चन्द्रकान्ता सन्तति 5/18.11
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संध्या होने में अभी दो घण्टे से कुछ ज्यादा देर थी जब कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह और भैरोंसिंह कमरे से बाहर निकलकर बाग के उस हिस्से में घूमने लगे जो तरह-तरह के खुशनुमा पेड़ों-फूल-पत्तों, गमलों और फैली हुई लताओं से सुन्दर और सुहावना मालूम पड़ता था क्योंकि इन तीनों को इन्द्रानी के मुँह से निकले हुए ये शब्द बखूबी याद थे कि 'मगर आप लोग किसी मकान के अन्दर जाने का उद्योग न करें!'
भैरोंसिंह––(घूमते हुए एक फूल तोड़कर) यहाँ एक तो बगीचे के लिए बहुत कम जमीन छोड़ी गई है दूसरे जो कुछ जमीन छोड़ी गई है उसमें भी काम खूबी और खूबसूरती के साथ नहीं लिया गया है। जहाँ पर जिस ढंग के पेड़ होने चाहिए वैसे नहीं लगाये गये हैं।
आनन्दसिंह––शौकीन लोग प्रायः बेला, चमेली, जुही और गुलाब आदि खुशबूदार फूलों के पेड़ क्यारियों के बीच में लगाते हैं।
इन्द्रजीतसिंह––ऐसा नहीं होना चाहिए, क्यारियों के अन्दर केवल पहाड़ी गुल बूटों के ही लगाने में मजा है। जूही, बेला, मोतिया इत्यादि देशी खूशबूदार फूलों को रविशों के दोनों तरफ लगाना चाहिए, जिसमें सैर करने वाला घूमता-फिरता जब चाहे एक-दो फल तोड़ के सूंघ सके। आनन्दसिंह––वेशक ऐसा न होना चाहिए कि खुशबूदार फूल तोड़ने की लालच में कहीं सैर करने वाला बुद्धि-विसर्जन करके क्यारी के बीच में पैर रक्खे और जूते समेत फिल्ली तक जमीन के अन्दर जा रहे, क्योंकि सिंचाई का पानी क्यारियों में जमा होकर कीचड़ करता है, इसलिए क्यारियों के बीच में उन्हीं पेड़-पौधों का होना आवश्यक है जिन्हें केवल देखने ही में तृप्ति हो जाय और जिनमें ज्यादा सर्दी और पानी के बर्दाश्त करने की ताकत हो।
भैरोंसिंह––मेरी भी यही राय है, मगर साथ ही इसके मैं यह भी कहूँगा कि गुलाब के पेड़ रविशों के दोनों तरफ न लगाने चाहिए जिसमें काँटों की बदौलत सैर करने वाले के (यदि वह भूल से कुछ किनारे की तरफ जा रहे तो) कपड़ों की दुर्गति हो जाय, उसके लिए क्यारी अलग ही होनी चाहिए जिसकी जमीन बहुत नम न हो।
इन्द्रजीतसिंह––ठीक है, इसी तरह चमेली के पेड़ों की कतार भी ऐसी जगह लगानी चाहिए जहाँ टट्टी बनाकर आड़ कर देने का इरादा हो।
भैरोंसिंह––आड़ का काम तो मेंहदी की टट्टी से भी लिया जाता है।
इन्द्रजीतसिंह––हाँ लिया जाता है मगर जमीन के उस हिस्से में जो बीच वाली या खास जलसे वाली इमारत से कुछ दूर हो, क्योंकि मेंहदी जब फूलती है तो अपने सिवाय और फूलों की खुशबू का आनन्द लेने की इजाजत नहीं देती।
आनन्दसिंह––जैसे कि अब भैरोंसिंह को हम लोग अपने साथ चलने की इजाजत न देंगे।
भैरोंसिंह––(चौंककर) हैं, इसका क्या मतलब?
