पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह उनका मतलब समझ गये और अपने छोटे भाई कुँअर आनन्दसिंह को भी समझाया। इसके बाद दोनों भाइयों ने जोर करके उस पत्थर को दबाया, तो वह अन्दर की तरफ घुसकर जमीन के बराबर हो गया और अन्दर जाने लायक एक खासा दरवाजा दिखाई देने लगा, साथ ही इसके भीतर की तरफ अन्धकार भी मालूम हुआ। इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर की रोशनी करके आगे चलने के लिए आनन्दसिंह से कहा।

तिलिस्मी खंजर की रोशनी के सहारे दोनों भाई उस दरवाजे के अन्दर चले गये और एक छोटे से कमरे में पहुँचे जिसके बीचोंबीच से ऊपर की मंजिल में जाने के लिए छोटी-छोटी चक्करदार सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। उन्हीं सीढ़ियों की राह से दोनों कुमार ऊपर वाली मंजिल पर चढ़ गए और एक ऐसी कोठरी में पहुँचे, जिसकी बनावट अर्धचन्द्र के ढंग की थी और तीन दरवाजे बाग की तरफ उस बारहदरी के ठीक सामने थे, जिसमें रात को दोनों कुमारों ने आराम किया था।

बाग की तरफ वाले तीनों दरवाजे खोल देने से उस कोठरी के अन्दर अच्छी तरह उजाला हो गया, उस समय आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर की रोशनी बन्द की और उसे कमर में रखने के बाद अपने भाई से कहा

आनन्दसिंह––इसी कोठरी में रात को भैरोंसिंह ने कई आदमियों को चलतेफिरते तथा काम करते देखा था, और मालूम होता है कि इसके दोनों तरफ की कोठरियों का सिलसिला एक-दूसरे से लगा हुआ है और सभी का एक-दूसरे से सम्बन्ध है।

इन्द्रजीतसिंह––मैं भी ऐसा ही विश्वास करता हूँ, इस दाहिने बगल वाली दूसरी कोठरी का दरवाजा खोलो और देखो कि उसके अन्दर क्या है।

बड़े कुमार की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने बगल वाली दूसरी कोठरी का दरवाजा खोला, उसी समय दोनों कुमारों को ऐसा मालूम हुआ कि कोई आदमी तेजी के साथ कोठरी में से निकलकर इसके बाद वाली दूसरी कोठरी में चला गया। दोनों कुमारों ने तेजी के साथ उसका पीछा किया और उस दूसरी कोठरी में गए, जिसका दरवाजा मजबूती के साथ बन्द न था तो नानक पर निगाह पड़ी। यद्यपि उस कोठरी के वे दरवाजे जो बाग की तरफ पड़ते थे, बन्द थे, मगर दिन का समय होने के कारण झिलमिलियों की दरारों में से पड़ने वाली रोशनी ने उसमें इतना उजाला जरूर कर रखा था कि आदमी की सूरत-शक्ल बखूबी दिखाई दे जाये, यही सबब था कि निगाह पड़ते ही दोनों कुमारों ने नानक को पहचान लिया, इसी तरह नानक ने भी दोनों कुमारों को पहचान कर प्रणाम किया और कहा, "मैं किसी दुश्मन का होना अनुमान करके भागा था, मगर जब आवाज सुनी, तो पहचान कर रुक गया। मैं कल से आप दोनों भाइयों को खोज रहा हूँ, मगर पता न लगा सका क्योंकि तिलिस्मी खारखाने में बिना समझे-बूझे दखल देना उचित न जानकर अपनी बुद्धिमानी या जबर्दस्ती से किसी दरवाजे को खोल न सका और इसीलिए बाग में भी पहुँचने की नौबत न आई। कहिए, आप लोग कुशल से तो हैं!"

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, हम लोग बहुत अच्छी तरह हैं। तुम बताओ कि यहाँ कब, कैसे, क्यों और किस तरह से आये?

