चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.2
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पाठकों को मालूम है कि शिवदत्त और कल्याणसिंह ने जब रोहतासगढ़ पर चढ़ाई की थी तब उनके साथ मनोरमा और माधवी मौजूद थीं। भूतनाथ और सरयूसिंह ने शिवदत्त और कल्याणसिंह को डरा-धमकाकर मनोरमा को तो गिरफ्तार कर लिया[१] परन्तु माधवी कहाँ गई या क्या हुई, इसका हाल कुछ लिखा नहीं गया, अस्तु अब हम थोड़ा-सा हाल माधवी का लिखना उचित समझते हैं।
जिस जमाने में माधवी गया और राजगृह की रानी कहलाती थी, उस जमाने उसका राज्य केवल तीन आदमियों के भरोसे पर चलता था। एक दीवान अग्निदत्त, दूसरा कोतवाल धरमसिंह और तीसरा सेनापति कुबेरसिंह। बस यही तीनों उसके राज्य का आनन्द लेते थे और इन्हीं तीनों का माधवी को भरोसा था। यद्यपि ये तीनों ही माधवी की चाह में डूबने वाले थे मगर कुबेरसिंह और धरमसिंह प्यासे ही रह गये जिसका उन दोनों को बराबर बहुत ही रंज बना रहा।
जब राजगृह और गया की किस्मत ने पलटा खाया, तब धर्मसिंह कोतवाल को तो चपला ने माधवी की सूरत बना और धोखा दे गिरफ्तार कर लिया, और दीवान अग्निदत्त बहुत दिनों तक बचा रह कर अन्त में किशोरी के कारण एक खोह के अन्दर मारा गया, परन्तु अभी तक यह न मालूम हुआ कि उसके मर जाने का सबब क्या था। हाँ सेनापति कुबेरसिंह जिसने माधवी के राज्य में सबसे ज्यादा दौलत पैदा की थी, रह गया क्योंकि उसने जमाने को पलटा खाते देख चुपचाप अपने घर (मुर्शिदाबाद) का रास्ता लिया मगर माधवी के हाल-चाल की खबर लेता रहा, क्योंकि यद्यपि उसने माधवी का राज्य छोड़ दिया था, मगर माधवी के इश्क ने उसके दिल में से अपना दखल नहीं उठाया था।
माधवी की बिगड़ी हुई अवस्था देखकर भी उसकी मुहब्बत से हाथ न धोने के दो सबब थे एक तो माधवी वास्तव में खूबसूरत हसीन और नाजुक थी, दूसरे राजगृह और गया के राज्य से खारिज हो जाने पर भी वह माधवी को अमीर और बेहिसाब दौलत की मालिक समझता था और इसलिए वह समय पर ध्यान रखकर माधवी के हाल-चाल की बराबर खबर लेता रहा और वक्त पर काम देने के लिए थोड़ी-सी फौज का मालिक भी बना रहा।
मनोरमा के गिरफ्तार हो जाने के बाद शिवदत्त और कल्याणसिंह के साथ जब माधवी रोहतासगढ़ की तराई में पहुँची तो वहाँ एक आदमी ने गुप्त रीति से उसे एक चिट्ठी दी और जल्द उसका जवाब माँगा। यह चिट्ठी कुवेरसिंह की थी और उसमें यह लिखा हुआ था––
"मुझे आपकी अवस्था पर बहुत रंज और अफसोस है। यद्यपि आपकी हालत बदल गई है और आप मुझसे बहुत दूर हैं, मगर मैं अभी तक आपकी खयाली तस्वीर अपने दिल के अन्दर कायम रखकर दिन-रात उसकी पूजा किया करता हूँ। यही सबब है कि बहुत दिनों तक मेहनत करके मैंने इतनी ताकत पैदा कर ली है कि आपकी मदद कर सकूँ और आपको पुनः राजगृह की गद्दी का मालिक बनाऊँ। आप अपने ही दिल से पूछ देखिये कि अग्निदत्त, जिसके साथ आपने सब-कुछ किया, कैसा बेईमान और बेमुरौवत निकला और मैं, जिसे आपने हद से ज्यादा तरसाया कैसी हालत में आपकी मदद करने को तैयार हूँ! यदि आप मुनासिब समझें तो इस आदमी के साथ मेरे पास चलीं आवें या मुझको अपने पास बुला लें। यह आदमी जो चिट्ठी लेकर जाता है मेरा ऐयार है।
आपका––कुबेर।"
माधवी ने उस चिट्ठी को बड़े गौर से दोहरा कर पढ़ा और देर तक तरह-तरह की बातें सोचती रही। हम नहीं जानते कि उसका दिल किन-किन बातों का फैसला करता रहा या वह किस विचार में देर तक डूबी रही, हाँ थोड़ी देर बाद उसने सिर उठा चिट्ठी लाने वाले की तरफ देखा और कहा, "कुबेरसिंह कहाँ पर है?"
ऐयार––यहाँ से थोड़ी दूर पर
माधवी––फिर वह खुद यहाँ क्यों न आया?