आनन्दसिंह––इसका मतलब यही है कि अब आप थोड़ी देर के लिए हम दोनों भाइयों का पिण्ड छोड़िये और कुछ दूर हटकर उधर की रविशों पर पैर थकाइए।
भैरोंसिंह––(कुछ चिढ़कर) क्या अब मुझ ऐसे साथी और ऐयार से भी बात छिपाने की नौबत आ गई?
आनन्दसिंह––(इन्द्रजीतसिंह का इशारा पाकर) हाँ, और इसलिए कि बात छिपाने का कायदा तुम्हारी तरफ से जारी हो गया।
भैरोंसिंह––सो कैसे?
आनन्दसिंह––अपने दिल से पूछो।
भैरोंसिंह––क्या मैं वास्तव में भैरोंसिंह नहीं हूँ?
आनन्दसिंह––तुम्हारे भैरोंसिंह होने में कोई शक नहीं है बल्कि तुम्हारी बातों की सचाई में शक है।
भैरोंसिंह––यह शक कब से हुआ?
आनन्दसिंह––जब से तुमने स्वयं कहा कि राजा गोपालसिंह ने तुम्हें इस तिलिस्म में पहुँचते समय ताकीद कर दी थी सब काम कमलिनी की आज्ञानुसार करना, यहाँ तक कि यदि कमलिनी तुम्हें सामना हो जाने पर भी कुमार से मिलने के लिए मना करे
च॰ स॰-5-7
भैरोंसिंह––(कुछ सोचकर) हाँ ठीक है, मगर आपको यह कैसे निश्चय हुआ कि मैंने राजा गोपालसिंह की बात मान ली?
इन्द्रजीतसिंह––यह इसी से मालूम हो गया कि तुमने अपने बटुए का जिक्र करते समय तिलिस्मी खंजर का जिक्र छोड़ दिया।
भैरोंसिंह––(कुछ सोचकर और शर्मा कर) बेशक यह मुझसे भूल हुई।
आनन्दसिंह––कि उस तिलिस्मी खंजर के लिए भी कोई अनूठा किस्सा गढ़ कर हम लोगों को सुना न दिया।
भैरोंसिंह––(और भी शर्माकर) नहीं, ऐसा नहीं है, उस समय मैं इतना कहना भूल गया कि ऐयारी के बटुए के साथ-साथ वह तिलिस्मी खंजर मुझे उस नकागपोश या पीले मकरन्द से नहीं मिला, उन्होंने कसम खाकर कहा कि तुम्हारा खंजर हममें से किसी के पास नहीं है।
आनन्दसिंह––हाँ-और तुमने मान लिया!
भैरोंसिंह––(हिचकता हुआ) इस जरा-सी भूल के हो जाने पर ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप लोग अपना विश्वास मुझ पर से उठा लें।
इन्द्रजीतसिंह––नहीं-नहीं, इससे हम लोगों का खयाल ऐसा नहीं हो सकता कि तुम भैरोंसिंह नहीं हो या अगर हो भी तो हमारे दुश्मन के साथी बनकर हमें नुकसान पहुँचाया चाहते हो? कदापि नहीं। हम लोग अब भी तुम्हारा उतना ही भरोसा रखते हैं जितना पहले रखते थे, मगर कुछ देर के लिए जिस तरह तुम असली बातों को छिपाते हो, उसी तरह हम भी छिपावेंगे।
अभी भैरोंसिंह इस बात का जवाब सोच ही रहा था कि सामने से एक औरत आती हुई दिखाई पड़ी। तीनों का ध्यान उसी तरफ चला गया। कुछ पास आने और ध्यान देने पर दोनों कुमारों ने उसे पहचान लिया कि इसे हम इस बाग में आने के पहले इन्द्रानी और आनन्दी के साथ नहर के किनारे देख चुके हैं।
आनन्दसिंह––यह भी उन्हीं औरतों में से एक है जिन्हें हम लोग इन्द्रानी और आनन्दी के साथ पहले बाग में नहर के किनारे देख चुके हैं!