नानक––कमलिनीजी से मिलने के लिए घर से निकला था, मगर जब मालूम हुआ कि वे राजा गोपालसिंह के साथ जमानिया गईं, तब मैं राजा गोपालसिंह के पास आया और उन्हीं की आज्ञानुसार यहाँ आपके पास आया हूँ।

इन्द्रजीतसिंह––किनकी आज्ञानुसार? राजा गोपालसिंह की या कमलिनी की?

नानक––कमलिनीजी की आज्ञानुसार।

नानक की बात सुनकर आनन्दसिंह ने एक भेद की निगाह इन्द्रजीतसिंह पर डाली और इन्द्रजीतसिंह ने कुछ मुस्कुराहट के साथ आनन्दसिंह की तरफ देखकर कहा––"बाग की तरफ जो दरवाजे पड़ते हैं, उन्हें खोल दो, चाँदनी हो जाये।"

आनन्दसिंह ने दरवाजे खोल दिए और फिर नानक के पास आकर पूछा, "हाँ, तो कमलिनीजी की आज्ञानुसार तुम यहाँ आए?"

नानक––जी हाँ।

आनन्दसिंह––कमलिनी को कहाँ छोड़ा?

नानक––राजा गोपालसिंह के तिलिस्मी बाग में।

इन्द्रजीतसिंह––वह अच्छी तरह से तो हैं न?

नानक––जी हाँ, बहुत अच्छी तरह से हैं।

आनन्दसिंह––घोड़े पर से गिरने के कारण उनकी टाँग जो टूट गई थी, वह अच्छी

नानक––यह खबर आपको कैसे मालूम हुई?

आनन्दसिंह––अजी वाह, मेरे सामने ही तो घोड़े पर से गिरी थीं, भैरोंसिंह ने उनका इलाज किया, अच्छी हो गई थीं, मगर कुछ दर्द बाकी था, जब मैं इधर चला आया।

नानक––जी हाँ, अब तो वह बहुत अच्छी हैं।

आनन्दसिंह––(हँस कर) अच्छा, यह तो बताओ कि तुम किस रास्ते से यहाँ आये हो?

नानक––उसी बुर्ज वाले रास्ते से आया हूँ।

आनन्दसिंह––मुझे अपने साथ ले चलकर वह रास्ता बता तो दो।

नानक––बहुत अच्छा, चलिए मैं बता देता हूँ, मगर मुझसे कमलिनीजी ने कहा था कि जब तुम बाग में जाओगे, तो लौटने का रास्ता बन्द हो जाएगा।

आनन्दसिंह––यह तो उन्होंने ठीक कहा था। हम दोनों भाइयों को भी उन्होंने यही कहला भेजा था कि मैं नानक को तुम्हारे पास भेजूँगी, तुम उसकी जुबानी सब हाल सुनकर हिफाजत के साथ उसे तिलिस्म के बाहर कर देना।

नानक––(कुछ शर्मीला-सा होकर) जी ई ई ई, आप तो दिल्लगी करते हैं, मालूम होता है आपको मुझ पर कुछ शक है और आप समझते हैं कि मैं आपके दुश्मन का ऐयार हूँ और नानक की सूरत बनाकर आया हूँ, अतः आप जिस तरह चाहें मेरी आजमाइश कर सकते हैं।

इतने में ही एक तरफ से आवाज आई, "जब तुम कमलिनीजी के भेजे हुए आए हो, तो आजमाइश करने की जरूरत ही क्या है? थोड़ी देर में कमलिनी का सामना आप ही हो जायेगा!"

