चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.4
4
कैद से छूटने के बाद लीला को साथ लिए हुए मायारानी ऐसी भागी कि उसने पीछे की तरफ फिर के भी नहीं देखा। आँधी और पानी के कारण उन दोनों को भागने में बड़ी तकलीफ हुई, कई दफा वे दोनों गिरी और चोट भी लगी, मगर प्यारी जान को बचा कर ले भागने के खयाल ने उन्हें किसी तरह दम न लेने दिया। दो घण्टे के बाद आँधी-पानी का जोर जाता रहा, आसमान साफ हो गया और चन्द्रमा भी निकल आया, उस समय उन दोनों को भागने में सुभीता हुआ और सवेरा होने तक ये दोनों बहुत दूर निकल गई।
मायारानी यद्यपि खूबसूरत थी नाजुक थी, और परले सिरे की अमीरी कर चुकी थी मगर इस समय ये सब बातें हवा हो गई। पैरों में छाले पड़ जाने पर भी उसने भागने में कसर न की और सवेरा हो जाने पर भी दम न लिया, बराबर भागती ही चली गई। दूसरा दिन भी उसके लिए बहुत अच्छा था, आसमान पर बदली छाई हुई थी और धूप को जमीन तक पहुँचने का मौका नहीं मिला था। अब मायारानी बातचीत करती हुई और पिछली बातें लीला को सुनाती हुई रुक कर चलने लगी। थोड़ी दूर जाती फिर जरा दम ले लेती, पुनः उठकर चलती और कुछ देर बाद दम लेने के लिए बैठ जाती। इसी तरह दूसरा दिन भी मायारानी ने सफर ही में बिता दिया और खाने-पीने की कुछ विशेष परवाह न की। संध्या होने के कुछ पहले वे दोनों एक पहाड़ी की तराई में पहुंची जहां साफ पानी का सुन्दर चश्मा बह रहा था और जंगली बेर तथा मकोय के पेड़ भी बहुतायत से थे। वहाँ पर लीला ने मायारानी से कहा कि अब डरने तथा चलते-चलते जान देने की कोई जरूरत नहीं। अब हम लोग बहुत दूर निकल आये हैं और ऐसे रास्ते से आये हैं कि जिधर से किसी मुसाफिर की आमद-रफ्त नहीं होती अतः अब हम को बेफिक्री के साथ आराम करना चाहिए। यह जगह इस लायक है कि हम लोग खा पीकर अपनी आत्मा को सन्तोष दे लें और अपनी-अपनी सूरतें भी अच्छी तरह बदल कर पहचाने जाने का खटका मिटा लें!"
लीला की बात मायारानी ने स्वीकार की और चश्मे के पानी से हाथ-मुँह धोने और जरा दम लेने के बाद सबके पहले सूरत बदलने का बन्दोबस्त करने लगी क्योंकि दिन नाममात्र को रह गया था और रात हो जाने पर बिना रोशनी के सहारे यह काम अच्छी तरह नहीं हो सकता था।
सुरत––शक्ल के हेर-फेर से छुट्टी पाने के बाद दोनों ने जंगली बेर और मकोय को अच्छे-से-अच्छा मेवा समझकर भोजन किया और चश्मे का जल पीकर आत्मा को संतोष दिया, तब निश्चिन्त होकर बैठी और यों बातचीत करने लगीं––
मायारानी––अब जरा जी ठिकाने हुआ, मगर शरीर चूर-चूर हो गया है। खैर, किसी तरह तेरी बदौलत जान बच गई, नहीं तो मैं हर तरह से नाउम्मीद हो चुकी थी और राह देखती थी कि मेरी जान किस तरह ली जाती है। लीला––चाहे तुम्हारे सारे नौकर-चाकर तुम्हारे अहसानों को भूल जायें और तुम्हारे नमक का खयाल न करें मगर मैं कब ऐसा कर सकती हूँ! मुझे दुनिया में तुम्हारे बिना चैन कब पड़ सकता है, जब तक तुम्हें कैद से छुड़ा न लिया, अन्न का दाना मुँह में न डाला बल्कि अभी तक जंगली बेर और मकोय पर ही गुजारा कर रही हूँ!