इन्द्रजीतसिंह––बेशक, मगर सब-की-सब एक ही खानदान की मालूम पड़ती हैं यद्यपि उम्र में इन सभी के वहुत फर्क नहीं है।
आनन्दसिंह––देखना चाहिए, यह क्या सन्देशा लाती है।
इतने में वह औरत कुमार के पास आ पहुँची और हाथ जोड़कर दोनों कुमारों की तरफ देखती हुई बोली, "इन्द्रानी और आनन्दी ने हाथ जोड़कर आप दोनों से इस बात की माफी माँगी है कि अब वे दोनों आप लोगों के सामने हाजिर नहीं हो सकती।"
इन्द्रजीतसिंह––(ताज्जुब से) सो क्यों?
औरत––उन्हें इस बात का बहुत रंज है कि वे आप लोगों की खातिरदारी अच्छी तरह से न कर सकी और उनके गुरु महाराज ने उन्हें आप लोगों का सामना करने से रोक दिया।
इन्द्रजीतसिंह––आखिर इसका कोई सबब भी है?
औरत––इसके सिवाय तो और कोई सबब नहीं जान पड़ता कि उन दोनों की शादी आप दोनों भाइयों के साथ होने वाली है।
इन्द्रजीतसिंह––(ताज्जुब के साथ) मुझसे और आनन्द से?
औरत––जी हाँ।
इन्द्रजीतसिंह––हमारे या हमारे बुजुर्गों की इच्छा के बिना ही।
औरत––जी हाँ।
इन्द्रजीतसिंह––चाहे हम लोग राजी हों या न हों?
औरत––जी हाँ।
इन्द्रजीतसिंह––तब तो यह खांसी जबर्दस्ती है!
औरत––जी हाँ।
इन्द्रजीतसिंह––क्या उनके गुरु महाराज में इतनी सामर्थ्य है कि अपनी इच्छानुसार हम लोगों के साथ बर्ताव करें?
औरत––जी हाँ।
इन्द्रजीतसिंह––(झुँझलाकर) कभी नहीं, कदापि नहीं!
आनन्दसिंह––ऐसा हो ही नहीं सकता! (औरत से, जो जाने के लिए अपना मुँह फेर चुकी थी) क्या तुम जाती हो?
औरत––जी हाँ।
इन्द्रजीतसिंह––बस, इतना ही कहने के लिए आई थीं?
औरत––जी हाँ।
इन्द्रजीतसिंह––क्या भेजने वालों ने तुम्हें कह दिया था कि 'जी हाँ' के सिवाय और कुछ मत बोलना?
औरत––जी हाँ।
इन्द्रजीतसिंह की झुँझलाहट देखकर उस औरत को भी हँसी आ गई और वह मुस्कुराती हुई जिधर से आई थी उधर ही चली गई तथा थोड़ी दूर जाकर नजरों से गायब हो गई। तब भैरोंसिंह ने दिल्लगी के तौर पर कुमार से कहा, "आप लोगों की खुशकिस्मती का कोई ठिकाना है! रम्भा और उर्वशी के समान औरतें जबर्दस्ती आप लोगों के गले मढ़ी जाती हैं, तिस पर मजा यह कि आप लोग नखरा करते हैं। ऐसा ही है तो मुझे कहिए मैं आपकी सूरत बनकर व्याह कर लूँ।
इन्द्रजीतसिंह––तब कमला किसके नाम की हाँडी चढ़ावेगी?
भैरोंसिंह––अजी कमला से क्या जाने कब मुलाकात हो और क्या हो! यह तो परोसी हुई थाली ठहरी।
इन्द्रजीतसिंह––ठीक है मगर भैरोंसिंह, जहाँ तक मेरा खयाल है, मैं समझता हूँ कि तुम्हें इस ब्याह-शादी वाले मामले की कुछ-न-कुछ खबर जरूर है। भैरोंसिंह––अगर खबर हो भी तो अब मैं कुछ कहने का साहस नहीं कर सकता
आनन्दसिंह––सो क्यों?