इस आवाज ने दोनों कुमारों को तो कम, मगर नानक को हद से ज्यादा परेशान कर दिया। उसके चेहरे पर हवाई-सी उड़ने लगी और वह घबड़ाकर पीछे की तरफ देखने लगा। इस कोठरी में से दूसरी कोठरी में जाने के लिए जो दरवाजा था, वह इस समय मामूली तौर पर बन्द था, इसलिए किसी गैर पर उसकी निगाह न पड़ी, अतएव उस दरवाजे को खोलकर नानक अपनी कोठरी में चला गया, मगर साथ ही आनन्दसिंह ने भी वहाँ पहुँच कर उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, "बस इतने ही में घबड़ा गए! इसी हौसले पर तिलिस्म के अन्दर आये थे! आओ-आओ, हम तुम्हें बाग में ले चलते हैं जहाँ निश्चिन्ती से बैठकर अच्छी तरह बातें कर सकेंगे।"

इसी समय दो दरवाजे खुले और स्याह लबादा ओढ़े हुए चार-पाँच आदमी उसके अन्दर से निकल आए, जो नानक को जबर्दस्ती घसीट कर ले गए, साथ ही वे दरवाजे भी उसी तरह बन्द हो गए, जैसे पहले थे। दोनों कुमारों ने भी कुछ सोचकर आपत्ति न की और उसे ले जाने दिया।

और कोठरियों की बनिस्बत इस कोठरी में दरवाजे ज्यादा थे, अर्थात् दो दरवाजे दोनों तरफ तो थे ही, मगर बाग की तरफ चार और पिछली तरफ दो दरवाजे और थे तथा उसी पिछली तरफ वाले दोनों दरवाजों में से वे लोग आये थे, जो नानक को घसीट कर ले गए थे। नानक को ले जाने के बाद आनन्दसिंह ने उन्हीं पिछली तरफवाले दरवाजों में से एक दरवाजा खोला और अन्दर की तरफ झाँक कर देखा। भीतर बहुत लम्बा-चौड़ा एक कमरा नजर आया, जिसमें अन्धकार का नाम-निशान भी न था, बल्कि अच्छी तरह उजाला था। दोनों कुमार उस कमरे में चले गए और तब मालूम हुआ कि वे दरवाजे एक ही कमरे में जाने के लिए हैं। इस कमरे में दोनों कुमारों ने एक बहुत बूढ़े आदमी को देखा, जो चारपाई के ऊपर लेटा हुआ कोई किताब पढ़ रहा था। कुमारों को देखते ही वह चारपाई के नीचे उतर कर खड़ा हो गया और सलाम करके बोला, "आज कई दिनों से मैं आप दोनों भाइयों के आने का इन्तजार कर रहा हूँ।"

इन्द्रजीतसिंह––तुम कौन हो?

बुड्ढा––जी, मैं इस बाग का दारोगा हूँ।

इन्द्रजीतसिंह––तुम हम लोगों का इन्तजार क्यों कर रहे थे?

दारोगा––इसलिए कि आप लोगों को यहाँ की इमारतों और अजायबातों की सैर करा के अपने सिर से एक भारी बोझ उतार दूँ।

इन्द्रजीतसिंह––क्या इधर दो-तीन दिन के बीच में कोई और भी इस बाग में आया है?

दारोगा––जी हाँ, दो मर्द और कई आरतें आई हैं।

इन्द्रजीतसिंह––क्या उन लोगों के नाम बता सकते हो?

दारोगा––नानक और भैरोंसिंह के सिवाय मैं और किसी का नाम नहीं जानता (कुछ सोचकर) हाँ, एक औरत का भी नाम जानता हूँ, शायद उसका नाम कमलिनी है, क्योंकि वह दो-एक दफे इसी नाम से पुकारी गई थी, बड़ी ही धूर्त और चालाक है, अपनी अक्ल के सामने किसी को कुछ समझती ही नहीं, बिना धोखा खाये नहीं रह सकती।

इन्द्रजीतसिंह––क्या यह बता सकते हो कि वे सब इस समय कहाँ हैं और उनसे मुलाकात क्योंकर हो सकती है?