मायारानी––शाबाश! मैं तुम्हारे इस अहसान को जन्म भर नहीं भूल सकती, जिस तरह आप रहूँगी उसी तरह तुम्हें भी रक्खूँगी। यह जान तुमने बचाई है इसलिए जब तक इस दुनिया में रहूँगी इस जान का मालिक तुम्हीं को समझेंगी।
लीला––(तिलिस्मी तमंचा और गोली मायारानी के सामने रख कर) यह अपनी अमानत आप लीजिए और अब इसे अपने पास रखिये, इसने बड़ा काम किया।
मायारानी––(तमंचा उठा कर और थोड़ी-सी गोलियाँ लीला को देकर) इन गोलियों को अपने पास रक्खो, बिना तमंचे के भी ये बड़ा काम देंगी। जिस तरफ फेंक दोगी या जहाँ जमीन पर पटकोगी उसी जगह ये अपना गुण दिखलावेंगी।
लीला––(गोलियाँ रख कर) बेशक ये बड़े वक्त पर काम देती हैं। अच्छा, यह कहिये कि अब हम लोगों को क्या करना और कहाँ जाना चाहिए?
मायारानी––इसका जवाब भी तुम्हीं बहुत अच्छा दे सकती हो, मैं केवल इतना ही कहूँगी कि गोपालसिंह और कमलिनी को इस दुनिया से उठा देना सबसे पहला और जरूरी काम समझना चाहिए। किशोरी, कामिनी और कमला को मारकर मनोरमा ने कुछ भी न किया, उतनी ही मेहनत अगर गोपालसिंह और कमलिनी को मारने के लिए करती तो इस समय मैं पुनः तिलिस्म की रानी कहलाने लायक हो सकती थी।
लीला––ठीक है मगर मुझे... (कुछ रुक कर) देखो तो, वह कौन सवार जा रहा है! मुझे तो उस छोकरे रामदीन की छटा मालूम पड़ती है। यह पंचकल्यान मुश्की घोड़ी भी अपने ही अस्तबल की मालूम पड़ती है बल्कि...
मायारानी––(गौर से देखकर) यह वही घोड़ी है जिस पर मैं सवार हुआ करती थी, और बेशक वह सवार भी रामदीन ही है। उसे पकड़ो तो गोपालसिंह का ठीक हाल मालूम हो।
लीला––पकड़ना तो कोई कठिन काम नहीं है क्योंकि तिलिस्मी तमंचा तुम्हारे पास मौजूद है, मगर यह कम्बख्त कुछ बताने वाला नहीं है।
मायारानी––खैर जो हो, मैं गोली चलाती हूँ।
इतना कहकर मायारानी ने फुर्ती से तिलिस्मी तमंचे में गोली भर कर सवार की तरफ चलाई। गोली घोड़ी को गर्दन में लगी और तुरन्त फट गई, घोड़ी भड़की और उछली-कूदी मगर गोली से निकले हुए बेहोशी के धुएँ ने अपना असर करने में उससे भी ज्यादा तेजी और फुर्ती दिखाई। घोड़ी और सवार दोनों ही पर बेहोशी का असर हो गया। सवार जमीन पर गिर पड़ा और दो कदम आगे बढ़कर घोड़ी भी लेट गई। मायारानी और लीला ने दूर से यह तमाशा देखा और दौड़ती हुईं सवार के पास पहुँची।
लीला––पहसे इसकी मुश्कें बाँधनी चाहिए। मायारानी––क्या जरूरत है?
लीला––क्यों, फिर इसे बेहोश किस लिए किया?
मायारानी––तुम खुद ही कह चुकी हो कि यह कुछ बताने वाला नहीं है, फिर मुश्कें बाँधने से मतलब?
लीला––आखिर फिर किया क्या जायगा?