भैरोंसिंह––इसलिए कि आप लोग मुझे झूठा समझ चुके हैं।
इन्द्रजीतसिंह––सो तो जरूर है।
भैरोंसिंह––(चिढ़कर) अगर ऐसा ही खयाल है तो अब मैं आप लोगों के साथ रहना भी मुनासिब नहीं समझता।
इन्द्रजीत––मेरी भी यही राय है।
भैरोंसिंह––अच्छा तो (सलाम करता हुआ) जय माया की।
इन्द्रजीतसिंह––जय माया की।
आनन्दसिंह––जय माया की, मगर यह तो मालूम हो कि आप जायँगे कहाँ?
भैरोंसिंह––इससे आपको कोई मतलब नहीं।
इन्द्रजीतसिंह––हाँ साहब, इससे हम लोगों को मतलब नहीं। आप जाइए और जल्द जाइए।
इसके जवाब में भैरोंसिंह ने कुछ भी न कहा और वहाँ से रवाना होकर पूरब तरफ वाली इमारत के नीचे वाली एक कोठरी में घुस गया। इसके बाद मालूम न हुआ कि भैरोंसिंह का क्या हुआ या कहाँ गया। उसके जाने के बाद दोनों कुमार भी धीरे-धीरे उसी कोठरी में चले गए मगर वहाँ भैरोंसिंह दिखाई न पड़ा और न उस कोठरी में से किसी तरफ जाने का रास्ता ही मालूम हुआ।
इन्द्रजीतसिंह––(आनन्द से) क्यों, हम लोगों का खयाल ठीक निकला न!
आनन्दसिंह––निःसन्देह वह झूठा था, अगर ऐसा न होता तो जानकारों की तरह इस कोठरी में घुसकर गायब न हो जाता।
इन्द्रजीतसिंह––बात तो यह है कि तिलिस्म के इस भाग में बहुत समझ-बूझकर काम करना चाहिए जहाँ की आबोहवा अपनों को भी पराया कर देती है।
आनन्दसिंह––मामला तो कुछ ऐसा ही नजर आता है। मेरी राय में तो अब यहाँ चुपचाप बैठना भी व्यर्थ जान पड़ता है। यहाँ से किसी तरफ जाने का उद्योग करना चाहिए।
इन्द्रजीतसिंह––अब आज की रात तो सब करके बिता दो, कल सवेरे कुछ-न-कुछ बन्दोबस्त जरूर करेंगे।
इसके बाद दोनों भाई वहाँ से हटे और टहलते हुए बावली के पास आकर संगमर्मर वाले चबूतरे पर बैठ गए। उसी समय उन्होंने एक आदमी को सामने वाली इमारत के अन्दर से निकलकर अपनी तरफ आते देखा।
यह शख्स वही बुड्ढ़ा दारोगा था जिससे पहले बाग में मुलाकात हा चुकी थी, जिसने नानक को गिरफ्तार किया था और जिसके दिए हुए कमन्द के सहारे दोनों कुमार उस दूसरे बाग में उतर कर इन्द्रानी और आनन्दी से मिले थे।
जब वह कुमार के पास पहुँचा तो साहब-सलामत के बाद कुमारों ने उसे इज्जत के साथ पास बैठाया और यों बातचीत होने लगी इन्द्रजीतसिंह––आज पुनः आपसे मुलाकात होने की आशा तो न थी।
दारोगा––बेशक मुझे भी इस बात का गुमान न था परन्तु एक आवश्यक कार्य के कारण मुझे आप लोगों की सेवा में उपस्थित होना पड़ा। क्षमा कीजिएगा जिस समय आप कमन्द के सहारे उस बाग में उतरे थे उस समय मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि उन औरतों में जिन्हें देखकर आप उस बाग में गए थे, दो औरतें ऐसी हैं जिन्हें और बातों के अतिरिक्त यहाँ की रानी कहलाने की प्रतिष्ठा भी प्राप्त है। जिन्दगी का पिछला भाग इस बुढ़ौती के लिबास में काट रहा हूँ इसलिए आँखों की रोशनी और ताकत ने भी एक तौर पर जवाब ही दे दिया है, इसीलिए मैं उन औरतों को भी पहचान न सका।
