चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.15
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भैरोंसिंह की बातें सुनकर दोनों कुमार देर तक तरह-तरह की बातें सोचते रहे और तब उन्होंने अपना किस्सा भैरोंसिंह से कह सुनाया। बुढ़िया वाली बात को सुनकर भैरोंसिंह हँस पड़ा और बोला, "मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है कि वह बुढ़िया कौन है और कहाँ है, यदि अब मैं उसे पाऊँ तो जरूर उसकी बदमाशी का मजा उसे चखाऊँ। मगर अफसोस तो यह है कि मेरा ऐयारी का बटुआ मेरे पास नहीं है जिसमें बड़ी-बड़ी अनमोल चीजें थीं। हाय, वे तिलिस्मी फूल भी उसी बटुए में थे जिसके देने से मेरा बाप भी मुझे टाल बताना चाहता था मगर महाराज ने दिलवा दिया। इस समय बटुए का न होना मेरे लिए बड़ा दुखदायी है क्योंकि आप कह रहे हैं कि 'उन लड़कों ने एक तरह की बुकनी उड़ाकर हमें बेहोश कर दिया।' कहिए, अब मैं क्योंकर अपने दिल का हौसला निकाल सकता हूँ?"
इन्द्रजीतसिंह––निःसन्देह उस बटुए का जाना बहुत ही बुरा हुआ। वास्तव में उसमें बड़ी अनूठी चीजें थीं, मगर इस समय उनके लिए अफसोस जाहिर करना फिजूल है। हाँ, इस समय मैं दो चीजों से तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।
भैरोंसिंह––वह क्या?
इन्द्रदेव––एक तो वह दवा हम दोनों के पास मौजूद है जिसके खाने से बेहोशी असर नहीं करती और वह मैं तुम्हें खिला सकता हूँ। दूसरे हम लोगों के पास दो-दो हर्बे मौजूद हैं, बल्कि यदि तुम चाहो तो तिलिस्मी खंजर भी दे सकता हूँ।
भैरोंसिंह––जी नहीं, तिलिस्मी खंजर मैं न लूँगा, क्योंकि आपके पास उसका रहना तब तक बहुत ही जरूरी है जब तक आप तिलिस्म तोड़ने का काम समाप्त न कर लें। मुझे बस मामूली तलवार दे दीजिए, मैं अपना काम उसी से चला लूँगा और वह दवा खिला कर मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं उस बुढ़िया के पास से अपना बटुआ निकालने का उद्योग करूँ।
दोनों कुमारों के पास तिलिस्मी खंजर के अतिरिक्त एक-एक तलवार भी थी। इन्द्रजीतसिंह ने अपनी तलवार भैरोंसिंह को दी और डिबिया में से निकाल कर थोड़ी-सी दवा भी खिलाने के बाद कहा, मैं तुमसे कह चुका हूँ कि जब हम दोनों भाई इस बाग पहुँचे तो चूहेदानी के पल्ले की तरह वह दरवाजा बन्द हो गया जिस राह से हम दोनों आये थे और उस दरवाजे पर लिखा हुआ था कि यह तिलिस्म टूटने लायक नहीं है।
भैरोंसिंह––हाँ, यह आप कह चुके हैं।
आनन्दसिंह––(इन्द्रजीतसिंह से) भैया, मुझे तो उस लिखावट पर विश्वास नहीं होता।
इन्द्रजीतसिंह––यही मैं भी कहने को था क्योंकि रिक्तगंथ की बातों से तिलिस्म का यह हिस्सा भी टूटने योग्य जान पड़ता है, (भैरोंसिंह से) इसी से मैं कहता हूँ कि इस बाग में जरा समझ-बूझ के घूमना।
भैरोंसिंह––खैर, इस समय तो मैं भी आपके साथ-साथ चलता हूँ। चलिए बाहर निकलिए।
आनन्दसिंह––(भैरोंसिंह से) तुम्हें याद है कि तुम ऊपर से उतरकर इस कमरे में किस राह से आए थे?
भैरोंसिंह––मुझे कुछ भी याद नहीं।
इतना कहकर भैरोंसिंह उठ खड़ा हुआ और दोनों कुमार भी उठकर कमरे के बाहर निकलने के लिए तैयार हो गये।