मायारानी––पहले तुम इसकी तलाशी ले लो, फिर जो कुछ करना होगा, मैं तुम्हें बताऊँगी।
लीला––बहुत खूब, यह तुमने ठीक कहा
इस समय संध्या पूरे तौर पर हो चुकी थी, परन्तु चन्द्रदेव के दर्शन हो रहे थे, इसलिए यह नहीं कह सकते कि अन्धकार पल-पल में बढ़ता जाता था। लीला उस सवार की तलाशी लेने लगी और पहली ही दफा जेब में हाथ डालने से उसे दो चीजें मिलीं। एक तो हीरे की कीमती अँगूठी जिस पर राजा गोपालसिंह का नाम खुदा हुआ था और दूसरी चीज एक चिट्ठी थी जो लिफाफे के तौर पर लपेटी हुई थी।
चाहे अन्धकार न हो मगर चिट्ठी और अँगूठी पर खुदे हुए नाम को पढ़ने के लिए रोशनी की जरूरत थी और जब तक चिट्ठी का हाल मालूम न हो जाय तब तक कुछ काम करना या आगे तलाशी लेना उन दोनों को मंजूर न था, अतः लीला ने अपने ऐयारी के बटुए में से सामान निकाल कर रोशनी पैदा की और मायारानी ने सबसे पहले अँगूठी पर निगाह दौड़ाई। अँगूठी पर 'श्रीगोपाल' खुदा हुआ देख उसके रोंगटे खड़े हो गये फिर भी अपनी नबीयत सम्हाल कर वह चिट्ठी पढ़नी पड़ी। चिट्ठी में यह लिखा हुआ था––
"बेनीराम जोग लिखी गोपालसिंह––
आज हमने अपना पर्दा खोल दिया, कृष्ण जिन्न के नाम का अन्त हो गया, जिनके लिए यह स्वांग रचा गया था, उन्हें मालूम हो गया कि गोपालसिंह और कृष्ण जिन्न में कोई भी भेद नहीं है, अतः अब हमने काम-काज के लिए इस छोकरे को अपनी अँगूठी देकर विश्वास का पात्र बनाया है। जब तक यह अँगूठी इसके पास रहेगी तब तक इसका हुक्म हमारे हुक्म के बराबर सभी को मानना होगा। इसका बन्दोबस्त कर देना और दो सौ सवार तथा चार रथ बहुत जल्द पिपलिया घाटी में भेज देना। हम किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी और कमलिनी वगैरह को लेकर आ रहे हैं। थोड़ा-सा जलपान का सामान उम्दा अलग भेजना। परसों रविवार की शाम तक हम लोग वहाँ पहुँच जायेंगे।"
इस चिट्ठी ने मायारानी का कलेजा दहला दिया और उसने घबरा कर इसे पढ़ने के लिए लीला के हाथ में दे दिया।
मायारानी––ओफ! मुझे स्वप्न में भी इस बात का गुमान न था कि कि कृष्ण जिन्न वास्तव में गोपालसिंह है! आह, जब मैं पिछली बातें याद करती हूँ तो कलेजा काँप जाता है और मालूम होता है कि गोपालसिंह ने मेरी तरफ से लापरवाही नहीं की बल्कि मुझे बुरी तरह से दुःख देने का इरादा कर लिया था। किशोरी, कामिनी और कमला के बारे में भी...ओफ! बस अब मैं इस जगह दम भर भी नहीं ठहर सकती और ठहरना उचित भी नहीं है।
लीला––बेशक ऐसा ही है, मगर कोई हर्ज नहीं, आज यदि कृष्ण जिन्न का भेद खुल गया है तो यह (अँगूठी और चिट्ठी दिखा कर) चीजें भी बड़ी ही अनूठी मिल गई हैं। तुम बहुत जल्द देखोगी कि इस चिट्ठी और अँगूठी की बदौलत मैं कैसे-कैसे नामी ऐयारों की आँखों में धूल डालती हूँ और गोपालसिंह तथा उसके सहायकों को किस तरह तड़पा कर मारती हूँ। तुम यह भी देखोगी कि तुम्हारे उन लोगों ने जो ऐयारों का बाना पहने हुए थे और नामी ऐयार कहलाते थे, उसका पासंग भी नहीं किया जो मैं अब कर दिखाऊँगी। तो अब यहाँ से चलना चाहिए।
मायारानी––बहुत जल्द ही चलना चाहिए, मगर क्या इस छोकरे को जीता ही छोड़ जाओगी?
लीला––नहीं-नहीं, कदापि नहीं। क्या इसे मैं इसलिए जीता छोड़ जाऊँगी कि यह होश में आकर जमानिया या गोपालसिंह के पास चला जाय और मेरी कार्रवाइयों बट्टा लगाए!