इन्द्रजीतसिंह––खैर तो यह बात ही क्या थी जिसके लिए आप माफी मांग रहे हैं और इससे मेरा हर्ज भी क्या हुआ? आप उस काम की फिक्र कीजिए जिसके लिए आपको यहाँ आने की तकलीफ उठानी पड़ी।
दारोगा––इस समय वे ही दोनों, अर्थात् इन्द्रानी और आनन्दी, मेरे यहाँ आने का सबब हुई हैं। मैं आपके पास इस बात की इतिला करने के लिए भेजा गया हूँ कि परसों उन दोनों औरतों की शादी आप दोनों भाइयों के साथ होने वाली है, आशा है कि आप दोनों भाई इसे स्वीकार करेंगे।
इन्द्रजीतसिंह––मैं अफसोस के साथ यह जवाब देने पर मजबूर हूँ कि हम लोग इस शादी को मंजूर नहीं कर सकते और इसके कई सबब हैं।
दारोगा––ठीक है, मुझे भी पहले-पहले यही जवाब सुनने की आशा थी, मगर मैं आपको अपनी तरफ से भी नेकनीयती के साथ यह राय दूँगा कि आप इस शादी से इनकार न करें और मुझे उन सब बातों के कहने का मौका न दें जिन्हें लाचारी की हालत में निवेदन करके समझाना पड़ेगा कि आप इस शादी से इनकार नहीं कर सकते, बाकी रही यह बात कि इनकार करने के कई सबब हैं, सो यद्यपि मैं उन कारणों के जानने का दावा तो नहीं कर सकता मगर इतना तो जरूर कह सकता हूँ कि सबसे बड़ा सबब जो है वह केवल मुझी को नहीं बल्कि सभी को यहाँ तक कि इन्द्रानी और आनन्दी को भी मालूम है। परन्तु मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि किशोरी और कामिनी को भी इस शादी से किसी तरह का दुःख न होगा, क्योंकि उन्हें इस बात की पूरी-पूरी खबर है कि यह शादी ही आपकी और उनकी मुलाकात का सबब होगी, बिना इस शादी के हुए वे आपको और आप उन्हें देख भी नहीं सकते।
इन्द्रजीतसिंह––मैं आपकी बातों पर विश्वास करने की कोशिश करूँगा, परन्तु और सब बातों को किनारे रखकर मैं आपसे यह पूछता हूँ कि यह शादी किस रीति के अनुसार हो रही है? विवाह के आठ प्रकार शास्त्र ने कहे हैं, यह उनमें से कौन सा प्रकार है और ऐसी शादी का नतीजा क्या निकलेगा। यद्यपि इसमें मेरी कुछ हानि नहीं हो सकती परन्तु मेरी अनिच्छा के कारण जो कुछ हानि हो सकती है इसका विचार लड़की वाले के सिर है।
दारोगा––ठीक है, मगर जहाँ तक मैं सोचता हूँ इन सब बातों पर अच्छी तरद विचार किया जा चुका है और ज्योतिषी ने भी निश्चय दिला दिया है कि इस शादी का नतीजा दोनों तरफ बहुत अच्छा निकलेगा। यद्यपि आप इस समय प्रसन्न नहीं होते परन्तु अन्त में बहुत ही प्रसन्न होंगे। अच्छा इस समय तो मैं जाता हूँ क्योंकि मैं केवल इत्तिला करने के लिए आया था वाद-विवाद करने के लिए नहीं, परन्तु इसका जवाब पाने के लिए कल प्रातःकाल अवश्य आऊँगा।