दारोगा––जी मुझे उन लोगों का पता मालूम नहीं, क्योंकि कमलिनी ने उन सभी को मेरी बात मानने न दी और अपनी इच्छानुसार उन सभी को लिए हुए चारों तरफ घूमती रहीं, इसी से मुझे रंज हुआ और मैंने उनकी खबरगीरी छोड़ दी।

इन्द्रजीतसिंह––अगर तुम यहाँ के दारोगा हो, तो खबरदारी न रखने पर भी यह तो जरूर जानते ही होगे कि वे सब कहाँ हैं!

दारोगा––मुझे यहाँ का दारोगा समझने और न समझने का तो आपको अख्तियार है, मगर मैं यह जरूर कहूँगा कि मुझे उन सभी का पता नहीं मालूम है।

आनन्दसिंह––(हँस कर) यही हाल है तो यहाँ की हिफाजत क्या करते हो?

दारोगा––इसका हाल तो तभी मालूम होगा जब आप मेरे साथ चलकर यहाँ की सैर करेंगे।

आनन्दसिंह––अच्छा, यह बताओ कि अभी हमारे देखते-ही-देखते जो लोग नानक को ले गए, वे कौन थे?

दारोगा––वे सब मेरे ही नौकर थे। वह झूठा और शैतान है, तथा आपको नुकसान पहुँचाने की नीयत से धोखा देकर यहाँ घुस आया है, सिर्फ इसीलिए मैंने उसे गिरफ्तार करने का हुक्म दिया।

आनन्दसिंह––तुम्हारे आदमी लोग कहाँ रहते हैं? यहाँ तो मैं तुमको अकेला ही देखता हूँ।

दारोगा––यह कमरा तो मेरा एकान्त स्थान है, जब पढ़ने या किसी विषय पर गौर करने की जरूरत पड़ती है तब मैं इस कमरे में आकर बैठता या लेटता हूँ। मगर यहाँ खड़े-खड़े बातें करने में तो आपको तकलीफ होगी। आप मेरे स्थान पर चलें, तो उत्तम हो, या बाग ही में चलिए जहाँ और भी कई...

इन्द्रजीतसिंह––खैर, यह सब तो होता रहेगा, पहले हम लोगों को यह मालूम होना चाहिए कि तुम हमारे दोस्त हो, दुश्मन नहीं और तुम्हारी ग्रह सूरत असली है बनावटी नहीं। इसके बाद मैं तुससे दिल खोल कर बातें कर सकूँगा।

दारोगा––इस बात का पता तो आपको मेरी कार्रवाई से ही लग सकेगा, मेरे कहने का आपको ऐतबार कब होगा, मगर इस बात को खूब समझ...

दारोगा की बात पूरी न होने पाई थी, कि एक तरफ से आवाज आई, "अजी, तुम्हें कुछ खाने-पीने की भी सुध है या यों ही बकवाद किया करोगे!"

दोनों कुमार ताज्जुब के साथ उस तरफ देखने लगे जिधर से आवाज आई थी। उसी समय एक बुढ़िया उसी तरफ से कमरे के अन्दर आती दिखाई पड़ी और वह दारोगा के पास आकर फिर बोली, "मैं बड़ी ही बदकिस्मत थी जो तुम्हारे साथ व्याही गई! मैंने जो कहा, तुमने कुछ सुना या नहीं?"

दारोगा––(क्रोध से) आ गई शैतान की नानी!

दोनों कुमारों ने देखते ही उस बुढ़िया को पहचान लिया कि यह वही बुढ़िया है, जो भैरोंसिंह की जोरू उस समय बनी हुई थी, जब भैरोंसिंह पागल हुआ इसी बाग में हम लोगों को दिखाई दिया था।

इन्द्रजीतसिंह ने ताज्जुब और दिल्लगी की निगाह से उस बुढ़िया की तरफ देखा और कहा, "अभी कल की बात है कि तू भैरोंसिंह पागल की जोरू बनी हुई थी और आज इस दारोगा को अपना मालिक बता रही है।"