इतना कह कर लीला ने खंजर निकाला और एक ही हाथ में बेचारे रामदीन का सिर काट दिया, तब लाश को उसी तरह छोड़ घोड़ी को होश में लाने का उद्योग करने लगी।
थोड़ी देर में घोड़ी भी चैतन्य हो गयी। उस समय लीला के कहे अनुसार मायारानी उस घोड़ी पर सवार हुई और दोनों ने वहाँ से हटकर एक घने जंगल का रास्ता लिया। लीला घोड़ी की रकाब थामे साथ-साथ बातें करती हुई जाने लगी।
मायारानी––यह मदद मुझे गैब से मिली है। यकायक रामदीन का मिल जाना और उसकी जेब में से अँगूठी तथा चिट्ठी का निकल आना कहे देता है कि मेरे बुरे दिन बहुत जल्द खत्म होना चाहते हैं।
लीला––इसमें क्या शक है! अबकी दफे तो राजा गोपालसिंह सचमुच हमारे कब्जे में आ गये हैं। अफसोस इतना ही है कि हम लोग अकेले हैं, अगर सौ-पचास आदमियों की भी मदद होती तो आज गोपालसिंह तथा किशोरी, लक्ष्मीदेवी और कमलिनी वगैरह को सहज ही में गिरफ्तार कर लेते।
मायारानी––अब उन लोगों को गिरफ्तार करने का खयाल तो बिल्कुल जाने दे और एकदम से उन लोगों को मारकर बखेड़ा निपटा डालने की ही फिक्र कर। इस अँगूठी और चिट्ठी के मिल जाने पर यह काम कोई मुश्किल नहीं है।
लीला––ठीक है, जो कुछ तुम चाहती हो, मैं पहले से समझे बैठी हूँ। मेरा इरादा है कि तुम्हें किसी अच्छी और हिफाजत की जगह पर छोड़कर मैं जमानिया जाऊँ और दीवान साहब से मिलूँ जिनके नाम गोपालसिंह ने यह चिट्ठी लिखी है।
मायारानी––बस, रामदीन छोकरे की सूरत बना ले और इसी घोड़ी पर सवार होकर चिट्ठी लेकर जा। इस चिट्ठी के अलावा भी तू जो कुछ दीवान को कहोगी वह उससे इन्कार न करेगा। गोपालसिंह के लिखे अनुसार जो कुछ खाने-पीने की चीजें तू लेकर उस घाटी की तरफ जायगी, उसमें जहर मिला देना तो तेरे लिए कोई मुश्किल न होगा और इस तरह एक साथ ही कई दुश्मनों को सफाई हो जायगी, मगर इसमें भी मुझे एक बात का खुटका होता है।
लीला––वह क्या?
मायारानी––जिस वक्त से मुझे यह मालूम हुआ है कि गोपालसिंह ही ने कृष्ण जिन्न का रूप धारण किया था, उस वक्त से मैं उसे बहुत ही चालाक और धूर्त ऐयार समझने लग गई हूँ। ताज्जुब नहीं कि वह तेरा भेद मालूम कर ले या वे खाने-पीने की चीजें, जो उसने मँगाई हैं, उनमें से स्वयं कुछ भी न खाय।
लीला––यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है। मेरा दिल भी यही कहता है कि उसने खाने-पीने का बहुत बड़ा ध्यान रखा होगा, सिवाय अपने हाथ के और किसी का बनाया कदापि न खाता होगा, क्योंकि वह तकलीफें उठा चुका है, अब उसे धोखा देना जरा टेढ़ी खीर है, मगर फिर भी तुम देखोगी कि इस अँगूठी की बदौलत मैं उसे कैसा धोखा देती हूँ और किस तरह अपने पंजे में फँसाती हूँ।
मायारानी––खैर, जो मुनासिब समझे, मगर इसमें तो कोई शक नहीं कि रामदीन छोकरे की सूरत बनाकर और घोड़ी पर सवार होकर तू दीवान साहब के पास जायगी।
लीला––मैं जाऊँगी और जरूर जाऊँगी। नहीं तो इस अँगूठी और चिट्ठी के मिलने का फायदा ही क्या हुआ! बस, तुम्हें किसी अच्छे ठिकाने पर रख देने भर की देर है।
मायारानी––मगर मैं एक बात और कहना चाहती हूँ।
लीला––वह क्या!