इतना कहकर दारोगा उठ खड़ा हुआ और जावब का इन्तजार कुछ भी न करके जिधर से आया था उधर ही चला गया। उसके जाने के बाद कुछ देर तक तो दोनों भाई उसी जगह बातचीत करते रहे और इसके बाद जरूरी कामों से छुट्टी पाकर और उसी बावली पर संन्ध्या-वन्दन कर पुनः उस कमरे में चले आये जिसमें दोपहर तक बिता चुके थे। इस समय संध्या हो चुकी थी और कुमारों को यह देखकर ताज्जुब हो रहा था कि उस कमरे में रोशनी हो चुकी थी मगर किसी गैर की सूरत दिखाई नहीं पड़ती थी।
कुमार को उस कमरे में गए बहुत देर न हुई होगी कि इन्द्रानी और आनन्दी वहाँ आ पहुँचीं जिन्हें देख कुमार बहुत खुश हुए और इन्द्रजीतसिंह ने इन्द्रानी से कहा, "तुमने तो कहला भेजा था कि अब मैं मुलाकात नहीं कर सकती!"
इन्द्रानी––बेशक बात ऐसी ही है, मगर मैं छिप कर आपसे कुछ कहने के लिए आई हूँ।
इन्द्रजीतसिंह––वह कौन सी बात है जिसने तुम्हें छिप कर यहाँ आने के लिए मजबूर किया और वह कौन सा कसूर है जिसने मुझे तुम्हारा मेहमान···
इन्द्रानी––(बात काट कर और मुस्कुरा कर) मैं आपकी सब बातों का जवाब दूँगी, आप मेहरबानी करके जरा मेरे साथ इस दूसरे कमरे में आइये।
इन्द्रजीतसिंह––क्या मेरी चिट्ठी का जवाब भी लाई हो?
इन्द्रानी––जी हाँ, जवाब की चिट्ठी भी इसी समय आपको दूँगी। (इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को उठते देखकर आनन्दसिंह से) आप इसी जगह ठहरिये, (आनन्द से) तू भी इसी जगह ठहर, मैं अभी आती हूँ।
इन्द्रजीतसिंह यद्यपि इन्द्रानी के साथ शादी करने से इनकार करते थे, मगर इन्द्रानी और आनन्दी की खूबसूरती, बुद्धिमानी, सभ्यता और उनकी मीठी बातें इस योग्य न थीं कि कुमार के दिल पर गहरा असर न करतीं और सामना होने पर उन्हें अपनी तरफ न खींचतीं। इन्द्रजीतसिंह इन्द्रानी की बात से इनकार न कर सके और खुशी-खुशी उसके साथ दूसरे कमरे में चले गये।
हम नहीं कह सकते कि इन्द्रजीतसिंह और इन्द्रानी में दो घण्टे तक क्या बातें हुईं और इधर आनन्दसिंह और आनन्दी में कैसी ठहरी, मगर इतना जरूर कहेंगे कि जब इन्द्रजीतसिंह और इन्द्रानी दोनों आदमी लौटकर कमरे में आये तो बहुत खुश थे और इसी तरह आनन्दी और आनन्दसिंह के चेहरे पर भी खुशी की निशानी पाई जाती थी। इन्द्रानी और आनन्दी के चले जाने-बाद कई औरतें खाने पीने का सामान लेकर हाजिर हुईं और दोनों भाई भोजन करके सो रहे। सुबह को जब वह दारोगा अपनी बातों का जवाब लेने के लिए आया तो दोनों कुमार उससे खुशी-खुशी मिले और बोले कि हम दोनों भाइयों को इन्द्रानी और आनन्दी के साथ व्याह करना स्वीकार है।
- ↑ देखिए सत्रहवाँ भाग चौदहवाँ बयान।