ऐयार––इसीलिए कि आप इस समय दूसरों के साथ हैं जिन्होंने आपको न मालूम किस तरह का भरोसा दिया होगा या आप ही ने शायद उनसे किस तरह का इकरार किया हो, ऐसी अवस्था में आपसे दरियाफ्त किये बिना इस लश्कर में आना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा।
माधवी––ठीक है, अच्छा तुम जाकर उसे बहुत जल्द मेरे पास ले आओ। कितनी देर में आओगे?
ऐयार––(सलाम करके) आधे घंटे के अन्दर। वह ऐयार तेजी के साथ दौड़ता हुआ वहाँ से चला गया और माधवी उसी जगह टहलती हुई उसका इन्तजार करने लगी।
दिन आधे घंटे से कुछ ज्यादा बाकी था और इस समय माधवी कुछ खुश मालूम होती थी। शिवदत्त और कल्याणसिंह का लश्कर एक जंगल में छिपा हुआ था और माधवी अपने डेरे से निकल कर सौ सवा सौ कदम की दूरी पर चली गई थी। माधवी कुबेरसिंह के अक्षर अच्छी तरह पहचानती थी इसलिए उसे किसी तरह का धोखा खाने का शक कुछ भी न हुआ और वह बेखौफ उसके आने का इन्तजार करने लगी।
संध्या होने के पहले ही उसी ऐयार को साथ लिए हुए कुबेरसिंह माधवी की तरफ आता दिखाई दिया जो थोड़ी ही देर पहले उसकी चिट्ठी लेकर आया था। उस समय वह ऐयार भी एक घोड़े पर सवार था और कुबेरसिंह अपनी सूरत-शक्ल तथा हैसियत को अच्छी तरह सजाये हुए था। माधवी के पास पहुँच कर दोनों आदमी घोड़े से नीचे उतर पड़े और कुबेरसिंह ने माधवी को सलाम करके कहा, "आज बहुत दिनों के बाद ईश्वर ने मुझे आपसे मिलाया! मुझे इस बात का बहुत रंज है कि आपने लौंडियों के भड़काने पर चुपचाप घर छोड़कर जंगल का रास्ता ले लिया और अपने खैरख्वाह कुबेरसिंह (हम) को याद तक न किया। मैं खूब जानता हूँ कि आपने दीवान अग्निदत्त से डर कर ऐसा किया था मगर उसके बाद भी तो मुझे याद करने का मौका जरूर मिला होगा।"
माधवी––(मुस्कुराती हुई कुबेरसिंह का हाथ पकड़ के) मैं घर से निकलने के बाद ऐसी मुसीबत में पड़ गयी थी कि अपनी भलाई-बुराई पर कुछ भी ध्यान न दे सकी, और जब मैंने सुना कि गया और राजगृह में वीरेन्द्रसिंह का राज्य हो गया तब और भी हताश हो गई, फिर भी मैं अपने उद्योग की बदौलत बहुत-कुछ कर गुजरती, मगर गयाजी में अग्निदत्त की लड़की कामिनी ने मेरे साथ बहुत बुरा बर्ताव किया और मुझे किसी लायक न रक्खा। (अपनी कटी हुई कलाई दिखाकर) यह उसी की बदौलत है।
कुबेरसिंह––वह खानदान का खानदान ही नमकहराम निकला और इसी फेर में अग्निदत्त मारा भी गया।
माधवी––हाँ, उसके मरने का हाल मायारानी की सखी मनोरमा की जुबानी मैंने सुना था। (पीछे की तरफ देखकर) कौन आ रहा है?
कुबेरसिंह––आप ही के लश्कर का कोई आदमी है, शायद आपको बुलाने आता हो, नहीं वह दूसरी तरफ घूम गया, मगर अब आपको कुछ सोच-विचार करना, किसी से मिलना या इस जगह खड़े-खड़े बातों में समय नष्ट न करना चाहिए और यह मौका भी बातचीत करने का नहीं है। आप (घोड़े की तरफ इशारा करके) इस घोड़े पर शीघ्र सवार होकर मेरे साथ चली चलें, मैं आपका ताबेदार सब लायक और सब कुछ करने के लिए तैयार हूँ, फिर किसी की खुशामद की जरूरत ही क्या है? यदि कल्याणसिंह के लश्कर में आपका कुछ असबाब हो तो उसकी परवाह न कीजिए।
माधवी––नहीं, अब मुझे किसी की परवाह नहीं रही, मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ। इतना कहकर माधवी कुबेरसिंह के घोड़े पर सवार हो गई। कुबेरसिंह अपने ऐयार के घोड़े पर सवार हुआ तथा पैदल ऐयार को साथ लिए हुए दोनों एक तरफ को रवाना हुए।
यही सबब था कि शिवदत्त वगैरह के साथ माधवी रोहतासगढ़ के तहखाने में दाखिल नहीं हुई।
- ↑ देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति, चौदहवां भाग, दुसरा बयान।