मायारानी––मैं इस समय बिल्कुल कंगाल हो रही हूँ और ऐसे मौके पर रुपये की बड़ी जरूरत है। इसलिए मैं चाहती हूँ कि दीवान साहब के पास तुझे न भेजकर खुद ही जाऊँ और किसी तरह तिलिस्मी बाग में घुसकर कुछ जवाहरात और सोना जहाँ तक ला सकूँ ले आऊँ, क्योंकि मुझे वहाँ के खजाने का हाल मालूम है और यह काम तेरे किये नहीं हो सकता, जब मुझे रुपये की मदद मिल जायगी, तो कुछ सिपाहियों का भी बन्दोबस्त कर सकूँगी और...
लीला––यह सब कुछ ठीक है, मगर मैं तुम्हें दीवान साहब के पास कदापि न जाने दूँगी। कौन ठिकाना कही तुम गिरफ्तार हो जाओ तो फिर मेरे किए कुछ भी न हो सकेगा। बाकी रही रुपये-पैसे वाली बात, सो इसके लिए तरद्दुद करना वृथा है, क्या यह नहीं हो सकता कि जब मैं दीवान साहब के पास जाऊँ और सवारी इत्यादि तथा खाने-पीने की चीजें लूँ, तो एक रथ पर थोड़ी सी अशर्फियाँ और कुछ जवाहिरात भी रख देने के लिए कहूँ? क्या वह इस अँगूठी के प्रताप से मेरी बात न मानेगा? और अगर अशफियों और जवाहरात का बन्दोबस्त कर देगा तो क्या मैं उन्हें रास्ते में से गुम नहीं कर सकती? इसे भी जाने दो, अगर तुम पता-ठिकाना ठीक-ठीक बताओ तो क्या मैं तिलिस्मी बाग में जाकर जवाहरात और अशफियों को कहीं निकाल ला सकती? मायारानी––निकाल ला सकती है और दीवान साहब से भी जो कुछ माँगेगी, सम्भव है कि बिना कुछ विचारे दे दें, मगर इसमें भी मुझे दो बातों की कठिनाई मालूम पड़ती है।
लीला––वह क्या?
मायारानी––एक तो दीवान साहब के पास अन्दाज से ज्यादा रुपये-अशफियों की तहवील नहीं रहती और जवाहरात तो बिल्कुल ही उसके पास नहीं रहते, शायद आज कल गोपालसिंह के हुक्म से रहता हो, मगर मुझे उम्मीद नहीं है, अब जो चीज तू उससे माँगेगी, वह अगर उसके पास न हुई तो उसे तुझ पर शक करने की जगह मिलेगी और ताज्जुब नहीं कि काम में विघ्न पड़ जाय।
लीला––अगर ऐसा है तो जरूर खुटके की बात है, अच्छा दूसरी बात क्या है?
मायारानी––दूसरे यह कि तिलिस्मी बाग के खजाने में घुसकर वहाँ से कुछ निकाल लाना, नये आदमी का काम नहीं है। खैर, मैं तुझे रास्ता बता दूँगी, फिर जो कुछ करते बने, तू कर लेना।
लीला––खैर, जैसा होगा देखा जायगा, मगर मैं यह रांय कभी नहीं दे सकती कि साहब के सामने या खास बाग में जाओ, ज्यादा नहीं तो थोड़ा-बहुत मैं ले ही आऊँगी।
मायारान––अच्छा, यह बता कि मुझे कहाँ छोड़ जायगी और तेरे जाने मैं क्या करूँगी?
लीला––इतनी जल्दी में कोई अच्छी जगह तो मिलती नहीं, किसी पहाड़ कन्दरा में दो दिन गुजारा करो और चुपचाप बैठी रहो, इसी बीच में मैं अपना काम करके लौट आऊँगी। मुझे जमानिया जाने में अगर देर हो जायगी तो काम चौपट हो जायगा। ताज्जुब नहीं कि देर हो जाने के कारण गोपालसिंह किसी दूसरे को भेज दें और अँगूठी का भेद खुल जाय।
इत्तिफाक अजब चीज है। उसने यहाँ भी एक बेढब सामान खड़ा कर दिया। इत्तिफाक से लीला और मायारानी भी उसी जंगल में जा पहुँची जिसमें माधवी और भीमसेन का मिलाप हुआ था और वे लोग अभी तक वहाँ टिके हुए थे